Book Title: Shasan devi Ambika
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O भंवरलाल नाहटा शासन देवी अम्बिका अम्बिका देवी द्वाविंशंतम तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान की शासन देवी है। प्रभावशाली एवं जागरूक होने से इसकी मान्यता न केवल जैनों में ही रही है किन्तु जैनेतरों में भी इसका सार्वभौम प्रचार हुआ है। अम्बिका माता की मूर्तियां अनेक स्थानों पर पूज्यमान संप्राप्त है। अनेक म्यूजियमों में भी इसकी कई मूर्तियां उपलब्ध हैं। सर्वप्रथम यह शासन देवी कैसे हुई यह जानने के लिए इसका पूर्वभव वृत्तान्त यहां जिनप्रभसूरि कृत "विविध तीर्थ कल्प" से दिया जाता है। अम्बिका देवी का विविध तीर्थ कल्प में वर्णन श्री उज्जयंत गिरि शिखर के मंडन श्री नेमिनाथ भगवान को नमस्कार करके कोहंडी देवी कल्प वृद्धोपदेशानुसार लिखता हूं। सौराष्ट्र देश में धनधान्य सम्पन्न कोडीनार नामक एक नगर है। वहां सोमनामक ऋद्धि-समृद्ध, षट्कर्मपरायण, वेदागमपारगामी ब्राह्मण था। उसकी अंबिणि नामक स्त्री थी। यह शील रूपी मूल्यवान अलंकार को धारण करने वाली थी। उसके दो पुत्र थे।।- सिद्ध और 2- बुद्ध। एक दिन पितृ श्राद्ध पक्ष आने पर सोमभट्ट ने श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों को निमंत्रित किया। वे ब्राह्मण वेदपाठी एवं अग्निहोत्र करने वाले थे। अंबिणि ने जीमणवार के लिए खीर, खांड, दाल-भात व्यंजन पक्वानादि तैयार किये। उसकी सासु स्नान कर रही थी। उसी समय मासक्षमण के पारणे के लिए एक साधु उसके घर में भिक्षार्थ आया। उसको देखकर अम्बिका उठी और भक्ति पूर्वक उस मुनिराज को भात-पाणी देकर प्रति-लाभा। साधु भिक्षा लेकर चला गया। सासु नहा करके लौटी। रसोई में जाने पर उसने देखा कि खाद्य पदार्थ पर शिखा नहीं है। उसे बड़ा क्रोध आया और बहू से बोली कि तूने यह क्या किया? "पापिनी ! अभी तो कुलदेवता की पूजा ही नहीं की है और न ब्राह्मणों को भोजन ही कराया है और न पिंडदान ही हुआ है। अत: तुमने अग्नि-शिखा किस प्रकार से साधु को दे दी।" सासू ने वह सारा वृत्तान्त अपने पुत्र सोम भट्ट को कहा। वह भी बहुत नाराज हुआ। उसने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। पराभव से दुखी होकर अम्बिणी अपने दोनों पुत्रों को लेकर चली गई। वह बहुत दुखी हुई। उसने अपने एक बच्चे बुद्ध को गोद में लिया और दूसरे पुत्र सिद्ध की अंगुली पकड़कर चलने लगी। मार्ग में प्यास से पीड़ित होकर पुत्र पानी की मांग करने लगे। वहां पानी उपलब्ध नहीं था। अम्बिणी अश्रुपूर्ण हो गई। ठीक उसी समय सामने एक सरोवर दिखाई दिया। उस अमूल्य शीतल जल से उसने अपने दोनों पुत्रों की प्यास बुझाई। भूखे बालकों ने जब भोजन मांगा तो सामने रहा आम्रवृक्ष तत्काल फला। अम्बिका ने उन्हें आम्रफल खिलाये। जब वे आम्रवृक्ष के नीचे सो रहे थे तब वे पत्तलें जिन पर उन्होंने आम्रफल खाये और उन्हें फेंक दिया था वे अम्बिका के शील प्रभाव से सोने की हो गई। इस प्रकार से वे पत्तलें, दोने और बाहर बिखरी हुई जूठन सब सोने और मोती के हो गये। उसी समय उसके घर जिसे वह छोड़ कर आई थी वहां भी अग्निशिखा युक्त बर्तन भरे देखे। उसकी सास को वह सब चमत्कार मालूम हुआ। उसने अपने बेटे सोम भट्ट से कहा कि बेटा तेरी बहू सुलक्षणी और पतिव्रता है उसको तू वापस घर ले आ। ___मां द्वारा दिये आदेशानुसार बेटा पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ वह अपनी पत्नी को वापस लिवा लाने को गया। अंम्बिणी ने अपने पति को आता हुआ देखा तो उसने दिशावलोकन किया तो सामने कूप दिखाई दिया। उसने जिनेश्वर भगवान की मन में अवधारणा करते हुए अपने आपको कुएं में गिरा दिया। उसे सुपात्र दान का फल मिले, वह कामना की। शुभ अध्यवसायों से भरकर वह सौधर्म कल्पस्थित चारयोजन वाले कोहण्ड विमान में अम्बिका देवी नामक महार्द्धिक देवी हुई। विमान के नाम से उसे कोहण्डी भी कहते हैं। सोमभट्ट ने उसे कुएं में गिरते हुए देखकर वह स्वयं भी कुएं में गिर गया। वह भी मर करके वहीं पर देव हुआ। अभियौगिक कर्म से सिंहरूप धारण कर वह अम्बिका देवी का वाहन हो गया। अन्य लोग यह भी कहते हैं कि अम्बिका ने रैवन्तगिरि पर झम्पापात किया था सोमभट्ट भी उसके पीछे वहीं मरा था। अम्बिका भगवती के चार भुजाएं हैं। इनके दाहिने हाथ में आम्रलुम्ब एवं पाश है। बाएं हाथ में पुत्र एवं अकुंश धारण किए हुए हैं। उनका शरीर तपे हुए सोने जैसा है। यह नेमिनाथ भगवान की शासनदेवी है। इसका गिरनार शिखर पर निवास है। उसके मुकुट, कुण्डल, मुक्ताहार, रत्नकंकण नूपूरादि सर्वांगआभरण रमणीय है। वह सम्यग् दृष्टि से सबके मनोरथ पूर्ण करती है। विघ्न दूर करती है। उस देवी का मंत्र मंडलादि हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड/६८ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना पूर्वक आराधना करने वाले भक्तों के अनेक प्रकार की ऋद्धि-समृद्धि देखी जाती है। उन्हें भूतपिशाच, डाकिनी और दुष्ट ग्रह पराभव नहीं करते हैं। पुत्र, कलत्र, धन-धान्य, राजश्री आदि सब सम्पन्न रहते हैं। (लेख के अन्त में मंत्र दिया जा रहा है।) इस प्रकार से अम्बिका देवी के बहुत से मंत्र रक्षा करने वाले हैं। यह स्मरण योग्य मार्ग क्षेमादिगोचर है। उन मंत्रों व मण्डल को यहां विस्तार भय से नहीं दिया जा रहा है। इन्हें गुरुमुख से जानना चाहिए। वह कल्प निर्विकल्प चित्तवृत्ति से बांचने, सुनने वाले संमोहित पूर्ण होते जब अम्बिका शासन देवी हो गई वह सतत जागरुक रहकर शासन