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________________ धर्मामृत ( अनगार) अयनं-मार्गः। इतरत्-व्यवहाररूपमपूर्ण च। तद्वयत्ययात्-मिथ्यादर्शनादित्रयात् । तथा चोक्तम् 'रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य ।। आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगस्य सोऽयमपराधः॥' [ पुरुषार्थ. २२० ] क्षय अथवा क्षयोपशमसे होता है । यह आत्माके श्रद्धागुणकी निर्मल पर्याय है। इसीसे इसे आत्माका मिथ्या अभिनिवेशसे शून्य आत्मरूप कहा है। यह चौथे गुणस्थानके साथ प्रकट होता है। किन्तु कहीं-कहीं निश्चय सम्यग्दर्शनको वीतरागचारित्रका अविनाभावी कहा है इसलिए कुछ विद्वान् चतुर्थ गुणस्थानमें निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं मानते। टीकाकार ब्रह्मदेवने परमात्मप्रकाश (२।१७) की टीकामें इसका अच्छा खुलासा किया है । 'आगममें सम्यक्त्वके दो भेद कहे हैं-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम संवेग अनुकम्पा आस्तिक्य आदिसे अभिव्यक्त होने वाला सराग सम्यग्दर्शन है। उसे ही व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। उसके विषयभूत छह द्रव्य हैं। वीतराग सम्यक्त्वका लक्षण निज शुद्धात्माकी अनुभूति है वह वीतराग चारित्रका अविनाभावी है। उसीको निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं । ब्रह्मदेवजीके इस कथनपर शिष्य प्रश्न करता है कि 'निज शुद्धात्मा ही उपादेय है' इस प्रकारकी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व है ऐसा आपने पहले बहुत बार कहा है अतः आप वीतराग चारित्रके अविनाभावीको निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं यह पूर्वापरविरोध है । कारण-अपनी शुद्धात्मा ही उपादेय है इस प्रकारकी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व गृहस्थ अवस्थामें तीर्थकर,भरत चक्रवती, सगर चक्रवती, राम,पाण्डव आदिके विद्यमान था किन्तु उनके वीतराग चारित्र नहीं था यह परस्पर विरोध है । यदि वीतराग चारित्र था तो वे असंयमी कैसे थे ? शिष्यकी इस शंकाके उत्तरमें ब्रह्मदेवजी कहते हैं-यद्यपि उनके शुद्धात्मा के उपादेयकी भावना रूप निश्चय सम्यक्त्व था किन्तु चारित्रमोहके उदयसे स्थिरता नहीं थी। अथवा व्रत प्रतिज्ञा भंग होनेसे असंयत कहे गये हैं ( यह कथन तीर्थंकरके साथ नहीं लगाना चाहिए ) जब भरत आदि शुद्धात्माकी भावनासे च्युत होते थे तब निर्दोष परमात्मा अर्हन्त सिद्ध आदिके गुणोंका स्तवन आदि करते थे, उनके चरित पुराण आदि सुनते थे। उनके आराधक आचार्य उपाध्याय साधुओंको विषयकषायसे बचनेके लिए दान, पूजा आदि करते थे। अतः शुभरागके योगसे सरागसम्यग्दृष्टि होते थे। किन्तु उनके सम्यक्त्वको निश्चयसम्यक्त्व इसलिए कहा गया है कि वह वीतराग चारित्रके अविनाभावी निश्चय सम्यक्त्वका परम्परासे साधक है । वास्तव में वह सरागसम्यक्त्व नामक व्यवहारसम्यक्त्व ही है। जिस तरह सम्यग्दर्शन आदिके दो प्रकार हैं उसी तरह मोक्षमार्गके भी दो प्रकार हैंनिश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग । उक्त तीन भावमय आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी पूर्णता अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है। उसके पश्चात् ही मोक्ष हो जाता है अतः सम्पूर्ण रत्नत्रय मोक्षका ही मार्ग है। किन्तु अपूर्ण रत्नत्रय? जब तक रत्नत्रय अस म्पर्ण रहता है नीचेके गुणस्थानोंमें साधुके पुण्य प्रकृतियोंका बन्ध होता है तब क्या उससे बन्ध नहीं होता? इसके समाधानके लिए पुरुषार्थ सि. के २११ से २२० श्लोक देखना चाहिए। उसमेंसे आदि और अन्तिम श्लोकमें कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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