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जैनाचार्य श्रीविजयेन्द्र सूरीश्वरजी विद्याभूषण, विद्यावल्लभ, इतिहास तत्त्व-महोदधि तुम्बवन और आर्य वज्र
जैन-ग्रन्थों में आर्य वज्र का नाम बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दों में लिया गया है. 'श्रीदुसमा-काल समणसंघ थये' में दिये प्रथमो दययुगप्रधान यंत्र में वे सुधर्मास्वामी के १८वें युगप्रधान पट्टधर बताये गये हैं और लिखा है कि उन्होंने ८ वर्ष गृहवास किया, ४४ वर्ष व्रतपर्याय पाला, ३६ वर्ष युगप्रधान रहे और इस प्रकार ८८ वर्ष ७ मास ७ दिन की सर्वायु बितायी.' भगवान् महावीर से ५४८ वर्ष पश्चात् उनका निधन हुआ.२ जैन ग्रंथों में सर्वत्र आर्य वज्र का जन्मस्थान तुम्बवन बताया गया है. उनमें से कुछ का प्रमाण हम यहाँ दे रहे हैं : १. तुबवरासंनिवेसानो निगगयं पिउसगासमल्लीणं, छम्मासियं छसु जयं माऊय समन्नियं वंदे ७६॥
-आवश्यकनियुक्ति (दीपिका, भाग १, पत्र १३६-२). २. तुम्बवण सएिणवेसे धणगिरिणाम गाहावती
-आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र ३६०. ३. अवंती जणवए तुम्बवणसन्निवेसे धणगिरी नाम इन्भपुत्तो
-आवश्यक हारिभद्रीय टीका, प्रथम भाग, पत्र २८६-१. ४. अवंतीजणवए तुम्बवणसग्निरोधणगिरी नाम इन्भपुत्तो-आवश्यक मलय गिरि टीका, द्वितीय भाग पत्र ३८७-१. ५. तुम्बवनाख्यसंनिवेशान्निर्गतं
--आवश्यक नियुक्तिदीपिका, भाग १, पत्र १३६-२. ६. तुबवण सन्निवेसे अवंतीविसयंमि धणगिरि नाम इब्भसुश्रो असि नियंगचंगिमाविजियसुररूवो ॥११०॥
-उवएस माला सटीक, पत्र २०७. ७. अस्त्यवन्तीति देशः चमासरसीसरसीरुहम् ।
यद्गुण ग्रामरोण बद्धसख्ये रमागिरौ ।२७। तत्र तुबबनो नाम निवेशः क्लेशवर्जितः ............१२८1
-प्रभावक चरित्र, पृष्ठ ३. ८. अस्यैव जम्बूद्वीपस्य भरतेऽवन्तिनीवृत्ति, आस्ते तुम्बवनमिति सन्निवेशनमद्भुतम् ।
-ऋषिमंडलप्रकरण, पत्र १९२-१. १. अवन्तिरिति देशोऽस्ति स्वर्गदेशीय-ऋद्धिभिः ।। तत्र तुम्बवनमिति विद्यते सन्निवेशनम्,
–परिशिष्ट पर्व, सर्ग १२, द्वितीय संस्करण पृष्ठ २७० १०. थेरे अज्जवइरे त्ति तुम्बवनग्राम
—कल्पसूत्र किरणावली, पत्र १७०-१. ११. तुम्बवन ग्रामे सुनन्दाभिधानां भायां साधानां भुक्त्वा धनगिरिणा दीक्षा गृहीता।
-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ५११.
१. पट्टावलीसमुच्चय प्रथम भाग पृष्ठ २३. २. श्रीवीरादष्टचत्वारिंशदधिक पंचशत ५४८ वर्षांते.
-श्रीपट्टावलीसारोद्धारः पट्टावलीसमुच्चय पृष्ठ १५०.
