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अनुसन्धान-४१
मलधारि श्रीराजशेखरसूरिकृता स्याद्वादकलिका ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि स्याद्वाद दर्शन एटले जैन दर्शन. स्याद्वाद ए समुद्र जेवू एक सर्वांगी विचारदर्शन छे, जे नदीओ जेवां विविध वा अनेक एकांगी दर्शनोने पोतामां समावी लेवानी क्षमता राखे छे. परन्तु तेना मर्मने पकडी न शकनार के पछी पकडवा माटे अनिच्छुक विद्वानोए तेने 'संशयवाद', 'खीचडो' तथा तेवां अनेक नामो वडे ओळख्यो छे. स्याद्वाद सर्व दृष्टिओना स्वीकार तेमज समन्वयमां माने छे. आ वात एकांगी दृष्टिओने मान्य नथी बनती. "आ पण खरं अने ते पण खरं ? अथवा ते पण खोटुं अने आ पण खोटुं ? - आ केम बने ? केम मनाय ? साचुं तो कोई एक ज वार्नु होय !" आ छे एकांगी के निरपेक्ष दृष्टि. आमां सापेक्षभावने कोई ज अवकाश नथी होतो. आथी ज सर्जाय छे वाद-विवादरूप मुठभेड.
आ मुठभेडमां दरेक दर्शने पोतानुं मण्डन अने अन्यनुं खण्डन कर्यु, तो साथे साथे, ए सौए 'स्याद्वाद'नुं तो एकस्वरे खण्डन ज कर्यु. आनो जवाब आपवानुं अनिवार्य बन्युं त्यारे स्याद्वादवादीओए पण खण्डन-मण्डननी प्रक्रिया तथा परिभाषा अपनावीने ओ मुठभेडमां झुकाव्यु. मूळे तेमनो आशय कोई दृष्टिने के विद्वानने ऊतारी पाडवानो नहि हतो; पण तेमनी दृष्टिमा रहेल निरपेक्ष एकान्त मान्यताने तोडवानो ज हतो. परन्तु कालक्रमे शास्त्रोनी कुस्ती करतां करतां, तेओने पण, सौना नकारात्मक वलणनो चेप लाग्यो होय, तेम कल्पी शकाय छे.
एकान्त दर्शनोनुं खण्डन अने अनेकान्तनुं मण्डन करनारा अनेक जैन आचार्यो थया छे, तेमां आ. राजशेखरसूरिनुं नाम पण आगली हरोळनुं छे. मूळे पोते समन्वयवादी होवा- तो, तेमणे 'षड्दर्शनसमुच्चय' जेवो समन्वयात्मक ग्रन्थ रच्यो छे ते थकी ज, पुरवार थाय छे, छतां वादीओना निरंकुश आक्रमणने खाळवा तेमणे 'स्याद्वादकलिका' जेवा ग्रन्थनुं निर्माण करवू पड्युं होय तो ते बनवाजोग छे.
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'स्याद्वादकलिका' नी रचना करवानो मुख्य आशय प्रगट करतां कर्ता कृतिना छेल्ला - ३९मा पद्यमां लखे छे :
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"द्रव्यषट्केऽप्यनेकान्त- प्रकाशाय विपश्चिताम् । प्रयोगान् दर्शयामास सूरि श्रीराजशेखरः ||"
अर्थात् विविध दर्शनोने सम्मत छ (अथवा ओछां - वधतां) द्रव्योमां पण अनेकान्तवाद छे ज, ते वात विद्वानोने समजाववा माटे मारो आ प्रयास छे. जोके मारी कल्पना एवी छे के अहीं 'द्रव्यषट्के' ने बदले 'दृष्टिषट्के' पाठ होवो घटे. अर्थात् छए दृष्टि-दर्शनमां 'अनेकान्त 'नो प्रकाश प्रसराववानी आ मथामण छे, एम स्पष्ट थई जशे.
हवे आपणे छ अथवा सर्व मतोमा स्याद्वाद केवी रीते संभवे छे, ते स्याद्वादकलिकाना टेकेटेके जोईए : श्रीकण्ठ (ईश्वर) जो कूटस्थनित्य होय तो तेमां सिसृक्षा (सर्जनेच्छा ) अने संजिहीर्षा ( संहारेच्छा )- एम बे विरोधी इच्छाओ कई रीते संभवे ? अर्थात् जो ईश्वरमां बे विरुद्ध इच्छाओ संभवती होय तो ते ज ' स्याद्वाद' छे. (श्लोक. २)
३ गुणात्मक, ३ वेदात्मक, पृथ्वी वगेरे ८ गुणात्मक महेश्वर होय, अने ते एक ज होय, तो ते स्याद्वाद विना न बने. (३).
