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व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा मेंजैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता
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-श्रीचन्द सुराना 'सरस' ससांर का घटक है व्यक्ति, और व्यक्ति की पहचान होती है | नहीं है। विकास के सभी द्वार-शिक्षा से खुलते हैं। उन्नति के सभी 2009 उसके व्यक्तित्व से। जैस अग्नि की पहचान, उष्मा और प्रकाश से, मार्ग ज्ञान के राजमार्ग से ही निकलते हैं, अतः संसार के समस्त जल की पहचान उसकी शीतलता और तरलता से होती है, उसी विचारकों ने शिक्षा और ज्ञान को सर्वोपरि माना है। एक शायर का प्रकार व्यक्ति की पहचान उसके व्यक्तित्व–अर्थात् शारीरिक एवं
कहना हैमानसिक गुणों से होती है।
सआदत है, सयादत है, इबादत है इल्म। स्वेट मार्टेन ने व्यक्तित्व के कुछ आवश्यक घटक बताये हैं- हकूमत है, दौलत है, ताकत है इल्म। स्वस्थ शरीर, बौद्धिक शक्ति, मानसिक दृढ़ता, हृदय की उदारता,
एक आत्मज्ञ ऋषि का कथन हैभावात्मक उच्चता (करुणा-मैत्री-सेवा आदि) तथा व्यावहारिक
आयाभावं जाणंति सा विज्जा दुक्खमोयणी दक्षता, समयोचित व्यवहार आदि।
-इसिभासियाई-१७/२ लार्ड चेस्टरन ने वेशभूषा (ड्रेस-Dress) और बोलचाल की
जिससे अपने स्वरूप का ज्ञान हो, वहीं विद्या दुःखों का नाश शिष्टता-सभ्यता (एड्रेस-Adress) को व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण अंग
करने वाली है। माना है। भर्तृहरि ने नीतिशतक में महान व्यक्तित्व के घटक गुणों की
शिक्षा का अर्थ-सर्वांग विकास चर्चा करते हुए लिखा है
शिक्षा का अर्थ-केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। अक्षर ज्ञान विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
शिक्षा का मात्र एक अंग है। जैन मनीषियों ने शिक्षा को बहुत
व्यापक और विशाल अर्थ में लिया है। उन्होंने ज्ञान और आचार, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः
बुद्धि और चरित्र दोनों के समग्र विकास को शिक्षा का फलित यशसि चाभिरुचि र्व्यसनं श्रुती,
माना है। प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥
-नीतिशतक-६३
आधुनिक शिक्षा-शास्त्रियों-फ्रोबेल, डीवी, मोन्टेसरी आदि ने विपत्ति में धैर्य, ऐश्वर्य में सहिष्णुता, विकास के समय में स्वयं शिक्षण की अनेक विधियों-प्रणालियों (Teaching Method) का पर नियंत्रण, सभा में वचन की चतुराई, कभी हताश नहीं होना, प्रतिपादन किया है, किन्तु मुख्य शिक्षा प्रणालियां दो ही हैं-१. सुयश के कार्य में रुचि, पढ़ने में निष्ठा आदि गुणों से व्यक्तित्व अगमन (Inductive) और २. निगमन (Deductive)| निखरता है, चमकता है।
अगमन शिक्षा प्रणाली में शिक्षक अपने शिष्यों को कोई जैन आचार्यों ने व्यक्तित्व को प्रभावशाली, लोकप्रिय और सिद्धान्त या विषय समझाता है और शिष्य उसे समझ लेते हैं, सदाचार सम्पन्न बनाने के लिए २१ सद्गुणों पर विशेष बल दिया कंठस्थ कर लेते हैं। शिक्षक के पूछने पर (अथवा प्रश्नपत्र के प्रश्नों है। जैसे
के उत्तर में) जो कुछ समझा है, याद किया है, वही बोल या लिख हृदय की उदारता, प्रकृति की सौम्यता, करुणाशीलता,
देते हैं। आजकल निबंधात्मक प्रश्नोत्तर इसी शिक्षण प्रणाली के विनयशीलता, न्यायप्रियता, कृतज्ञता, धर्मबुद्धि, चतुरता। आदि।'
अन्तर्गत हैं।
निगमन प्रणाली में पहले परिणाम (फल) बताकर फिर शिक्षा का महत्त्व
सिद्धान्त निश्चित किया जाता है। इस प्रणाली में छात्रों से उत्तर विभिन्न विचारकों ने देश-काल की परिस्थितियों तथा निकलवाया जाता है। इससे छात्रों की बुद्धि एवं योग्यता आवश्यकता के अनुसार व्यक्तित्व के घटक तत्त्वों पर अनेक (Intelligence) ज्ञात हो जाती है तथा कीन छात्र किना मंदबुद्धि दृष्टियों से चिन्तन किया है, उसमें एक सार्वभौम तत्त्व है-शिक्षा. या तीव्रबुद्धि वाला है, यह भी पता चल जाता है। लघु-उत्तरीय प्रश्न ज्ञान, प्रतिभा।
इसी प्रणाली के अन्तर्गत हैं। उष्णता या तेजस्विता के बिना अग्नि का कोई मूल्य नहीं है, इन दोनों ही प्रणालियों से मानव का ज्ञान और बुद्धि तथा उसी प्रकार ज्ञान, शिक्षा या प्रतिभा के बिना व्यक्ति का कोई महत्त्व व्यक्तित्व विकसित होता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जैन-शिक्षा-प्रणाली
अनुसार पाँच से आठ वर्ष की आयु बालक के अध्ययन एवं
शिक्षाग्रहण करने की सर्वथ अनुकूल होती है। प्राचीन जैन शिक्षा प्रणाली में इन दोनों विधियों का समन्वय तो है ही, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे भी तत्त्व हैं, जिनसे व्यक्तित्त्व का
प्राचीन वैदिक एवं जैन साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है समग्र विकास होता है।