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६७८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
वज्रस्वामी के पिता धनगिरि इस तुम्बवन के रहनेवाले थे. उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि यह तुम्बवन अवन्ति देश में था. हम अवन्ति के सम्बन्ध में और तुम्बवन की स्थिति के सम्बन्ध में बाद में विचार करेंगे. पहले यह देख लें कि इसका विवरण अन्य साहित्यों में मिलता है या नहीं. बौद्ध-ग्रन्थों में तुम्बवन तुम्बवन और उसकी स्थिति के सम्बन्ध में बौद्ध-ग्रन्थों में आये एक यात्राविवरण से अच्छा प्रकाश पड़ता है. सुत्तनिपात में बावरी के शिष्यों का यात्राक्रम इस प्रकार वर्णित है :
बावरि अभिवादेत्या करवा च नं पदक्खिण, जटाजिनधरा सव्ये पक्कामु उत्तरामुखा ।३।। अलकम्स पतिद्वानं पुरिमं माहिस्सतिं तदा, उज्जेनिं चापि गोनद्धं वेदिसं वनसव्हय ।३६। कोसंबिं चापि साकेतं सावत्थिं च पुरुत्तमं, सेतव्यं कपिलवत्थु कुसिनारं च मंदिरं ।३७। पावं च भोगनगरं वेसालि मागधं पुरं, पासाणकं चेतियं च रमणीयं मनोरमं ।३८।
-सुत्तनिपात, पारायण वग्ग, वत्थुगाथा (भिक्खु उत्तम प्रकाशित, पृ १०८) बावरी के शिष्य अल्लक से प्रतिष्ठान, माहिष्मती, उज्जैनी, गोनद्ध, विदिशा, वनसव्हय, कोसंबी, साकेत, सावत्थी, श्वेतव्या, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, भोगनगर, वैशाली होकर मगधपुर (राजगृह) गये. इसमें वनसव्हय पर टीका करते हुए ५-वीं शताब्दी में हुए थेरा बुद्धघोष ने इसे तुम्बवन अथवा वनसावत्थी लिखा है.४ वनसव्हय का शाब्दिक अर्थ हुआ---'जिसे लोग वन कहते थे'. इसकी टीका बुद्धघोष ने तुम्बव की. 'व' का एक अर्थ 'सम्बोधन'५ भी है. अर्थात् जो 'तुम्ब' नाम से सम्बोधित होता था. इसका दूसरा नाम बुद्धघोष ने वनसावत्थी लिखा है. इससे स्पष्ट हो गया कि तुम्बवन अवन्तिराज्य में विदिशा वर्तमान भेलसा के बाद कोसंबी के रास्ते में था.
वैदिक ग्रंथों में तुम्बवन
बराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी तुम्बबन का उल्लेख आया है.
१. राहुल सांकृत्यायन ने कुशीनारा और मंदिर को पृथक् माना है. पर 'मंदिर का अर्थ नगर होता है. यह कुशीनारा के लिए ही प्रयुक्त
हुआ है. इसके लिए हम यहां कुछ प्रमाण दे रहे हैं: (अ) मन्दिरो मकरावासे मंदिरे नगरे गृहे.
-हेमचन्द्राचार्य कृत अनेकार्थ संग्रह, तृतीय कांड श्लोक ६२४, पृ० ६७. (आ) अगारे नगरे पुरं । १८३ | मंदिरं च'.
अमरकोष, तृतीय कांड, पृष्ठ २३५ (खेमराज श्रीकृष्णदास). (इ) नगरं मंदिरं दुर्ग, -भोजकृत समरांगण सूत्राधार भाग १, पृष्ठ ८६.
(ई) मंदिर-बर, देवालय, नगर, शिविर संयुद्ध-वृहत् हि० को० पृ० ६९२. २. राहुल सांकृत्यायन, आनंदकौसल्यापन और जगदीश काश्यप-सम्पादित सुत्तनिपात के नागरी संस्करण में शब्द है 'क्नसव्हयं'. ऐसा ही
पाठ हार्वर्ड ओरियंटल सीरीज, वाल्यूम ३७ में लार्ड चाल्मर्स-प्रकाशित सुत्तनिपात (पृ०२३८) में भी है. पाली इंगलिश डिक्शनरी में भी सव्य शब्द है. उसका अर्थ दिया है. 'काल्ड' नेम्ड,' (पृष्ठ १५६) पर राहुल जी ने बुद्धचर्या (पृष्ठ ३५२) पर 'साव्य' शब्द दिया है. यह पाठ कहीं भी देखने को नहीं मिला. ३. द लाइफ ऐंड वर्क आव बुद्धघोष, ला लिखित, पृष्ठ ६. ४. बारहुत वेणीमाधव बरुमा-लिखित, भाग १, पृष्ठ २८. ५. आटेज संस्कृत इंगलिश डिक्शनरी.
--भाग ३, पृष्ठ १३७७, संस्कृतशब्दाकौस्तुभ, पृष्ठ ७२६. ६. वृहत्संहिता, पंडितभूषण बी० सुब्रह्मण्य शास्त्री-सम्पादित; अ० १४, श्लोक १५, पृष्ठ १६२. 'वृहत्संहिता अर्थात् वाराहीसंहिता
दुर्गाप्रसाद द्वारा सम्पादित और अनुवादित, पृष्ठ ६६.