विष्णु नित्य एकरूपी होय, छतां तेना दश विभिन्न अवतारो होय अने तेमां दरेकमां तेमना वर्ण, शरीर, कर्म नोखां होय तो ते स्याद्वाद विना केम बनी शके ? (४)
शाक्तो शक्तिनां विभिन्न नामो, अवस्थाभेदे स्वीकारे, तो ते पर्यायपरिवर्तन विना शक्य नथी. ( ५ ).
बौद्धमते ज्ञान निरन्वयनाश पाने छे ते छतां जातिस्मरण थाय ज छे, ते स्याद्वादनो ज स्वीकार छे (६-७)
संसारमा भमता एक ज जीवनी सुखी - दुःखी के मनुष्य- देवादिरूप विभिन्न पर्यायो; परमाणुओमां गति- स्थिति तथा भिन्न भिन्न वर्णादि धर्मो; एक ज भासता पुद्गलस्कन्धोमां वर्तती वर्णादिनी विविधता, आ बधुं अनेकान्तने स्वीकार्या विना केम संभवे ? ( ८-९)
शब्द-पदार्थमां पण तार-तारतर वगैरे भेदो स्याद्वादना ज साधक
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गणाय. (१०).
एक ज पद के वाक्यमा विविध लिङ्गो होय; आ बधुं स्याद्वाद थकी ज सिद्ध थाय. (११-१२).
जैनमते 'उत्पाद-व्यय-धौव्य' त्रणेथी युक्तने ज सत् पदार्थ गणवामां आवे छे. स्याद्वादनी आ मर्यादा तमस् अने छायामां, आलोकनी जेम ज घटे छे (१३-१४). कर्म ए पण पुदल छे, उत्पादादियुक्त छे, उपघात अने अनुग्रह जेवा विरुद्ध धर्मो तेमां पण छे, जे स्याद्वादमुद्रा ज छे (१५).
चित्त (मन) पण पौद्गलिक छे, मैत्री आदि प्रमोदकर अने कामक्रोधादि क्लेशकर-आवा परस्पर विरुद्ध भावोयुक्त छे; आ परिणति-वैचित्र्यने कारणे मन पण त्रयात्मक सिद्ध थाय छे. (१६). (नित्य मनाता) धर्म, अधर्म अने आकाश जेवां द्रव्यो पण, पुद्गल अने जीवोना संयोग-विभागवाळा थतां होई नित्यानित्य होवानुं सिद्ध थाय ज छे; ए ज छे स्याद्वाद (१७). तो अलोकाकाशमां पण संयोग-विभागनी शक्ति तो होय ज; ते शक्तिनी अपेक्षाए ते पण त्रयात्मक बने छे (१८).
कालद्रव्य, चाहे नैश्चयिक हो के व्यावहारिक काल, तेमां पण पुद्गलपरावर्तनने कारणे स्वभावभेद सिद्ध थाय ज छे (१९). अथवा व्याकरणनो 'क्त्वा' प्रत्यय, एक ज कर्तानी बे क्रिया वखते, पूर्व काल अने पर कालएवी भिन्नता पुरवार करे छे, जे काल द्रव्यने नित्यानित्य सिद्ध करे छे (२०).
___ 'पीयमानं मधु मदयति' आ वाक्यमां 'मधु' पद बे क्रियापदो। क्रियाओ साथे लागु पडे छे; स्याद्वाद विना आ क्यांथी संभवशे ? (२१).
अनवस्था, संशय, व्यतिकर, साङ्कर्य, विरोध वगेरे दूषणो अन्य वादीओ भले आपता होय, पण “स्याद्वाद'ने ते स्पर्शे तेम नथी. केमके एकान्त 'नित्य' पक्षमां, एकान्त 'अनित्य' पक्षमां, परस्पर निरपेक्ष 'नित्य-अनित्य' पक्षमां - एम वण पक्षोमां ए दूषणो लागु पडे खरा; परंतु परस्पर सापेक्ष एवो 'नित्यानित्य' पक्ष तो चोथो विलक्षण पक्ष छे; तेमां ए दूषणो कोई वाते लागतां नथी (२२-२३).