सेवा में प्रवृत्त होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने लगी तो समस्त भारतवर्ष में उसकी मूर्तियां और मन्दिर बनने लगे एवं जिनालय एवं स्वतंत्र मन्दिर भी प्रतिष्ठित हो गये। गिरनार पर्वत की दूसरी ट्रंक अम्बिका देवी के लिए प्रसिद्ध है। सुदूर बंगाल में भी एक अम्बिकापुर है जहां अम्बिका देवी का मन्दिर है। उसके पास ही भगवान ऋषभदेव का प्राचीन मन्दिर है। हमें नदी पार करके बस द्वारा बांकुड़ा जाना था। अत: प्राचीन जैन मन्दिर का सूक्ष्मता से अध्ययन नहीं कर सके। परन्तु अम्बिका मन्दिर का जीर्णोद्धार बंगला संवत् 1320 दिनांक 16 फाल्गुन को राजा राईचरण धवल ने रानी लक्ष्मीप्रिया की स्मृति में कराने का उल्लेख देखा था। पाकवीर में एक प्राचीन पांच मन्दिरों का समूह है जहां अनेक खण्डित मूर्तियां हैं इनमें से एक अम्बिका की भी है। नाडोल के दांता गांव की पंचतीर्थी के लिए लिखा है, “दांता गांवने देहरो जुहारूं जगदीश। जोगमाया अधिष्ठायका जय अम्बा देवीश'। दो एक जगह दक्षिणी भारत में भी अम्बिका देवी के नाम से गांव हैं। श्री जिनप्रभसूरिजी महाराज ने सात सौ वर्ष पूर्व "विविधतीर्थ कल्प" की रचना की जिसमें अनेक स्थानों में अम्बिका देवी के मन्दिरों का उल्लेख किया है। उज्जयंत कल्प में अम्बिका के आदेश से काश्मीर के रत्न श्रावक ने लेप्य मय बिंब के स्थान पर पाषाणप्रतिमा स्थापित की। इसी में अंबिका आश्रम पद में स्वर्ण सिद्धि प्रयोग की चमत्कारिक बात भी लिखी है। रेवन्तगिरिकल्प में लिखा है कि काश्मीर के श्रावक अजित व रत्न आये थे। प्रतिमा गल जाने से उन्होंने आहार त्याग दिया तो अम्बिका ने संघपति को उठाकर रत्नमय बिम्ब कंचन बालाणक से एक तीर से खींच प्रतिमा लाकर रख दी। उन्हें सीधे देखने पर मना करने पर भी उन्होंने देखा तो वह निश्चल हो गई। देवी ने कुसुम वृष्टि पूर्वक जय-जय कार किया। अब भी गिरि पर चढ़ने पर अम्बिका देवी का भवन दिखाई देता है। कन्नौज से यक्ष नामक एक महर्द्धिक व्यापारी के गुजरात आने पर अणहिलपुर पाटन के निकट लक्षाराम में आकर ठहरा, वहां सार्थ सहित रहते वर्षाकाल आ गया। मेघ बरसने लग गये। भादवे के महिने में बैलों का सारा सार्थ कहीं चला गया। पता नहीं लगा। वह व्यापारी अत्यंत चिन्ता में सो रहा था। अम्बादेवी प्रकट हुई और कहा, बेटा सोते हो या जागते हो। सेठ ने कहा कि मां मुझे नींद कहां? जिसका सर्वस्व भूत बैलों का सार्थ चला जावे उसे नींद कहां? देवी ने कहा भद्र! इसी लक्खाराम में इमली के वृक्ष के नीचे तीन प्रतिमायें हैं। तीन पुरुष जमीन खुदवा कर इन्हें ग्रहण करो। एक प्रतिमा अरिष्टनेमि भगवान की, दूसरी पार्श्वनाथ भगवान की और तीसरी अम्बिका देवी की। यक्ष सेठ ने कहा कि भगवती ! इमली के वृक्ष बहुत हैं अत: उस वृक्ष को कैसे जाना जाए? देवी ने कहा कि धातुमय मण्डल एवं पुष्पों का ढेर जहां देखो, उसी स्थान पर तीनों प्रतिमाएं हैं। उन्हें प्रकट करने पर तुम्हारे बैल स्वयं आ जावेंगे। इन प्रतिमाओं को प्रातः काल पूजा विधान पूर्वक करके प्रकट की गई। ब्रह्माणगच्छ के आचार्य श्री यशोभद्र सूरिजी के पधारने पर सं0 502 मार्गशीर्ष पूर्णिमा को ध्वजारोपण महोत्सव हुआ। वे अरिष्ठनेमि भगवान कोहण्डी कृत प्रतिहार्य से आज भी पूजे जाते हैं। जिनप्रभसूरिकृत यह कल्प 33 ग्रन्थाग्रंथ परिमित है। काश्मीर से आये हुए रतन श्रावक ने गिरिनार पर कुष्माण्डी अम्बिका के आदेश से लेप्यमय बिम्ब के स्थान पर पाषाणमय नेमिनाथ प्रतिमा स्थापित की। अम्बाजी के आदेश से स्वर्णसिद्धि, रौप्य सिद्धि आदि प्राप्त की। इस प्रकार से अम्बिका देवी को न्हवण, अर्चन, गन्ध, धूप, दीपक से पूजन कर प्रणाम करके धनार्थी अर्थ लाभ ग्रहण करते हैं। ___ विविध तीर्थ कल्प के पृष्ठ 7 पर गिरनार पर अम्बिका के वर्णन की गाथा... सिंह याना हेम वर्णा सिद्धबुद्ध सुतान्विता कृप्रायं लुम्बिभृत पाणिरत्राम्बासंघ विघ्नहत्॥3॥ इस पर्वत पर सुवर्ण सी कान्तिवाली सिंहवाहिनी, सिद्ध और बुद्ध नामक पुत्रों को साथ लिये हुए कमनीय आम्र की लुम्ब जिसके हाथ में है ऐसी अम्बा देवी यहां रही हुई है। यह संघ के विघ्नों का संहार करती है। ___ अहिच्छत्रा कल्प में लिखा है कि प्राकार के समीप नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा सहित सिद्ध बुद्ध धारित, आम्रलुम्ब धारणी सिंह वाहिनी अम्बिका देवी विद्यमान है। मथुराकल्प में लिखा है कि वहां नरवाहिनी कुबेरा और सिंहवाहिनी अम्बिका देवी विद्यमान है। हस्तिनापुर के दोनों कल्पों के अनुसार वहां अम्बिका देवी का देवकुल था। सत्यपुर (सांचोर) तीर्थकल्प के अनुसार वल्लभी के शीलादित्य द्वारा रत्नजटित कांगसी के लिए अपमानित शंका सेठ गज्जणपति हमीर को चढ़ाके लाया तब चन्द्रप्रभ प्रतिमा को अम्बादेवी और क्षेत्रपाल के बल से गगनमार्ग द्वारा देवपतन ले जाई गई। _ विविधतीर्थ कल्प में एक रोचक प्रसंग और वर्णित है। इसमें गांधार जनपद सरस्वती पत्तन में मदन सार्थवाह उज्जयन्त गिरि का महात्म्य सुनकर वहां गया। मार्ग में देवी ने रूदन करती स्त्री के रूप में हुतासन प्रवेश कराया। अग्नि का जल हो गया। देवी ने स्तुति महिमा की। आगे अम्बा के वर से भील को जीतकर मथुरा स्तूप और चम्पक में वासुपूज्य स्वामी का वन्दन-पूजन किया। सौराष्ट्र के मार्ग से मिथ्या दृष्टि देवी ने परीक्षा पूर्वक संतुष्ट होकर जय जयकार किया और निर्विघ्न यात्रा करने को हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ६९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा कम्पिलपुर में अठाई की शक्रादेश में भ्रमण निर्दिष्ट अम्बिका देवी ने अहिरात्र से 84 योजन दूर सौराष्ट्र देश पहुंचा दिया। पक्षोपवासी मयण ने गजपदकुंड में नहाकर गिरनारजी पर अभिषेक किया। प्रतिमा गलित होने से सबने आहार का त्याग किया। अम्बिका ने वैश्रमण के निर्देश पर पारणा कराया। इसके बाद वहां का चमत्कारिक वर्णन है। नेमि जिणेसर चरण अम्भोष महुवर अंबिकदेवितुहं, संघहसानिधुकरि सुह भोय देहिमण वंछिय उदय रिद्धि ॥ 