Book Title: Shravikanam Chaturvinshati Namaskar
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेजुआरी-2005 श्राविकाणां चतुर्विंशति नमस्कार सं. विजयशीलचन्द्रसूरि __ अपभ्रंश भाषामां अने वस्तु छन्दमां रचाएली एक सुन्दर रचना अहीं प्रस्तुत छे. आना कर्ता विषे कशी जाणकारी प्राप्त नथी. आ रचनानी एक प्रति भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभामांनी मुनि भक्तिविजय-ज्ञानभण्डारमां छे, तेनी जेरोक्सना आधारे प्रस्तुत सम्पादन थयुं छे. प्रति बे पानांनी छे, अने तेना प्रान्ते "इति श्रीश्राविकाणां चतुर्विंशति नमस्कार" एम लखेलुं छे ते पछी सं. १९६५ आम लखेलुं वंचाय छे, जे सम्भवतः भक्तिविजयजी महाराजे लखेलुं लागे छे. आनो अर्थ एवो थाय के कोई भण्डारनी प्राचीन प्रतिमां आ रचना हशे, अने १९६५ मां भक्तिविजयजीए तेनी नकल करावी लीधी हशे. आ अनुमान एटला माटे करवू जोईए के भक्तिविजयजीए तेमना हस्तक अनेक ग्रन्थो के आवी कृतिओनी नकलो हस्तप्रतिरूपे करावी हती, तेमज ते रीते अनेक कृतिओनो उद्धार करी तेने जीवती राखवामां पोतानी विद्वत्तानो तथा सज्जतानो विनियोग को हतो. आथी, आ कृतिनो रचनासमय १४मो के १५मो शतक होय तो नवाई नहि. छेल्ली, २५मी गाथामां 'संतिभद्दु' एवो शब्द छे, ते आना कर्ताना नामनो निर्देश आफ्तो होय, तेवो वहेम पडे छे. परन्तु आ विषे अधिकृत तथ्य शोधq जरूरी तो खलं ज. आ रचना २४ तीर्थंकरोनी प्रभातसमये करवामां आवती स्तवनारूप रचना छे. प्रत्येक गाथामां आवतो 'सुविहाणु' शब्द ए 'सुप्रभातं'नो अर्थ धरावतो शब्द छे. संस्कृतमां एक 'सुप्रभातं' स्तोत्र प्रख्यात छे तेवू स्मरण छे, अ ज रीते आ स्तवनाने पण 'सुविहाणु' तरीके ओळखी शकाय. आ रचनाने अन्ते 'श्राविकाणां' पद छे ते ध्यानपात्र छे. 'श्रावकाणां'न लखतां 'श्राविकाणां' लख्युं छे तेनो अर्थ, कोई विद्वत्पुरुषे श्राविकाओ गाईने बोली शके-प्रभाते, ते हेतुथी आ रचना रची हशे, एवो थई शके. कोईना ध्यानमां आनी बीजी प्रति होय के आवे, तेमज आना कर्ता विषे पण जाणकारी होय, तो जणाववा विज्ञप्ति छे. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 श्राविकाणां चतुर्विंशतिनमस्कार पढममुणिवर जणमणाणंद सुरनाहसंथुअचलण भरहजणय जय पढमसामिअ । संसारवणगहणदव चत्तदोस अपवग्गसामि || लोआलोअपयासयर पर्याडअधम्माधम्म । सुविहाणं तुह रिसहजिण ! दुज्जयनिज्जिअकम्म ||१|| जेण दाणव- सिद्ध-गंधव्व अनुसन्धान- ३१ विज्जाहर - किन्नरहं मलिउ माण नरनाहविंदह । हरि - रुद्द - चउराणणह सूर-चंद - गोविंद - इंदह || सो पसरतउ देव ! परं निज्जिअ भडकंदप्प | सुविहाणं तुह अजिअजिण ! जस एवडु माहप्प ||२|| जेहिं पुज्जिय देव ! तुह पाय सुपसत्थलक्खणसहिअ नहमऊरकिरणोहरंजिय । गुरुकम्मनिन्नासय कणयकंति सुरराजपुज्जिय ॥ ते नर भुंजई सिवसुहई पुण पावई निव्वाणु । संभव ! भवनिन्नासयर ! तुह निम्मल सुविहाण ||३|| तावदुत्तर देव ! संसारु ता दुग्गइगमणभउ ताव कोहमयमाणमत्तओ ताव समसुहरहिओ जा न देव ! तुह सरणि पत्तओ ॥ तुह सरणागयवच्छलह उप्पज्जइ वरनाणु अभिनंदन ! अभिनंदहर ! तुह निम्मल सुविहाणु ॥४॥ कणयसुंदर - रयणसिरग्गु नंदणवण हिरतरु मेरुसिहर जिणभवणि मंडिअ । सुर-असुर - चारणमुणिहिं सिद्ध-जक्खसंघट्टपट्टिउ (पंडिअ ? ) || तहिं अहिसित्तउ देव तरं तियसिहि भत्तिभरेण । सुविहाणं तुह सुमइजिण ! जयजयकाररवेण ||५|| सरयसंभवपरमदलनयण वरपउमवियसियवयण पउमगब्भसमवनसामिअ । नवपउमप्पहवरचलण पउमदलय पउमाससंठिअ || Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी-2005 63 पउमप्पह ! अपवग्गपहसासयसुहसंपत्त । सुविहाणं तुह भवभयण भविआ करई परत्त ॥६॥ देव ! वियलिय रयणिपन्भारु तारायणु अत्थमिउ ससहरेण गयणयलु वत्तउ । निन्नासियतिमिरभरु पुवदिसिहि करसिन्नु पत्तउ ॥ चउविहसंघ सचित्तमणु तुह भवणंगणि एइ । जिण सुपास ! सुविहाणुं तुह वंदण भत्ति करेइ |७|| केवि किंनर लेवि वरवीण आसारइ महुरगुणि केवि तालवर गीउं गा[याइं । वरनट्ट नच्चई अवर वंस सुहसुहाई वायई ॥ भामइ आरत्तिअ अवर मंगलतररवेण । चंदप्पह ! सुविहाण तुह जंपइ अवर खणेण ॥८॥ देव लेविणु पवर सिरखंडु मयनाहि-ससहरसहिओ(उ) सरस घुसिणरयरायरंजिओ(उ) । सम लहहिं जिणवरह तणु विविहकुसुमपब्भारपुज्जिओ(उ) !! वरकालागुरु सीसमिओ(उ) मीसिवि धूवु दहति । पुष्पदंत ! सुविहाणु तुह ते भवभमणि न हंति ॥९॥ नयविढत्तउ दविणु विच्चेवि कारावइं जिणभवणु तुंगसिहरगयणयल पत्तउ । पुण ठावइ बिंब तर्हि पाडिहेर-लक्खणिहिं जुत्तउ ॥ पुण तिकाल-वंदण करई गुरुवयणइं निसुणंति । सीयल ! तेसु कयत्थ नर जे सुविहाणु भणंति ॥१०॥ तिहिं घरंगणि रिद्धिवित्थारु सोहगु(ग्गु) जसु कित्ति चलु ताहअण (तिहुअणि) नवि कोइ खंडइ । जे लीण तुह वयणि भवसमुद्दतारणतरंडइ । जीवदयावरवरसहिय संजुत्ता सुअनाणि । सुविहाणुं सेयंस ! तुह जंपइ निसि-अवसाणि ॥११॥ लेवि दप्पणु निनयवि अप्पाणु Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 अनुसन्धान-३१ संगार सुंदर कि(क)रिवि उठ्ठि कंत पच्चूसि गच्छहं । जाएविणु भवभयहरणि जिणभवणि खिणु इक्क अच्छहं ॥ दाण-सील-तव-भावणहिं चउविह धम्मज्झाणु । आइनिवि भत्तिभरि जिण वसुपूज्जह सुविहाण ॥१२॥ जाव जुव्वणु जाई न पारि जर जाव न विप्फुरइ जाम वाहि नहु बपणासइ(वपु णासइ ?)। वसि जाम परियणु सयलु जा न रूवु लायन्नु नासइ ।। जा न इंदिय चंचलई तोलेविणु अप्पाणु । जाइवि जिणमंदरि भणइ विमलजिणहु सुविहाणु ॥१३।। अरह सासय अरुह अरिहंत सिव संकर कुगइहर परमजोइ जोईस मुणिवर । अपुणब्भव परमपयपत्त चत्तदुहदुरिअभरहर ॥ अखय निरंजण परमसुह पयडियरूव अणंत ! । सुविहाणं तुह परमगुरु दुज्जा(ज्ज)यकम्मकयंत ! ॥