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कहानो
श्रमण प्रभाचन्द्र
राजपुरोहितने जब यह सुना कि श्रमण प्रभाचन्द्रने आज शद्रोंको जैन दीक्षा दी है, और उन शद्रोंने सहस्रकूट चैत्यालयमें जिनपूजा भी की है तो उसके बदन में आग लग गई, आँखों में खून उतर आया । भृकुटी चढ़ गई। ओंठ चाबकर बोला-इस नंगेका इतना साहस, नास्तिक कहींका। वह तुरन्त राजा भोजके अध्ययन-कक्षमें पहँचा और बोला-राजन, सूना है? उस श्रमण प्रभाचन्द्रने आज शद्रोंको जैन दीक्षा दी है। मैंने तुम्हें पहिले ही चेताया था कि ये निर्ग्रन्थ तुम्हारे राज्यकी जड़ ही उखाड़ देंगे । जानते हो, प्राणिमात्र के समानाधिकार का क्या अर्थ है ? ये निरन्तर व्यक्तिस्वातन्त्र्य, समता और अहिंसाके प्रचार से तुम्हारी शासनसत्ताकी नींव ही हिला रहे है । तुम इनकी वासुधापर मुग्ध होकर सिर हिला देते हो । वेद और स्मृतियोंमें प्रतिपादित जन्मसिद्ध वर्णव्यवस्था और वर्णधर्म ही तुम्हारी सत्ताका एकमात्र आधार है। 'राजा ईश्वर का अंश है' यह तत्त्व स्मृतियोंमें ही मिल सकता है । आज, शद्र तक व्यक्तिस्वातन्त्र्य, समता और समानाधिकारके नारे लगा रहे हैं।
भोज-परन्तु, ये तो धर्मक्षेत्रमें ही समानताकी बात कहते हैं। इन निर्ग्रन्थों को राजकाजसे क्या मतलब ? ये तो प्राणिमात्रको समता, अहिंसा, अपरिग्रह, और कषायजयका उपदेश देते हैं । आचार्य, मैं सच कहता हूँ, उस दिन इनकी अमृतवाणी सुनकर मेरा तो हृदय गद्गद हो गया था।
पुरोहित-राजन्, तुम भूलते हो। कोई भी विचार-धारा किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहती। उसका असर जीवन के प्रत्येक क्षेत्रपर पड़ता है। क्या तुमने इनके उपदेशों से शद्रोंका सिर उठाकर चलना नहीं देखा ? कल ही शिवमन्दिरके पुजारी से भग्गू मुंह लगकर बात कर रहा था। सोचो, तुम्हारी सत्ता ईश्वरोक्त वर्णभेदको कायम रखने में है या इनके व्यक्तिस्वातन्त्र्यमें । हमारे ऋषियोंने ही राजा में ईश्वरांशकी घोषणा की है और यही कारण है कि अब तक राजन्यवर्गके अभिजात कुलका शासन बना है। हमारा काम है कि तुम्हें समय रहते चेतावनी दें और तुम्हें कुलधर्ममें स्थिर करें।
भोज-पर आचार्य, श्रमण प्रभाचन्द्र का तर्कजाल दुर्भेद्य है । उनने अपने ग्रन्थों में इस जन्मजात वर्ण-व्यवस्थाकी धज्जियां उड़ा दी हैं।
पुरोहित-राजन्, तुम बहुत भावुक हो, तुम्हें अपनी परम्परा और स्थिति का कुछ भी भान नहीं है । क्या तुम्हें अपने पुरोहितके पांडित्यपर विश्वास नहीं है ? मैं स्वयं वाद करके उस श्रमण का गर्व खर्व करूंगा । उस नास्तिकका अभिमान च र कर दूंगा । वादका प्रबन्ध किया जाय ।
भोज-पर वे तो राजसभामें आते नहीं है। हम सब ही उद्यानमें चलें। और वहीं इसको चर्चा हो । सचमच, इनका उपदेश प्रजामें व्यापक असन्तोष की सृष्टि करके एक दिन सत्ताका विनाशको सकता है।
[उद्यान में आ० चतुर्मुखदेव और लघु सधर्मा गोपनन्दि के साथ प्रभाचन्द्र की चरचा हो रही है।
सपरिकर राजा भोज आकर वहीं बैठ जाते हैं ]
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३८४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
गोपनन्दि-आपने जो शूद्रोंको जैन दीक्षा दी है, इससे श्रमणसंघके भी कुछ लोग असन्तुष्ट है । उनका कहना है कि श्रमण प्रभाचन्द्र यह नई प्रथा चला रहे हैं। भन्ते, क्या पुराने आचार्य भी इससे सहमत हैं ?
