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। जन-मंगल धर्म के चार चरण
शाकाहारी अण्डा : एक वंचनापूर्ण भ्रांति
-आचार्य देवेन्द्रमुनि
जब रसना मन से आगे बढ़ जाती है तो अनेक अनर्थ होने का तो यह प्रयास रहेगा ही कि अण्डों की खपत अधिकाधिक बढ़े। लग जाते हैं। जीभ पर नियंत्रण होना अत्यावश्यक है। कहीं तो यह । उसके उपभोक्ताओं का वर्ग और अधिक व्यापक हो। विगत कुछ अनर्गलवाणी द्वारा विग्रह खड़े कर देती है और कहीं स्वाद लोलुप | युगों से तो यह भ्रान्त धारणा विकसित की जा रही है कि अण्डे बनाकर मनुष्यों से वे कृत्य भी करवा देती है कि जो उनके लिए सामिष खाद्यों की श्रेणी में आते हैं, किन्तु सभी अण्डे ऐसे नहीं अकरणीय है। अभक्ष्य पदार्थ भी इसी कारण खाद्य सूची में स्थान होते। कुछ अण्डे निरामिष भी होते हैं, अर्थात् उनकी गणना पाने लग गये हैं। अण्डा-आहार इसका एक जीवन्त उदाहरण है। शाकाहारी पदार्थों में की जाती है। यह एक विचित्र, किन्तु असत्य
अण्डा वास्तव में प्रजनन चक्र की एक अवस्था विशेष है। है, मिथ्या प्रलाप ह उनका यह मानना है कि ऐसे शाकाहारी अण्डों सन्तानोत्पत्ति लक्ष्य का यह एक साधन है, यह आहार की सामग्री का उपभोग वे लोग भी कर सकते हैं जो अहिंसा व्रतधारी हैं। ये कदापि नहीं है। प्रकृति ने इसे प्राणीजन्म के प्रयोजन से रचा है, शाकाहारी अण्डे सर्वथा सात्विक समझे जा रहे है। वस्तुतः अण्डे न प्राणियों के भोजन के लिए नहीं। यह तो मनुष्य का अनाचरण ही है तो सात्विक होते हैं, न शाकाहारी और न ही अजैव। यह तो एक कि उसने इसका यह रूप मान लिया और घोर हिंसक कृत्य में छद्मजाल है जो अण्डा व्यवसाय के विकासार्थ फेंका गया है और लिप्त हो गया है। आहार तो पोषण करता है, स्वयं शुद्ध और जिसमें अहिंसावादी वर्ग के अनेक जन उलझते जा रहे हैं। यह इन उपयोगी तत्वों से सम्पन्न होता है-अण्डे में यह लक्षण नहीं पाये व्यवसाईयों की दुरभिसंधि है। अबोध अण्डा विरोधीजन स्वयं भी जाते। यदि आहार रूप में मनुष्य अण्डे पर आश्रित हो जाए तो इस भ्रम से मुक्त नहीं हो पा रहे। वे अबोध तो यह पहचान भी नहीं उसका सारा शारीरिक विकास अवरूद्ध हो जाएगा। इसमें रखते कि कौन-सा अण्डा सामिष है और कौन-सी निरामिष कोटि कार्बोहाइड्रेड लगभग शून्य होता है। कैल्शियम और लोहा तथा का अण्डे-अण्डे तो सभी एक से होते हैं-फिर भला विक्रेता के कहDEOS आयोडीन जैसे तत्व अण्डे में नहीं होते, विटेमिन-ए की भी कमी / देने मात्र से शाकाहारी अण्डा कैसे मान लिया जाए। अपने धर्म होती है। ऐसी सामग्री चाहे खाद्य मान भी ली जाए-उसकी और मर्यादा के निर्वाह के लिए भी उसने इस समस्या पर कभी उपयोगिता क्या है? केवल अण्डे का आहार किया जाए तो दांतों, चिन्तन नहीं किया, आश्चर्य है। कुछ अण्डे शाकाहारी होते हैं, यह अस्थियों आदि का विकास और सुदृढ़ता के लिए संकट उत्पन्न हो । कहकर जनमानस को भ्रमित करने का ही षड्यन्त्र है। जाए। कोलेस्टेरोल की मात्रा अण्डे में इतनी होती है कि हृदयाघात और रक्तचाप जैसे भयावह रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लकवा और