कि पाँच वर्ष के पश्चात् ही बालक को अक्षर ज्ञान देने की प्रथा
थी। रघुवंश के अनुसार राम का मुण्डन संस्कार हो जाने के उपरोक्त दोनों शिक्षण प्रणालियाँ सिर्फ ज्ञान और बुद्धि के
अनन्तर उन्हें अक्षरज्ञान कराया गया। यह लगभग पाँचवें वर्ष में ही विकास तक ही सीमित हैं, किन्तु जैन शिक्षा प्रणाली शैक्ष या शिष्य
किया जाता था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार भी इसी बात -50000 की पात्रता, विनय उसकी आदतों, चरित्र, अन्तर्हृदय की भावनाओं
की पुष्टि होती है। मुण्डन संस्कार के अनन्तर वर्णमाला और फिर आदि व्यक्तित्त्व के सभी घटकों पर ध्यान देकर शैक्ष के बहिरंग
अंकमाला का अभ्यास कराया जाता था। और अन्तरंग जीवन तथा उसके व्यक्तित्व का समग्र विकास करती है। सभी दृष्टियों से उसके व्यक्तित्त्व को तेजस्वी, प्रभावशाली और
आचार्य जिनसेन तथा हेमचन्द्राचार्य के अनुसार भगवान आकर्षक (Dynamic Personalty) बनाती है।
ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपनी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से
अक्षर माला- वर्णमाला का तथा बायें हाथ से सुन्दरी को जैन आचार्यों ने बताया है
अंकमाला-गणित का ज्ञान दिया। सामान्यतः पाँचवें वर्ष से प्रारम्भ सिक्खा दुविहा
करके वर्णमाला, अंकमाला तथा तत्पश्चात गणित का ज्ञान कराने गहण सिक्खा-सुत्तत्थ तदुभयाणं
में तीन वर्ष का समय लग जाता है। इस प्रकार आठ वर्ष का आसेवणा सिक्खा-पडिलेहणा"ठटावणा व्रतादि सेवना।
बालक शिक्षा के योग्य हो जाता है। भगवती सूत्र, ज्ञाता तथा | -पंच कल्पभाष्य-३
अन्तकृद्दशासूत्र आदि के प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि आठ वर्ष
की आयु पूर्ण करने पर माता-पिता बालक को कलाचार्य के पास ले शिक्षा दो प्रकार की है
जाते थे और उन्हें सभी प्रकार की कलाएँ, विद्याएँ गुरुकुल में १. ग्रहण शिक्षा-शास्त्रों का ज्ञान, शास्त्र का शुद्ध उच्चारण, रखकर ही सिखाई जाती थीं। महाबल कुमार, मेघकुमार, अनीयस पठन, अर्थ और देश-काल के संदर्भ में शब्दों के मर्म का ज्ञान प्राप्त कुमार आदि के प्रसंग उक्त सन्दर्भ में पठनीय हैं।५ बालक वर्धमान करना-ग्रहण शिक्षा है।
को भी आठ वर्ष पूर्ण करने पर कलाचार्य के पास विद्याध्ययन हेतु 300DPad २. आसेवना शिक्षा-व्रतों का आचरण, नियमों का सम्यग् ।
ले जाने का उल्लेख है।६ निशीथचूर्णि के अनुसार आठवें वर्ष में | परिपालन और सभी प्रकार के दोषों का परिवर्जन करते हुए,
बालक शिक्षा के योग्य हो जाता है। तत्श्चात् नवम-दशम वर्ष में वह अपने चरित्र को निर्मल रखना आसेवना शिक्षा है।
दीक्षा-प्रव्रज्या के योग्य भी बन जाता है। जैन इतिहास के अनुसार
आर्य शय्यंभव के पुत्र-शिष्य मनक ने आठ वर्ष की अवस्था में सम्पूर्ण जैन साहित्य में शिक्षा को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में
दीक्षित होकर श्रुतज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। इसी प्रकार आर्य | लिया गया है, और इसी आधार पर उस पर चिन्तन हुआ है।
सिंहगिरि ने बालक वज्र को आठ वर्ष की आयु में अपनी नेश्राय में शिक्षा की यह दोनों विधियाँ मिलकर ही सम्पूर्ण और सर्वांग शिक्षा
लेकर विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया जो एक दिन महान् वाग्मी और
श्रुतधर बने। इस प्रकार जैन आचार्यों के अनुसार शिक्षा प्रारम्भ शिक्षा प्राप्ति की अवस्था
का सबसे अच्छा और अनुकूल समय आठवां वर्ष माना गया है।
आठ वर्ष का बालक शिक्षा योग्य बन जाता है। बौद्ध ग्रन्थों के यूँ तो ज्ञान-प्राप्ति के लिए अवस्था या आयु का कोई नियम
अनुसार बुद्ध को भी आठ वर्ष की उम्र में आचार्य विश्वामित्र के नहीं है, कुछ विशिष्ट आत्माएँ जिनका विशेष क्षयोपशम होता है,
पास प्रारम्भिक शिक्षा के लिए भेजा गया था।१० जन्म से ही अवधिज्ञान युक्त होती है। किन्हीं-किन्हीं को जन्म से ही पूर्वजन्म का-जातिस्मृति ज्ञान भी होता है, परन्तु सर्वसामान्य में यह
शिक्षा की योग्यता विशिष्टता नहीं पाई जाती है।
शिक्षा प्राप्त करने के लिए जब बालक गुरुकुलवास या गुरु के आजकल ढाई-तीन वर्ष के बच्चे को ही कच्ची उम्र में नर्सरी में सान्निध्य में आता था तो सर्वप्रथम गुरु बालक की योग्यता तथा भेज दिया जाता है, यद्यपि अमेरिका जैसे विकसित देशों में ५-६ पात्रता की परीक्षा लेते थे। ज्ञान या शिक्षा एक अमृत के समान वर्ष के पहले बच्चे के कच्चे दिमाग पर शिक्षा का भार नहीं डालने है, उसे धारण करने के लिए योग्य पात्र का होना बहुत ही की मान्यता है। बाल मनोविज्ञान की नवीनतम व्याख्याओं के आवश्यक है।