30 ॥ भगवान महावीर के भ्राता नन्दिवर्धन निर्मापित 22 धातुप्रतिमाओं को 581 वर्ष बाद अम्बादेवी ने लाकर चन्देरी के सिद्ध मठ में रखा। बीकानेर के वृहत् भंडार में जिनप्रभ सूरि परम्परा की वि.सं. 1485 के लगभग लिखी हुई अज्ञातक विकृत अम्बिका देवी पूर्वभव वर्णन तलहरा ग. 30 का है। इसकी अंतिम गाथा निम्न है... युयण वयण किंपिसुणेवि किंपिमुणेवि नियबुद्धि बलिण चरि तुम्हार बनि देवि पूर मणोरह अम्ह तड़ || 26 | प्रतिष्ठान कल्प में लिखा है कि अम्बा देवी आदि वहां के चैत्य में बसते हुए भक्त श्री संघ के उपसर्ग नष्ट कर सहाय्य करती है। कपर्दियक्ष कल्प में अम्बा देवी का नाम भी सम्मिलित है । ढिंपुरी तीर्थ स्तवन में भी द्वार के समीपवर्ती छ: भुजाओं का क्षेत्रपाल और अम्बिका देवी का उल्लेख है। आरासण तीर्थ का प्रासाद निर्माण अम्बिका देवी की कृपा से हुआ है। इसका वर्णन उपदेश-सप्तति में दिया हुआ है जो निम्न है "आरासण तीर्थ पासिल नामक श्रावक द्वारा आरासण गांव में निर्मापित और देवगुप्तसूरि द्वारा प्रतिष्ठित चैत्य अनुक्रम से तीर्थ रूप में प्रतिष्ठित हुआ।" एक बार मुनि चन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य देवसूरि भृशुकच्छ चातुर्मास स्थित थे । उस समय कान्हड़ नामक एक योगी क्रूर सांपों के 84 करण्डिये लेकर वहां आया और कहने लगा कि हे सुरेन्द्र ! मेरे साथ विवाद कीजियेगा नहीं तो यह सिंहासन त्याग देवें । आचार्य ने कहा कि हे मूर्ख ! तेरे साथ विवाद कैसा ? क्या श्वान के साथ कभी सिंह का युद्ध होता है ? योगी ने कहा कि मैं सर्प क्रीड़ा जानता हूँ जिससे महल आदि स्थानों में जाकर दूसरे लोगों से अधिक पुरस्कार प्राप्त करता हूं। आचार्य महाराज ने कहा- हे योगी ! हमें किसी प्रकार का वाद करना अभीष्ट नहीं है क्योंकि मुनि तत्वज्ञ होते हैं और विशेष कर जैन मुनि तो विशेष तत्वप्राज्ञ होते हैं। फिर भी तुम्हें यह कौतुक ही करना हो तो राजा के समक्ष विवाद करो क्योंकि विजय इच्छुकों को चतुरंग वाद करना चाहिए। योगी और आचार्य महाराज श्रीसंघ के साथ राज्यसभा में आये । राजा ने उन्हें सम्मान पूर्वक सिंहासन पर बैठाया। आचार्य महाराज उदयाचल पर आरूढ़ सूर्यबिंब की भांति सुशोभित थे। योगी ने कहा- राजेन्द्र सुखावह वाद होता है, जो प्राणान्तक वाद है अतः मेरी शक्ति को देखिये। आचार्य महाराज ने उसे शेखी बघारते हुए देखकर कहा- अरे बराक, तुम्हें पता नहीं हमलोग सर्वज्ञ पुत्र हैं। फिर आचार्य महाराज ने अपने चारों ओर सात रेखाएं बनाई योगी द्वारा बहुत से सांप छोड़े गये पर किसी ने हीरक जयन्ती स्मारिका रेखा का उल्लंघन नहीं किया। योगी ने उदास होकर दूसरा प्रयोग प्रारम्भ किया। उसने कदलीपत्र नालिका में से एक सांप छोड़ा जिससे वह पत्र तुरन्त भस्म हो गया। दुष्ट योगी ने कहा- सुनो लोगों ! यह रक्ताक्ष पन्नग शीघ्र अन्त करने वाला है। यह कहते हुए महाजनों के देखते-देखते सर्प को छोड़ा फिर दूसरे सर्प को भी छोड़ा जो उसका वाहन हो गया। योगी द्वारा प्रेरित सिंहासन पर वह चढ़ने लगा। आचार्य महाराज तो स्वस्थ चित्त से ध्यानारूढ़ हो गये। सच लोग हाहाकार करने लगे। योगी भी मुस्कराने लगा। गुरु महाराज के महात्म्य से वह दृष्टि विष सर्प प्रभ हो गया। तप के प्रभाव से एक शकुनिका आई। उसने सर्पयुगल को उठाकर तुरन्त नर्मदा तट पर छोड़ दिया। योगी दीनतापूर्वक गुरु महाराज के चरणों में गिरकर निरहंकार हो कर चला गया। संघ को अपार हर्ष हुआ। राजा ने महोत्सवपूर्वक गुरु महाराज को स्वस्थान पर पहुंचाया। उसी रात्रि को गुरु महाराज को एक देवी ने आकर कहा कि हे भगवन ! मैं सामने वाले वटवृक्ष पर रहने वाली पक्षिणी थी। जब मैने आपकी धर्म देशना सुनी तो मैं उसी समय मरकर कुरुकुल्लादेवी हुई। मैं ही सकुनिका बनकर सांपों को उठा ले गई थी। गुरु महाराज ने "करूकुला स्तव " की रचना की। इसके पाठ से भव्य जनों को सांपों के भय से दूर कर सकते हैं। कीर्तिरत्नसूरिशाखा के कवि देवहर्ष ने जिनहरि के राजा ने डीसा गजल की रचना की जिसे श्री अगरचन्द नाहटा ने अभय जैन ग्रन्थालय प्रति सं. 1699 पत्र गाथा 120 से स्वाध्याय पत्रिका के वर्ष 7 अंक में प्रकाशित की है। जिसका अंश इस प्रकार है... आदि- चरण कमल गुरु लायचित सब जनकु सुखदाय । के प्रतिबोधा हठ किया विपुल सुज्ञान बताय ॥ गाऊं गुण डीसा गुहिर सीद्ध पाता सुभयान । समरणी अंबा सिद्धि विघ्न विहार दीये धन वृद्ध ॥6॥ अंत- रूप विचित्र छत्र अडोल बाधे अधिक जस अलोल । सुणतां मंगल गान देव कुशल गुरु वंछित दाता । चुगली चोर मद चूर सदा सुख आपै साता । चंद्रगच्छ सीरचंदगुरु जिनहर्ष सूरीश्वर गाजे । प्रतपो द्र्य जिमपूर भज्यां सब दालिद्र भाजै । पुण्य सुजस कीधो प्रगट जिहासिद्ध अम्बा माताधणी । कविदेवहर्ष सुख थी कहे दियै सुजस लीलाघणी ॥ 2 ॥ आरासण गांव के नेमिनाथ मन्दिर का निर्माता गोगा मंत्री का पुत्र पासिल बहुत ही प्रसिद्ध है। इसके लिये कहा जाता है कि वह प्रारम्भ में बहुत ही निर्धन था। एक बार वह गुरु महाराज के पास निवेदन करने आया तो छाड़ा की पुत्री हांसी ने उसकी बड़ी मजाक उड़ाई कि क्या वह भी मंदिर बना रहा है। 