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૫૧૦૦શ્રી શ્રાદ્ધ-પ્રતિક્રમણ સૂત્રપ્રબોધટીકા-૩ इह लोके धर्मना प्रभाव लगे राज-ऋद्धि, सुख, सौभाग्य परिवार वांछ्या; परलोके देव, देवेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती तणी पदवी वांछी, सुख आव्ये जीवितव्य वांछ्युं, दुःख आव्ये मरण वांछ्युं, काम-भोग तणी वांछा कीधी । संलेखणा विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्षदिवसमांहि०
॥१३॥ तपाचार बार भेद-छ बाह्य, छ अभ्यन्तर-अणसणमूणोअरिआ० ॥१४॥
अणसण भणी उपवास विशेष पर्वतिथे छती शक्तिए कीधो नहीं, ऊणोदरी व्रत ते कोलिआ पांच सात ऊण रह्या नहीं, वृत्ति-संक्षेप ते द्रव्य भणी सर्व वस्तुनो संक्षेप कीधो नहीं, रस-त्याग ते विगय-त्याग न कीधो, काय-क्लेश लोचादिक कष्ट सह्यां नहीं, संलीनता अगोपांग संकोची राख्यां नहीं, पच्चक्खाण भांग्यां, पाटलो डगडगतो फेड्यो नहीं, गंठसी, पोरिसी, पुरिमड्ड, एकासगुं, बेआसj, नीवि, आंबिलप्रमुख पच्चक्खाण पारदुं विसायु, बेसतां नवकार न भाग)ण्यो, उठतां पच्चक्खाण करवू विसायु, गठसीयुं भांग्युं, नीवि आंबिल उपवासादि तप करी काचुं पाणी पीधुं, वमन हुओ । बाह्यतप-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि०
॥१४॥ अभ्यंतर तप-पायच्छित्तं विणओ० ॥१५॥
मन शुद्ध गुरु-कन्हे आलोअण लीधी नहीं; गुरु दत्त प्रायश्चित्त तप लेखा शुद्धे पहुंचाड्यो नहीं, देव, गुरु, संघ, साहम्मी प्रत्ये विनय साचव्यो नहीं, बाल, वृद्ध ग्लान, तपस्वी-प्रमुखनुं वेयावच्च न कीधुं. वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा-लक्षण पंचविध स्वाध्याय न कीधी धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्यायां,
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