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वैदिक एवं बौद्ध संस्कृति के अनुसार शिक्षा के लिए आया ५. शील की दृढ़ता-शिथिलाचारी या खण्डिताचारी अथवा हुआ विद्यार्थी सदाचारी और प्रतिभाशाली होना चाहिए। दुष्ट । संकल्प के अस्थिर व्यक्ति पर कभी भी श्रुतदेवता (सरस्वती) प्रसन्न स्वभाव का शिष्य कड़े जूते के समान होता है जो पहनने वाले का नहीं होते। अतः शैक्ष अपने चरित्र में दृढ़ निष्ठाशील रहे। पैर काटता है दुष्ट शिष्य आचार्य से विद्या या ज्ञान ग्रहण करके
६. रस लोलुप न हो-भोजन में चटोरा भजन नहीं कर सकता। उन्हीं की जड़ काटने लग जाता है।११ अतः सर्वप्रथम शैक्ष-विद्यार्थी
इसी प्रकार रस या स्वाद में आसक्त व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर की योग्यता और पात्रता की परीक्षा करना आवश्यक है।
सकता। शिक्षार्थी को अपनी सभी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखना शिक्षा योग्य आय की परिपक्वता के बाद शैक्ष का भावात्मक जरूरी है। विकास देखना जरूरी है। विनय, संयम, शांति और सरलता-ये
७. क्रोध नहीं करनाचार गुण मुख्य रूप से देखे जाते हैं। स्थानांग सूत्र के अनुसार १२१. विनीत, २. विकृति-अप्रतिबद्ध (जिह्वा-संयमी), ३. व्यवशमित
८. सत्यभाषी होनाप्राभृत (उपशान्त प्रकृति) और ४. अमायावी (सरल हृदय)- ये आठ गुण, या योग्यता जिस व्यक्ति में होती हैं। वही जीवन चार प्रकार के व्यक्ति, शिक्षा एवं शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के । में शिक्षा-ज्ञान प्राप्त कर सकता है, अपनी प्रतिभा का विकास कर योग्य अधिकारी माने गये हैं। इसके विपरीत, अविनीत आदि को
सकता है।१५ शिक्षा देने का निषेध है। दुष्ट प्रकृति, मूढमति, और कलह करने वाले व्यक्ति को शिक्षा देने का सर्वथा निषेध भी मिलता है।१३
इन्हीं गुणों का विकास व विस्तार करते हुए आचार्य 1000
जिनसेन१६ ने विद्यार्थी की योग्यता की १५ कसोटियां बताई हैंऐसे व्यक्ति को ज्ञान देता हुआ गुरु स्वयं दुखी और संतप्त हो जाता है।
१. जिज्ञासा वृत्ति उत्तराध्ययन में बताया है-कृतज्ञ और मेधावी शिष्य को शिक्षा २. श्रद्धाशीलता देते हुए आचार्य वैसे ही प्रसन्न होते हैं जैसे अच्छे घोड़े को ३. विनयशीलता हाँकता हुआ घुड़सवार, किन्तु अबोध और अविनीत शिष्य को
४. शुश्रूषा (सुनने की इच्छा व सेवा भावना) शिक्षा देता हुआ गुरु वैसे ही खिन्न होता है, जैसे दुष्ट घोड़े को
५. श्रवण-पाठ श्रवण के प्रति सतर्कता हाँकता हुआ उसका वाहक।१४ विनीत शिष्य अपने शिक्षक, गुरु की कठोर शिक्षाएँ भी यह समझकर ग्रहण करता है कि ये मुझे अपना
६. ग्रहण करने की क्षमता पुत्र व भाई समझकर कहते हैं, जबकि दुष्ट बुद्धि शिष्य मानता है
७. धारण-स्मरण रखने की योग्यता गुरु तो मुझे अपना दास व सेवक मानते हैं। शिष्य की दृष्टि का ८. स्मृति यह अन्तर उसके मानसिक विकास व भावात्मक विकास को सूचित ९. ऊह-तर्क शक्ति, प्रश्नोत्तर करने की योग्यता करते हैं।
१०. अपोह-स्वयं विचार करने की क्षमता उत्तराध्ययन में ही शिष्य या विद्यार्थी की पात्रता का विचार
११. निर्णीति-स्वयं निर्णय लेने की क्षमता करते हुए बताया है-शैक्ष में कम से कम ये आठ गुण तो होने ही
१२. संयम चाहिए
१३. प्रमाद का अभाव १. हास्य न करना-गुरुजनों व सहपाठी विद्यार्थियों का उपहास
१४. सहज प्रतिभा क्षयोपशम शक्ति न करना, व्यंग्य वचन न बोलना, मधुर व शिष्ट भाषा बोलना।।
१५. अध्यवसाय। २. इन्द्रिय दमन करना-विकारशील या स्वेच्छाचारी व्यक्ति ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः इन्द्रिय विजेता बनना चाहिए।
उक्त योग्यताओं के प्रसंग में कुछ अयोग्यताओं पर भी विचार
किया गया है, जिनके कारण व्यक्ति शिक्षा से वंचित रह जाता है। ३. मर्म वचन न बोलना-मधुर व शिष्ट भाषा जहां गुरुजनों
अथवा ज्ञान प्राप्त करके भी उसका सदुपयोग नहीं कर सकता। का मन जीत लेती है, वहीं कटु व मर्म वचन उनका हृदय दग्ध कर डालते हैं। इसलिए शिष्य व विद्यार्थी कभी अप्रिय व मर्म घातक
उत्तराध्ययन सूत्र के१७ अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए पाँच वचन न बोले।
बाधक कारण ये हैं४. शीलवान-यह गुण व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करता है १. अहंकार, २. क्रोध, ३. प्रमाद (निद्रा, व्यसन आदि), ४. [3 और लोगों में उसकी विश्वसनीयता बढ़ाता है।
रोग, ५. आलस्य।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
१०. उद्दण्डता
आचार्य जिनसेन ने१८ इन्हें विस्तार देकर १४ कारण
शिक्षा में विनय एवं अनुशासन बताये हैं।
जैन शिक्षा पद्धति के विभिन्न अंगों व नियम-उपनियमों पर १. कठोर परिणामी
दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा-प्राप्ति में विनय तथा २. सार छोड़कर निस्सार ग्रहण करना
