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प्रथम अध्याय
जगत्यन्तै कषीक संकुले त्रसत्व-संज्ञित्व - मनुष्यतायंताः । सुगोत्रसद्गात्र विभूतिवार्तता सुधीसुधर्माश्च यथाग्रदुर्लभाः ॥ ८६ ॥
वार्तता - आरोग्यम् ॥ ८६ ॥
अथ धर्माचरणे नित्योद्योग मुद्बोधयति -
सना स कुल्यः स प्राज्ञः स बलश्रीसहायवान् । स सुखी चेह चामुत्र यो नित्यं धर्ममाचरेत् ॥८॥
स्पष्टम् ॥८७॥
अनन्त एकेन्द्रिय जीवोंसे पूरी तरहसे भरे हुए इस लोकमें सपना, संज्ञिपना, मनुष्यपना, आर्यपना, उत्तमकुल, उत्तम शरीर, सम्पत्ति, आरोग्य, सद्बुद्धि और समीचीन धर्म उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं ॥ ८६ ॥
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विशेषार्थ - इस लोक में यह जीव अपने द्वारा बाँधे गये कर्मके उदयसे बार-बार एकेन्द्रिय होकर किसी तरह दो-इन्द्रिय होता है । दो-इन्द्रिय होकर पुनः एकेन्द्रिय हो जाता है । इस प्रकार केन्द्रिय से दो-इन्द्रिय होना कठिन है, दो इन्द्रियसे तेइन्द्रिय होना कठिन है, तेइन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय होना कठिन है, चतुरिन्द्रियसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय होना कठिन है, असंज्ञी पंचेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय होना कठिन है, संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें भी मनुष्य होना कठिन है । मनुष्यों में भी आर्य मनुष्य होना कठिन है । आर्य होकर भी अच्छा कुल, अच्छा शरीर, सम्पत्ति, नीरोगता, समीचीन बुद्धि और समीचीन धर्मका लाभ उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक ( अ. ९/७ ) में बोधिदुर्लभ भावनाका स्वरूप इसी शैली और शब्दों में बतलाया है । अकलंकदेवने लिखा है-आगम में एक निगोद शरीरमें सिद्धराशिसे अनन्त गुणे जीव बतलाये हैं । इस तरह सर्व लोक स्थावर जीवोंसे पूर्णतया भरा है । अतः सपर्याय रेगिस्तान में गिरी हुई हीरेकी कनीके समान मिलना दुर्लभ है । सोंमें भी विकलेन्द्रियोंका आधिक्य है अतः उसमें पंचेन्द्रियपना प्राप्त होना गुणों में कृतज्ञता गुणकी तरह कठिन है। पंचेन्द्रियोंमें भी पशु, मृग, पक्षी आदि तिर्यंचोंकी बहुलता है | अतः मनुष्यपर्याय वैसी ही दुर्लभ है जैसे किसी चौराहे पर रत्नराशिका मिलना दुर्लभ है | मनुष्यपर्याय छूटनेपर पुनः उसका मिलना वैसा ही दुर्लभ है जैसे किसी वृक्षको जला डालने पर उसकी राखका पुनः वृक्षरूप होना । मनुष्यपर्याय भी मिली किन्तु हित-अहित के विचारसे शून्य पशु के समान मनुष्योंसे भरे हुए कुदेशोंका बाहुल्य होनेसे सुदेशका मिलना वैसा ही दुर्लभ है जैसे पाषाणों में मणि । सुदेश भी मिला तो सुकुलमें जन्म दुर्लभ है क्योंकि संसार पापकर्म करनेवाले कुलोंसे भरा है । कुलके साथ जाति भी प्रायः शील, विनय और आचारको करनेवाली होती है । कुल सम्पत्ति मिल जानेपर भी दीघार्यु, इन्द्रिय, बल, रूप, नीरोगता वगैरह दुर्लभ हैं । उन सबके मिलने पर भी यदि समीचीन धर्मका लाभ नहीं होता तो जन्म व्यर्थ है || ८६ ॥
आगे धर्मका आचरण करनेमें नित्य तत्पर रहने की प्रेरणा करते हैं
जो पुरुष सदा धर्मका पालन करता है वही पुरुष वस्तुतः पुरुष है, वही कुलीन है, वही बुद्धिशाली है, वही बलवान्, श्रीमान् और सहायवान् है, वही इस लोक और परलोकमें सुख है अर्थात् धर्मका आचरण न करनेवाले दोनों लोकोंमें दुःखी रहते हैं ॥८७॥
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