Book Title: Sinhavlokano
Author(s): M A Dhaky
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहावलोकनो-१ - मधुसूदन ढांकी सप्ताहांतनी छुट्टीओमां नवराशे अनुसंधानना पाछला अंको विशेष ध्यानपूर्वक अवलोकन करवानो मोको मळेलो. ए सौंमां जुदा जुदा शोधक्षेत्रोने उपयुक्त विषयो अने तेमनां पासांओना अभ्यास माटे विपुल प्रमाणमां सामग्री अपायेली छे. जेम जेम क्रमांक आगळ वधतो आवे छे तेम तेम प्रगट थई रहेली अनेक साहित्यादि अद्यावधि अज्ञात-अल्पज्ञात प्राकृत-संस्कृतादि विविध प्राचीनमध्यकालीन कृतिओ, जूनी भाषाओमां मळता विशिष्ट शब्दोनी चर्चाओ वगैरेनी मात्रा वधती जती देखाय छे, जेना थकी नानकडा विनम्र प्रयत्न रूपे थयेला प्रारंभथी आगळ वधीने अनुसंधान हवे शोध-सामयिकनी कक्षाए पहोंची गयुं छे. आचार्य विजयशीलचंद्रसूरि एवं प्रा. डा. हरिवल्लभ भायाणीनां फळदायी सहियारा संपादन तेम ज तेमां तेमनां बन्नेनां तेजस्वी प्रदानो माटे पण बन्नेनो जेटलो आभार मानीए तेटलो ओछो छे. अनुसंधान 'अंक ३'थी लई पछीना केटलाक अंको अंतर्गत प्रगट थयेली (अने मारा निजी शोधक्षेत्रना रसवर्तुळ अंदर आवी जती) केटलीक सामग्री अतिरिक्त विभावो, विचारो, कथनो, ऐतिहासिक पासांओ आदि पर अहीं ढूंकाणमां अवलोकनो रजू करीश. (१) 'अंक ३'मां आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरिए प्रकाशमां आणेल, तपागच्छीय विजयदानसूरिशिष्य सकलचंद्रकृत 'सीमंधर जिनस्तवन'(प्रायः ईस्वी १६मी सदी, आखरी चरण)मां पद्यगुच्छो पर, प्रत्येक गुच्छ जे जे रागा गावानो हतो तेनो निर्देश पण देवायेलो छे. आ वस्तु संगीतशास्त्रना, अने तेमांवे पुराणा रागोना इतिहासना अभ्यासीओने अमुक अंशे उपयोगी नीवडे तेम छे. तदनुसार तेमां राग 'गउडी' (मध्यकालीन संगीतशास्त्रो तेम ज कर्णाटक संगीतनो राग 'गौडी'), 'हुसेनी वईराडी', 'मल्हार'. 'मालवा गउडी' (कर्णाटक संगीतनो माया मालवगौड), 'धोरणी' (अज्ञात) अने 'धन्यासी' (कर्णाटक संगीतमां आजे पण ए .ज अभिधान, पण हिं. धनाश्री), एटलां रागनामो मळे छे. आमां 'हुसेनी वईराडी' अभिधान ध्यान खेंचे तेवं छे. 'वईराडी ए कर्णाटक संगीतमां ज्ञात 'वराडी' (जेम के पन्तुवराडी, कुंतलवराडी) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१७.161 अभिधान जोडी देखणा बनावी तमाम उस्तादो द्वारा क. आगळ जोडली अने प्राचीन विभाषा 'वाराटी'नुं स्मरण करावी जाय छे. आगळ जोडेलो 'हुसेनी' शब्द बतावे छे के मुस्लिम उस्तादो द्वारा कंई नहीं तो ये मोगल जमानाथी नवा रागो बनावी तेमां सर्जकनुं व्यक्तिगत अरब्बी वा फारसी अभिधान जोडी देवानी प्रक्रिया = प्रथा चालु थई गयेली. वर्तमाने प्रचलित 'विलासखानी तोडी', 'हुसैनी कानडा', 'हुसैनी यमन' वगेरे आवी प्रक्रियाना फळरूपे उद्भवेलां छे. 