अनुशासन का सर्वाधिक महत्त्व है। विनीत शिष्य ही गुरुजनों से ३. विषयी
शिक्षा प्राप्त कर सकता है और उसी की शिक्षा फलवती होती है। ४. हिंसक वृत्ति
शिक्षा जीवन का संस्कार तभी बनती है, जब विद्यार्थी गुरु व विद्या
के प्रति समर्पित होगा। भगवान महावीर की अन्तिम देशना का सार | ५. शब्द ज्ञान व अर्थज्ञान की कमी
उत्तराध्ययन सूत्र में है। उत्तराध्ययन सूत्र का सार प्रथम विनय ६. धूर्तता
अध्ययन है। विनय अध्ययन में गुरु शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध ७. कृतघ्नता
शिक्षा ग्रहण की विधि, गुरु से प्रश्न करने की विधि, गुरुजनों के ८. ग्रहण शक्ति का अभाव
समीप बैठने की सभ्यता, बोलने की सभ्यता आदि विषयों पर बहुत ९. दुर्गुण दृष्टि
ही विशद प्रकाश डाला गया है। वहाँ विनय को व्यापक अर्थ में
लिया गया है। ११. प्रतिभा की कमी
कहा गया है-गुरुओं का आज्ञा पालन करना, गुरुजनों के
समीप रहना, उनके मनोभावों क समझने की चतुरता, यह विनीत १२. स्मरण शक्ति का अभाव
का लक्षण है।२० १३. धारणा शक्ति का अभाव
विनय को धर्म का मूल माना है और उसका अन्तिम परम फल १४. हठग्राहिता।
है-मोक्ष/निर्वाण।२१ उत्तराध्ययन में शील, सदाचार और अनुशासन ये सब अयोग्यता शिक्षार्थी में मानसिक कुण्ठा तथा उच्चको भी विनय में सम्मिलित किया गया है। और कहा हैचारित्रिक गुणों के अभाव की सूचक है। जब तक विद्यार्थी में अणुसासिओ न कुप्पिज्जा खंति सेविज्ज पंडिए।२२ गुरुजनों का चारित्रिक विकास और भावात्मक गुणों की वृद्धि नहीं होती वह अनुशासन होने पर उन पर कुपित नहीं होवे, किंतु विनीत शिष्य ज्ञान या शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता। आचार्य भद्रबाहु ने क्षमा और सहिष्णुता धारण करके उनसे ज्ञान प्राप्त करता रहे। आवश्यक नियुक्ति में तथा विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिन इसी प्रसंग में गुरुजनों के समक्ष बोलने की सभ्यता पर विचार भद्रगणी ने अनेक प्रकार की उपमाएँ देकर शिक्षार्थी की अयोग्यता किया गया है। का रोचक वर्णन किया है।१९ जैसे
नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियंवए२३ १. शैलघन-जिस प्रकार मूसलाधार मेघ वर्षने पर भी पत्थर
गुरुजनों के बिना पूछे नहीं बोले, पूछने पर कभी असत्य नहीं (शैल) कभी आई या मृदु नहीं हो सकता। उसी प्रकार कुछ शिष्य
बोले। ऐसे होते हैं जिन पर गुरुजनों की शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं
गुरु किसी से बात करते हुए हों तो उनके बीच में भी नहीं पड़ता।
बोले।२४ इसी प्रकार भग्नघट, चालनी के समान जो विद्यार्थी होते हैं,
गुरु विनय के चार लक्षण बताते हुए कहा हैउन्हें गुरु ज्ञान या विद्या देते हैं, परन्तु उनके हृदय में वह टिक नहीं पाता। महिष-भैंसा जिस प्रकार जलाशय में घुसकर जल तो कम १. गुरुओं के आने पर खड़ा होना पीता है, परन्तु जल को गंदला बहुत करता है, उसी प्रकार कुछ २. हाथ जोड़ना विद्यार्थी, गुरुजनों से ज्ञान तो कम ले पाते हैं, परन्तु उन्हें उद्विग्न
३. गुरुजनों को आसन देना या खिन्न बहुत कर देते है। गुरु ज्ञान देते-देते परेशान हो जाते हैं। इसी प्रकार मेढा, तोता, मच्छर, बिल्ली आदि के समान जो शिष्य
४. गुरुजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रूषा-सेवा करना होते हैं वे गुरुजनों को क्षुब्ध व परेशान तो करते रहते हैं परन्तु
विनय के ये चार लक्षण हैं।२५ ज्ञान प्राप्त करने में असफल रहते हैं। अगर ज्ञान की यकिंचित वास्तव में गुरुजनों की भक्ति और बहुमान तो विनय का एक प्राप्ति कर भी लेते हैं तो वह उनके लिए फलदायी नहीं, कष्टदायी | प्रकार है, दूसरा प्रकार है शिक्षार्थी की चारित्रिक योग्यता और ही सिद्ध होती है।
व्यक्तित्व की मधुरता। कहा गया है-गुरुजनों के समीप रहने वाला,
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
४१ 1966
1008 योग और उपधान (शास्त्र अध्ययन के साथ विशेष तपश्चरण)
गौतम की प्रश्नोत्तर शैली करने वाला, सबका प्रिय करने वाला और सबके साथ प्रिय मधुर बोलने वाला, शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त कर सकता है।२६
गुरु शिष्य के बीच प्रश्न-उत्तर की सुन्दर शैली पर गणधर
गौतम का आदर्श हमारे सामने है। जब भी किसी विषय पर उनके उत्तराध्ययन में ही कहा है-शिष्य गुरुओं, आचार्यों के समक्ष
मन में सन्देह या जिज्ञासा उत्पन्न होती है तो वे उठकर भगवान या अकेले में कभी उनके प्रतिकूल अथवा विरुद्ध न बोले, न ही
महावीर के पास आते हैं और विनय पूर्वक उनसे प्रश्न पूछते हैं। उनकी भावना के विपरीत आचरण करें।२७
