Book Title: Thavacchaputra Anagar Chaudhaliya
Author(s): Mehulprabhsagar
Publisher: Mehulprabhsagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी म. विरचित थावच्चापुत्र अणगारचौढालीया संपा. आर्य मेहुलप्रभसागरजी म. कृति परिचय कथा के प्रति मानव-मन सहज आकर्षित होता है। इसको लक्ष्य में रखकर धर्म-प्रचारकों ने भी कथा साहित्य को उपदेश का माध्यम बनाया है, जिससे धर्म की ज्ञेय और उपादेय बातें लोक-मानस में गहरा प्रभाव जमा सके। पूज्य महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी म. ने सरल लोकभाषा में चार ढालों में गुंफित थावच्चापुत्र अणगार चढालिया में तद्भवमोक्षगामी थावच्चापुत्र का वैराग्य, माता से रोचक वार्तालाप, श्रीकृष्ण की जनसामान्य में दीक्षा ग्रहण हेतु प्रेरणा व दीक्षार्थी के परिवार की जिम्मेदारी उनकी रहेगी, ऐसी घोषणा से एक हजार पुण्यशाली थावच्चापुत्र के साथ संयम ग्रहण हेतु तत्पर हुए। उसके पश्चात् श्रीकृष्ण के साथ समवशरण में प्रस्थान, अनशन आदि सभी घटनाओं को ज्ञाताधर्मकथांग से उद्धृत कर जनसामान्य पर उपकार किया है। इस कृति की रचना विक्रम संवत् १८४७ आसोज सुदि दशमी को महिमापुर में करने का उल्लेख स्वयं कर्ता ने अंत में किया है वरस अढारै हो सैतालिसमे, विजयदशमी सुविचार । पूरब देशे हो महिमापुर वरे, एह रच्यो अधिकार ।। प्रति परिचय खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक-१०७७ में अंकित प्रस्तुत थावच्चापुत्र अणगार चढालिया की हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि स्नेही पूज्य पंन्यास श्री पुंडरीकरत्नविजयजी म. के सहयोग से विश्वविरासत समान श्री जिनभद्रसूरि ज्ञानभंडार-जैसलमेर के संचालकों से प्राप्त हुई है। एतदर्थ वे साधुवादार्ह हैं। उनतीस पन्नों की प्रायः शुद्ध प्रति में अनेक जिनस्तवन, उपदेशक गीत व दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरिजी के गीत लिखे हुए हैं। हर पन्ने में बारह पंक्तियाँ और हर पंक्ति में चौवालिस अक्षर लिखे गये हैं। अक्षर सुंदर और सुवाच्य है। For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir 15 श्रुतसागर नवम्बर-२०१६ कर्ता परिचय चतुर्विध संघ की महिमा का गान स्वयं तीर्थंकर भगवंत देशना के पूर्व नमो तित्थस्स कहकर किया करते हैं। उसी संघ के उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित पूज्य महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी म.सा. का नाम विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भाग के गीतार्थ, विद्वान एवं लोकमान्य साधु के रूप में विख्यात है। इसी कारण उनके द्वारा रचित कृतियाँ आज जन-जन के मुख से सस्वर होती हैं। पं. नित्यानंदजी विरचित क्षमाकल्याण चरित (संस्कृत-पद्य) के अनुसार आपने बीकानेर के समीपवर्ती गांव केसरदेसर के ओसवाल वंशीय मालु गौत्र में वि.सं. १८०१ में जन्म ग्रहण किया था। जन्म का नाम खुशालचन्द था। आपने वि.सं. १८१२ में खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनलाभसूरिजी म. के विजयी राज्य में वाचक अमृतधर्मजी म. से दीक्षा ग्रहण की। आपके धर्म प्रतिबोधक और गुरु वाचकश्री अमृतधर्मजी म.