शाकाहारी पदार्थों की पहचान : कैंसर की आशंका को भी अण्डा जन्म देता है। शरीर में नमक की शाकाहारी पदार्थ क्या होते हैं यह पहचानना दुष्कर नहीं है। मात्रा को बढ़ावा देकर यह अप्राकृतिक आहार मानव तन में नाना वनस्पतियाँ और उनके उत्पाद ही शाकाहरी श्रेणी के पदार्थ कहे जा प्रकार की समस्याएँ जागृत कर देता है। अण्डे में न तो पोषण सकते हैं। वनस्पति की उत्पत्ति मिट्टी, पानी, धूप, हवा आदि के क्षमता है और न ही यह पर्याप्त ऊर्जा का स्रोत है। प्रोटीन शरीर के सम्मिलित योगदान से होती है। कृषिजन्य पदार्थ शाकाहारी हैं। लिए एक आवश्यक तत्व है, वह अण्डे की अपेक्षा सोयाबीन, दालों । प्राकृतिक उपादानों का आश्रय पाकर ही ये पदार्थ उत्पन्न होते हैं।
और अन्य शाकाहारी पदार्थों में कहीं अधिक प्राप्त होता है। अतः ये निर्दोष है, सात्विक है। दूध जैसा पदार्थ भी शाकाहार के मूंगफली में तो अण्डे की अपेक्षा ढाई गुणा (लगभग) प्रोटीन है। अन्तर्गत इसलिए मान्य है कि दुधारू पशु वनस्पति (घास-पात) ad अण्डा जितनी ऊर्जा देता है उससे लगभग तीन गुनी ऊर्जा मूंगफली । चरकर ही दूध देते हैं। अब तनिक विचार कर देखें कि क्या अण्डे से उपलब्ध हो जाती है। फिर विचारणीय प्रश्न यह है कि अण्डा भी इसी प्रकार के पदार्थ हैं, ये मिट्टी-पानी आदि से नहीं, जीवित जब ऐसा थोथा और रोगजनक पदार्थ है तो भला इसे इतना महत्व प्राणी-मुर्गी से उत्पन्न होते हैं। इनकी संरचना में मुर्गी के शरीर के क्यों दिया गया है ? उत्तर स्पष्ट है, सामान्यजन अण्डे की इस / रक्त, रस, मज्जादि का योग रहता है और उसकी उत्पत्ति भी वास्तविकता से अनभिज्ञ है। ये अज्ञजन अण्डा व्यवसाय के प्रजनन स्थान से ही होती है। अण्डों को शाकाहार फिर भला कैसे प्रचार-तंत्र के शिकार हैं। इसी कारण जो ना-कुछ है, उस अण्डे को माना जा सकता है। सभी विज्ञानी और प्रबुद्धजन अब यह मानने “सब कुछ" मान लिया गया है।
लगे हैं कि शाकाहारी अण्डा जैसा कोई पदार्थ नहीं हो सकता। फलों मिथ्या प्रचार तंत्र के कारण अण्डा-महात्म्य तो इतना विकसित } और सब्जियों के साथ, एक ही दुकान पर अण्डे भी बिकते हैं। यह हो चला है कि सभी का जी इसकी ओर ललकने लगा। व्यवसाइयों । छद्म रचा गया कि सामान्यजन अण्डों को शाक या सब्जी के समान
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________________ 000000000000000DDOGS Blas:0-380002400609001060637 Bela 00000000000000000 600D D. 00000000000 12280 09 FOODS 16201622 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ समझने लगें। विभिन्न प्रचार-माध्यमों से यह भी खूब प्रसारित किया लायसन में सूखी मछली और मांस का चूरा सम्मिलित होता है। 200000 गया कि अण्डा भी एक सब्जी है। भारत की विज्ञापन मानक ऐसी परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप भी क्या अण्डा शाकाहार रह परिषद ने इसका अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अण्डा सब्जी नहीं है और ऐसा विश्वास दिलाकर इसका विक्रय यह तो जन्म से पूर्व चूजे को खाना है, किन्तु अफलित अण्डा तो नहीं किया जा सकता। ऐसा करना अपराध भी मान लिया गया है। सर्वथा अप्राकृतिक पदार्थ है-जहाँ तक उसके भोज्य रूप को मानने का संबंध है।