99 लाख व्यय करके राजा ने मन्दिर बनवाया है वैसा क्या आप भी बनावेंगे। उसने गुरु महाराज द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अम्बिका देवी की आराधना की। दस उपवास करने के बाद अम्बिका प्रगट हुई उसने कहा कि मेरे प्रभाव से सीसे की खान चांदी की हो जावेगी। तुम उसे ग्रहण कर निर्माण कार्य कराओ । विद्वत् खण्ड / ७० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने तदनुसार नेमिनाथ के जिनालय का निर्माण कराया। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा मुनिचंद्रसूरि के शिष्य वादीन्द्र श्री देवसूरि ने की थी। विमल शाह को भगवती अम्बिका का इष्ट था। उसकी साधना करने से उसे अपार धन सम्पति मिली। इससे ही उसने अनेक मन्दिर, संघयात्रायें आदि कीं। विमल वसहि की देहरी सं. 21 में एक मूर्ति है। वहां दो मूर्तियां हैं जो सम्वत् 1088 के आसपास में बनी हुई है। प्राचीन उल्लेख : __ अम्बिका देवी एक प्राचीन देवी है। इसके कई उदाहरण प्राचीन उल्लेखों में भी दिये गये हैं। वैदिक साहित्य में भी शक्तिस्वरूपा देवी का उल्लेख है। ये प्राचीन देवियां देवगतिप्राप्त देवियां हैं। वे विभिन्न नामों से जानी जाती हैं। प्रतीकात्मक गुणों से संयुक्त होने से एक पद विशेष है। चार प्रकार के देवों की आयु कम से कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की आयु जैनागमों के अनुसार है। नाम का अर्थवर्णन प्रतीकात्मक है। यानी वह जैसे महिषासुर मर्दिनी, मोह महिषासुर और अंधकासुर अज्ञान, त्रिशूल त्रिरत्न आदि समझना चाहिए। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उनकी पूजा करना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उत्पाद व्यय और ध्रौव्य के प्रतीक हैं। देवियां कुछ वैमानिक, कुछ भुवनपति, व्यंतर बाण, कराररूप प्रकार की होती हैं। जैसा कि अपनी जाति कर्म प्रकृत्यानुसार कुछ सम्यग्दृष्टि और कुछ मिथ्यादृष्टि वाली होती हैं। एक की आयुष्य पूरी होने पर उस पद पर आने वाली देवियां अपनी कर्मप्रकृत्यानुसार उत्पन्न होकर अपनी आराधना विराधना या प्रवृत्ति पूर्वजन्म के संस्कारों के अनुसार होती हैं। कई मिथ्या दृष्टि देवियां जैनाचार्यों के सम्पर्क में आकर सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर अपनी हिंसक प्रवृत्ति त्याग देती हैं। मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के सम्पर्क में आने से आधिगाली देवता समकिती देवी होकर दिल्ली के मन्दिर में अधिष्ठाता का स्थान प्राप्त किया। सेठ माणकचन्द्र तपागच्छ के अधिष्ठाता मणिभद्र बने। नगरकोट का वीरा सुनार भी जिनपतिसूरिजी के उपदेश से आराधक बना। फिर अनशन पूर्वक मर करके अधिष्ठायक देव हुआ। सुसाणी माता सुराणों व दूगडों की कुल देवी सम्यक्त्व धारिणी है। नाकोड़ा भैरव के सम्बन्ध में कहा जाता है कि सखलेचा गोत्रीय श्रावक थे। इसी प्रकार से भगवान नेमिनाथ जी की अधिष्ठात्री देवी गिरनारतीर्थ की शासन देवी हई। धरेणन्द्र एवं पद्मावती तो भगवान पार्श्वनाथ की कृपा से इन्द्र एवं इन्द्राणी हुए। शत्रुजय का अधिष्ठायक कापर्दि यक्ष भी ग्राम महत्तर या सरपंच था जो सातों व्यसन-पाप कर्म में आसक्त था। मुनिराज के चातुर्मास में नवकार मंत्र और आदिश्वर भगवान की भक्ति से अनशन करके कपर्दियक्ष (कवड यक्ष), अधिष्ठायक देव हुआ। उसकी पत्नी भी अनशनपूर्वक मरकर कपर्दिका वाहन हाथी हुई। पउमचरिय में जो 472 ई. के आसपास लिखा गया था, सिंहवाहिनी अम्बिका का वर्णन है। विशेषावश्यक भाष्य की टीका में कोट्याचार्य वादी गणि ने अम्बु कुष्माण्डी की गाथा 3590 में उल्लेख किया है। वि.सं. 1390 में जिन प्रभ सूरि जी द्वारा हस्तिनापुर तीर्थकल्प स्तवन गाथा 20 में "भाषते उत्त जगसेव पवित्री कारकारणम्। भवनं च अम्बिका देव्या पात्रिकोसप्त कछंद ।। (7) में उल्लेख किया है। खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह पृ. 42 में इस प्रकार उल्लेख है"तस्मिन्नवसरे विमलदण्ड नायकेन गुर्जरराज्ञा सम्मानिते नार्बुदाचलधारित्र्यां आरासन नगरे अम्बाया: कुलदेव्या प्रासादःकारित स्तत्रगम्य स्वप्नेदेव्या दर्शनं दत्तं खड्गे ग्रहाणेत्युक्त्वा रूप्यत्रम्बक खानीदर्शते च तया तत स्तेन महत् सैन्यं कृत्वा देवी महात्म्येन चतुविंशति देशागृहीताः । छत्राणि अग्रेताड्यन्ते बणिक् कुलत्वात् शीर्षे वन स्थाप्यन्ते तस्येति। अन्य साक्ष्य : खरतर गच्छ के साहित्य में अम्बिका देवी का काफी विस्तार से उल्लेख मिलता है। इसकी पट्टावली (खरतरगच्छ वृहद गुर्वावली) में निम्न उल्लेख है 1- स्तम्भन, शत्रुजय, उज्जयंत आदि स्थानों पर पार्श्वनाथ, ऋषभदेव, नेमिनाथ की मूर्तियां एवं अम्बिका की मूर्तियां स्थापित करने का उल्लेख। पृष्ठ सं. 17 2- सं. 1236 में अजमेर में महावीर एवं अम्बिका की मूर्तियां स्थापित की। (पृ. 29) 3- वि.सं. 1318 में भीलड़ी में अम्बिका सहित कई प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं कराई। (पृ. 51) 4- वि. सं. 1362 यशोधवल के पुत्र थिरपालने उज्जयन्त में अम्बिका देवी की माला ग्रहण की। (पृ. 63) 5- वि. सं. 1380 में मानतुंग विहार शत्रुजय की प्रतिष्ठा के समय अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठायें की। इनमें अम्बिका देवी की एक थी। (पृ. 72) 6- दिल्ली के रयपति सेठ के संघ में जिन कुशल सूरि ने बड़े विस्तार से पूजा उत्सव किया था। (पृ. 76) 7- वि. सं. 