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(१) सांची के शिलालेखों में सात स्थलों पर तुम्बवन का उल्लेख आया है : (अ) बना गहपतिनो पतिठियस भातु ज ( 1 ) याय धजय दानम्' तुम्बवन के गृहपति पतिठिय ( प्रतिष्ठित ) के भाई की पत्नी धन्या का दान ( श्रा) तुबचना गहपतिनो पतिठिय (सु) न साथ वेसमनदखाए दानम् तुम्वन के गृहपति की पुत्रवधू श्रमणदत्ता का दान
(इ) तुबवना गहपतिनो पतिठियस दानम्
तुम्बवन के गृहपति प्रतिष्ठित का दान (ई) नागपतिनो पतिडियस दानम्*
तुम्बवन के गृहपति प्रतिष्ठित का दान (उ) सुचना गढ़पतिनो पतिरियस दानमू
तुम्बवन के गृहपति प्रतिष्ठित का दान
(ऊ) नंदूत (रस) तो व (पनिकस्स)
१७३
जैनाचार्य विजयेन्द्र सूरीश्वरजी तुम्बवन और शिलालेखों में तुम्बवन
तुम्ब (वन) के निवासी नंदुत्तर (नन्दोत्तर) का (दान)
(ए) वीर एभि खु निया तोबवनिकाय दानम्" तुम्बवन की साध्वी वीरा का दान
(२) तुम्बवन का उल्लेख तुमेन में मिले एक मंदिर के बनवाये जाने का उल्लेख है." उस शिला लेख में आता है :
शिलालेख में भी है. इस शिलालेख में कुमारगुप्त के शासन काल में एक
समानवृत्ता कृति ( भाव धीराः ) ( कृता) लयास्तुम्बवने व (भू) वुः । अकारयंस्ते गिरि (श्रि) ङ्ग तुङ्ग, शशि (प्रभं) देवनि ( वासहम्मर्यम् )। ६
स्थान- निर्णय
जैन-ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि यह तुम्बवन अवंति जनपद में था. अवन्ति के सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य ने अभिधानचिन्तामणि में लिखा है :
'मालवा स्युरवन्तयः "
२. वही, आलेख- संख्या १७ अ, पृष्ठ ३०१.
३. वही, आलेख संख्या १८, पृष्ठ ३०१. ४. वही, आलेख -संख्या २०, पृष्ठ ३०१. ५. वही, आलेख - संख्या २१, पृष्ठ ३०२. ६. वही, आलेख- संख्या ७६४, पृष्ठ ३७८. ७. वही, आलेख-संख्या ३४६, पृष्ठ ३३५.
८. ग्वालियर राज्य के अभिलेख, पृष्ठ ७३.
१. द मानुमेंट्स आव सांची(सर चार्ल्स मार्शल तथा अल्फ्रेड फाउचर लिखित, विथ टेक्स्ट् आव इंस्क्रिप्शन एडिटेड बाई एन०जी० मजूमदार एम० ए०, आलेख - संख्या १६, पृष्ठ ३०१.
९. सिलेक्ट इंस्क्रिप्शंस, खंड १, दिनेश सरकार-सम्पादित १९४२, पृष्ठ ४६७.
१०. अभिधानचिंतामणि भूमिकांड, श्लोक २२, पृष्ठ ३८१.
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६८० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
ऐसा ही उल्लेख ( मालवा स्युरवन्तयः ) ' अमरकोष में भी है. वैजयन्ती कोष में आता है :
दशायुर्वेद मालवास्स्युरवन्तयः *
इस मालव का उल्लेख जैन आगमों में भी मिलता है. भगवती सूत्र में जहाँ १६ जनपद गिनाये गये हैं, उनमें एक 'मालवगाण' का भी उल्लेख है. पर जैन ग्रंथों में जहाँ २५|| आर्य देशों का उल्लेख है, उनमें दशार्ण भी एक गिना जाता है. वहाँ मालव की गणना अनार्य देशों में की गई है. भगवान् महावीर दशार्ण तो गये पर मालव वे कभी नहीं गये.