'मल्हार' राग आजे पण. ए ज नामे ओळखाय छे; पण मध्यकालीन संगीतशास्त्रोमां 'विभाषा' (रागिनी) दर्शक नाम 'मल्लारी' मळे छे. अलबत प्राचीन संगीतशास्त्रोमां आवतां ए ज (के तेनां पूर्वज समान) नामवाळा रागो, मोगल युगना जैन साहित्यना उपर्युक्त रागो, अने आजनां ए ज (के पछी तनिष्पन्न) नामो धरावता रागोनी स्वरावली तेम ज संचार एक या समानरूपी हशे के केम तेनो विशेष विगतोनी प्रासि न थाय त्यां सुधी निर्णय करवो मुश्केल छे. अनुसंधान 'अंक १०'मां मुनिवर महाबोधिविजय द्वारा संपादित तपागच्छीय मुनि पुण्यहर्ष विरचित 'लेखश्रृंगार' (ईस्वी. १५८२)मां पण थोडांक रागनामो मळे छे : जेमके 'असाउरी' (हिं. आसावरी), 'मधुमाध' (हिं. मधुमाधसारंग, कर्णाटकी संगीतनो राग 'मध्यमादि'), 'देसाख' (देशाख्य, एटले के हिं. देश), 'मालवीगुडु (कर्णाटकनो मालवगौड), 'धन्यासी', 'गोडी', (गौडी) अने 'गुडीधन्यासी' (गौडधन्यासी). . (२) 'अंक ३'मां मुनिवर विमलकीर्तिविजय द्वारा वि.सं. ११६५ (ईस्वी ११०९)मां भरुचमां राणी श्राविकाए पौर्णमिक धर्मघोषसूरि पासे धारण करेल द्वादशव्रत संबंधनुं प्राकृतमां मळी आवेल वर्णन विरल वस्तु छे. आ प्रकारना थोडाक दाखला आ अगाउ प्रकाशमां आवेलां, जेमके छाडा श्रावके सं. १२१६ (ईस्वी ११६०)मां मानतुंग (बृहद्गच्छीय ?)पासे, सं. १२५४ (ईस्वी ११८८)मां रत्नादेवी श्राविकाए भद्रगुप्तसूरि पासे, ए ज रीते ए मध्यकाळमां श्रीयादेवी श्राविकाए (भद्रगुप्तसूरि पासे ?), यशोमती श्राविकाए भद्रबाहुसूरि पासे, अन्य कोईए चंद्रसूरि पासे, वगेरे. (gो Catalogue of Palmleaf manuscripts in the Sāntinātha Jain Bhandara, Cambay, Pt. 2 GOS. 149, Comp. Muni Punyavijaya, Baroda 1966, pp. 218220.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१७. 162 __(३) प्रस्तुत 'अंक ३'मां ज ढूंकी चर्चा (पृ. २८-२९) अंतर्गत "(९) 'घउंली' ' शब्द पर भायाणी साहेबे ससार चर्चा करी छे. सौराष्ट्रना कंठाळनां शहेरोमां 'ल'ने बदले 'र' बोलातो होई त्यां, मूळभूत स्वस्तिक आकार घउं वडे (क्यारेक चोखा वती पण) बाजोठ पर (के जमीन पर) करवानी क्रियाने 'घउंली पूरवी' एम कहेवाने बदले 'घउंरी काढवी' एवो शब्द प्रयोग सांभळवा मळे छे. घउंली, 'स्वस्तिक' उपरांत तेना कोणोमां परिवर्धित भुजाओथी सर्जाता 'अक्षय स्वस्तिक' (जीवाजीवाभिगमसूत्र आदिमां आवतां 'अक्खय सोथिया')ना आकारे पण आळेखवामां आवे छे. अहीं आ खास संदर्भमां एक अन्य हैतवनी स्पष्टता करवानी जरूर छे. जैनोमां घणाकाळथी 'अक्षय स्वस्तिक'ने 'नंद्यावर्त' मानी लेवामां आव्यो छे, जे मोटो भ्रम छे. बीजी वात ए छे के सदीओथी 'नंद्यावर्त'ना उच्चार अने जोडणी (मुनिओ पण मध्ययुगथी लई आज दिवस सुधी) 'नंदावर्त' सरखो करे