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द्वितीय अध्याय
इह हि - 'उद्योतोद्यवनिर्वाहसिद्धिनिस्तरणैर्भंजन् । भव्यो मुक्तिपथं भाक्तं साधयत्येव वास्तवम् ॥'
वास्तवमिति पूर्वोक्तम् । तत्रादौ सम्यक्त्वाराधनाप्रक्रमे मुमुक्षूणां स्वसामग्रीतः समुद्भूतमपि सम्यग्दर्शनमासन्नभव्यस्य सिद्धिसंपादनार्थमारोहत्प्रकर्षं चारित्रमपेक्षत इत्याह
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अन्धतमसात् - द्रव्य मिथ्यात्वात् पक्षे दुर्णयविलासितात् मिथ्याभिमानान्वयात् ( - विपरीतलक्षणात् काला दिलब्ध्यवष्टम्भात् ) विपरीताभिनिवेशलक्षणभावमिथ्यात्वेन पक्षे दुरभिनिवेशावष्टम्भरूपायुक्तिप्रणीताहङ्कारेण चानुगम्यमानात् । कालबलात् - उपलक्षणात् कालादिलब्ध्यवष्टम्भात् पक्षे कार्यसिद्धयनुकूलसमय१२ सामर्थ्यात् । निमीलितभवानन्त्यं - तिरस्कृतानन्तसंसारं यथा भवति । तथा चोक्तम्
आसंसारविसारिणोऽन्धतमसान्मिथ्याभिमानान्वया
चच्युत्वा कालबलान्निमीलितभवानस्त्यं पुनस्तद्बलात् । मीलित्वा पुनरुद्गतेन तदपक्षेपादविद्याच्छिदा,
सिद्धये कस्यचिदुच्छ्रयत् स्वमहसा वृत्तं सुहृन्मृग्यते ॥ १ ॥
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' लब्धं मुहूर्तमपि ये परिवर्जयन्ति सम्यक्त्वरत्नमनवद्यपदप्रदायि ।
भ्राम्यन्ति तेऽपि न चिरं भववारिराशौ तद्बिभ्रतां चिरतरं किमिहास्ति वाच्यम् ॥' [ अमित श्रा. २८६ ]
पहले कहा था कि उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरणके द्वारा निश्चय मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है । यहाँ चार आराधनाओं में से सम्यक्त्व आराधनाका प्रकरण है । उसको प्रारम्भ करते हुए कहते हैं कि मुमुक्षु जीवोंके अपनी सामग्रीसे उत्पन्न हुआ भी सम्यग्दर्शन निकट भव्यकी मुक्ति के लिए उत्तरोत्तर उन्नतिशील चारित्रकी अपेक्षा करता है
समस्त संसार में मिथ्या अभिप्रायको फैलानेवाले और विपरीत अभिप्राय रूप भाव मिथ्यात्व जिसका अनुगमन करता है ऐसे द्रव्य मिथ्यात्वसे किसी प्रकार कालादिलब्धि के बलसे छूटकर अनादि मिध्यादृष्टि भव्य संसारकी अनन्तताका अन्त करके अपने संसारको सान्त बनाता है । पुनः उसी अनादिकालसे चले आते हुए मिथ्यात्वकी शक्तिसे उसका सम्यदर्शन लुप्त हो जाता है । पुनः किसी निकट भव्यके उस मिध्यात्वरूपी अन्धकारका विनाश होनेसे कुमति, कुश्रुत और कुअवधिरूप अथवा मोह-संशय और विपर्ययरूप अज्ञानका छेदन करनेवाले सम्यग्दर्शनका उदय होता है । किन्तु सम्यग्दर्शनरूपी अपने तेजसे ऊँचा उठता हुआ निकट भव्य स्वात्माकी उपलब्धिके लिए अपने मित्र चारित्रकी अपेक्षा करता है ॥१॥
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