प्रभाचन्द्र-अवश्य, मैंने यह कार्य श्रमणपरम्पराको मूलधाराके आधारसे ही किया है । सुनो, मैं तुम्हें पूर्वाचार्यों के प्रमाण सुनाता हूँ । वरांगचरित में आ० जटासिंहनन्दि स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि
"क्रियाविशेषात् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥"
-वरांगचरित २५।११ अर्थात्--शिष्टजन इस वर्णव्यवस्था को अहिंसा आदि व्रतोंका पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना तथा शिल्पवृत्ति इन चार प्रकार की क्रियाओं से ही मानते हैं। यह वर्णव्यवस्था केवल व्यवहार के लिए है। क्रिया के सिवाय अन्य कोई वर्णव्यवस्था का हेतु नहीं है । रविषेण पद्मचरित में लिखते हैं
"तस्माद् गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः । ऋषिशृंगादिकानां मानवानां प्रकीय॑ते । ब्राह्मण्यं गुणयोगेन न तु तद्योनिसंभवात् ।। चातुर्वण्यं तथाऽन्यच्च चाण्डालादिविशेषणम् । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ॥"
-पद्मचरित ११।१९८-२०५ अर्थात्-वर्णव्यवस्था गुण कर्मके अनुसार है, योनिनिमित्तक नहीं। ऋषिश्रृंग आदिमें ब्राह्मण व्यवहार गुणनिमित्तक ही हुआ है । चातुर्वण्र्य या चाण्डाल आदि व्यवहार सब क्रियानिमित्तक हैं।
___ "व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।" -पद्य चरित ११-२० अर्थात-व्रतधारी चाण्डाल ब्राह्मण कहा जाता है। जिनसेन आदिपुराण में लिखते हैं
"मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताभेदात् चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनात् न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥”
-आदि पु० ३८।४५-४६ । अर्थात-जाति नामकर्म से तो सबकी एक ही मनुष्य जाति है। ब्राह्मण आदि चार भेद वत्ति अर्थात आचार-व्यवहार से है । व्रत संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और सेवावृत्ति से शद्र होते हैं।
गोपनन्दि-तो क्या शूद्र इसी पर्याय में शुद्ध हो सकते हैं ? क्या मुनिदीक्षा के भी अधिकारी हैं ?
प्रभाचन्द्र-हाँ आयुष्मन् ! सोमदेव आचार्य ने अपने नीतिवाक्यामृतमें अत्यन्त स्पष्टता से लिखा है कि
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४/विशिष्ट निबन्ध : ३८५ "आचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् ।"
अर्थात्-निर्दोष आचरण, गृहपात्र आदि की पवित्रता और नित्य स्नान आदि के द्वारा शरीर शुद्धि ये तीनों बातें शद्रों को भी देव द्विजाति और तपस्वियों के परिकर्म के योग्य बना देती हैं।
अब तो पुरोहित का पारा और भी गरम हो गया। वह क्रोध से बोला-राजन्, इन नास्तिकों के पास बैठने से भी प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ेगा।
"पुरोहित जी, नास्तिक किसे कहते हैं ?" हंसते हुए प्रभाचन्द्र ने पूछा। "जो वेदकी निन्दा करे वह नास्तिक" रोष भरे स्वरमें तपाक से पुरोहित ने उत्तर दिया।
"नहीं, पाणिनि ने तो उसे नास्तिक बताया है जो आत्मा और परलोक आदि की सत्ता नहीं मानता। यदि वेदको नहीं माननेके कारण हम लोग नास्तिक हैं तो यह नास्तिकता हमारा भूषण ही है।" तर्कपूर्ण वाणीमें प्रभाचन्द्र ने कहा।