एक ज पदार्थमां परस्पर विलक्षण एवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श जेम रही शके छे, तेम उपाधिना भेदे बोधनो भेद, तेना विषे, थाय तो कोई विरोध
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नथी (२४).
पर्यायथी पूर्वरूपे विनाश, कोई नवा रूपे उत्पत्ति, अने ते बन्ने स्थितिमां द्रव्यरूपे स्थिर होवू, आ ज छे अनेकान्तवाद (२५). स्वकीय द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव वडे सत्त्व, परकीय द्रव्यादि वडे असत्त्व; ए ज प्रकारे द्रव्य अने पर्यायथी भेद-अभेद-,नित्य-अनित्य वगेरे स्वीकारवा, ते छे स्याद्वाद (२६).
पदार्थ अवयवोनी अपेक्षाए अनेकात्मक होय अने अवयवीनी अपेक्षाए एकात्मक; प्रमाणसप्तभङ्गी प्रमाणे अनभिलाप्य, तो नयसप्तभङ्गी प्रमाणे अभिलाप्य बने; आ स्याद्वाद-रहस्य छे (२७).
विजातीयथी व्यावृत्ति, सजातीयनी अनुवृत्ति, आ रीते व्यक्ति अने जाति बन्ने एकमेकमां विलीन छे; एकान्तवाद स्वीकारो तो तुरत दूषण आवी लागशे (२८).
घडो नथी अन्वय के नथी व्यतिरेक; ते तो मृद्-माटीथी भिन्न पण छे अने तेनी साथे तेनो संसर्ग पण छे, एटले भेदाभेदात्मक घडो ए स्वतन्त्र जाति (जात्यन्तर) ज छे (२९).
३०, ३१, ३२ - आ त्रण पद्यो स्याद्वादनी सिद्धि माटे प्राचीनो द्वारा प्रयोजाएलां ३ उदाहरणो रूप पद्यो छे, जे उद्धरणात्मक छे. तो ३३-३४-३५ पद्यो स्याद्वादकलिकाकारे पोते ज रचेली 'जिनस्तुति' नामक के स्वरूपी कृतिमाथी उद्धृत करेलां पद्यो छे; तेनी पद्धति हेमचन्द्राचार्यकृत 'वीतरागस्तव' गत 'चित्रमेकमनेकं च, रूपं प्रामाणिकं वदन् । यौगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।' इत्यादि श्लोकोनी शैलीने अनुसरे छे, अने क्रमशः बौद्ध, कणाद तथा अक्षपाद, अने कपिल - आ ४ आचार्योनो प्रतिक्षेप अथवा तो ते लोको द्वारा केवी रीते स्याद्वादनो स्वीकार थयो छे, ते दर्शावे छे.
एकान्तवादमां वस्तु अर्थक्रियाकारी नथी बनती; तेथी वस्तु अवस्तु बनी रहे छ; अने ए दोषो अनेकान्तवादमां नथी लागता (१६). तो, पोते पोताने पोताना वडे जाणे छे, जेम सर्प पोताने पोता वडे वीटळाय तेम; एक ज पदार्थमां अनेक सम्बन्धो संभवे छे; आ छे स्याद्वादनी दीपिकानुं स्वरूप (३७), वैदक, ज्योतिष अध्यात्म आदि विविध शास्त्रोनो जाण मनुष्य ज सर्वत्र
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अनेकान्त अनुभवी/जोई शके छे (३८). ३९मी कारिकामा कर्ता पोतानुं नाम दर्शावीने समापन करे छे.
विक्रमना १४मा शतकमां थयेला हर्षपुरीय मलधारगच्छीय आचार्य श्रीराजशेखरसूरिजीनी आ नानी पण बलिष्ठ रचना छे. सं. १४६५मां लखायेली 'स्याद्वादमञ्जरी'नी हस्तप्रतिना प्रान्त भागमां लखायेली आ रचना, त्यां 'स्याद्वादकलिका' एवा नामे ओळखावाई छे, एटले अहीं पण ते ज नामे
ओळखावी छे. बाकी कृतिना ३७मा पद्यमां तेनुं नाम अपायुं छे - 'स्याद्वाददीपिका'. 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' (मो.द.देसाई, ई.स. १९३३, पृ. ४३७), पारा ६४२) अनुसार आ. राजशेखरसूरिए चतुर्विंशतिप्रबन्ध, कौतुककथा, स्याद्वादकलिका-स्याद्वाददीपिका, रत्नाकरावतारिका पञ्जिका, न्यायकन्दलीपञ्जिका, षड्दर्शनसमुच्चय आदिनी रचना करी छे.