थे। आपका विद्याध्ययन उपाध्याय श्री राजसोमजी म. और उपाध्याय श्री रूपचन्दजी म. (रामविजयजी) के निर्देशन में हुआ था। ___ वर्तमान में खरतरगच्छीय साधु-साध्वीजी भगवंत जिस वासचूर्ण का उपयोग करते हैं, उसे संपूर्ण विधि-विधान के साथ आपने ही अभिमंत्रित किया था। वही वासचूर्ण गुरुपरंपरानुसार आज तक दीक्षा, बड़ी दीक्षा, योगोद्वहन, पदारोहण आदि प्रत्येक विधि-विधान में आपका नाम लेकर निक्षेप किया जाता है। ऐसा उदाहरण प्रायः समग्र जिनशासन में विरल ही है। आपका स्वर्गवास बीकानेर में वि.सं. १८७३ पौष वदि १४ को हुआ था। इस वर्ष पौष वदि १४ बुधवार ता. २८ दिसम्बर २०१६ को उनके स्वर्गवास के दो सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। आपकी शिष्य संतति अद्यावधि विद्यमान है। ___ आपका विचरण क्षेत्र राजस्थान, काठियावाड, गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश आदि में प्रमुखता से हुआ। अपने जीवनकाल में जहाँ साहित्य रचना का अद्भुत कार्य अंतिम समय तक जारी रहा, वहीं परमात्म भक्ति से ओतप्रोत मन ने शताधिक रचनाएँ कर भक्तों को भावप्रवण भेंट देकर सम्यक्त्व को स्थिर किया। __ आपके द्वारा रचित साधुविधि प्रकाश, श्रावकविधि प्रकाश, प्रतिक्रमण हेतु विचार जैसे ग्रंथ आपकी क्रियाशीलता की पहचान उजागर करते हैं, वहीं For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 16 November-2016 प्रश्नोत्तर सार्धशतक, विचार शतक बीजक आदि ग्रन्थ आपकी आगम शास्त्रों की अजोड़ पकड़ को सिद्ध करते हैं। भूधातु वृत्ति से जहाँ आपकी व्याकरण के तलस्पर्शी ज्ञान की झलक मिलती है, तो तर्कसंग्रह फक्किका, मुक्तावली फक्किका (अप्राप्य) आदि ग्रंथों में आपकी प्रांजल न्यायशैली देखकर विद्वज्जन दंग रह जाते हैं। आपकी रचित अधिकांश रचनाएँ अद्यावधि अप्रकाशित हैं। जिनमें से १२१ लघुकृतियों का संकलन मेरे द्वारा किया जा रहा है। थावच्चापुत्र अणगार चौढालीया (ढाल - धर्म हियै धरौ एहनी ढाल - १ भविजन सांभलौ । आलस विषय निवारो रे, मन करी निर्मलो रे || टेर || द्वारिका नगरी अति भली रे, अलकापुरी अवतार । राज करै तिहां यदुपति रे, कृष्ण नरेसर सारो रे सेठाणी इक तिहां वसै रे, थावच्चा धन नाम । तसु नंदन गुण आगरू रे, थावच्चा पुत्र नामोरे कुलवंती कन्या भली रे, एक लगन बत्तीस । परिणावी तिण परिवर्यौ रे, सुख भोगवै निसदीसो रे तिण अवसर श्री नेमिजीरे, गिरिवर श्री गिरनार । समवसर्या नंदन वने रे, साधु अढार हजारो रे वासुदेव आदेश थी रे, ताडी भैर सुजाण । कौमोदकी नामें तिहां रे, मिलिया सहु नर राणों रे ऋद्धि तणे विस्तारथी रे, हरि वंदे प्रभु पाय । थावच्चा सुत पिण तहां रे, वांद्या श्री जिनरायौ रे वाणि सुणी जिनवर तणी रे, प्रतिबुज्यौ तिण वार । घर आवी माता भणी रे, पभणे एम कुमारो रे Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ॥१॥ 11211 ॥३॥ 11811 11411 ॥६॥ 