भोज-महाराज, इस झगड़ेको समाप्त कीजिए। यदि आपकी अपनी परिभाषा के अनुसार ये नास्तिक हैं तो इनकी परिभाषा के अनुसार आप मिथ्यादृष्टि भी हैं। ये तो अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं। आप प्रकृत वर्णव्यवस्थापर ही चरचा चलाइए।
पुरोहित-आपने शूद्रको दीक्षा देकर बड़ा अनर्थ किया है । ब्रह्माके शरीर से चारों वर्ण पृथक्-पृथक उत्पन्न हुए हैं । जन्मसे ही उनकी स्थिति हो सकती है, गुणकर्म से नहीं।
प्रभाचन्द्र-ब्रह्मा में ब्राह्मणत्व है या नहीं ? यदि नहीं, तो उससे ब्राह्मण कैसे उत्पन्न हुआ ? यदि है; तो उससे उत्पन्न होनेवाले शद्र आदि भी ब्राह्मण ही कहे जाने चाहिए । ब्रह्माके मुखमें ब्राह्मणत्व, बाहु में क्षत्रियत्व, पेटमें वैश्यत्व और पैरोंमें शद्रत्व मानना तो अनुभवविरुद्ध है। इस मान्यतामें आपका ब्रह्मा भी अंशतः शूद्र हो जायगा। फिर आपको ब्रह्माजी के पैर नहीं पूजना चाहिए क्योंकि वहाँ तो शूद्रत्व है।
त-समस्त ब्राह्मणोंमें नित्य एक ब्राह्मणत्व है । यह ब्राह्मण माता-पितासे उत्पन्न हुए शरीर में व्यक्त होता है। अध्यापन, दानग्रहण, यज्ञोपवीतग्रहण आदि उसके बाह्य आचार है । प्रत्यक्ष से हो 'यह ब्राह्मण है' इस प्रकार का बोध होता है।
प्रभाचन्द्र-जैसे हमें प्रत्यक्ष से 'यह मनुष्य है, यह घोड़ा है' इस प्रकार मनुष्य आदि जातियों का ज्ञान हो जाता है उस प्रकार 'यह ब्राह्मण है' यह बोध प्रत्यक्ष से नहीं होता अन्यथा 'आप किस जाति के हैं ?' यह प्रश्न ही क्यों किया जाता ? यदि ब्राह्मण पिता और शुद्रा माता तथा शुद्र पिता और ब्राह्मणी माता से उत्पन्न हुए बच्चोंमें घोड़ी और गधे से उत्पन्न खच्चर की तरह आकृति भेद दिखाई देता तो योनिनिबन्धन ब्राह्मणत्व माना जाता। फिर जब स्त्रियों का इस जन्ममें ही भ्रष्ट होना सुना जाता है तो अनादिकाल से आज तक कुलपरम्परा शुद्ध रही होगी यह निश्चय करना ही कठिन है । यदि ब्राह्मणत्त्व जाति गोत्वजाति की तरह नित्य है और वह यावज्जीवन बराबर बनी रहती है तो जिस प्रकार चाण्डाल के घर में रहनेवाली गायको आप दक्षिणामें ले लेते हो और उसका दूध भी पीते हो उसी तरह चाण्डाल के घरमें रही हुई ब्राह्मणी को भी ग्रहण कर लेना चाहिए क्योंकि नित्य ब्राह्मणत्व जाति तो उसमें विद्यमान है। यदि आचार भ्रष्टता से ब्राह्मणी की जाति नष्ट हो गई है तो आचारशुद्धि से वह उत्पन्न क्यों नहीं हो सकती? आप जो शद्र के अन्नसे, शद्रसे बोलनेपर, शूद्रके सम्पर्क से जातिलोप मानते हो वह भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि आपके मतसे जाति नित्य है उसका लोप हो ही नहीं सकता।