प्रश्न का समाधान पाकर व प्रसन्न होकर कृतज्ञता प्रदर्शित करते छान्दोग्य उपनिषद् का यह मन्तव्य भी इसी विचार को परिपुष्ट हुए कहते हैं-भन्ते! आपने जो कहा, वह सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा करता है
करता हूँ।३१ यदा वै बली भवति, तदा उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता उत्तर प्रदाता गुरु के प्रति शिष्य को इतना कृतज्ञ होना चाहिए भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवति, श्रोता । कि वह उत्तर प्राप्त कर अपनी मनस्तुष्टि और प्रसन्नता व्यक्त करे। भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति।२८
उनके उत्तर के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करें। जब शिष्य में आत्मबल जागृत होता है तो वह उठ खड़ा होता एक बार गणधर इन्द्रभूति के पास भगवान पार्श्वनाथ परम्परा है। फिर वह अप्रमादी होकर गुरु की परिचर्या करता है। परिचर्या । के श्रमण उदक पेढाल आये और अनेक प्रकार के प्रश्न पूछे। करता हुआ गुरु की सन्निधि में बैठता है। गुरु की शिक्षाएँ सुनता है। इन्द्रभूति ने सभी प्रश्नों का बड़ी स्पष्टता और सहजता से उत्तर उन पर मनन करता है। उन्हें जानकर हृदयंगम कर लेता है उन दिया, किंतु गणधर इन्द्रभूति के उत्तर से उदक पेढाल क्रुद्ध हो पर अपनी जीवनचर्या ढालता है। और फलस्वरूप वह विज्ञाता गया, खिन्न भी हुआ और वह प्रश्नों का समाधान पाकर भी गौतम विशिष्ट विद्वान-आत्मज्ञानी बन जाता है।
का अभिवादन किये बिना, धन्यवाद या कृतज्ञता के दो शब्द भी गुरुजनों के समक्ष बैठने उठने की सभ्यता और शिष्टता पर
बोले बिना उठकर चलने लगा। स्पष्टवादी गौतम को उदक पेढाल विचार करते हुए कहा गया है-शिष्य-आचार्यों के बराबर न बैठे,
का यह व्यवहार अनुचित लगा। तब गौतम ने उदक पेढाल को पीछे आगे न बैठे, पीछे से सटकर न बैठे, गुरु की जांघ से जांघ
सम्बोधित करके कहा-भद्र ! किसी श्रमण-निर्ग्रन्थ या गुरुजन से धर्म सटाकर न बैठे। गुरु बुलावे तो विस्तर या आसन पर बैठे-बैठे ही
का एक भी पद, एक भी वचन सुना हो, अपनी जिज्ञासा का उनको उत्तर ने देवे। बल्कि उनका आमंत्रण सुनकर आसन से उठे,
समाधान पाया हो, या योग-क्षेम का उत्तम मार्ग दर्शन मिला हो तो, निकट आकर विनयपूर्वक निवेदन करे-२९
क्या उनके प्रति कुछ भी सत्कार सम्मान व आभार प्रदर्शित किये
बिना उठकर चले जाना उचित है? उठने बैठने की यह ऐसी सभ्यता है, जो गुरुजनों के लिए ही क्या, मनुष्य को सर्वत्र जीवन में उपयोगी होती है। इससे व्यक्ति की
उदक पेढाल ने सकुचाते हुए पूछा-आप ही कहिए, उनके प्रति सुसंस्कृतता, उच्च सभ्यता झलकती है।
मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए?
__गणधर गौतम ने कहा-एगमपि आरियं सुवयणे सोच्चा" प्रश्न पूछने का तरीका
आढाई परिजाणेति वंदति नमंसति ३२ शिक्षा काल में शिष्य को शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ गुरुजनों से एक भी आर्य वचन सुनकर उनके प्रति आदर व्यावहारिक ज्ञान, सभ्यता और शिष्टतापूर्ण आचरण भी आवश्यक
{ और कृतज्ञता का भाव व्यक्त करना चाहिए। यही आर्य धर्म है। है। इसलिए जैन शास्त्रों में “विनय' के रूप में विद्यार्थी के
गौतम का यह उपदेश और स्वयं गौतम की जीवनचर्या से गुरु अनुशासन, रहन-सहन, वर्तन, बोलचाल आदि सभी विषयों पर ।
शिष्य के मधुर श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध और प्रश्न उत्तर की शैली तथा बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है और उसके आवश्यक
उत्तर प्रदाता, ज्ञानदाता गुरु के प्रति कृतज्ञ भावना प्रकट करना सिद्धान्त भी निश्चित किये गये हैं। गुरुओं से प्रश्न पूछने के तरीके
एक आदर्श पद्धति पर प्रकाश पड़ता है। आज के संदर्भो में भी इस पर विचार करते हुए बताया है
प्रश्नोत्तर पद्धति और कृतज्ञ भावना की नितांत उपादेयता है। आसणगओ न पुच्छेज्जा नेव सेज्जागओ कया,
वास्तव में गुरुजनों की भक्ति और बहुमान तो विनय का एक गुरुजनों से कुछ पूछना हो तो अपने आसन पर बैठे-बैठे, या } आवश्यक अंग है। दूसरा अंग है-शिक्षार्थी की चारित्रिक योग्यता शय्या पर पड़े-पड़े ही न पूछे, किन्तु खड़ा होकर हाथ जोड़कर नम्र और व्यक्तित्व की मधुरता। कहा गया है-गुरुजनों के समीप आसन से प्रश्न करे।३०
रहने वाल, योग और उपधान (शास्त्र अध्ययन के साथ
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ विशेष तपश्चरण) करने वाला, सबका प्रिय करने वाला और जिनदास गणि चूर्णि में स्पष्टीकरण करते हैं कि गुरुजनों से शिल्प सबके साथ प्रिय मधुर बोलने वाला, शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त कर | आदि सीखने पर, वस्त्र, भोजन, माला आदि से उनका सम्मान, सकता है।३३