छे जे भूलभरेलुं छे. ___'नंद्यावर्त' ए 'अक्षय स्वस्तिक'थी जुदी ज आकृति छेआजे लगभग १५०० वर्षथी तेनी असली आकृति भुलाई गई छे. कोशकारी अनुसार तेने जलचर 'महामत्स्य' के 'अष्टपाद' (giant squid, octopus)वा 'करोळिया' के पछी 'तगर'ना कुलनी आकृति समान गणे छे. आ सौमां पाद (के पांखडीओ) वळेली होई, ते उपमानना आधारे असली नंद्यावर्तनी पीछान थई शके छे. तेनी आकृति मौर्यकालीन चलणी मुद्राओ (कार्षापण) पर . अने मथुराना शककालीन जैन आयागपट्टो पर—अने आम ईस्वीसन् पूर्वे त्रीजी सदीथी लई ईस्वीसननी पहेली सदी सुधी अंकित थयेली जोवा मळे छे. स्वस्तिक, अक्षय-स्वस्तिक, अने नंद्यावर्तनी आकृतिओ आ साथे रजू करुं छु (जुओ पृ. १६५) ते उपरथी त्रणेना देखावमां रहेढं अंतर स्पष्ट थशे. 'स्वस्तिक' अने 'नंद्यावर्त'नो समावेश अष्टमंगलोमां थाय छे. 'नंद्यावर्त'ने स्थाने शिल्पचित्रादि अंकनोमां जैनोमां 'अक्षय स्वस्तिक'नी चित्रणा ठेठ ११मी सदीथी तो थती आवी छे. जेमके कुंभारियाना शांतिनाथ जिनालय(प्रायः ईस्वी १०८२)ना गूढमंडपना द्वार उपरना अष्टमंगलपट्टमां असली नंद्यावर्तने बदले अक्षय-स्वस्तिक कोरेलो छे-जे भूल शोचनीय छे. वर्तमानमां पण जैनोमां अक्षय-स्वस्तिकने ज नंद्यावर्त तरीके कूटी मारवानी प्रवृत्ति रही Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १७ • 163 छे. 'नंद्यावर्त 'मां नंदीना आवर्तननो, धुरीने आधारे गोळ गोळ फरवानो भाव रहेलो छे; जेम अरहट (रेंट) अथवा घाणीनो बळद चक्कर चक्कर फरे तेम में उपर जे चित्र आप्युं छे ते मथुराना ईस्वीसन्नी प्रथम सदीमां अंकायेल आयागपट्टमां वच्चे मोटां मांगलिक चिह्न रूपे कोरेलुं छे. तेनी चतुर्भुजाओ माछलीना उत्तरांग जेवी बतावी होई कोशकारोए कहेल 'महामत्स्य' नं प्रतिमान पण त्यां सार्थक बनतुं जोई शकाय छे. उपर्युक्त त्रणे आकृतिओ केटलीक वार अपसव्यक्रमथी (एटले के ऊलटा क्रमथी) पण आलेखवामां आवे छे. खोडीदास परमारे 'घडंली' अने 'स्वस्तिक'नी आकृतिओ विषय परनी चर्चाने आगळ धपावतां अनुसंधान अंक ४ (पृ. ८६ - ८८ पर) विशेष कह्युं छे अने त्यां भायाणी साहेबनी पण ए पर विशेष नोंध छे, जे अभ्यसनीय छे. श्री परमारे " गौमूत्रिक" शब्द अने तेनो वर्तमाने प्रचलित गुजराती पर्याय "बळद मूतरणां" विषे पण वात करी छे. शिल्पमां पण "गौमूत्रिक" भात मंदिरोना द्वारबंधमां 'पत्रशाखा' पर कोरवामां आवती अने वृद्ध सोमपुराओ तो आजे पण ए भातने बोलचालमां बळद-मूतरणां ज कहे छे. (४) 'अंक ४' मां आचार्य विजयप्रद्युम्नसूरिए हरिभद्रसूरिना 'पंचाशक' प्रकरणनुं सदीओथी २०मुं विलुप्त थयेलुं प्रकरण काढी प्रगट कर्तुं छे, जे एक अपूर्व उपलब्धि छे. आचार्यश्रीने धन्यवाद. जोके तेनुं शैली, वस्तु, अने संदर्भोनी दृष्टिए विशेष परीक्षण थवुं जरूरी छे. (५) 'अंक ५'मां (पृ.