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________________ ६० धर्मामृत ( अनगार) प्रक्षीणान्तःकरणकरणो व्याधिभिः सुट्विवाधि स्पर्धद्दग्धः परिभवपदं याप्यकम्प्राऽक्रियाङ्गः। तृष्णा _विलगितगृहः प्रस्खलद्वित्रदन्तो ग्रस्येताद्धा विरस इव न श्राद्धदेवेन वृद्धः ॥८४॥ इवाधिस्पर्धात्-मनोदुःखसंहर्षादिव । याप्यानि-कुत्सितानि । विलगितगृहः-उपतप्तकलत्रादि६ लोकः । अद्धा-झगिति । श्राद्धदेवेन-यमेन क्षयाहभोज्येन च ॥८४॥ अथ तादृग दुष्टमपि मानुषत्वं परमसुखफलधर्माङ्गत्वेन सर्वोत्कृष्टं विदध्यादिति शिक्षयतिबीजक्षेत्राहरणजननद्वाररूपाशुचीदृग दुःखाकीणं दुरसविविधप्रत्ययातय॑मृत्यु। अल्पाग्रायुः कथमपि चिराल्लब्धमीदग नरत्वं सर्वोत्कृष्टं विमलसुखकृद्धर्मसिद्धचैव कुर्यात् ॥८॥ १२ बीजं-शुक्रातवम् । क्षेत्रं-मातृगर्भः । आहरणं-मातृनिगीर्णमन्नपानम् । जननद्वारं-रजःपथः । रूप-दोषाद्यात्मकत्वसदातुरत्वम् । ईदृगदुःखानिग दिवाद्धिक्यान्तबाधाः। दुरसः-दुर्निवारः । विविधाः-व्याधिशस्त्राशनिपातादयः । प्रत्ययाः-कारणानि । अल्पाग्रायः-अल्पं स्तोकमग्रं परमायुर्यत्र । १५ इह हीदानीं मनुष्याणामुत्कर्षेणापि विशं वर्षशतं जीवितमाहुः । ईदृक्-सज्जातिकुलाद्युपेतम् ॥८५॥ अथ बीजस्य (जीवस्य) त्रस्यत्वादि (त्रसत्वादि) यथोत्तरदुर्लभत्वं चिन्तयति जिसका मन और इन्द्रियाँ विनाशके उन्मुख हैं, मानसिक व्याधियोंकी स्पर्धासे ही मानो जिसे शारीरिक व्याधियोंने अत्यन्त क्षीण कर दिया है, जो सबके तिरस्कारका पात्र है, जिसके हाथ-पैर आदि अंग बुरी तरहसे काँपते हैं और अपना काम करनेमें असमर्थ हैं, अतिलोभी, क्रोधी आदि स्वभावके कारण परिवार भी जिससे उकता गया है, मुंह में दो-चार दाँत शेष हैं किन्तु वे भी हिलते हैं, ऐसे वृद्ध पुरुषको मानो स्वादरहित होनेसे मृत्यु भी जल्दी नहीं खाती ।।८४॥ इस प्रकार मनुष्यपर्याय बुरी होनेपर भी परम सुखके दाता धर्मका अंग है इसलिए उसे सर्वोत्कृष्ट बनानेकी शिक्षा देते हैं __ इस मनुष्य शरीरका बीज रज और वीर्य है, उत्पत्तिस्थान माताका गर्भ है, आहार माताके द्वारा खाया गया अन्न-जल है, रज और वीर्यका मार्ग ही उसके जन्मका द्वार है, वातपित्त-कफ-धातु उपधातु ही उसका स्वरूप है, इन सबके कारण वह गन्दा है, गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त दुःखोंसे भरा हुआ है, व्याधि, शस्त्राघात, वज्रपात आदि अनेक कारणोंसे आकस्मिक मृत्यु अवश्यम्भावी है, तथा इसकी उत्कृष्ट आयु भी अति अल्प अधिक से अधिक एक सौ बीस वर्ष कही है। समीचीन धर्मके अंगभूत जाति-कुल आदिसे युक्त यह ऐसा मनुष्य भव भी चिरकालके बाद बड़े कष्टसे किसी तरह प्राप्त हुआ है। इसे विमल अर्थात् दुःखदायी पापके संसर्गसे रहित सुखके दाता धर्मका साधन बनाकर ही देवादि पर्यायसे भी उत्कृष्ट बनाना चाहिए ॥८५॥ ___ आगे जीवको प्राप्त होनेवाली सादि पर्यायोंकी उत्तरोत्तर दुर्लभताका विचार करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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