२ अहिंसावादियों का इन अण्डों को शाकाहारी मानना अण्डा शाकाहारी भी होता है : उनकी सारी भूल ही है। चूजों को बड़ी दयनीय अवस्था में रखकर विकसित किया भ्रांति का तथाकथित आधार : जाता है। उन्हें प्रचण्ड प्रकाश में रखा जाता है और इतने छोटे से 9. यह सत्य है कि अण्डे दो प्रकार के होते हैं, यद्यपि इससे यह स्थान में अनेक मुर्गियों को रखा जाता है कि वे अपने पंख फैलाना DDIT तथ्य सुनिश्चित नहीं हो जाता कि अण्डों का एक प्रकार सजीव तो दूर रहा-ठीक से हिल डुल भी नहीं सकती। मुर्गियां एक-दूसरे और दूसरा निर्जीव है। वस्तुस्थिति यह कि कुछ अण्डे ऐसे होते हैं पर चोंचों से आक्रमण करती हैं और घायल होती रहती हैं। इसी 388 जो मुर्गे के संयोग होने पर मुर्गी देती है और उनसे चूजे निकल कारण मुर्गियों की चोंचें तक काट डाली जाती है। भीड़ भड़क्के के 2060 सकते हैं। ये निषेचित या फलित होने वाले अण्डे होते हैं। मुर्गे से मारे वे दाने पानी तक भी नहीं पहुँच पातीं। यह बीभत्स वातावरण संयोग के बिना भी मुर्गी अण्डे दे सकती है और देती है। ये उनमें विक्षिप्तता का विकास कर देता है। सतत् उद्विग्नता के कारण अनिषेचित या फलित न होने वाले अण्डे होते हैं, जिनसे चूजे नहीं उनका अशान्त रहना तो स्वाभाविक ही है। ऐसा इस प्रयोजन से निकलते हैं। यह अविश्वसनीय नहीं माने कि मुर्गे के संयोग के किया जाता है कि वे शीघ्र बड़ी होकर अण्डे देना आरम्भ कर दें। उनमें उत्पन्न हिंसक वृत्ति अण्डों में भी उतर आती है और इनका DO ऐसा प्राकृतिक रूप से होता ही है। जैसे स्त्री को मासिक धर्म में रज उपभोग करने वाला भी इस कुप्रभाव से बच नहीं पाता। शाकाहार साव होता है-ये अण्डे मुर्गी की रज के रूप में बाहर आते हैं। यह तो तृप्ति, शांति, संतोष और सदयता उत्पन्न करता है। इस दिशा में उसके आन्तरिक विकार का विसर्जन है। यह सत्य होते हुए भी कि अण्डों को शाकाहार की श्रेणी में लेना अस्वाभाविक है। चाहे अण्डे T 658 दूसरी प्रकार के अफलित-अनिषेचित अण्डे चूजों को जन्म नहीं देते, फलित अथवा अफलित हों-उनकी तामसिकता तो ज्यों की त्यों किन्तु केवल इस कारण इन्हें प्राणहीन मानना तर्क संगत नहीं। इन बनी रहती है। अण्डों में भी प्राणी के योग्य सभी लक्षण होते हैं, यथा ये OP श्वासोच्छ्वास की क्रिया करते हैं, इनमें विकास होता है, ये खुराक यद्यपि यह मानना सर्वथा भ्रामक है कि अफलनशील अण्डे Dog भी लेते हैं। अब विश्वभर के विज्ञानी और जीवशास्त्री इन अफलित अहिंसापूर्ण, अजैव और निरामिष होते हैं, तथापि एक तथ्य और तु अण्डों को जीवयुक्त मानने लगे हैं। अमरीकी विज्ञानवेत्ता फिलिप भी ऐसा है कि जो आँखें खोल देने वाला है अनिषेचित अण्डों को जे. एकेबल ऐसी ही मान्यता के हैं। मुर्गे के बिना उत्पन्न होने के शाकाहारी मानने वाले इस ओर ध्यान दें कि मुर्गे के संयोग में आने कारण इन्हें निर्जीव मानना मिशिगन विश्वविद्यालय के विज्ञानियों ने वाली मुर्गी पहले दिन तो फलित वाला अण्डा देती ही है, आगे यदि 2000 भी उपयुक्त नहीं माना है। इनका जन्म मुर्गी से हुआ, वह स्वयं संयोग न भी हो, तो भी वह लगातार अण्डे देती है और तब वे प्राणी है। उसकी जीवित कोशिकाओं से जन्मे ये अण्डे निर्जीव नहीं / अजैव, अफलनशील नहीं होते। मुर्गे के शुक्राणु मुर्गी के शरीर में हो सकते। चाहे ये मुर्गी की रज रूप में ही क्यों न हों = इनकी / लम्बे समय तक बने रहते हैं और यदा कदा प्रतिक्रिया भी देते सजीवता में संदेह नहीं किया जा सकता। हम कह सकते हैं कि रहते हैं। कभी-२ तो यह अवधि छह माह तक की भी हो सकती