सत्कार करना, उनके कथनानुसार वर्तन करना-शिष्य अपना कर्तव्य इसी प्रसंग में शिक्षार्थी की १५ चारित्रिक विशेषताओं पर भी
समझता है। तो जिन गुरुजनों से शिष्य जीवन-निर्माण और आत्म विचार किया गया है जिनके कारण वह सुविनीत कहा जाता है
विकास की शिक्षा प्राप्त करता है, उनका सत्कार सम्मान करना और गुरुजनों के समीप रहकर शिक्षा प्राप्त कर सकता है। संक्षेप में
विनय करना और उनका आदेश पालन करना तो परम सौभाग्य वे इस प्रकार हैं-३४
का कार्य मानकर गुरुजनों की आज्ञा सदा शिरोधार्य करना ही
चाहिए। १. जो नम्र है।
__दशवैकालिक की वृत्ति से यह स्पष्ट होता है कि विद्याध्ययन २. अचपल है।
सम्पन्न होने पर छात्र के माता-पिता तथा छात्र गुरुजनों, आचार्यों ३. दंभी नहीं है।
को भोजन, वस्त्र, अर्थदान, प्रीतिदान आदि द्वारा सम्मानित करते ४. अकुतूहली-तमाशबीन नहीं है।
थे। राजा द्वारा उनके जीवन भर की आजीविका का प्रबन्ध भी
किया जाता था। ५. किसी की निंदा नहीं करता है।
अन्तकृद्दशा सूत्र में अणीयस कुमार का विद्याध्ययन पूर्ण होने ६. क्रोध आने पर उसे तत्काल भुला देता है, मन में क्रोध नहीं
पर नाग गाथापति कलाचार्य का सम्मान करता हैरखता, शीघ्र शान्त हो जाता है।
- तं कलायरियं मधुरेहिं वयणेहिं विपुलेणं वत्थ-गंध ७. मित्रों के प्रति कृतज्ञ रहता है। मित्रता निबाहना जानता है।
मल्लालंकारेण सक्कारेति, सम्माणेति '' विपुलं जीवियारिंह ८. ज्ञान प्राप्त करने पर अहंकार नहीं करता।
पीइदाणं दलयंति (३/१) ९. किसी की स्खलना या भूल होने पर उसका तिरस्कार एवं अणीयस कुमार के माता-पिता कलाचार्य का मधुर वचनों से उपहास नहीं करता।
सम्मान करते हैं, विपुल वस्त्र गंध माला अलंकार (आभूषण) प्रदान
कर सत्कार और सम्मान करते हैं, तथा सम्मानपूर्ण जीविका योग्य act १०. मित्रों पर क्रोध नहीं करता, सहाध्यायियों से झगड़ता
विपुल प्रीतिदान देते हैं। 30 नहीं। 624
इस प्रकार देखा जाता है कि प्राचीन काल में विद्यादाता ११. मित्र के साथ अनबन होने पर भी उसके लिए भलाई की
गुरुजनों का समाज में सर्वाधिक सम्मान और सत्कार किया जाता बात करता है। एकान्त में भी उनकी निंदा नहीं करता।
था और जीवन निर्वाह की कोई समस्या उन्हें चिन्तित नहीं १२. जो कलह या मारपीट नहीं करता।
करती थी। १३. जो स्वभाव से कुलीन और उच्च है।
विद्यार्थी जहाँ गुरुजनों के प्रति समर्पित होता था, वहाँ गुरुजन
भी विद्यार्थी के प्रति पितृवत् वात्सल्य रखते थे। गुरु-शिष्य के १५. बुरा कार्य करने में जिसे लज्जा अनुभव होती है। 1600
सम्बन्ध पिता-पुत्र की भाँति मधुर और स्वार्थ रहित-आत्मीय होते १५. जो अपने आपको संयत और शान्त रख सकता है।
थे। दशवैकालिक में बताया है जो शिष्य गुरुजनों को विनय, भक्ति गुरुजनों के प्रति आदर व कृतज्ञता
एवं समर्पण भाव से प्रसन्न करता है, गुरुजन भी उसे उसी प्रकार
योग्य मार्ग में नियोजित करते हैं, जैसे पिता अपनी प्यारी पुत्री को जैन शिक्षा पद्धति पर शिक्षार्थी के मानसिक गुणों के विकास में ।
योग्य कुल में स्थापित करता है।३६ सर्वाधिक महत्व की बात है, गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता तथा आदर
इस सन्दर्भ में आचार्य विनोबा भावे का यह कथन भी बड़ा भावना। दशवैकालिक सूत्र मे बताया है
सटीक है-गुरु-शिष्य के बीच माता और पुत्र जैसा मधुर सम्बन्ध जो सुकुमार राजकुमार उच्च कुलीन शिष्य गुरुजनों से लौकिक
होना चाहिए। माता बालक को स्तनपान कराती है तो क्या वह शिक्षा, शिल्प आदि सीखते हैं, गुरुजन उन्हें शिक्षाकाल में कठोर
अभिमान या एहसान अनुभव करती है कि मैं स्तनपान कराती हूँ। बंधन, ताडना, परिताप आदि देते हैं फिर भी शिष्य उनका सत्कार
नहीं? इसमें दोनों को ही आनन्द का अनुभव होता है; और दोनों करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, तथा प्रसन्न करके उनके निर्देश के के बीच मधुर वात्सल्य रस बहता है। अध्ययन-अध्यापन में अनुसार वर्तन करते हैं।३५ इस पर टिप्पण करते हुए आचार्य गुरु-शिष्य की भी यही भूमिका होनी चाहिए।
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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इसी सिलसिले में कैनेथ वाउल्डींग का एक बहुत सुन्दर वाक्य करने का ही मुख्य उद्देश्य रह गया है। आज की शिक्षा वास्तव में
एकांगी है। विद्यार्थी के सामने भी बहुत सीमित-छोटा सा लक्ष्य When we love, we increase love with others
रहता है, और गुरु के सामने केवल अपनी आजीविका (नौकरी) and in ourselves as teacher increases knowledge
का ही ध्येय रहता है, इसलिए शिक्षा फलदायिनी नहीं होती और न within his student and himself by the simple act
ही जीवन का विकास कर पाती है। किन्तु प्राचीनकाल के संदर्भो से of the teach us.