11611 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 17 प्रभु पासे म्है सांभल्यौ रे, धर्म रूच्यो मुझ एह । मात कहै सुत धन्य तूं रे, वलि कृतपुण्य अछेहो रे कुमर कहै वलि मातजी रे, दीजै मुझ आदेश । प्रभु पासै जई आदरूं रे, संयम सुगुण निवेसो रे मात सुणी असुहामणो रे, ए सुत वचन विचार । पुत्र विरहे व्याकुल थई रे, धरणि ढली तिण वारो रे वलि शीतल उपचार थी रे, सावधान थई मात । विलपंती कहे पुत्र ने रे, दीन वयण ईणि भातो रे ढाल - २ (ढाल - जीवन जादा रहो रहो एहनी) इष्ट कांत तु पुत्र अमारै, एकज छै बहु मान्यौ । रयण करंड समान अनुपम, दुर्लभ दरसण जाण मोहनगारा सुण सुण पुत्रपियारा सुण सुण । वारि जाउं सुण सुण प्राण आधारा || || तुम वियोग मुझ थी न खमायै, छिण एक पिण इण वारे । तिण कारण जां लगि में जीवुं, तां लगि रहि सुत सारै मानव भव संबंधी भोगवि, काम भोग सुविलासे । परणीत वय कुल वंस वधावी, व्रत लीजै प्रभु पासै पुत्र कहे नर भव अति चंचल, संध्या वांन इम जाणौ । पहिला अथवा पाछै इक दिन, तजवुं निश्चै जाणौ । माता मोरी सुणौ सुणौ । 1 वारि जाउं सुणौ सुणौ मुज विचार कुण पहिला कुण पाछै जासै, परभव एकुण जाणै । तिण कारण अनुमति मुझ दीजै, व्रत लेवा इण टांगै माता कहे वलि ए कुलवंती, बत्तीसे वरनारी । सदृश रूप लावण्य गुणाकर, भोगव सील सुधा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir नवम्बर २०१६ 11211 11811 113011 ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ मो. ॥१४॥ मो. ॥१५॥ ||१६|| माता. ॥१७॥ मो. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 18 November-2016 पुत्र कहे नर नारी केरी, काया अशुचि पिछाणो। रूधिर मांस मल मुत्रादीक नो, आश्रय ए तुम जाणो ॥१८।। माता. माय कहै मणि कनकादिक, बहु द्रव्य अछै घर मांहे। ते निज इच्छा दान भोगथी, विलसी व्रत ऊमाहै ॥१९॥ मो. थावच्चा सुत कहै ए धन नौ, मारै काम न होई। चोर अगनि जल राजादिक, बहु एहना लागु होई ॥२०॥ माता. माय भणै संयम अति दुक्कर, घोर परिसह सहवा। तुं सुकमाल शरीर मनोहर, नही पलस्यै व्रत एहवां ॥२१।। मो. कुमर कहे संयम नही दुक्कर, धीर वीर सा पुरसां। दुक्कर छै ए विषय विगूतां, कायर नै कापुरसां ॥२२॥ माता. इण परि बहु वचने परिचायौ, पण ते मन नवि धारे। विण इच्छायै अनुमति आपी, माता पिण तिण वारै ॥२३।। मो. ढाल-३ (ढाल- बे बे ममवर नी एहनी) थावच्चा माता तिण अवसरे रे, जाये कृष्ण नरेसर पास रे। विनय करिने आपे भेटणौ, भाखै इणि परि वचन विमास रे ॥२४॥ राजेसर इक सुत छै माहरे, सुंदर जीवन प्राण आधार रे। संयम लेवा ते इच्छुक थयो, करवू छे मुझ उच्छव सार रे ॥२५॥ छत्र चामर वलि मुगट मनोहरू, ते कारण दीजै महाराज रे। कृष्ण कहै तुम्ह जावौ निज घरै, हुं करसुंतसु उच्छव काज ॥२६॥ गज चढी आवे थावच्चा घरे, भाखे इण परि कृष्ण नरेस रे । तुं व्रत ल्यै मत देवाणुप्पिया रे, भोगव नर भव भोग विशेष रे ॥२७|| जेह पवन तुझ ऊपरि संचरे, तेह निवारण सगति न मुज्झ रे । बांह ग्रही छै में हिव ताहरी, कोय न करस्यै बाधा तुज्झ रे कुमर कहे दुर्जय रिपु माहरे, मरण जरा नामे दुख दिंत रे। तेह निवारो जे तुमे आवता, तो हुं भोगवू भोग निचिंत रे ॥२९॥ ॥२८॥ For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir 19 ॥३४॥ श्रुतसागर नवम्बर-२०१६ हरि कहै दुक्करकारी ज छै सहि, सुर असुरादिक ने पिण एह रे। आतम संचित कर्म खप्या विना, करि न सकै कोइ एहनो छेहरे ॥३०॥ थावच्चा सुत कहे ते कारणे, कर्म खपावा चाहुं स्वाम रे। कृष्ण नरेसर इम उद्घोषणा रे, नगरी मांहि करावै ताम रे ॥३१॥ सुणजो सह कोय देवाणुप्पिया रे॥ आंकणी। थावच्चा सुत संयम आदरै, मन शुद्ध नेम जिणेसर पास रे। जो कोई राजा युवराजा वली रे, सेठ सेनापति सुकृत निवास रे ॥३२॥ साथ करै थावच्चा सुत तणो, अनुमति द्यै तसु कृष्ण नरेसर रे। पाछल पिण तेहना परिवारनी, सार संभाल करै सुविशेष रे । ॥३३॥ सहस पुरुष संयम सन्मुख थया, तसु अनुरागे तिहां तिण वार रे । ते देखीनै कृष्ण नरेसरू, दीक्षा उच्छव करे उदार रे समवसरण पासे आवी करी, शिबिका थी ऊतरै कुमार रे। कृष्ण नरेसर निज आगल करी, प्रभु पासै ल्यावै सुविचार रे ॥३५॥ कुमर उतारे भूषण अंगथी, आपै माय भणी निस्संग रे। माता आंखें आंसु नाखती, सीखामण आपी मनरंगरे ॥३६॥ सैहथ लोच कौं संयम वौँ, सहस पुरुष साथे श्रीकार रे । थावच्चा सुत ते मुनिवर थया, अनुक्रम चउदे पूरब धार रे प्रभु आपै थावच्चा सुत भणी, शिष्य पणे ते साधु हजार रे। प्रभु आदेशे मुनिवर एकदा, बाहिर जनपद करे विहार रे ढाल-४ (ढाल- श्री जिनप्रतिमा हो जिन सारिखी कही एहनी) संवेगी नीरागी हो मुनिवर तिण समें, करता शुद्ध विहार । सैलगपुर नै हो पासे समोसर्या, नृप उद्यान मझार ॥३९॥ सेलग राजा हो आव्यो वांदवा, सांभलि धरम उदार। सद्गुरु पासै हो ततखिण आदर्या, श्रावक ना व्रत बार ॥४०॥ पंचसय मंत्री हो श्रावक व्रत ग्रह्यां, पंथग प्रमुख उल्लास। साधूजी आवे हो अनुक्रमें विचरतां, सोगंधिका पुरी पास ॥४१॥ ॥३७|| ॥३८॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir // 42 // // 44|| SHRUTSAGAR November-2016 तिण पुरि निवसै हो आढ्य शिरोमणि, शेठ सुदर्शन नाम। सेवक ते छै हो शुक तापस तणौ, सोच मूल ध्रम धाम आगम निसुणी हो सेठ सुगुरु तणो, आवै पुरी उद्यान / वादी पूछ हो मूल ते धर्म नो, मुनि कहै विनय प्रधान // 43 // गुरु मुख सुणिने हो, धरम सुहामणो, जलशुचिता अप्रमाण / जाणी ने लीधा हो व्रत श्रावक तणां, छांडी प्रथम गुणठाण शुक पिण आवे हो सुणि एह वार्ता, शिष्य सहस संघात / ततखिण जावै हो सेठ घरे तिहां, देखै न आदर वात // 45 // तब शक भाषै हो शेठ भणी इसुं, चालो तुम गुरु पास। प्रश्न पूछीने हो करशुं पारिखा, पाछलि उचित प्रकाश // 46 // इम कही जावे हो सेठ सहित तिहां, पूछ प्रश्न अनेक। गुरु पिण आपै हो उत्तर तेहने, बूझ्यो शुक सुविवेक // 47| सांख्य मत छोडी हो संयम आदर्यो, शिष्य सहस परिवार। श्री गुरु आपै हो ते शिष्य तेहनें, शुक थया पूरब धार थावच्चा पुत्र हो मुनि तदनंतरे, तिहां थी करै विहार / शिष्य सहस नै हो साथे परिवर्या, विचरै देश मझार // 49 // अनक्रमे आव्या हो विमलाचल गिरे, पथिवी सिल पट श्याम / पुंजी ने कीधो हो संथारौ तिहां, मास एक अभिराम केवल पामी हो तिहां मुगते गया, थावच्चा सुत स्वाम। एह संक्षेप हो चारित्र कह्यो इहां, विस्तर ज्ञाता ठांम // 51 // वरस अढारै हो सैतालिसमे, विजयदशमी सुविचार। पूरब देशे हो महिमापुर वरे, एह रच्यो अधिकार // 52 // वाचक गिरूआ हो गुण गण निर्मला, अमृतधर्म सुजाण। मुनि गुण गाया हो आतम हित भणी, सीस क्षमाकल्याण // 53 // // 48 // // 50 // For Private and Personal Use Only