और, बौद्ध ग्रन्थों में बुद्ध ने आर्य देश की सीमा इस प्रकार बतायी है :
"भिक्षुओ ! अवन्ति दक्षिणापथ में बहुत कम भिक्षु हैं, भिक्षुओं ! सभी प्रत्यन्त जनपदों में विनयधर को लेकर पांच भिक्षुओं के गण से उपसम्पदा ( करने) की अनुज्ञा देता हूँ. यहाँ यह प्रत्यन्त जनपद है-पूर्व में कजंगल नामक निगम है, उसके बाद शाल (के जंगल) हैं. उसके परे 'इधर से बीच' में प्रत्यन्त जनपद है. पूर्व-दक्षिण दिशा में सलिलवती नामक नदी है. उससे परे इधर से बीच में प्रत्यन्त जनपद है. दक्षिण दिशा में सेतकणिक नामक निगम है. पश्चिम दिशा में थूण नामक ब्राह्मण गाम० उत्तर दिशा में उसीरध्वज नामक पर्वत उससे परे प्रत्यन्त जनपद है. "६ बुद्ध द्वारा निर्धारित इस सीमा में मालव नहीं पड़ता और बुद्ध वहाँ गये भी नहीं. वहाँ के राजा पज्जोत ने श्रामंत्रित करने के लिए कात्यायन को भेजा. कात्यायन बुद्ध का उपदेश सुनकर साधु हो गया. बाद में जब उसने राजा की ओर से आमंत्रित किया तो बुद्ध ने कहा कि तुम्हीं वहाँ जाकर मेरा प्रतिनिधित्व करो. इस लिखा है-" शास्ता ने उनकी बात सुन बुद्ध ( केवल ) एक कारण से न जाने योग्य स्थान में नहीं जाते, इसलिए स्थविर को कहा - "भिक्षु तू ही जा...
"द
और अवन्ति के उल्लेख से तो भारतीय साहित्य भरा पड़ा है.
वैदिक साहित्य में अवन्ति
१. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में जहाँ सीता को खोजने के लिए पूतों के भेजे जाने का उल्लेख है, वहाँ आता है
१. अमरकोष, द्वितीय कांड, भूमि वर्ग, श्लोक ६, पृष्ठ २७८.
- खेमराज श्री कृष्णदास बम्बई
२. वैजयन्ती कोष, भूमिकांड. देशाध्याय, श्लोक ३७, पृष्ठ ३८.
३. तंजहा - १ अंगाणं २ बंगाणं, ४ मगहाणं, ४ मलयाणं ५ मालवगाणं, ६ अच्छा, ७ वच्छा, ८ कोच्छाएं, ६ पाढा, १७ लाढा, ११ बज्जाणं, १२ मोली, १३ काली १४ कोसलाणं, १५
अवाहाणं. १६ संभुतराणं.
- भगवती सूत्र, शतक १५, सूत्र ५५४, पृष्ठ २७. ४. वृहत्कल्पसूत्र सटीक विभाग ३, पृष्ठ ६१३ प्रज्ञापना सूत्र मलयगिरि की टीका सहित पत्र, ५५-२ सूत्रकृतांग सटीक प्रथम भाग, पत्र १२२ प्रवचनसारोद्धम् सटीक, भाग २ पत्र ४४०३।१-२.
५. (अ) सग जवण सवर बब्बर काय मुरू डोड गोण पक्कणया । अरबाग होण रोमय पारस खस खासिया चेव । ७३ ।
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बुद्ध को बुद्ध को प्रसंग में
दु विलय उस बोवकस भिल्लंघ पुलिंद कुंच भमररुना । कोबाय चीण चंचुय मालव दमिला कुलग्या या ॥ ७४ ॥ केक्कय किराय हयमुहं खरमुह गयतुरय मिंढयमुहा य । हयकन्ना गयकन्ना अन्नेऽवि अणारिया बहवे । ७५ । पावाय चंडकमा अरवा निधिणा निरगुतावी । धम्मोत्ति अक्खराई सुमिणेऽत्रि न नज्जए जाएं ।
(आ) प्रश्नव्याकरण सटीक पत्र १४-१ पररणवरणा (बाबूवाला) पत्र ५६-१
६. बुद्धचर्या, पृष्ठ ३७१ (१९५२ ई० ).
७. डिक्शनरी व पाली प्रार नेम्स, भाग १, पृष्ठ १३३.
८. बुद्धचर्या पृष्ठ ४५.
-प्रवचन सारोद्धार, उत्तरार्द्ध पत्र ४४५-२, ४४६.१.
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जैनाचार्य विजयेन्द्र सूरीश्वर तुम्बवन और आर्य वज्र ६८१ श्रब्रवंतीमवंतीञ्च सर्वमेवानुपश्यत'
२. महाभारत में इस प्रदेश के दो राजाओं-विंद और अनुविंद का उल्लेख आया है. इनका सहदेव के साथ समर हुआ है.
ये कौरवों के पक्ष में महाभारत में लड़े थे. द्रोणपर्व में आया है कि अर्जुन ने इनको परास्त किया. ३ टी० आर० कृष्णाचार्य - सम्पादित महाभारत के उपोद्घात के साथ प्रकाशित वर्णानुक्रमणिका
और उसके सम्बन्ध में लिखा है :
सेकापरसे कयोर्नर्मदायाश्च दक्षिणतो विद्यमानो मालवदेशान्तर्गतो देशः । - वर्णानुक्रमणिका, (महाभारत), पृष्ठ १६.