१४।। धम्म संचहु धम्मु अच्चेहु मणि धम्मसंचउ करउ धम्म होइ परलोअबंधवु । जिणधम्मह बाहिरउं अवरु सव्वु इहलोअ-धंधउ ।। ईय जाणेविणु भवियजणु मा वंचह अप्पाणु । जाइवि जिणमंदिर भणउ धम्मजिणह सुविहाणु ॥१५॥ जेण छड्डिय रायवररिद्धि छ खंड-वसुमइ-रयण-नवनिहाण-हय-गय-सदसण । नियजुवइ-पुरपट्टणई गाम-नगर-बहुदेस-मंडल ॥ पिक्खिवि चंचलु मणुयभवु गहिउ संजमभारु । संतिनाह ! सुविहाण तुह तउं तिअलोअह सारु ॥१६।। सयण- बंधव-भइणि-भिच्चयण सुकलत्त-सुहि-सज्जणिहिं कणयकोसपियपुत्तपत्तहिं । नवि केणइ होइ धर मूढजीव ! परलोइ जंतहं ।। परिहरि माया-मोह जिय ! परिहरियट्टज्झाणु । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी-2005 धम्मज्झाण धरेवि मणि कुंथुजिण( णं ) सुविहाणु ॥१७॥ नाहि मग्गउं देव हउं अज्जु नवि रिद्धि देवहं तणी नाहि गंध-रस- फास मग्गउं । परिचतु बंधव सयण इक्कचित्ति तुह वयणि लग्गउं ॥ ए तउं मग्गउं सुरमहिअ अर तित्थयर ! सुसार । सुविहाणं तुह तिमि करहि जिम न पडउं संसारि ||१८|| नाणदंसणचरण - पायारि कविसीसइ सीलगुण धम्मनयरु तवगुणिहिं छज्जइ । संतोससखाइयसहिउ मोहसित्तु (त्रु) तई देव ! भज्जइ ॥ जसु आरक्खि देव हउं रक्खेवा असमत्थु | सुविहाणं तुह मल्लिजिण ! तउं रक्खणह समत्थु ॥१९॥ पवणचालियधयवडाडोव समजुव्वण जठ जिणहु अथिरु सयलु धणधन्नसंच । संजोअ कइवयदियह पुणवि हुंति लोअह अणिच्चाई ( उं ? ) || पिक्खिवि चंचलु मणुअभवु नवि मग्गउ घरवासु मुणिसुव्वय ! सुविहाणु तुह छिंदह भवदुहपास ॥२०॥ सुलह कंकण रयणमय हार वरजुवइ वरमंदिर सुलह रयण सुपसत्थवत्थई । सुसुअंधरस-सवणसुह सुलह सयण अवइरई पसत्थई | चउगय (इ) गमणि भमंतयह इत्तिय दुल्लहु देव ! | सुविहाणं नमितित्थयर ! तुह पयपंकयई (ह) सेव ॥२१॥ तुहं जिणेसरु तुहुं महासत्तु तुह जायवकुलतिलय तरुणभावि परं मयणु जित्तउ । उग्गसेनरवइतणी पदं छड्डिय वरुकन्न । सुविहाणं तुह नेमिजिण ! सिववहुसंग पवन ॥ २२ ॥ दुरिउ नासइ वाहि खय नेइ उवसग्ग विग्घई हरइ दुनिमित्त दुस्सउण नासइ । 65 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 अनुसन्धान-३१ इहलोअ-परलोअभउ कट्ठदुट्ठगहगण विणासइ / / वम्माएविहि-अंगरुह जिणवर विग्घविणास / कमठमहासुरदप्पहर सुविहाणं तुह पास ! // 23 // चलणि चालिउ मेरुसिहरग्गु खिल्तई संगमउ गयणमग्गि वड्र्युत निज्जिउ / नियठाणह गयउ सुरु मुंठिघायजज्जरिउ लज्जिउ / / एह परक्कम अतुलबल बालत्तणि तह वीर ! सुयसिद्धनराहिवह सुविहाणं तुह वीर ! // 24|| जे सुसावय-साहु वरचित्त सुपसत्थ सुपसन्नमण निसिविरामि थिरु करिवि नियमणु / चउवीसहं तित्थंकरहं सुप्पभाई जे थुणई अणुदिणु // ते संसारमहाजलहि उत्तरइ अप्पाणु / पावइ दुक्खह खउ करवि संति भद्दु कल्लाणु // 25 / / इति श्राविकाणां चतुर्विंशति नमस्कार //