यह पता चलता है कि कला शिक्षण का उद्देश्य आजीविकोपार्जन जब हम प्रेम करते हैं, तब प्रेम को बढ़ाते हैं, औरों में और
करना मात्र नहीं था, किन्तु छात्र के व्यक्तित्व का संतुलित समग्र अपने में, जैसे कि एक शिक्षक ज्ञान को बढ़ाता है, विद्यार्थियों में ।
विकास करना उद्देश्य था। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति और अपने में सिखाने की एक सादी सी क्रिया के द्वारा।
समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जी सके और साथ ही समाज के
बहुमुखी विकास में योगदान कर सके-शिक्षा का यह प्रथम गुरु शिष्य का यह भाव ही जैन सूत्र दशवैकालिक के ९वें ।
उद्देश्य था। अध्ययन में विभिन्न सुन्दर उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। उपनिषद में एक वाक्य आता है-तेजस्विनावधीतमस्तु-हमारा
इसके साथ ही शिक्षा प्राप्त करने का एक महान उद्देश्य भी हैअध्ययन तेजस्वी हो। हमारा ज्ञान जीवन में प्रकाश और तेज पैदा
और वह है आत्मज्ञान प्राप्त करना। जीवन में अर्थ प्रथम करे। दशवैकालिक में भी कहा है-गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त
आवश्यकता है, परन्तु सर्वोपरि आवश्यकता नहीं। मनुष्य के मन में करने वाले शिष्य का ज्ञान, यश और तेज “शीतल जल से सींचे
भूख असीम है, अनन्त है, इसे धन, यश, सत्ता आदि की खुराक हुए पादप की भाँति बढ़ते हैं। जल सित्ता इव पायवा। तथा जैसे घृत
शान्त नहीं कर सकती। मन की शान्ति के लिए केवल एक ही सिंचित अग्नि का तेज बढ़ता है, वैसे ही विनय से प्राप्त विद्या
उपाय है, और वह है-आत्मज्ञान! आत्मविद्या! विद्यार्थी के सामने तेजस्वी होती है।
ज्ञान प्राप्ति का विशिष्ट और महान उद्देश्य यही है। इसी अध्ययन में विनय और अविनय का फल बताते हुए दशवैकालिक सूत्र में श्रुत समाधि४0 का वर्णन है। जिसका आचार्य ने बहुत ही स्पष्ट बात कही है
अर्थ है ज्ञान प्राप्ति से चित्त की समाधि और शांति की खोज विपत्ति अविणीयस्स संपत्ति विणियस्स य।
करना। उसके लिए शिक्षार्थी अपने मन में एक पवित्र और महान
लक्ष्य निश्चित करता है। अविनीत को सदा विपत्ति और विनीत को संपत्ति प्राप्त होती। है, जिसने यह जान लिया है, वही शिष्य गुरुजनों से शिक्षा और १. अध्ययन करने से मुझे आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होगी। ज्ञान प्राप्त कर सकता है।३७
२. ज्ञान प्राप्ति से मेरे चित्त की चंचलता दूर होगी, एकाग्र Place शिक्षा का उद्देश्य
चित्त बन सकेगा।
३. मैं स्वयं को धर्म में, सदाचार में स्थिर रख सकूँगा। जैन आगमों व अन्य व्याख्या ग्रंथों के परिशीलन से इस बात का भी पता चलता है कि विद्यार्थियों को सिर्फ अध्यात्म ज्ञान ही ४. मैं स्वयं धर्म में स्थिर रहकर दूसरों को भी धर्म में स्थापित नहीं, किन्तु सभी प्रकार का ज्ञान दिया जाता था। भगवान ऋषभदेव कर पाऊँगा। ने आत्मज्ञान से पूर्व अपने पुत्र-पुत्रियों को ७२ एवं ६४ प्रकार की इन चार उद्देश्यों पर चिन्तन कर शिक्षार्थी ज्ञानाराधना में प्रवृत्त कलाएँ तथा विविध विद्या, शिल्प आदि का प्रशिक्षण दिया था। इन
होता है। कलाओं की सूची से स्पष्ट होता है कि इनमें वस्त्र निर्माण, वास्तु कला, कृषिकला, गायन कला, शासन कला (राजनीति) काव्यकला,
स्थानांग सूत्र में४१ कुछ भिन्न प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पाँच नृत्यकला, युद्धकला, मल्लविद्या, यहाँ तक कि कामकला का भी।
विशिष्ट उद्देश्य बताये गये हैंसमावेश था।३८
१. शिक्षा प्राप्त करने से ज्ञान की प्राप्ति होगी। शारीरिक, मानसिक, विकास के समग्र साधन काम में लिये २. दर्शन (सम्यग् बोध) की प्राप्ति होगी। जाते थे और शिक्षार्थी को समाज में सम्मानपूर्वक आजीविका तथा
३. चारित्र (सदाचार) की प्राप्ति होगी। उच्चजीवन स्तर यापन के योग्य बनाया जाता था।३९
४. दूसरों के कलह, अशान्ति, द्वेष आदि का शमन कर आज विद्यार्थी के सामने शिक्षा प्राप्त करने का सबसे पहला
स|गा। ज्ञानी बनकर समाज में शान्ति स्थापित कर सकूँगा। उद्देश्य है-डिग्री (उपाधि) प्राप्त करना तथा उसके पश्चात् कोई रोजगार प्रधान शिक्षण लेना। इन सबके पीछे, आजीविका प्राप्त ५. वस्तु पदार्थ का यथार्थ स्वरूप जान सकूँगा।