1377 में अम्बिका की एक मूर्ति देरावर नगर के लिए जिन कुशल सूरि ने प्रतिष्ठापित की थी। 8- 'शत्रुञ्जय वैभव' के पृष्ठ 180 में इस प्रकार से उल्लेख किया गया है, रत्नाकर सूरि अत्यन्त निस्पृह प्रकृति के महापुरुष थे। समत्व उनके जीवन में साकार था। गिरिनार यात्रार्थ पधारते हुए परीक्षार्थ देवी ने एक मणि मार्ग में रख दी। समस्त शिष्य परिवार का ध्यान उस पर जाना जरूरी था। इस सुंदर प्रभाव पूर्ण मणि को देखते ही शिष्यों ने जिज्ञासा की कि यह क्या है ? पूज्य ने कहा, “चिन्तामणि रत्न" रत्न की वास्तविकता की परीक्षा के लिए गुरु ने कहा कि हे मणि! स्तम्भ तीर्थ जाकर के ज्ञानागार से सटीक पंचमांग ले आ! तत्काल भगवती सूत्र उपस्थित किया गया। परीक्षण पूर्ण हुआ। संयम के सामने इस मणि का कोई मूल्य न था। यथा स्थान रख दी गई जो अदृश्य हो गई। अन्य प्रबन्धों में भी अम्बिका देवी के कई उल्लेख मिलते हैं। अम्बिका के प्राचीनतम उल्लेख मथुरा के कंकाली टीले के समकालीन मूर्ति अभी भी हस्तीनापुर में मिली है इसमें अम्बिका की मूर्ति स्थापित करने का उल्लेख है। हस्तिनापुर से भी अभी हाल ही में कुछ मूर्तियां हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ७१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिली थीं इनमें पद्मासन स्थित 21 इंच की एक मूर्ति अम्बिका की भी थी। राजगृह में वैभारगिरि में एक शुंग कालीन दूसरी शताब्दी ई. पूर्व की अम्बिका की मूर्ति है। खण्डगिरि उड़ीसा में आदिनाथ एवं अम्बिका की मूर्तियां जो ईसा की दूसरी शताब्दी पूर्वार्द्ध की हैं। दक्षिण भारत में वैली मूलल (चित्तूर) में भी नवीं शताब्दी की अम्बिका की सुन्दर मूर्ति है। जिनदत्तसूरि एवं अम्बिका : नागदेव नामक एक श्रावक था। वह युगप्रधान आचार्य के दर्शन करना चाहता था। इस कारण उसने गिरिनार पर्वत के अम्बिका शिखर पर जाकर तपश्चर्या की। देवी ने प्रसन्न होकर उसके हाथ में गुप्त लिपि में कुछ अक्षर लिख दिये और कहा कि जो इसे पढ़ देगा उसे ही तू युगप्रधान आचार्य मानना। नागदेव भ्रमण करता हुआ कई जगह गया किन्तु उसे कोई युगप्रधान दिखाई नहीं दिया। अन्त में वह पाटण आया वहां भी सबको अपना हाथ दिखाया। वहां विराजमान जिनदत सूरि ने इसे वासक्षेप कर शिष्य द्वारा पढ़ा दिया। शिष्य ने गुरुदेव की स्तुति पढ़ी, वह यह हैदासानुदासा इवसर्वदेवा यदीय पादाब्ज तले लुठंति मरुस्थली कल्पतरू सजीयात्, युग प्रधानो जिनदत्त सूरि ।। यह श्लोक बहुत ही प्रचलित है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित पाठ भी अवलोकनीय है। (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ. 30, 46, 216) 1- जिणदत्त नंदउ सुपहु जो भारहंमि जुग पवरो अम्बा एवि पसाया बिन्नाओ नागदेवेण...। नागदेव वर सावएण उज्जित चडेविणु। पुच्छिय जुगवर अंबएवि उववास करेविणु। तसु भत्ति तुट्ठायतीय करि आक्खर लिखिया। भणिउ जवाइय पम्हसय जुगपवर सुधम्मिय। भमिऊष पुहवि अणहिलपुरि जुगपहाण तिणिजाणियउ। जिणदत्त सूरि नंदउ सुपहुअंबाएवि बखणियउ...2 2- जिनदत्त सूरि गुरु नमउए अम्बिका ए देवि आयेसि जाणियइ चिहुजुगे जुगप्रधान संयंभरिए रायडइ दीधउ श्री जिनधर्मदान...21 3- अम्बा एवि पयासकरि जाणी जुग पहाणो। नागदेव जोमुणि पवर वाणी अमिय सयाणो म॥ अमिय समाण बखाण जासु सुणिवा सुर आवइ । चउसठि जोगणि जासुनामि नहुंतणु संतावइ । जुगवर सिरि जिणदत्त सूरि महियलि जाणीजइ। निम्मलमणि दीपंतिभाल जिण जिण चंद नमिजइ...10 मन्त्री ने वैसा ही किया। कलश, झालर व पूजा के सामान सहित गये। जहां संकेत सिद्ध हुआ, तीन प्रतिमाएं प्रकट हुईं। एक वज्रमय श्री आदिनाथ प्रतिमा, दूसरी अम्बिका माता और तीसरा वालीनाथ क्षेत्रपाल प्रकट हुए। ब्राह्मणों ने कहा, प्रतिमा तो है पर मन्दिर बनाने में बाधा दी तो मंत्रीश्वर विमल दण्डनायक ने स्वर्णमुद्राएं बिछाकर भूमि ग्रहण की और भगवान ऋषभदेव का जिनालय निर्माण कराया। अठारह करोड़ तिरेपन लाख द्रव्य व्यय हुआ। सं. 1088 में वर्धमान सूरि जी प्रतिष्ठा करवा कर स्वर्गवासी हुए। ___ महातीर्थ आबू काव्य गा-13 से (भंवरलाल नाहटा): गुरुवर्द्धमान सूरीश्वर ने अम्बादेवी से सूचित हो। निर्देश किया आदीश्वर की प्रतिमा प्रगटेगी निश्चित हो। द्विजगण से मनपसंद भूमि इच्छित धन देकर के चाही। विछवाय स्वर्णमुद्राओं को ले लें धरती जो मन भाई...3 जिनकुशलसूरिजी को अम्बिका देवी का इष्ट था। इन्होंने कई अम्बिकादेवी की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की थी। इनके लेख भी दिये जा रहे हैं जिनोदयसूरिजी के संघ यात्रा में जाते हुए कोटिनारपुर पहुंचने पर अम्बिका देवी की पूजा अर्चना करने का उल्लेख विज्ञप्ति पत्र में किया गया है। जयसागरोपाध्याय : जिनराजसूरिजी के शिष्य जयसागरोपाध्याय उच्चकोटि के विद्वान और प्रभावक संत थे। गिरिनारजी पर जब संघपति नरपाल ने लक्ष्मीतिलक नामक खरतरवसही जिनालय का निर्माण कराया तब अम्बिका देवी के प्रत्यक्ष दर्शन होने का उल्लेख मिलता है... श्री उज्जयंत शिखरे लक्ष्मीतिलकाभिधो वर विहारः नरपाल संघपतिना यदादि कारयतुमारेभे। दर्शयति तदा चाम्बा श्रीदेवी देवता जन समक्षम् अतिशय कल्पतरूणां जयसागर वाचकेन्द्राणाम्...2 श्री जिनराज सूरि (द्वितीय): वे चतुर्थ दादा श्री जिनचन्द्र सूरि के प्रशिष्य थे। वे उच्च कोटि के विद्वान् थे। उन्हें अम्बिका देवी का पूर्ण सान्निध्य था। उन्होंने मेड़ता में भी अम्बिका देवी की स्थापना की थी। वह उनके सानिध्य में ही वि. सं. 