३. इनके अतिरिक्त कितने ही ग्रन्थ पुराणों में अवन्ती नगर का उल्लेख है:
(a) अवन्ती नगरे रम्ये दीक्षितां ऋषिसत्तमः, सत्कुलीनः सदाचारः शुभकर्मपरायणः ।
- शिवपुराण, ज्ञान सं० २५ अ० (a) अन्त्यां तु महाकालं शिवं मध्यमकैश्वरे । - शिवपुराण सनत्कुमार सं० ३१ अ० (इ) श्रवन्तीनगरी रम्या मुक्तिदा सर्वदेहिनाम्, शिप्रा चैव महापुण्या वर्तते लोकपावनी |
- शिवपुराण, ज्ञान सं० ४६ अ०
- शिवपुराण, ज्ञान सं० ४६ अ०
(ई) श्रवन्ती नगरी रम्या तत्रादृश्यत वै पुनः
( उ ) स्कंदपुराण में तो एक पूरा अवन्ती खंड है. उसमें आया है :
अवन्तिकायां विहितावतारं ।
अवन्ति पुण्यनगरी प्रतिकल्योद्भवा शुभा । अस्ति चोज्जयिनी नाम पुरो पुण्यफलप्रदा ।
यत्र देवो महाकालः सर्वदेवगुणैः स्तुतः ।
(क) गरुड़ पुराण में इसकी गणना ७ तीर्थस्थानों में की गई है : अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । पुरी द्वारावती चैव सप्तैताः मोक्षदायिकाः ।
(ए) श्राज्ञा चक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धनि । स्वधिष्ठानं स्मृता काञ्ची मणिपूरमवन्तिका । नाभि देशे महा कालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः ।
(3) श्रीमद्भागवत में सन्दीपनि के आश्रम के प्रसंग में आया है :
अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः काश्यां सान्दीपनि नाम ह्यवन्तीपुरवासिनः ।
— श्रीमद्भागवत, द्वितीय भाग, दशम स्कंध, अ० ४५, श्लोक ३१, पृष्ठ ४०३ (गोरखपुर)
१. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, किष्किंधा कांड, २. विन्दानुविन्दावावन्त्यौ सैन्येन महता वृतौ ।
- वाराह पुराण.
जिगाय समरे वीरावाश्विनेयः प्रतापवान् ।। महीपालो, महावीर्यैर्दक्षिणापथवासिभिः । आवन्त्यौ च महापालौ महाबल-सुसंवृतौ । २५. ३. विन्दानुविन्दावावन्त्यों विराटं दशभिः शिरैः । जन्तुः सुसंक्रुद्धौ तव पुत्रहितैषिणी ।।
- महाभारत, सभापर्व, अध्याय ३२, श्लोक ११, पृष्ठ ५०.
- महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय १६, श्लोक २५, पृष्ठ २५. -- महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय १३, श्लोक ४, पृष्ठ१४०.
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६८२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
४. पुराणों से भी प्राचीन साहित्य में अवन्ति का उल्लेख है:
( अ ) अवन्तीस्थावन्तीस्त्यावन्तु
(आ) देवीं वाचमजनयन्त यद्वाग्वदन्ति......
चाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे वाचं गंधर्वा पशवोः मनुष्यः ।
यात्रीमा विश्वा भुवनान्यर्पिता सानो हवं तामपत्नी
वागक्षरं प्रथमजा ऋतस्य वेदानां माताऽमृतस्य नाभिः ।
सा नो जुषाणोपयज्ञमागात्, अवन्ती देवी सुहवा मे श्रस्तु । तैत्तरीय ब्राह्मण २, ८, ८.
(इ) अवन्तयोऽगमगधाः सुराष्ट्राः दक्षिणापथा, उपावृत्सिन्धुसौवीरा एते संकीर्णयोनयः
- बौद्धायन धर्मसूत्र १, १२, १८ काशी संस्कृत सीरीज, (१९३४) पृष्ठ १० (ई) स्त्रियामवन्तिकुन्ति कुरुभ्यश्च पाणिनि अष्टाध्यायी, ४, १, १७६.
इस प्रकार के अनेक उल्लेख अवन्ति के मिलते हैं.
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बौद्ध ग्रन्थों में अवन्ति
बौद्ध साहित्य में भी अवन्ति के अनेक उल्लेख हैं :
१. बौद्ध साहित्य में १६ महाजनपदों के नाम मिलते हैं. उनमें एक जनपद अवन्ति भी बतायी गयी है और उसकी राजधानी का नाम उज्जैन बताया गया है' परन्तु, अन्य स्थल पर एक उल्लेख से ज्ञात होता है कि कुछ कालतक महिस्सति (महिष्मती) अवन्ति की राजधानी थी. २
ગ્
-तैत्तरीय ब्राह्मण ३, ६, ६, १,
महावग्ग में इसे दक्षिणापथ में बताया गया है? बुद्ध के समय में यहाँ पज्जोत नाम का राजा राज्य करता था. इनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रसंगों में भी अवन्ति के उल्लेख आये हैं.
