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प्रथम अध्याय
संदेहः-स्थाणुर्वा पुरुषो वेति चलिता प्रतीतिः। मोहः-गच्छत्तृणस्पर्शज्ञानवत् पदार्थानध्यवसायः । भ्रमः अतस्मिस्तदिति ग्रहणं स्थाणी पुरुषज्ञानवत् । कर्मभित्-ज्ञानावरणादि कर्मछेदि मनोवाक्कायव्यापारनिरोधि वा । तथा चोक्तं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
'मिथ्याभिमाननिर्मुक्तिर्ज्ञानस्येष्टं हि दर्शनम् । ज्ञानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता।'
[त. श्लो. १-५४1 चित:-चेतनस्य। तत्त्वं-परमार्थरूपम् । सदृगवायवृत्तं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रं मिथ्येत्यादिना क्रमेणोक्तलक्षणम् । संहतिप्रधाननिर्देशात्तत्त्रयमय आत्मैव निश्चयमोक्षमार्ग इति लक्षयति । तदुक्तम्
'णिच्छयणएण भणिओ तिहिं तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा । ण गहदि किंचिवि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ।'
[पञ्चास्ति. १६१ गा. ]
आत्माका उदासीन रूप निश्चय सम्यकचारित्र है। पूर्ण अवस्थामें होने पर तीनों मोक्षके ही मार्ग हैं। किन्तु व्यवहाररूप तथा अपूर्ण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अशुभकर्मको रोकता भी है और एक देशसे क्षय भी करता है। परन्तु मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे बन्ध होता है ॥९॥
विशेषार्थ-ऊपर निश्चयरत्नत्रयके लक्षणके साथ मोक्ष, संवर, निर्जरा तथा बन्धका कारण कहा है। मिथ्या अर्थके आग्रहसे रहित आत्मरूपको अथवा जिसके कारण मिथ्या अर्थका आग्रह होता है उस दर्शन मोहनीय कर्मसे रहित आत्मरूपको निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। तथा संशय, विपर्यय और मोहसे रहित आत्मरूपको निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं। तथा समस्त कषायोंसे रहित आत्मरूपको निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कहा है
'ज्ञानका मिथ्या अभिमानसे पूरी तरहसे मुक्त होना सम्यग्दर्शन है। अर्थको यथार्थ रीतिसे जानना सम्यग्ज्ञान है और कर्मोंका नाश सम्यक्चारित्र है।' ये तीनों ही आत्मरूप होते हैं। इसलिए अमृतचन्द्राचायने आत्माके निश्चयको सम्यग्दर्शन, आत्माके परिज्ञानको सम्यग्ज्ञान और आत्मामें स्थितिको सम्यकचारित्र कहा है । और ऐसा ही पद्मनन्दि पश्चविंशतिका (४।१४) में कहा है।
इनमेंसे सबसे प्रथम सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। समयसार गा. ३२० की टीकाके उपसंहारमें विशेष कथन करते हुए आचार्य जयसेनने कहा है-जब काललब्धि आदिके योगसे भव्यत्व शक्तिकी व्यक्ति होती है तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिक भावरूप निज परमात्मद्रव्यके सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् अनुचरण रूप पर्यायसे परिणत होता है । इस परिणमनको आगमकी भाषामें औपशमिक भाव या क्षायोपशमिक भाव या क्षायिक भाव कहते हैं। किन्तु अध्यात्मकी भाषामें उसे शुद्धात्माके अभिमुख परिणाम, शुद्धोपयोग आदि कहते हैं । सम्यग्दर्शन दर्शन मोहनीयकी मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन सात कर्मप्रकृतियोंके उपशम,
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