है। प्राणवानता की दृष्टि से तो सभी अण्डे एक समान ही होते हैं। इन्हें बीच-बीच में कभी भी वह फलनशील अण्डे दे देती है। दूसरे और शाकाहारी मानना भयंकर भूल होगी। पाँचवें दिन तो ऐसा होता ही है। फिर इस बात की क्या आश्वस्तता एक ओर भी तथ्य ध्यान देने योग्य है। कोई भी मुर्गी तब तक कि संयोगविहीन मुर्गी के अण्डे सदा प्राणशून्य ही होंगे, जैसा कि अण्डे नहीं दे सकती जब तक उसे जैविक प्रोटीन का आहार नहीं भ्रम कुछ लोगों में व्याप्त है। दिया जाता। मांस, मछली, रक्त, हड्डी आदि का आहार इन्हें दिया मानव मात्र को यह सत्य गाँठ-बाँध लेना चाहिए कि अण्डा 536ही जाता है। शैशवावस्था में जो चूजे मर जाते हैं, उन्हें सूखाकर / आहार है ही नहीं, शाकाहार तो वह कदापि-कदापि नहीं। उसका उसका चूरा तक मुर्गियों को खिलाया जाता है। चूजावस्था में-जन्म आहार रूप में उपभोग निरर्थक है क्योंकि उसमें पुष्टिकारक तत्व है P306 के बाद आठ सप्ताह तक लायसन युक्त आहार दिया जाता है। ही नहीं। 0. 0 EDDDE1. ए. सी. कैम्पबेल रीजस-"प्रोफिटेबल पोल्ट्री कीपिंग इन इण्डिया" 2. विक्टोरिया मोरान-"कम्पाशन द अल्टिमेटिक एथिक' सरकत GDSON00 DD.00.00SODDS POUP660603000300500000 DD.000000003000303000RDHANDRAa000
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________________ 600%A0006660030 20050000000000 16:00:20 280orders- 260 peacooc00000000000000000000 / जन-मंगल धर्म के चार चरण यह भ्रम भी दूर कर लेना चाहिए कि दूध की अपेक्षा अण्डा होगा। धर्माचारियों और अहिंसाव्रतधारियों को तो इस फेर में पड़ना अधिक पौष्टिक होता है। शाकाहार वह कभी हो ही नहीं सकता, / ही नहीं चाहिए। अण्डा-अन्ततः अण्डा ही है। किसी के यह कह देने यद्यपि किसी को यह विश्वास हो तब भी उसे अण्डा सेवन के दोषों से कि कुछ अण्डे शाकाहारी भी होते हैं-अण्डों की प्रकृति में कुछ से परिचित होकर, स्वस्थ जीवन के हित इसका परित्याग ही कर / अन्तर नहीं आ जाता। अण्डे की बीभत्स भूमिका इससे कम नहीं हो देना चाहिए। अण्डे हानि ही हानि करते हैं-लाभ रंच मात्र भी जाती, उसकी सामिषता ज्यों की त्यों बनी रहती है। मात्र भ्रम के नहीं-यही हृदयंगम कर इस अभिशाप क्षेत्र से बाहर निकल आने में वशीभूत होकर, स्वाद के लोभ में पड़कर, आधुनिकता के आडम्बर ही विवेकशीलता है। दूध, दालें, सोयाबीन, मूंगफली जैसी साधारण में ग्रस्त होकर मानवीयता और धर्मशीलता की, शाश्वत जीवन शाकाहारी खाद्य सामग्रियां अण्डों की अपेक्षा अधिक मूल्यों की बलि देना ठीक नहीं होगा। दृढ़चित्तता के साथ मन ही पोष्टिकतत्वयुक्त हैं, वे अधिक ऊर्जा देती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक है। मन अहिंसा पालन की धारणा कीजिए-अण्डे को शाकाहारी मानना तथाकथित शाकाहारी अण्डों के इस कंटकाकीर्ण जंगल से निकल | छोड़िए। आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होता चला जाएगा। कर शुद्ध शाकाहार के सुरम्य उद्यान का आनन्द लेना प्रबुद्धतापूर्ण 89.65 SO.. सुखी जीवन का आधार : व्यसन मुक्ति 2500DOE -विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया (एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् (अलीगढ़)) सुखी जीवन का मेरुदण्ड है-व्यसन मुक्ति। व्यसनमुक्ति का "धूतं च मासं च सुरा च वेश्या पापर्द्धिचौर्य परदार सेवा। आधार है श्रम। सम्यक् श्रम साधना से जीवन में ससंस्कारों का | एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोर नरकं नयन्ति॥ प्रवर्तन होता है। इससे जीवन में स्वावलम्बन का संचार होता है। अर्थात् जुआ, माँसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, स्वावलम्बी तथा श्रमी सदा सन्तोषी और सुखी जीवन जीता है। तथा पर-स्त्री-गमन से ग्रसित होकर प्राणी लोक में पतित होता है, श्रम के अभाव में जीवन में दुराचरण के द्वार खुल जाते हैं। मरणान्त उसे नरक में ले जाता जाता है। संसार में जितने अन्य जब जीवन दुराचारी हो जाता है तब प्राणी इन्द्रियों के वशीभूत हो / अनेक व्यसन हैं वे सभी इन सप्तव्यसनों में प्रायः अन्तर्मुक्त हो जाता है। प्राण का स्वभाव है चैतन्य। चेतना जब इन्द्रियों को अधीन | जाता है। काम करती है तब भोगचर्या प्रारम्भ हो जाती है और जब इन्द्रियाँ श्रम विहीन जीवनचर्या में जब अकूत सम्पत्ति की कामना की चेतना के अधीन होकर सक्रिय होते हैं तब योग का उदय होता है।। जाती है तब प्रायः द्यूत-क्रीड़ा अथवा जुआ व्यसन का जन्म होता है। भोगवाद दुराचार को आमंत्रित करता है जबकि योग से जीवन में / आरम्भ में चौपड़, पासा तथा शतरंज जैसे व्यसन मुख्यतः उल्लिखित सदाचार को संचार हो उठता है। हैं। कालान्तर में ताश, सट्टा, फीचर, लाटरी, मटका तथा रेस आदि श्रम जब शरीर के साथ किया जाता है तब मजूरी या मजदूरी / का जन्म होता है। श्रम जब मास्तिष्क के साथ सक्रिय होता है तब है, वह बरसाती नदी की भाँति अन्ततः अपना जल भी बहाकर ले उपजती है कारीगरी। और जब श्रम हृदय के साथ सम्पृक्त होता है। जाता है। व्यसनी अन्य व्यसनों की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होता है। तब कला का प्रवर्तन होता है। जीवन जीना वस्तुतः एक कला है। वासना बहुलता के लिए प्राणी प्रायः उत्तेजक पदार्थों का सेवन मजूरी अथवा कारीगरी व्यसन को प्रायः निमंत्रण देती है। इन्द्रियों करता है। वह मांसाहारी हो जाता है। विचार करें मनुष्य प्रकृति से का विषयासक्त, आदी होना वस्तुतः कहलाता है-व्यसन। बुरी शाकाहारी है। जिसका आहार भ्रष्ट हो जाता है, वह कभी उत्कृष्ट आदत की लत का नाम है व्यसन। नहीं हो पाता। प्रसिद्ध शरीर शास्त्री डॉ. हेग के अनुसार शाकाहार संसार की जितनी धार्मिक मान्यताएँ हैं सभी ने व्यसन / से शक्ति समुत्पन्न होती है जबकि मांसाहार से उत्तेजना उत्पन्न होती मुक्ति की चर्चा की है। सभी स्वीकारते हैं कि व्यसन मानवीय गुणों है। मांसाहारी प्रथमतः शक्ति का अनुभव करता है पर वह शीघ्र ही के गौरव को अन्ततः रौख में मिला देते हैं। जैनाचार्यों ने भी / थक जाता है। शाकाहारी की शक्ति और साहस स्थायी होता है। व्यसनों से पृथक रहने का निदेश दिया है। इनके अनुसार यहाँ प्रत्यक्षरूप से परखा जा सकता है कि मांसाहारी चिड़चिड़े, क्रोधी, व्यसनों के प्रकार बतलाते हुए उन्हें सप्त भागों में विभक्त किया / निराशावादी और असहिष्णु होते हैं क्योंकि शाकाहार में ही केवल गया है। यथा कैलसियम और कार्बोहाइड्रेट्स का समावेश रहता है, फलस्वरूप 898D Das Reo FORESIRalpep2.9.0- 006990. DD00000000.0ODS राएकाएयाय 6000. E Pirorat sacplips6.0.0.00 a-2066DDA:00.00.0DODODODDDDD