जैन ग्रंथों में प्रवन्ति का स्थाननिर्णय
अवन्ति थी कहाँ, इसका स्पष्टीकरण करते हुए जैन ग्रंथों में आता है :
१. उज्जयिनी नगरी प्रतिबद्धे जनपदविशेषे
२. अस्थि अवन्ति विसए उज्जेणी पुरवरी जयपसिद्धा । कुलभूषणो य सिट्ठी तम्भज्जा भूसरा नामा | ३. ( अ ) अवती णाम जणव ।
१. अंगुत्तर निकाय खण्ड १. पृष्ठ २१३, खंड ४ पृष्ठ २५२, २५६, २६०. २. दन्तपुरं कलिङ्गानं, अस्सकानञ्च पोतने ।
माहिरमति अवन्तीनं, सोवीरानन्व रोरुके । मिथिला च विदेहानं, चम्पा अंगेसु यापिता वाराणसी च कासीनं, एते गोविन्द यापिता ||
तत्थ य श्रमरावइ सरिसलीलाविलंबिया उज्जेणी नाम नयरी ।
३. अवन्ति दक्खिणापथे महावग्ग, पृष्ठ २१४ (नालंदा).
४. विनयपिटक, महावग्ग (मूल) पृष्ठ २१२ (नालंदा).
जैन ग्रन्थों में उसका नाम चंडपज्जोय (चण्डप्रद्योत ) आता है.
५. राजेन्द्राभिधान खण्ड १, पृष्ठ ७८७ देखिए 'आवश्यक मलयगिरि' (द्वि०)
- सुपासनाहचरियं, पृष्ठ ३६६.
- वसुदेव हिंडी पृष्ठ ३६.
-दीघनिकाय (२) महावग्ग, सं० १९५८) पृष्ठ १७५. -दीघनिकाय राहुल का अनुवाद पृष्ठ १७१
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जैनाचार्य विजयेन्द्र सूरीश्वर : तुम्बवन और आर्यव ज : ६८३ (आ) अस्थि अवन्ति नाम जणवो । तत्य उज्जेणी नाम नयरी रिद्धिस्थिमियसमिद्वा ।
-वसुदेव हिंडी पृष्ठ, ४६. ४. चण्डप्रद्योतनाम्नि नरसिंहे अवन्ति जनपदाधिपत्यमनुभवति नव कुत्रिकापण उज्जयिन्यामासीरन्.
-बृहत्कल्पसूत्र सटीक भाग ४, पृष्ठ ११४५. ऐसा ही उल्लेख दिगम्बर ग्रन्थों में भी आया है:
अवन्तिविषयः सारो विद्यते जनसंकुलः ।। जिनायतन साणूर सौधापणविराजितः। तत्रास्ति कृतिसंवामा श्रीमदुज्जयिनी पुरी ।।
-हरिषेणाचार्य कृत बृहत्कथाकोष, पृष्ठ ३. इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि अवन्ति देश की राजधानी उज्जयिनी थी और उसे राष्ट्र के नाम पर अवन्ति भी कहते थे.' और उस अवन्ति देश में ही, जो दक्षिणापथ में था, तुम्बवन था, जिसका उल्लेख जैन, बौद्ध और हिन्दू सभी ग्रन्थों में मिलता है. इसकी स्थिति अब पुरातत्त्व से निश्चित हो गई है. प्राचीन काल के तुम्बवन का अर्वाचीन नाम तुमेन है. यह स्थान गुना जिले में है. बीना-कोटा लाइन पर स्थित टकनेरी (जिसे पछार भी कहते हैं. इसका वर्तमान नाम अशोक नगर है.) से ६ मील दूर दक्षिण पूर्व में तुमेन स्थित है. यह अशोक नगर बीना से ४६ मील और गुना से २८ मील दूर है. इस तुमेन में एक शिलालेख मिला है, जिसमें तुम्बवन का उल्लेख है. उसका जिक्र हम ऊपर कर आये हैं. वहां एक और शिलालेख मिला है, जिसमें एक सती के दाह का और छत्री बनाये जाने का उल्लेख है.२
आर्य वज्र इसी तुम्बवन में आर्यवज्र का जन्म हुआ था. इनका चरित्र परिशिष्ट पर्व (सर्ग १२, पृष्ठ २७०-३५० द्वितीय संस्करण) उपदेशमाला सटीक (२०७-२१४), प्रभावक चरित्र (३-८), ऋषिमंडल प्रकरण (१९२-२-१६६-१), कल्पसूत्रसुबोधिका टीका आदि ग्रंथों में मिलता है. उनके पिता का नाम धनगिरि था. उनके लिए इब्भपुत्र लिखा है. इब्भ शब्द का अर्थ हेमचन्द्र ने देशीनाममाला में लिखा है.
