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________________ धर्मामृत ( अनगार) अपि चप्रद्युम्नः षडहोद्भवोऽसुरभिदः सौभागिनेयः क्रुधा हृत्वा प्राग्विगुणोऽसुरेण शिलयाऽऽक्रान्तो वने रुन्द्रया। तत्कालीनविपाकपेशलतमैः पुण्यैः खगेन्द्रात्मजी कृत्याऽलम्भ्यत तेन तेन जयिना विद्याविभूत्यादिना ॥५॥ सौभागिनेयः-सुभगाया इतरकान्तापेक्षया अतिवल्लभाया रुक्मिण्या अपत्यम प्राक् मधुराजभवे विगुणः वल्लभावहरणादपकर्ता। असुरेण-हेमरथराजचरेण ज्वलितधूमशिखनाम्ना दैत्येन । __ वने-महाखदिराटव्याम् । खगेन्द्रात्मजीकृत्य-कालसंवरनाम्नो विद्याधरेन्द्रस्य अनात्मजं सन्तमात्मजं कृत्वा । अलम्भ्यत--योज्यते स्म ॥५८॥ ननु मन्त्रादिप्रयोगोऽपि विपन्निवारणाय शिष्टय॑वहियते। तत्कथं भवतां तत्प्रतीकारे पुण्यस्यैव सामर्थ्यप्रकाशनं न विरुध्यते इत्यत्राह यश्चानुश्रूयते हर्तुमापदः पापपवित्रमाः । उपायः पुण्यसद्बन्धुं सोऽप्युत्थापयितुं परम् ।।५९॥ पापपवित्रमा:-पापपाकेन निर्वृत्ताः ।।५९॥ ये दोनों बातें अन्य शास्त्रों में वर्णित नहीं हैं। किन्तु दोनों ही यथार्थ प्रतीत होती हैं। मध्यलोकमें सौधर्म इन्द्रका शासन होनेसे भवनवासी देव भी उसके ही अधीन हैं अतः भगवानपर उपसर्ग होनेपर इन्द्रकी आज्ञासे धरणेन्द्र-पद्मावतीका आना उचित है। दूसरे इन दोनोंने आकर उपसर्गसे रक्षा तो की। धरणेन्द्रने अपना विशाल फणामण्डप भगवान्पर तान दिया। किन्तु उपसर्ग दूर हुआ भगवान्की आत्माराधन रूप धर्म के प्रभावसे । दोनों ही बातें स्मरणीय हैं ॥५७॥ दूसरा उदाहरण दैत्यका मर्दन करनेवाले श्रीकृष्णकी अतिवल्लभा रुक्मिणीके पुत्र प्रद्युम्नको, जब वह केवल छह दिनका शिशु था, क्रुद्ध ज्वलित धूमशिखी नामके दैत्यने हरकर महाखदिर नामकी अटवीमें बड़ी भारी शिलाके नीचे दबा दिया और ऊपरसे भी दबाया। इसका कारण यह था कि पूर्वजन्ममें मधु राजाकी पर्यायमें प्रद्युम्नने उसकी प्रिय पत्नीका बलपूर्वक हरण किया था। किन्तु तत्काल ही उदयमें आये अत्यन्त मधुर पुण्यकर्मके योगसे विद्याधरोंका स्वामी कालसंवर उस वनमें आया और उसने शिलाके नीचेसे शिशुको निकालकर अपना पुत्र बनाया। कालसंवरके अन्य पुत्र उसके विरुद्ध थे। प्रद्युम्नने उन्हें पराजित किया तथा विद्याधरोंकी विद्याएँ और सोलह अद्भुत लाभ प्राप्त किये ॥५॥ किन्हींका कहना है कि विपत्तिको दूर करनेके लिए शिष्टजन मन्त्रादिके प्रयोगका भी व्यवहार करते हैं । तब आप उसके प्रतीकारके लिए पुण्यकी ही शक्तिका गुणगान क्यों करते हैं ? इसका उत्तर देते हैं पापकर्मके उदयसे आनेवाली विपत्तियोंको दूर करनेके लिए सिद्ध मन्त्र आदिका प्रयोग जो आप्त पुरुषोंकी उपदेश परम्परासे सुना जाता है वह भी केवल सच्चे बन्धु पुण्यको ही जाग्रत् करके अपने कार्यमें लगानेके लिए किया जाता है। अर्थात् पुण्योदयके विना मन्त्र-तन्त्र आदि भी अपना कार्य करने में असमर्थ होते हैं ।।५९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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