1662 में निकली हुई प्रतिमा थी। आपने प्राचीनतम लिपि को पढ़ा था। उनके रास में लिखा है कि देवी अम्बिका की कही हुई पचासों बातें सत्य साबित हुईं। देवी ने कहा था कि आपको पाचंवें वर्ष में आचार्य पद मिलेगा। अम्बिका हाजरा हजूर थी। "जय तिहुण" स्मरण करने पर अहिरूप में धरणेन्द्र ने दर्शन दिये थे। देवी ने उन्हें भट्टारक पद देने का भी आशीर्वाद दिया था जो उन्हें मिल गया था। श्री जिन सिंह सूरि के स्वर्गवास के तीन दिन पूर्व ही उन्हें यह ज्ञात हो गया था। बचपन में भी थराद एवं सांचोर के बीच उन्हें “परचा' दिया था। जिनराज सूरि कृतिकुसुमांजलि एवं ऐतिहासिक काव्य संग्रह में निम्न उदाहरण दिया गया हैघंघाणि प्रतिमातणी रे वांची लिपि महा जाण। अम्बिका साधी मेड़ते रे केता करय बखाण।।।।। पार्श्वनाथ नी सानिधि, कीधीए अखियात। घंघाणी प्रतिमातणी वांची लिपि विख्यात...2 सदगुरु साधी अम्बिका थई कहयउ परतक्ष । भट्टारक पद पांच मइ बरसई पामिसिइदक्ष...3, हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ७२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल्या जिके कहया अंबिका बीजा बोल पचास । करइ सानिध गुरुराजनइ हाजरि रहि हुलास... 4 जयतिहुअण समय की अहिरूप धरणीन्द्र बोल्यउ थाइसवच्छ तुं खरतरगच्छ मुणींद...5 आजवकी चऊई वरिस फागुण सुदि शुभवार सातमी दिवसई तूं लहसि भट्टारक पद सार... 6 तिहुं दीहाड़े थाकते तहं जाणयउ जिनराज । मरणउ जिनसिंहसूरियनउ ए सबल करामति आज... 7 बालपणा पणि ताहरउ पूरयउ परतउ एक । बिराद सांचोर विचई अविका राखी टेक... 8 बड़ी बखती सुप्रसन्न वदन जाण्यो पुण्य अंकूर । परतखी देवी अधिका हुई हाजरा हजूर परतखि परतउ दिठए अंबानई आधार लिपि वांची घघाणीयई जाणइ सहु संसार ( पत्र 2 से 8 अभय जैन ग्रंथालय प्रति 6713) तूंठी जेहन अंबिका रे लाल अविचल दीधी वाच । लिपि वांची पाणीयह रे सहु को मानइ साथ ... ऐ. जैन काव्य सं. 167 जिनसागरसूरि रास में.... उदयदिखाय अंबिका रे लो श्रीजिनशासनदेव रे । युगप्रधान जिनचंद्र जीरे करइ कृपा नितमेवरे । ...ऐ. जैन काव्य संग्रह पृ. 170 हीरक जयन्ती स्मारिका अन्य शिलालेखीय सामग्री : नीचे लिखे लेख भी मिले हैं जिनमें अम्बिका की प्रतिमा प्रतिष्ठापित ... ऐ. जैन काव्य सं. पृ. 201 करने का उल्लेख है— 1- सं. 1092 वर्ष नागेन्द्र संतानेन इतबारक स्य ने अंबिका प्रतिभा समस्त गोष्ट्या कारिता जूनागढ़ महावीरस्वामी के मंदिर में . 2- सं. 1384 माघ सुदि 5 जिनकुशल सूरिभिः प्रतिष्ठित कारितेच... सा. उ... बालीस (जयपुर श्रीमाल दादावाडी) 3- सं. 1380 श्री जिनकुशल सूरिभि: अंबिका प्रतिष्ठिता । ( बम्बई में एक श्रावक के पास) 4- सं. 1381 वैशाख वदि 5 श्री जिनचन्द्रसूरि शिष्यैः श्री जिनकुशलसूरिभि: (पैदों के महावीर जिनालय बीकानेर में) 5- सं. 1483 वर्षे वैशाख सुदि 5 प्रग्वाट जाति सा अभयपाल भा. अहिव दे पु. सा. रायसिंहेन भा. लवली पुत्र सा आसड अभय राज बदत्तादि कुटुम्ब युतेन श्रेयसे अंबिका मूर्ति का प्रतिष्ठिता श्री सोमसुन्दर सुरभिः ( रतलाम शांतिनाथ मंदिर ) 6- सं. 1525 वर्षे माह 5 सोमे उके0 सा0 राजाकेन अंबिका गोत्र देव्या का। 7- सं. 1380 कार्तिक सु. 14 श्री जिनचन्द्रसूरि शिष्ये श्री जिनकुशल सूरिभि: श्री अंबिका प्रतिष्ठिता जैन तीर्थ सर्व संग्रह 372 यह प्रतिमा व्यावर में हाला (सिंध) से आ गई है। इसके साथ सं. 1379 में श्री जिनकुशलसूरि द्वारा मार्गवदी 9 प्रतिष्ठित पीतल का सिंहासन भी है। 8- खंभात के चिंतामणि जिनालय में भूमिग्रह में एक अंबिका गवाक्ष है। इसमें देवी की सुन्दर प्रतिमा है। जिस पर सं. 1547 वैशाख सुदि 3 सोमवार का लेख खुदा है जिसमें प्रगवाट जाति के पासवीर की भार्या पूरी ने अपने कुटुम्ब के श्रेयार्थ श्री अंबिका की मूर्ति कराके सुमतिसाधुसूरि से प्रतिष्ठित कराई। 9- सादड़ी के चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर में अंबिका माता की संगमरमर की एक मूर्ति जो पाली में प्रतिष्ठित है। इसका लेख इस प्रकार है.... सिद्धम् सं. ( 13 ) 12 मार्ग सु. 13 श्री उ. पल्लिका स्थाने श्री शांति नाथ चैत्ये । 10- देलवाडा मेवाड़ में वि. सं. 1476 का लेख अंबिका की मूर्ति पर है यह महात्मा श्रीलाल जी के संग्रह में है सं. 1476 वर्षे मार्ग सु 10 दिने मोढ़ ज्ञातीय सा. चउहथ भार्या साजण सुत सं. मानाकेन अंबिका मूर्तिकारिता प्रतिष्ठिता श्री... ( नाहर जैन लेख संग्रह 200 ) 11 उज्जयंत गिरि से भी कई अम्बिका की मूर्तियां मिली हैं। इन पर शिला लेख भी मिले हैं... सं. 1215 वर्षे चैत्र सुदि 8 रवा वद्येह श्री मदुज्जयन्त तीर्थे जगती समस्त देव कुलिका सत्क छाजा कुवालि सविरण संघवि ठ० सालवाहण प्रतिपत्या सू. जसहड़ पु. सावदेवेन परिपूर्णा कृता । तथा ठ० भरथ सुत ठ. पंडि (न) सालिवाहन नागवरिसिराय परितः (भाग) चत्वारि बिंबी कृतकुंडांतर तदधिष्ठात्री श्री अंबिकादेवी प्रतिमा देवकुलिका च निष्पादिता । 12- सं. 1361 फाल्गुन शुदि 3 गुरुवारे अद्येह श्री सरस्वती श्रीमच्चन्द्र कुले वसांचार्य श्री वर्द्धमान संताने साध्वी मलय सुन्दरी शिष्यणी बाई सुहव आत्मश्रेयसे श्री अम्बिका देवी मूर्ति: कारापिता श्री सोमसूरि शिष्य श्री भावदेव सूरिभिः प्रतिष्ठिता (छ) । 13- विमलवसाहि आबू की प्रशस्ति में निम्न वर्णन है (बि. 1378 का लेख) अशोक पुत्रासण पाणिपल्लावा समुल्लस्य त्स्केसरश्यं (सिंह) हवाइना । शिशु द्वायांल कृतविहुगहा सती सतां क्रियाद्वत विनाराम अंबिका ॥ 1 ॥ अयान्वदातं निशि दण्डडनायकं समादिदेश प्रपता किलाम्बिका । इहामि (च) ले त्वं कुरू सद्म सुन्दरं युगा दिभर्तुं निरूपायस श्रय... 10 14- अचलगढ़ में शांतिनाथ मंदिर में अंबिका देवी की मूर्ति पर सं. 