इन्भो वणिए. इब्भ और वणिया दोनों समानार्थक हैं. उनका गोत्र ‘गौतम लिखा है. धनगिरि धर्मपरायण व्यक्ति थे. जब उनके विवाह की बात उठती तो वे कन्या वालों से कह आते कि मैं तो साधु होने वाला हूं. पर, धनपाल नामक एक श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री सुनन्दा का विवाह धनगिरि से कर दिया. अपनी पत्नी को गर्भवती छोड़कर धनगिरि ने सिंहगिरि से दीक्षा ले ली. कालान्तर में जब बच्चे का जन्म हुआ तो अपने पिता के दीक्षा लेने की बात सुनकर बालक को जातिस्मरण ज्ञान हुआ.
१. उज्जयिनी स्याद् विशालावन्ती पुष्पकरण्डिनी.
--अभिधानचिंतामणि, भूमिकांड श्लोक, ४२, पृष्ठ ३१०. २. ग्वालियर राज्य के अभिलेख, पृष्ठ ७१. ३. उपदेशमाला सटीक, गाथा ११०, पत्र २०७, ऋषिमंडल प्रकरण, गाथा २, पत्र १९२-१. परेशिष्ट पर्व, द्वादशवर्ग, श्लोक ४,
पृष्ठ २७०. ४. देशीनाममाला प्रथम वर्ग श्लोक ७६. पृष्ठ २८ (कलकत्ता विश्व०) अभिधानचिंतामणि में लिखा है-'इभ्य आढ्यो धनीश्वरः
(मर्त्यकांड, श्लोक २१, पृष्ठ १४७). ऐसा ही उल्लेख पाइअ-लच्छीनाममाला में है-'अड्ढा इन्भा धणियो' (पृष्ठ १२) ५. अज्जवहरे गोयम सगुत्ते कल्प सू० सुबी०टी० पत्र ४६३.
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६८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
माता का मोह कम करने के लिये बालक दिन-रात रोया करता. एक दिन धनगिरि और समित भिक्षा के लिये जा रहे थे. उस समय शुभ लक्षण देखकर उनके गुरु ने आदेश दिया कि जो भी भिक्षा में मिले ले लेना. ये दोनों साधु भिक्षा के लिये चले तो सुनन्दा ने (जो अपने बच्चे से ऊब गयी थी ) बच्चे को धनगिरि को दे दिया. उस समय बच्चे की उम्र ६ मास की थी. धनगिरि ने बच्चे को झोली में डाल लिया और लाकर गुरु को सौंप दिया. अति भारी होने के कारण गुरु ने बच्चे का नाम वज्र रख दिया और पालन-पोषण के लिये किसी गृहस्थ को दे दिया. श्राविकाओं और साध्वियों के सम्पर्क में रहने से बचपन में ही बच्चे को ग्यारह अंग कंठ हो गये. बच्चा जब तीन वर्ष का हुआ तो उसकी माता ने राजसभा में विवाद किया. माता ने बच्चे को बड़े प्रलोभन दिखाए पर बालक उधर आकृष्ट नहीं हुआ और धनगिरि के निकट आ कर उनका रजोहरण उठा लिया.
जब वज्र ८ वर्ष के थे तो गुरु ने उन्हें दीक्षा दे दी. उसी कम उम्र में ही देवताओं ने उन्हें वैक्रिय लब्धि और आकाशगामिनी विद्या दे दी. वज्र स्वामी ने उज्जयिनी में भद्रगुप्त से दस पूर्व की शिक्षा ग्रहण की.
कालान्तर में आर्य वज्र पाटलिपुत्र गये. वहाँ रुक्मिणी नामक एक श्रेष्ठि-कन्या ने आर्य वज्र से विवाह करना चाहा पर आर्यवज्र ने उसे दीक्षा दे दी. पाटलिपुत्र से श्रार्यवज्र पुरिका नगरी गये. वहाँ के बौद्ध राजा ने जिन मन्दिरों में पुष्पों का निषेध कर दिया था. अतः पर्युषणा में श्रावकों की विनती पर आकाशगामिनी विद्या द्वारा माहेश्वरीपुरी (वाराणसी) जाकर एक माली से पुष्प एकत्र करने को कहा और स्वयं हिमवत पर जाकर श्री देवी प्रदत्त हुताशनवन' से पुष्पों के विमान द्वारा पुरिका आये और जिन शासन की प्रभावना की तथा बौद्ध राजा को भी जैन बनाया.