१- ३) मां आचार्यवर विजयसूर्योदयसूरि द्वारा प्रकाशमां आवेलुं "धुमावली - प्रकरण" एक सरस अने मनोहारी रचना छे. तेमां आवता अंतिम 'भरविरह' शब्द परथी तेमणे ते (याकिनीसूनु ) हरिभद्रसूरिनी रचना होवानुं जे सूचन कर्तुं छे ते अस्थाने नथी. भाषा- कलेवर अने संगठन जोतां ते रचना ईस्वीसनना १० मा शतकथी पहेलांनी होई शके छे : अने ते आठमा सैका पछीनी अने कोई चैत्यवासी जतिनी न होय तो हरिभद्रसूरिनी पण होई शके छे. आ अंगे विशेष अध्ययन करीने आखरी निर्णय लेवो घटे (मने तो ते प्रथम दृष्टिए हरिभद्रसूरिनी ज होय तेम लागे छे.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अनुसंधान-१७ • 164 (६) उपर्युक्त अंकमां (पृ. ४०-४१ पर) मुनिश्री भुवनचंद्रजीए "शत्रुजयमंडन ऋषभदेव-स्तुति" प्रकाशित करी छे, जे रचना तीर्थनायक संबंधमां एक विशेष अने पश्चात्कालीन होवा छतां कामनी कही शकाय तेवी, उपलब्धि छे. ३४मां पद्यमां का नाम 'विजयतिलक' आप्यु होवा छतां तेमणे 'जैन गूर्जर कविओ' तेम ज 'गुजराती साहित्य कोश'ना आधारे तेने तपागच्छीय विजयदानसूरिशिष्य 'वासणा'नी कृति होवानुं कहेलं; पण 'अंक ६' (पृ. . ११४) पर " 'शजय-मंडन ऋषभदेव-स्तुति'नी प्राप्त वधु हस्तप्रतो" अंतर्गत आगळना सांप्रतकालीन लेखकोए करेली भूल, तेनी टीकाना आरंभना उल्लेख अन्वये, मुनिश्रीए सुधारी लीधी छे, ते योग्य थयुं छे. प्रस्तुत विजयतिलक सूरि तपागच्छना ज हता अने तेमनो सत्ता समय सं. १६७३-१६७६ (ईस्वी १६१७-१६२०) होवा- मो.द.देशाईए जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास अंतर्गत नोंध्युं छे. (७) अनुसंधानना पांचमा अंकमां ज मुनिमहोदय श्री रत्नकीर्तिविजयजी द्वारा बे सरस्वती-स्तोत्र प्रकाशित थयां छे. जेमांनुं प्रथम तो साराभाई नवाब द्वारा 'महाप्रभाविक नवस्मरण' (अमदावाद १९३७)मां प्रगट थई चूक्युं छे. तेना कर्ता छे भद्रकीर्ति अपरनाम बप्पभट्टिसूरि (कविकर्मकाल प्रायः ईस्वी ७७०-८३९).. श्रीलक्ष्मण भोजके पण एमणे ए संबंधमां मुनिजीनुं ध्यान दोरेलुं तेम मने वात करेली. ज्यारे बीजु श्रुतदेवतानुं सरस्वत्यष्टक नवीन जणाय छे. रचनामां गूंथायेला पञ्चत्रिंशद्गुणोपेता, संसृष्टिविगमध्रौव्यदर्शिका, ज्ञानदर्शनचारित्र-रत्नत्रितयदायिका, स्याद्वादिहृदयाम्भोजस्थायिनी, स्याद्वादवादिनी जेवां विशिष्ट सैद्धांतिक-दार्शनिक घचरकांओ उपरथी संग्रथननी आदत दिगंबर कर्तानी होवानो भास करावे छे. क्यांक क्यांक ब्राह्मणीय खयालातनो पण स्पर्श वरताय छे. जेमके मनुपूर्वस्वरूपिणी, भुवनेश्वरी, ब्रह्मबीजध्वनिमयी, हज्जाड्यान्धकारस्य हरणे तरणिप्रभा, इत्यादि. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्तिक A अक्षय म्वस्तिक रहा वन