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प्रथम अध्याय
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श्लाघे कियद्वा धर्माय येन जन्तुरुपस्कृतः।
तत्तादृगुपसर्गेभ्यः सुरैः श्वभ्रेऽपि मोच्यते ॥५४॥ उपस्कृतः-आहितातिशयः । तत्तादृशः-नारकैः संक्लिष्टासुरैश्च स्वरमुदीरिताः । सुरैः-कल्प- ३ वासिदेवैः । ते हि षण्मासायुःशेषेन नरकादेष्यतां तीर्थकराणामुपसर्गानिवारयन्ति । तथा चागमः
तित्थयरसत्तकम्मे उवसग्गनिवारणं करंति सुरा। छम्माससेसनिरए सग्गे अमलाणमालाओ ॥५४॥
अथ धर्ममाचरतो विपदपतापे तन्निवृत्त्यथं धर्मस्यैव बलाधानं कर्तव्यमित्यनुशास्तिव्यभिचरति विपक्षक्षेपवक्षः कदाचिद्
बलपतिरिव धर्मों निर्मलो न स्वमीशम् । तदभिचरति काचित्तत्प्रयोगे विपच्चेत् ।
स तु पुनरभियुक्तैस्ता पाजे क्रियेत ॥५५॥ बलवतिः ( बलपतिः ) सेनापतिरत्नम् । निर्मल:-निरतिचारः सर्वोपधाविशुद्धश्च । ईशं प्रयोक्तारं चक्रिणं च । स तु–स एव धर्मः उपाजे क्रियेत-आहितबलः कर्तव्यः ॥५५॥
उस धर्मकी कितनी प्रशंसा की जाय जिसके द्वारा सुशोभित प्राणी नरकमें भी नारकियों और असुरकुमारोंके द्वारा दिये जानेवाले अत्यन्त दुःखके कारणभूत उपसोंसे देवोंके द्वारा बचाया जाता है ।।५४॥
विशेषार्थ-जो जीव नरकसे निकलकर तीर्थकर होनेवाले होते हैं, जब उनकी आयु छह मास शेष रहती है तो कल्पवासी देव नरकमें जाकर उनका उपसर्ग निवारण करते हैं, नारकियों और असुरकुमारोंके उपसर्गोंसे बचाते हैं। जो स्वर्गसे च्युत होकर तीर्थकर होते हैं स्वर्गमें उनकी मन्दारमाला मुरझाती नहीं ॥५४॥
धर्मका आचरण करते हुए यदि विपत्ति कष्ट देती है तो उसको दूर करनेके लिए धर्मको ही सबल बनानेका उपदेश देते हैं
जैसे शत्रुओंके निराकरणमें समर्थ और सब प्रकारसे निर्दोष सेनापति रत्न कभी भी अपने स्वामी चक्रवर्तीके विरुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार अधर्मका तिरस्कार करने में समर्थ निरतिचार धर्म अपने स्वामी धार्मिक पुरुषके विरुद्ध नहीं जाता--उसके अनुकूल ही रहता है। इसलिए उस धर्म या, सेनापतिके अपना काम करते हुए भी कोई देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यचकृत या अचेतन कृत विपत्ति सताती है तो कार्यतत्पर सत्पुरुषोंके द्वारा उसी सेनापतिकी तरह धर्मको ही बलवान् करनेका प्रयत्न करना चाहिए ॥५५॥
विशेषार्थ-जैसे स्वामिभक्त निर्दोष सेनापतिको नहीं बदला जाता उसी प्रकार विपत्ति आने पर भी धर्मको छोड़ना नहीं चाहिए। किन्तु विशेष तत्परतासे धर्मका साधन करना चाहिए ॥५५॥
१. तित्थयरसंतकम्मुवसग्गं णिरए णिधारयंति सुरा ।
छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालको ।।-त्रि. सार, १९५ गा.।
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