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________________ P300-00000 0 0000003 1690saap G00000 DOODP00 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / उपसंहार-इस प्रकार भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रन्थों तथा बना देता है। व्यक्ति समाज का एक अभिन्न घटक है। निश्चित ही मुख्यतः जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से प्राचीन शिक्षा प्रणाली का जो अगर उसके व्यक्तित्व का, शारीरिक, मानसिक, नैतिक और Magar स्वरूप उपलब्ध होता है, उससे यह पता चलता है कि प्राचीन काल आध्यात्मिक विकास होगा, उसमें तेजस्विता आयेगी। तो समाज 00000 में शिक्षा या ज्ञान-प्राप्ति का उद्देश्य व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास / स्वयं ही प्रगति और उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा। अतः करना था। शरीर एवं इन्द्रियों का विकास करना मात्र शिक्षा का व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु जो मानदंड, नियम, योग्यता, पात्रता उद्देश्य नहीं है, यह तो पशुओं में भी होता है, पक्षियों और तथा पद्धतियाँ प्राचीन समय में स्वीकृत या प्रचलित थीं, उनके कीट-पतंगों में भी होता है। मनुष्य के भीतर तो असीम शक्तियों के अध्ययन/अनुशीलन के आधार पर आज की शिक्षा प्रणाली पर 488 विकास की संभावना छिपी है, शिक्षा के द्वारा उन शक्तियों को व्यापक चिन्तन/मनन अपेक्षित है, परिवर्तन और परिष्कार भी Kees-जागृत एवं प्रकट किया जाता है। वांछनीय है। प्राचीन भारतीय जैन शिक्षा प्रणाली भारत की जलवायु तथा मानसिकता के अनुकूल थी, अतः उन सन्दर्भो के साथ आज पत्थर या मिट्टी में मूर्ति बनने की योग्यता तो है ही, कुशल की शिक्षा प्रणाली पर आवश्यक चिन्तन होना अपेक्षित है। PHOTS शिल्पकार उसे सुन्दर आकृति देकर उस क्षमता को प्रकट कर देता है। गुरु को इसी लिए कुम्भकार शिल्पकार बताया है जो विद्यार्थी पता : दिवाकर प्रकाशन 206900PP की सुप्त/निद्रित आत्मा को जागृत कर तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न ए-७, अवागढ हाउस एम. जी. रोड, आगरा-२८२00२ Sa600mm 2. 1. विस्तार के लिए देखें-१. प्रवचनसारोद्वार द्वार-२३८, गाथा 1356-58 2. धर्मसंग्रह अधिकार-१,गाथा-२० रघुवंश-३/२८/२९ (कालिदास ग्रंथावली) 3. कौटिलीय अर्थशास्त्र-प्रकरण २१-अ-४. 4. आदिपुराण (महापुराण)-१६/१०४ तथा त्रिषष्टि. 1/2 एवं आवश्यकचूर्णि 5. कुमार सातिरेग अट्ठवास सयं जायं अम्मापियरो कलायरियस्स उवणेति' ...'भगवती सूत्र 11/11, ज्ञातासूत्र 1/1, अन्तकृद्दशासूत्र-३/१ गुणचन्द्र का महावीर चरित्र तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरितं देखें। 7. पढम दसाड-अट्ठवरिसोवरि, नवम-दसमेसु दीक्खा-निशीथचूर्णि उद्देशक-११ 8. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-५ 9. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-१२ 10. ललित विस्तर, पृष्ठ-१४३ 11. चुल्लवग्ग-१-७-२, डा. हरीन्द्रभूषण जैन-प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति 12. चत्तारि बायणिज्जा-विणीते, अविगतिपडिबद्धे, विओसितपाहडे अमाई स्थानांग-४/सूत्र 453 13. तओ अवायणिज्जा-दुट्टे, मढे. वग्गहिए-स्थानांग-३ 14. उत्तराध्ययन-१/३७-३९ 15. (1) अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे॥ (2) नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वच्चई॥ -उत्तराध्ययन-११/४-५ 16. आदि पुराण (भाग-१) 140-148 तथा आदि पुराण (खण्ड-३) 38/109-1118 17. उत्तराध्ययन-११/३ 18. आदि पुराण-भाग-१ 19. सेलघण-कुडग-चालणि परिपूणग हंस-महिस-मेसेय-मरुग-जलुग-विराली। 20. आणा णिदेस करे, गरूणमुववाय कारए। इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति बुच्चइ।। -उत्तरा. 1/2 21. एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो-दशवै. 9/2/2 22. उत्तरा. 1/9 23. उत्तरा. 114 24. भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा। -आचारांग-२/३/३ 25. अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं, गुरुभक्ति भावसुस्सूसाविणओ एस वियाहिओ -उत्त. 30/32 26. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं, पियं करे पियं वाई से सिक्खं लक्ष्मरिहइ उत्त.-११/१४ 27. उत्तरा.-१/१७ 28. छांदोग्य उपनिषद् 7/8/1 29. उत्तरा.-१/२२-२३ 30. उत्तराध्ययन-२२-२३ 31. देखिए भगवती सूत्र के प्रसंग 32. सूत्रकृतांग-२/७/३७ 33. उत्तराध्ययन-११/१४ 34. उत्तरा.-११/१०-१४ 35. दशवै. ९/२/१४-१५,जिनदास चूर्णि पू. 314, दसवेआलियं, पृ. 439 36. दशवैकालिक-९/३/१३ 37. दशवै. 1/2/31 जिनदासचूर्णि पू. 341, दसवैआलिय-पृ. 439 38. देखें-त्रिषष्टिशलाका-१/२, आवश्यकचूर्णि तथा महापुराण पर्व-१६ 39. इसी के साथ-भगवती 31, ज्ञातासूत्र-१/२, अन्तकृद्दशा सूत्र-३/१ आदि में कला शिक्षण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। 40. दशवैकालिक-९/४ 41. स्थानांग सूत्र-५/३ तुक SOSORRESPersofitegalpes