1515 वर्षे आषाढ़वादि शुक्रेउकेश वंशे दरड़ा गोत्रे आसा. भा. सरयु पुत्रेण सं. मंडलिकेन भाग हीराई सु० सुजण द्वि. भा. रोहिणी पृ. भ्रा. सा. पाल्हादि परिवार संयुतेन श्री चतुर्मुख प्रासादे श्री अम्बिका विद्वत् खण्ड / ७३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति का श्री जिनचन्द्र सूरिभि : इलोरा गुफा मंदिर : कुशल निर्देश के सितम्बर 92 के अंक में एलोरा की अम्बिका देवी का सुन्दर चित्र प्रकाशित किया जिसमें फलयुक्त विशाल आम्रवृक्ष के नीचे देवी विराजित हैं, दोनों ओर दोनों पुत्र खड़े हैं। : सतना (मध्य प्र. ) अम्बिका की सभी मूर्तियां बैठी हुई मिलती हैं और दोनों पुत्र एक गोद में और दूसरा पास में खड़ा होता है। कुछ सपरिकर और कई बिना परिकर की हैं। सतना (मध्य प्रदेश) की प्रतिमा खड़ी हुई है यह कलापूर्ण सपरिकर है और दोनों पुत्र उभयपक्ष में खड़े हैं। मैंने इस प्रतिमा का चित्र कुशल निर्देश मार्च 1994 के अंक में प्रकाशित किया है। नगरकोट कांगड़ा कांगड़ा में अम्बिका का मूर्ति मंदिर था, किन्तु अब नहीं रहा है। सुप्रसिद्ध उपाध्याय श्री जयसागर जी ने विज्ञप्ति त्रिवेणी में लिखा है कि कांगड़ा नगर कोट में शासन देवी अम्विका का चमत्कारिक मंदिर है, जिसका वर्णन अनेकशः संप्राप्त है। - भगवान की चरण सेविका शासन देवी अम्बिका है। इसके प्रक्षालन का जल चाहे वह एक हजार घड़ों जितना हो तो भी भगवान के प्रक्षालन के पानी के साथ पास-पास होने पर भी कभी नहीं मिलता। मन्दिर के मूल गर्भ गृह में कितना ही जल क्यों न पड़ा हो बाहर से दरवाजे ऐसे बंद कर दिए जाए कि चींटी भी प्रवेश न कर सके, तो भी क्षणमात्र सारा पानी सूख जायगा । जयसागरोपाध्याय लिखते हैं कि "बारइ नेमीसर तणइ ए, थाप्पेय राय सुसम्मि । आदिनाह अम्बिक सहिय, कंगड कोट सिरम्मि ।। " अम्बिका और आरासण नगर : आरासण नगर चन्द्रावती ( आबू) के पास है। यहां अम्बाजी नाम का ग्राम है। इसे अम्बा देवी का मंदिर कहते हैं। यहां कई जैन मन्दिर हैं। महावीर स्वामी के मंदिर में अम्बा देवी की मूर्ति है जिस पर बि. स. 1675 का लेख है। मूलरूप से यह प्रतिमा वि. सं. 1120 में प्रतिष्ठित हुई थी। इस पर पुन: वि.सं. 1675 में विजय देव सूरि की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। पुराणों में आबू क्षेत्र में अम्बा जी का एक प्राचीन स्थल था । स्कन्दपुराण में अधिका खण्ड में इसका उल्लेख है। इसे चंडिका नाम भी दिया गया है। इसे असुरों के नाश करने के लिए भगवान ने प्रकट किया था । ऋगवेद में सरस्वती एक अम्बिका का उल्लेख भी सारस्वत सूक्त में है । यहां अम्बा देवी के लिए "अंबी तमे" लिखा गया है। (ऋग्वेद संहिता मंडल 10 सारस्वत सूत्र मंत्र ।) ऐतिहासिक उल्लेखों के अनुसार बलभीपुर के राजा शीलादित्य पर मुसलमानों का आक्रमण हो गया। उसकी राणी पुष्पावती चन्द्रावती के राजा की पुत्री थी। उस समय राजा ने बड़ी दृढ़तापूर्वक उनका मुकाबला किया। अंत में उसके राज्य का विनाश हो गया और राणी अम्बा भवानी के मन्दिर में भाग गई। बौद्ध ग्रंथ "डाकार्णव" में आर्बुदीदेवी का नाम अम्बिका के लिए किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अम्बाजी हीरक जयन्ती स्मारिका का मन्दिर 10-11 शताब्दी के बाद प्रसिद्धि में आया था। यह परमार राजा की कुल देवी थी। गिरनार पर्वत पर सं. 1215 में इसके एक मन्दिर वन जाने का उल्लेख एक शिलालेख में है। अम्बाजी में माताजी का मन्दिर किले के सामने मोटे गढ़ में है। पहले इसका द्वार आता है। इसके बाद डा. वी. बाजु पुजारी का मकान आता है। इसके बाद काल भैरव का स्थान है। इस मन्दिर के पास एक प्राचीन बावड़ी भी है। इसके ऊपर एक धर्मशाला है। इसके बाद खुला चौक आता है। वहां से भगवती का मन्दिर शुरू होता है। इस मन्दिर में सुन्दर सीढ़ियां है इसके बाद भव्य मंडप है। इस मन्दिर के शिलालेखों में नागर ब्राह्मणों द्वारा 15वीं शताब्दी के उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाराजा कुंभा ने इस क्षेत्र को जीता और आरासण का नाम बदलकर अपने नाम पर इसे "कुंभारिया" रख दिया। यहां और आसपास भी कई स्थान हैं। इनमें गब्बर कोटेश्वर आदि स्थान है। कुंभारिया में अम्विका की मूर्ति 12वीं या 13वीं शताब्दी की है यह देवकुलिका की भ्रमती में है नेमिनाथ मन्दिर गिरनार में सं. 1059 ई. के आसपास स्थापित मूर्ति है । श्री जिनेश्वर सूरि कृतम् : श्री अम्बिका देवी अष्टकम् : देवगन्धर्व विद्याधरैर्वन्दिते जय जयामित्र वित्रासने विश्रुते । नूपुरा राव सुनिरुद्ध भुनोदरे, मुखरतर किंकिणी चारुता स्वरे ॥ 1 ॥ ऊं हीं मंत्र रूपे शिवे शिवकरे, अम्बिके देवि जय जयन्तु रक्षा करे । स्फुरतार हारावली राजितोरास्थले, कर्ण ताडंक रूचिरम्य दंक स्थले- 2 स्तंभिनी मोहिनी इश उच्चाटने, क्षुद्र विद्राविणी दोष निर्वाशिनी। जम्भिनी भ्रान्ति भूतग्रह स्फोटिनी, शांति धृति कीर्तिमति सिद्धि संसाधिनी ॥ 3 ॥ ॐ महामंत्र विद्येउनवद्ये स्वयं, ह्रीं समागच्छ में देवि दुरित क्षयम् । ॐ प्रचण्डे प्रसीदक्षण (हे) सदानंद रूपे विदेहि क्षणम्...4 ऊं नमो देवि ! दिव्य श्वमें भैरवे, जये अपराजिते तप्त हेमच्छवेः ॥ ऊं जगज्जननि संहार सम्मार्जनी, ह्रीं कुष्माण्डि दिव्याधि विध्वंशिनी...5 पिंग तारोत्पद्य कण्डीरवे, नाम मंत्रेण निर्नाशितोपद्रवे । अवसरानतर रैवतक गिरिनिवासिनी, अंबिके जय जय त्वं जगत्सवामिनी... 