आमां स्याद्वादकलिका अने स्याद्वाददीपिका बे नामो एक ज रचनानां होवार्नु अनुमान थाय छे. केमके कृतिमां 'दीपिका' नामे प्रसिद्ध रचनाने ज पुष्पिकामां 'कलिका' एम ओळखवामां आवी लागे छे..
'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास' (हो. र. कापडिया, खण्ड १, पृ. ८६)मां कर्तानी रचनाओनी यादीमां पण 'स्याद्वादकलिका' छे, 'दीपिका'नो उल्लेख नथी. आथी पण उपरोक्त धारणा पुष्ट थाय छे.
आ रचना प्रगट थई छे के केम तेनी जाण नथी. प्रायः अप्रगट छे तेवी धारणाथी अत्रे आपेल छे.
स्याद्वादकलिका ॥ षड्द्रव्यज्ञं जिनं नत्वा स्याद्वादं वच्मि तत्र सः । ज्ञानदर्शनतो भेदा-भेदाभ्यां परमात्मसु ॥१॥ सिसृक्षा सञ्जिहीर्षा च स्वभावद्वितयं पृथग् । कूटस्थनित्ये श्रीकण्ठे कथं सङ्गतिमङ्गति ? ।।२।। गुणश्रुतित्रयोर्व्यादि-रूपताऽपि महेशितुः । स्थिरैकरूपताख्याने वर्ण्यमाना न शोभते ॥३॥
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मीनादिष्ववतारेषु पृथग् वर्णाङ्गकर्मताः । विष्णोनित्यैकरूपत्वे कथं श्रद्धधति द्विजाः ॥४॥ शक्तेः स्युरम्बिका-वामा-ज्येष्ठा-रौद्रीति चाऽभिधाः । दशाभेदेन शाक्तेषु परावर्त विना न ताः ।।५।। चितो निरन्वये नाशे कथं जन्मान्तरस्मृतिः । ताथागतमते न्याय्या न च नास्त्येव सा यतः ॥६॥ "इत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥७॥" सुख-दुःख-नृ-देवादि-पर्यायेभ्यो भवाङ्गिषु । गतिस्थित्यन्यान्यवर्णादि-धर्मेभ्यः परमाणुषु ||८|| वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-स्तैस्तैर्भिन्नाक्षगोचरैः । स्यात्तादात्म्यस्थितैः स्कन्धे-ष्वनेकान्तः प्रघुष्यताम् ॥९॥ प्रतिघातशक्तियोगा-च्छब्दे पौद्गलिकत्ववित् । भेदैस्तारतरत्वाद्यैः स्याद्वादं साधयेद् बुधः ॥१०॥ तर्क-व्याकरणा-ऽऽगम-शब्दार्थालङ्कति-ध्वनि-च्छन्दः । एकत्र पाद-वाक्ये दृष्टविभागं युतं सर्वम् ॥११॥ स्वरादिवर्णस्यैकस्य संज्ञास्तास्ताः स्वकार्यगाः । शब्दे लिङ्गादिनानात्वं स्याद्वादे साधनान्यहो ! ॥१२॥ . सादित्वान्नाशित्वा-दालोकतमोऽभिधानराशियुगात् । निजसामग्योत्पादा-नालोकाभावता तमश्छाये ॥१३॥
समाहारैकत्वात् तमश्छाययोरित्यर्थः ॥ चाक्षुषभावाद् रसवीर्यपाकतो द्रव्यता(त)स्त्वनेकान्तः । परिणामविचित्रत्वा-दत्राप्यालोकवत् सिद्धः ॥१४॥ उपघातानुग्रहकृतिकर्मणि पौगलिकता विषपयोवत् । तत्तत्परिणतिवशत-स्तत्रोत्पादव्ययध्रुवता ॥१५॥