एक दिन आर्य वज्र ने कफ के उपशमन के उद्देश्य से कान पर रखी सोंठ प्रतिक्रमण के समय भूमि पर गिर गयी. इस प्रमाद से अपनी मृत्यु निकट आयी जानकर आर्य वज्र ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा - "अब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा. जिस दिन मूल्य वाला भोजन तुम्हें भिक्षा में मिले उससे अगले दिन सुबह ही मुभि हो जायेगा. यह कह कर उन्होंने शिष्यों को अन्यत्र विहार करा दिया और स्वयं रथावर्त पर्वत पर जाकर अनशन करके देवलोक चले गये. यह रथावर्त विदिशा के निकट था. इसी का नाम गजाग्रपद गिरि और इन्दपद भी है. इसे राजेन्द्रसूरि ने अपने कल्पसूत्रप्रबोधिनी में स्पष्ट कर दिया है. इससे स्पष्ट है कि रथावर्त विदिशा के ही निकट था. निशीथचूर्णि में भी ऐसा ही लिखा है.
'जैन - परम्परा नो इतिहास' के लेखक ने अपनी कल्पना भिडा कर इसे मैसूर राज्य में लिख डाला और वहाँ
१. (अ) वज्रादप्यधिकं भारं शिशोरालोक्य सूरयः ।
जगत्प्रसिद्धां श्रीवज्र इत्याख्यां ददुरुन्मुदः ||
(आ) सो वि य भूमिपत्तो जा जाओ तत्व सूरिणा भणियं ।
अव्वो किं बरमिमं जं भारिय भावमुन्वद्दर । ४४
(इ) तद्भारभंगुरकरो गुरुरूचे सविस्मयः ।
अहो पुंरूपभूद्वज्रमिदं धनुं शक्यते || ५२ ||
५. निशीचूपृष्ठ १०.
६. पृष्ठ ३३७.
२. माहेश्वर्यां नगर्यां स्वनामख्याते.
३. इन्द्रपदो नाम गजाग्रपद गिरिः - 'बृहत्कल्पसूत्र सभाष्य, विभाग ४, पृष्ठ १२६८-१२६६, गाथा ४८४१.
४. असौ गिरिः प्रायो दक्षिण मालवदेशीयां विदिशां (भिसा) समया किलासीत्. आचारांगनियुक्तौ 'रहावत्तनगं' इत्युल्लेखात् आचारांग नियुक्ति रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीति मन्यते; तर्हि वज्रस्वामिनः स्वर्गगमनात्प्रागपि स गिरिरथावर्त्तनामासीदिति सगच्छेत '. - कल्पसूत्र प्रबोधिनी पृष्ठ २८२.
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- ऋषिमंडल प्रकरण, श्लोक ३४, पृष्ठ १६३-१
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-उपदेशमाला सटीक, पत्र २०८.
- परिशिष्ट पर्व, सर्ग १२, पृष्ठ २७४.
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________________ जैनाचार्य विजयेन्द्र सूरीश्वर : तुम्बवन और श्रार्य वज्र : 685 की बड़ी मूर्ति को वज स्वामी की मूत्ति बना दी. इन शास्त्रीय उल्लेखों के रहते, रथावर्त को दक्षिण में बताना और बाहुबलीकी मूर्ति को वज्रस्वामी की मूर्ति बताना दोनों ही बातें पूर्णतः भ्रामक हैं. दक्षिण वाली उस मूर्ति के लिये प्राचार्य जिनप्रभसूरि ने विविधतीर्थकल्प में लिखा है. ___ दक्षिणापथे गोमट देव श्री बाहुबलि : इसी रथावर्त के निकट वासुदेव-जरासंध में युद्ध हुआ था और इसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है." इस वर्णन में केवल नीचे लिखे नगर आर्य वज्र के जीवन से सम्बद्ध बताये गये हैं : तुम्बवन, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र, पुरिका, हिमवत हुताशनवन, रथावर्त. यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि उक्त विहार-क्रम में कहीं भी सिद्धाचल का वर्णन नहीं मिलता. आर्य शब्द का प्रयोग पहिले के युगप्रधान आचार्यों के नामों के पूर्व आर्य शब्द का प्रयोग देखा जाता है. यह परम्परा आर्य वज्रसेन तक रही जिनका स्वर्गगमन वीरात् 620 में हुआ. 1. विविध तीर्थकल्प पृष्ठ 85. 2. आवश्यक चूर्णि, पूर्व भाग, पत्र 235. 3. जैन गुर्जर-कविओ, भाग 2, पृष्ठ 707. Jain Education Intemational