6 ही महाविघ्न संघात् निर्नाशिनी, दुष्ट परमंत्र विद्या बलच्छेदिनी । हस्तविन्यस्त सहकारफल लुंबिका, हरतु दुरितानि देवी जगदम्बिका... 7 इतिजिनेश्वरसूरिभिरंबिका, भगवतिशुभा मंत्र पदैः स्तुता । डावर पात्रता शुभसम्पद वितरतुप्राणिहंत्वंशिवं मम...8 अंबिका मंत्र (विविध तीर्थकल्प से) वयवीयम् कुल कुलजलह रिहय अक्कंतर पेआई। पणइणि वायावसिओ अंबि देवी इ अहमंतो...I ध्रुवभुवण देव संबुद्धि पास अंकुस तिलोअ पंचसरा । णहसिहि 'कुलकल अब्भासिअमाया पर पणाम पयं...2 यागुग्भवं तिलोअं पास सिणीहा ओतइअवन्त्रस्स । कुंडं च अंविआए नमुत्ति आराहणा मंतो... 3 विद्वत् खण्ड / ७४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बिका स्तुति : आम्रगुच्छ करां सारां नेमीश्वर क्रमाब्जिनीम्, मंगलोच्चार मुखराम्बिका देव्यै (नम:) स्वाहा। श्री अमरसिन्धुर गणिकृत : श्री अम्बिका गीतम् देशी - गरबानी मां अंबाई, तो दरसण थी अडसिध नवनिध पाई, माई...1 माई रेवंतगिरि ऊपरमाल्हे, माई गहिर गुणै नितप्रति गाजै माई छत अधिक ओपम छाजै। माई...2 माइनेमीसरनाचरण नमे माई दोषी जननै तुरत दर्मे। माई गहिरा दुख वै तुरत दमै... माई 3 माई चिन्तापिण मननीचूरै, माई प्रेम अधिक लक्षमी पूरै। माई चरण नमे उदये सूरै... माई 4 माई आराध्यांततखिण आवै, पेखी निजसेवक सुख पावै। माई गोरंगी मिलगुण गावै... माई 5 निज दास नी आसा तुरत पूरै, देवी नयणा नंदचढते नूरै। माई अधिकै पुण्य ने अंकूरै... माई 6 माई नेह निजर भर निरखीजै माई वंछित सुख मुझ ने दीजै। __माई कारज एतोहिव कीजै... माई 7 वरसुजसत्रंबाल जगत बाजै, सबली सिंघ असवारी छाजै। भावठ भय तो दरसै भाजै... माई 8 बड वखती वीनती अवधारो, इक सबल भरोसो छै थारो। अवलवेसर आपद थी तारो... माई -9 आतंक अरी अलगा हरिजो, देवी सुख संपत वहिला दीजो। “अमरेश" आपणड़ा जाणीजे... माई 10 // इति अंबिका गीतम् // गिरनारजी तीर्थ में जो अम्बिका मन्दिर-शिखर पर वर्तमान है वह वस्तुपाल तेजपाल द्वारा निर्मापित है उसकी सुकृत कीर्ति कल्लोलिनी आदि वस्तुपाल प्रशस्तिसंग्रह में इस प्रकार प्रकाशित है। अम्बिका स्तोत्रम् : पुण्ये गिरीश शिरसि प्रथिताव तारा मासूत्रित त्रिजगती दुरितापहाराम्। दौर्गत्य पाति जनता जनितावलम्बा मम्बा महं महिम हैमवती महेयम्...। यद्वक्त्रकुञ्ज कुहरोद्गत सिंहनादो अप्युन्मादि विघ्नकरि यूथ क धाम माथम्। कुष्माण्डि! खण्डयतु दुर्विनयेन कण्ठः, कण्ठीरव: स तव भक्ति नतेषु भीतिम्...2 कुष्माण्डि! मण्डनमभूत् तव पादपद्मयुग्मं यदीय हृदयावनि मण्डलस्य। पद्मालया नवनिवास विशेष लाभ लुब्धा न धावति कुतोअपि ततः परेण...3 दारिद्रय दुर्दम तमः शमन प्रदीपा: सन्तान कानन घनाघन वारिधाराः। दु:खोपतप्त जनबल मृणाल दण्डा: कुष्माण्डि! पान्तु पदपद्म नखांशवस्ते...4 देवि! प्रकाशयति सन्ततमेष कामं, वामेतरस्तव करश्चरणा नतानाम्। कुर्वन् पुर: प्रगुणितां सहकार लुम्बिमंबे! विलम्ब विकलस्य फलस्य लाभम्... हन्तुं जनस्य दुरितं त्वरिता त्वमेव,नित्यं त्वमेव जिनशासन रक्षणाय, देवि! त्वमेव पुरुषोत्तम माननीया, कामं विभासि विभया सभया त्वमेव...6 तेषां मृगेश्वर गर ज्वर मारि वैरि दुर्वारवारण जल ज्वलनोद्भवा भीः / उच्छृखलं न खलु खेलति येषु धत्से, वात्सत्य पल्लवितमम्बकमम्बिके! त्वम्...7 देवि त्वर्जित जितप्रतिपन्थि तीर्थयात्रा विधौ बुध जनानरंगसंगि। एतत् त्वयिस्तुति निभाद्भुत कल्पवल्लीहल्लीसकं सकल संघ मनो मुदेऽस्तु...8 वरदे कल्पवल्लि त्वं स्तुतिरूपे सरस्वति, पादाग्रानुगतं भक्तं, लम्भयस्वा तुलै:फलैः / / 9 / / स्तोत्रं श्रोत्ररसायनं श्रुत सरस्वा नम्बिकाया: पुरश्चक्रे गूर्जर चक्रवर्तिसचिव: श्रीवस्तुपाल: कवि: प्रात: प्रातर धीयमान मनघं यच्चित्तवृत्तिं सता / माधत्ते विभुतां च ताण्डवयति श्रेय श्रियं पुश्यति...10 // इति महामात्य श्री वस्तुपाल विनिर्मित अम्बिका स्तोत्रम् // गिरनारजी पर जो वस्तुपाल तेजपाल ने अम्बिका शिखर या मन्दिर निर्माण कराया उसका उल्लेख उनकी प्रशस्तियों में सर्वत्र उपर्युक्त उल्लिखित ग्रन्थ के पृ. 28, 44, 46, 48, 51, 54, 56 में है। श्री विजयसेन सूरि कृत रेवंतगिरि रासु जो सं. 1288 के आसपास की प्राचीन रचना है। इस 10, 20, 22 कुल 52 गाथा की रचना की प्रथम गाथा में अम्बिका देवी को भी नमस्कार किया है और द्वितीय कंडवं में काश्मीर देश के श्रावक रतन द्वारा अभिषेक करते लेप्यमय बिंब गल जाने से निराहार रहकर आराधना की। 21 उपवास होने पर अम्बिका देवी ने प्रसन्नता पूर्वक प्रकट होकर कहा, "वत्स तुम कंचनवालानक से आते हुए मणिमय बिम्ब को पीछे की ओर मत देखना। जिनालय की देहली तक पहुंचते बिंब हर्षातिरेक से पीछे देखा और वहीं भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा स्थिर हो गई, कुसुमवृष्टि हुई आदि वर्णन है। वैशाख सुदि पूनम को जिन बिंब स्थापन कर अजित और रतन दोनों संघपति भ्राता स्वदेश लौट गये। तृतीय कंडवं में अम्बिका स्वामिनी के मंदिर का इस प्रकार वर्णन किया है... गिरिगरुया सिहरि चडेवि, अंब जंबाहि बंबा लिए। संमिणिए अम्बिक देवि देउलु दीठु रमाउलं ए...। वज्जई ए ताल कंसाल वजई मद्दल गुहिरसर। रंगिहिं ए नच्चई बाल, पेखिवि अंबिक मुह कमलु...2 शुभकरू ए ठविउ उच्छंगि विभकरो नंदणु पासि कए। सोहइ ए ऊजिल सिंगि, सामिणी सींह सिंघासणी ए...3 दावई ए दुक्खहं भंगु, पूरई वंछिउ भवियजण। रक्खइ ए चउविहु संधु, सामिणी सीह सिंघासणी ए...4 अंत - रंगिहि ए रमइ जो रासु, सिरिविजयसेणिसूरि निम्मविउए नेमिजिनु ए तूसई तासु, अंबिक पूरइ मणि रली ए...5 सुकृत कीर्तिकल्लोलिनी (पृ 103) हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 75