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धर्मामृत (अनगार)
मलिन हो रहे हैं । वह चारित्ररूप धर्मको धारण करके जब निर्मल होता है तो उसके सभी स्वाभाविक गुण शुद्ध स्वर्णके समान चमक उठते हैं । उसका यह अपने स्वभावको प्राप्त कर लेना ही वास्तव में धर्म है जो उसमें सदाकाल रहनेवाला है। अतः धर्मका वास्तविक अर्थ वस्तुस्वभाव है। उसीकी प्राप्ति के लिए चारित्ररूप धर्मको धारण किया जाता है। इसीसे स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा धर्मके लक्षणोंका संग्रह करते हुए उसे प्रथम स्थान दिया है । यथा
धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणस्तयं च धम्मो जीवाणं रक्सणं धम्मो ||४७८ ||
वस्तुका स्वभाव धर्म है । उत्तम क्षमादिरूप भाव दस भेदरूप धर्म है । रत्नत्रय धर्म है और जीवोंकी रक्षा करना धर्म है । इन चारोंमें धर्मके सब जिनागमसम्मत्त अर्थोका समावेश हो जाता है । जिनागम में धर्मका अर्थ, वस्तुस्वभाव, उत्तम क्षमा आदि दस धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय और अहिंसा अभीष्ट है ।
३. धर्म अमृत है
अमृतके विषय में ऐसी किवदन्ती है कि वह अमरता प्रदान करता है। अमृतका अर्थ भी अमरतासे सम्बद्ध है । अमृत नामकी कोई ऐसी वस्तु कभी थी जिसके सेवनसे अमरता प्राप्त होती थी, यह तो सन्दिग्ध है | क्योंकि संसारकी चार गतियोंमें अमरताका अभाव है । देवोंका एक नाम अमर भी है । किन्तु देव भी सदा अमर नहीं हैं । यतः मनुष्य मरणधर्मा है अतः प्राचीन कालसे ही उसे अमरत्व प्राप्तिकी जिज्ञासा रही है ।
कठोपनिषद् में एक उपाख्यान है। नचिकेता नामका एक बालक मृत्युके देवता यमराजसे जिज्ञासा करता है कि मरे हुए मनुष्य के विषय में कोई तो कहते हैं कि वह रहता है और कोई कहते हैं 'नहीं रहता' अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धिसे अतिरिक्त आत्मा है या नहीं ? यह बतलायें यमराज नचिकेताको संसारके भोगोंका प्रलोभन देकर उसे अपनी जिज्ञासासे विरत करते हैं। किन्तु नचिकेता उत्तर देता है - है यमराज ! ये भोग तो 'कल रहेंगे या नहीं' इस प्रकारके हैं । ये इन्द्रियों के तेजको क्षीण करनेवाले हैं । यह जीवन तो बहुत थोड़ा है। आपके भोग आपके ही पास रहें उनकी मुझे आवश्यकता नहीं है। हे यमराज, जिसके सम्बन्ध में लोग 'है या नहीं' यह सन्देह करते हैं उसे ही कहिए ।
इस तरह विवेकशील मनुष्य इस मरणधर्मा जीवनके रहस्यको जाननेके लिए उत्कण्ठित रहे हैं और उन्होंने अपने अनुभवोंके आधारपर लोक और परलोकके विषयमें अनुसन्धान किये हैं और उनके उन अनुसन्धानोंका फल ही धर्म है । किन्तु धर्मके रूपमें विविधताने मनुष्यको सन्देह में डाल दिया है । यद्यपि इस विषय में अनुसन्धान करनेवाले परलोकके अस्तित्व और आत्माके अमरत्व के विषय में प्रायः एकमत हैं, केवल एक चार्वाक दर्शन ही परलोक और परलोकीको नहीं मानता। शेष सभी भारतीय दर्शन किसी न किसी रूपमें उन्हें स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं कि अमुक मार्गका अवलम्बन करनेसे चक्रसे छुटकारा पाकर शाश्वत दशाको प्राप्त करता है। वह मार्ग ही धर्म कहा जाता है आचरणसे अमरत्व प्राप्त होता है अतः धर्म अमृत कहा जाता है उसे पीकर प्राणी सचमुचमें अमर हो जाता है। यह प्रत्येक अनुसन्धाता या धर्मके आविष्कर्ताका विश्वास | किन्तु धर्मके स्वरूप में तो विवाद है ही। तत्वार्थ सूत्र के प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको एकता मोक्षका मार्ग है' की उत्थानिकामें भट्टाकलंकदेवने जो कथन किया है उसे यहाँ देना उचित होगा। वह कहते हैं कि यह तो प्रसिद्ध है कि एक जानने-देखनेवाला आत्मा है और वह अपने कल्याणमें लगना चाहता है अतः उसे कल्याण या मोक्षके मार्गको जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। दूसरी बात यह है कि संसारी पुरुषके सब पुरुषार्थों में मोक्ष प्रधान है। और
आत्मा जन्ममरणके और चूंकि उस धर्मके
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