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________________ 386 : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अच्छा, यह बताइए कि आप ब्राह्मणत्व जीवमें मानते हो या शरीरमें या दोनोंमें या संस्कारमें या वेदाध्ययनमें ? जीव तो शद्र आदि सभीमें विद्यमान है अतः उनमें भी ब्राह्मणत्व होना चाहिए। शरीर भी पञ्चभूतात्मक सबके समान है। यदि संस्कारमें ब्राह्मणत्व माना जाता है; तो संस्कार शद्र बालकमें भी किया जा सकता है / यदि संस्कारके पहिले ब्राह्मण बालकमें ब्राह्मणत्व मानते हो तो संस्कार करना व्यर्थ ही है / यदि नहीं मानते तो जैसे ब्राह्मणत्वशन्य ब्राह्मण बालकमें संस्कारसे ब्राह्मणत्व आ जाता है उसी तरह शूद्रबालकमें भी संस्कारसे ब्राह्मणत्व आ जाना चाहिए / रही वेदाध्ययनकी बात, सो शूद्र भी देशान्तरमें जाकर वेदाध्ययन कर सकता है और करा सकता है। किन्तु इतने मात्रसे आप उसमें ब्राह्मणत्व नहीं मानते / अतः यह समस्त ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था सदृश क्रिया और सदश गणोंके आधारसे है। यदि जन्मना वर्णव्यवस्था हो तो बह्म, व्यास, विश्वामित्र आदिमें गुणकृत ब्राह्मणत्व आप स्वयं क्यों मानते हो? पुरोहित-तो क्या जैन ग्रन्थोंमें बताई गई वर्णाश्रम व्यवस्था झूठी है ? प्रभाचन्द्र-नहीं, झठी क्यों होगी। प्रश्न तो यह है कि वर्णव्यवस्था जन्मसे है या गुणकर्मसे ? अतः जिन-जिन व्यक्तियोंमें जो-जो गुण-गुण-कर्म पाए जायँगे उसीके अनुसार उसमें ब्राह्मण आदि व्यवहार होगा और तदनुकूल ही वर्णाश्रम व्यवस्था चलेगी। जैनदर्शन तो व्यक्ति स्वातन्त्र्यवादी है। उसमें पुरुषार्थको बड़ी गुञ्जाइश है / जैसे-जैसे गुण-धर्मोंका विकास व्यक्ति करेगा उसीके अनुसार उसमें ब्राह्मणत्व आदि व्यवहार होंगे। शद्र इसी जन्ममें अपने पुरुषार्थके द्वारा सर्वोच्च मुनिदीक्षा ले सकता है। मैंने न्यायकुमुद चन्द्र ग्रन्थ (पृ० 778 ) में स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि ___ "क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यवस्थायाः तद्व्यवहारस्य चोपपत्तेः। तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिस्वभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात् प्रसिध्यतीति क्रियाविशेषनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारो युक्तः।" __ अर्थात्-यह समस्त ब्राह्मणादि व्यवहार क्रियामूलक है, नित्य और जन्ममूलक ब्राह्मणत्व आदि जातिसे नहीं। भोज प्रभाचन्द्रके अकाट्य तर्कोसे अत्यन्त प्रभावित हआ और पुरोहितराजसे बोला कि-देखो, मैंने पहिले ही कहा था कि ये श्रमण अपनी आध्यात्मिक भूमिकापर समता और व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सन्देशवाहक हैं। ये तो अत्यन्त अपरिग्रहवादी हैं / उनके जीवन में राजकारणका कोई महत्त्व नहीं है। इनका नग्नत्व स्वयं परम व्यक्तिस्वातन्त्र्य का साक्षी है। ये प्राणिमात्रके प्रति मैत्री भावना रखनेवाले हैं। अतः यदि इनने शद्रोंको दीक्षा दी है तो हमें चिन्तित होनेकी आवश्यकता नहीं है। इन्हें अपनी आध्यात्मिक समताका प्रचार करने देना चाहिए / इससे मानवजातिका समुत्थान ही होगा। भोज सपरिकर श्रमणोंको वन्दनाकर बिदा हुए / राजपुरोहितके वादकी चरचा बात ही बातमें धारानगरीमें फैल गई। आ० चतुर्मख और समस्त श्रमणसंघ हर्षविभोर हो गए।