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अनुसन्धान-४१ मैत्राद्यैर्मुज्जनकं कामक्रोधादिभिः प्रयासकरम् । परमाणुमयं चित्तं परिणतिचैत्र्यात् त्रिकात्मकता ॥१६।। धर्माऽधर्म-लोकखानां तैस्तैः पुद्गलजन्तुभिः । स्यात् संयोगविभागाभ्यां स्याद्वादे कस्य संशयः ॥१७॥ अलोकपुष्करस्यापि त्रिसंवलिततां मुणेत् । तत्तत्संयोग-वीभाग-शक्तियुक्तत्वचैत्र्यतः ॥१८॥ व्यावहारिककालस्य मुख्यकालस्य वाऽस्तु सा । तत्तद्भावपरावत-स्वभावबहुलत्वतः ॥१९॥ एककर्तृकयोः पूर्व-काले क्त्वाप्रत्ययः स्थितः । स एव नित्यानित्यत्वं ब्रूतेऽर्थे चिन्तयाऽस्तु नः ॥२०॥ 'पीयमानं मदयति मध्वि'त्यादि द्विगं पदम् । स्याद्वादभेरीभाङ्कारै-मुखरीकुरुते दिशः ॥२१॥ अनवस्था-संशीति-व्यतिकर-सङ्कर-विरोधमुख्या ये । दोषाः परैः प्रकटिताः स्याद्वादे ते तु न राजेयुः ।।२२।। नित्यमनित्यं युगलं स्वतन्त्रमित्यादयस्त्रयो दूष्याः । तुर्यः पक्षः शबलद्वयीमयो दूष्यते केन ? ||२३|| एकत्रोपाधिभेदेन बोधा(ध?)द्वन्द्वं क्षणे क्षणे । न विरुद्धं रूप-रस-स्थूला-ऽस्थूलादिधर्मवत् ॥२४| विनाशः पूर्वरूपेणोत्पादो रूपेण केनचित् । द्रव्यरूपेण च स्थैर्य-मनेकान्तस्य जीवितम् ।।२५।। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैः स्वैः सत्त्वमपरैः परम् । भेदाभेदाऽनित्यनित्यं पर्याय-द्रव्यतो वदेत् ॥२६॥ अंशापेक्षमनेकत्व-मेकत्वं त्वंश्यपेक्षया । प्रमाण-नयभझ्या चा-ऽनभिलाप्याऽभिलाप्यते ॥२७।। विजातीयात् सजातीयाद् व्यावृत्तेरनुवृत्तितः । व्यक्ति-जाती भणेन्मिश्रे एकान्ते दूषणे क्षणात् ॥२८॥
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________________ October-2007 नान्वयः स हि भेदित्वा-न्न भेदोऽन्वयवृत्तितः / मृद्भेद-द्वयसंसर्ग-वृत्ति जात्यन्तरं घटः // 29 / / "भागे सिंहो नरे भागे, योऽर्थो भागद्वयात्मकः / तमभागं विभागेन नरसिंहं प्रचक्षते // 30 // " "घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् // 31 // " "पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः / अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् // 32 // " अवोचाम च जिनस्तुतौ"जन्यत्वं जनकत्वं च क्षणस्यैकस्य जल्पता / बौद्धेन युक्ता(क्ति?)मुक्तीश ! तवैवाऽङ्गीकृतं मतम् / / 33 / / प्रमाणस्यापि फलतां फलस्यापि प्रमाणताम् / वदद्भ्यां कणभक्षाक्षपादाभ्यां त्वन्मतं मतम् // 34 // एकस्यां प्रकृतौ धौ प्रवर्तन-निवर्त्तने / स्वीकृत्य कापिलाचार्या-स्त्वदाज्ञामेव बिभिरे // 35 // " अनर्थक्रियाकारित्व-मवस्तुत्वं च तत्कृतम् / एकान्तनित्यानित्यादौ जल्पेन्मिश्रे त्वदोषताम् // 36 / / आत्मानमात्मना वेत्ति स्वेन स्वयं वेष्टयत्यहिः / सम्बन्धा बहवश्चैकत्रेति स्याद्वाददीप(पि)का // 37 // वैद्यक-ज्योतिषा-ऽध्यात्मा-दिषु शास्त्रेषु बुद्धिमान् / विष्वग्(क) पश्यत्यनेकान्तं [व]स्तूनां परिणामतः // 38|| द्रव्यषट्केऽप्यनेकान्त-प्रकाशाय विपश्चिताम् / प्रयोगान् दर्शयामास सूरिश्रीराजशेखर: // 39 / / इति स्याद्वादकलिका समाप्ता // संवत् 1465 वर्षे माघशुदि 7 दिने / /