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प्रथम अध्याय
अथोदयाभिमुख-तद्विमुखत्वे द्वयेऽपि पुण्यस्य साधनवैफल्यं दर्शयति--
पुण्यं हि संमुखीनं चेत् सुखोपायशतेन किम् ।।
न पुण्यं संमुखीनं चेत् सुखोपायशतेन किम् ॥६०॥ संमुखीनम्-उदयाभिमुखम् ॥६०॥ अथ पुण्यपापयोर्बलाबलं चिन्तयति
शीतोष्णवत् परस्परविरुद्धयोरिह हि सुकृत-दुष्कृतयोः ।
सुखदुःखफलोद्भवयोर्दुर्बलमभिभूयते बलिना ॥१॥ स्पष्टम् ।।६१॥ अथ क्रियमाणोऽपि धर्मः पापपाकमपकर्षतीत्याह
धर्मोऽनुष्ठीयमानोऽपि शुभभावप्रकर्षतः ।
भङ्क्त्वा पापरसोत्कर्ष नरमुच्छ्वासयत्यरम् ॥६२॥ उच्छ्वासयति-किंचिदापदो चयति ।।६२॥ अथ प्रकृतार्थमुपसंहरन् धर्माराधनायां श्रोतन् प्रोत्साहयति
तत्सेव्यतामभ्युदयानुषङ्गफलोऽखिलक्लेशविनाशनिष्ठः ।
अनन्तशर्मामृतवः सवार्यविचार्य सारो नभवस्य धर्मः ॥६३॥ आगे कहते हैं कि पुण्य कर्म उदयके अभिमुख हो अथवा विमुख हो दोनों ही अवस्थाओंमें सुखके साधन व्यर्थ हैं. यदि पुण्य कर्म अपना फल देने में तत्पर है तो सुखके सैकड़ों उपायोंसे क्या प्रयोजन है, क्योंकि पुण्यके उदयमें सुख अवश्य प्राप्त होगा। और यदि पुण्य उदयमें आनेवाला नहीं है तो भी सुखके सैकड़ों उपाय व्यर्थ हैं क्योंकि पुण्यके विना उनसे सुख प्राप्त नहीं हो सकता ॥६०॥
आगे पुण्य और पापमें बलाबलका विचार करते हैं
पुण्य और पाप शीत और उष्णकी तरह परस्परमें विरोधी हैं। पुण्यका फल सुख है और पापका फल दुःख है। इन दोनोंमें जो दुर्बल होता है वह बलवानके द्वारा दबा दिया जाता है ॥६॥
तत्काल किया गया धर्म भी पापके उदयको मन्द करता है यह बताते हैं
उसी समय किया गया धर्म भी शुभ परिणामोंके उत्कर्षसे पाप कर्म के फल देनेकी शक्तिकी उत्कटताको घात कर शीघ्र ही मनुष्यको शान्ति देता है । अर्थात् पहलेका किया गया धर्म ही सुखशान्ति दाता नहीं होता, किन्तु विपत्तिके समय किया गया धर्म भी विपत्तिको दूर करता है ॥६२॥
प्रकृत चर्चाका उपसंहार करते हुए श्रोताओंका धर्मकी आराधनामें उत्साहित करते हैं
यतः धर्मकी महिमा स्थायी और अचिन्त्य है. अतः विचारशील पुरुषोंको विचारकर प्रत्यक्ष अनुमान और आगम प्रमाणोंसे निश्चित करके सदा धर्मकी आराधना करनी चाहिए; क्योंकि धर्म मनुष्य-जन्मका सार है-अत्यन्त उपादेय होनेसे उसका अन्तः भाग है, उसका आनुषंगिक फल अभ्युदय है। अर्थात् धर्म करनेसे जो पुण्य होता है उससे सांसारिक अभ्युदयकी प्राप्ति होती है अतः यह गौणफल है। वह सब प्रकारके क्लेशोंको नष्ट करने में सदा
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