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३८४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
गोपनन्दि-आपने जो शूद्रोंको जैन दीक्षा दी है, इससे श्रमणसंघके भी कुछ लोग असन्तुष्ट है । उनका कहना है कि श्रमण प्रभाचन्द्र यह नई प्रथा चला रहे हैं। भन्ते, क्या पुराने आचार्य भी इससे सहमत हैं ?
प्रभाचन्द्र-अवश्य, मैंने यह कार्य श्रमणपरम्पराको मूलधाराके आधारसे ही किया है । सुनो, मैं तुम्हें पूर्वाचार्यों के प्रमाण सुनाता हूँ । वरांगचरित में आ० जटासिंहनन्दि स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि
"क्रियाविशेषात् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥"
-वरांगचरित २५।११ अर्थात्--शिष्टजन इस वर्णव्यवस्था को अहिंसा आदि व्रतोंका पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना तथा शिल्पवृत्ति इन चार प्रकार की क्रियाओं से ही मानते हैं। यह वर्णव्यवस्था केवल व्यवहार के लिए है। क्रिया के सिवाय अन्य कोई वर्णव्यवस्था का हेतु नहीं है । रविषेण पद्मचरित में लिखते हैं
"तस्माद् गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः । ऋषिशृंगादिकानां मानवानां प्रकीय॑ते । ब्राह्मण्यं गुणयोगेन न तु तद्योनिसंभवात् ।। चातुर्वण्यं तथाऽन्यच्च चाण्डालादिविशेषणम् । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ॥"
-पद्मचरित ११।१९८-२०५ अर्थात्-वर्णव्यवस्था गुण कर्मके अनुसार है, योनिनिमित्तक नहीं। ऋषिश्रृंग आदिमें ब्राह्मण व्यवहार गुणनिमित्तक ही हुआ है । चातुर्वण्र्य या चाण्डाल आदि व्यवहार सब क्रियानिमित्तक हैं।
___ "व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।" -पद्य चरित ११-२० अर्थात-व्रतधारी चाण्डाल ब्राह्मण कहा जाता है। जिनसेन आदिपुराण में लिखते हैं
"मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताभेदात् चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनात् न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥”
-आदि पु० ३८।४५-४६ । अर्थात-जाति नामकर्म से तो सबकी एक ही मनुष्य जाति है। ब्राह्मण आदि चार भेद वत्ति अर्थात आचार-व्यवहार से है । व्रत संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और सेवावृत्ति से शद्र होते हैं।
गोपनन्दि-तो क्या शूद्र इसी पर्याय में शुद्ध हो सकते हैं ? क्या मुनिदीक्षा के भी अधिकारी हैं ?
प्रभाचन्द्र-हाँ आयुष्मन् ! सोमदेव आचार्य ने अपने नीतिवाक्यामृतमें अत्यन्त स्पष्टता से लिखा है कि
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