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षड्दर्शन-परिक्रमः गूर्जर अवचूरि सह
- सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
भूमिका षड्दर्शन-परिक्रमनी आ प्रत वर्षोथी मारा परमगुरुभगवंत पू.आ. श्रीविजय सूर्योदयसूरीश्वरजी म.ना संग्रहमा हती । आगमप्रभाकर पूज्य मुनि श्रीपुण्यविजयजी महाराजे आ प्रत जोतां कहेलुं के 'आ प्रत नवीन अने अप्रकाशित छे माटे तेनुं संपादन प्रकाशन थर्बु जोइए।' वर्षो पछी मारा पू. गुरुभगवंत द्वारा आ प्रत मारी पासे आवी । तेनुं यथामति संपादन करी अहीं रजू करेल छ।
नाम प्रमाणे ज आ ग्रंथमां छए दर्शननो सामान्य परिचय आपेल छ । षड्दर्शनसमुच्चयमां १. बौद्ध २. नैयायिक ३. सांख्य ४. जैन ५. वैशेषिक ६. जैमिनीय अने ७. लोकायत (नास्तिक), आ क्रमे दर्शनोनुं निरूपण थयुं छे, ज्यारे आ ग्रंथमा १. जैन २. मीमांसक ३. बौद्ध ४. सांख्य ५. शैव (न्याय-वैशेषिक) अने ६. नास्तिक आ क्रमे दर्शनोनु निरूपण छे. । षड्दर्शनसमुच्चयना बौद्ध दर्शनना श्लोक ५ तथा ८ अने आ ग्रंथना श्लोको २३ तथा २८ समान छ । ते सिवाय पण बन्ने ग्रंथोना विषय-निरूपणमां घj साम्य छे. छतां आ ग्रंथमां दरेक मतना भिक्षुओर्नु तथा तेमनां वस्त्र पात्र आचार व.नुं वर्णन कर्यु छे जे षड्दर्शनसमुच्चयमां नथी मळतुं । दर्शन विषय
श्लोक जैन तत्त्वो, प्रमाण, श्वेतांबर - दिगंबर
साधुओनी ओळख तथा दिगंबरोनी मान्यता। २ थी १३ मीमांसक मीमांसकोना कर्म-ब्रह्म एम बे प्रकार, प्रमाण,
मुक्ति नी व्याख्या तथा तेओना द्विजो व.नुं वर्णन। १४ थी २० बौद्ध तत्त्वो, प्रमाण, तेओना ४ प्रकार तथा भिक्षुओर्नु वर्णन।
२१ थी सांख्य २५ तत्त्वो, प्रमाण, मुक्तिनी व्याख्या तथा भिक्षुओ ३२ थी ३९ शैव-न्याय प्रमाण तथा १६ तत्त्वो
४० थी ४४ वैशेषिक प्रमाण तथा ६ तत्त्वो
पछी बन्नेना मते मुक्ति नी व्याख्या अने भिक्षुओनुं वर्णन छ।
५५ थी ५८ नास्तिक मान्यता तथा प्रमाण ।
५९
थी ५४
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त्यारबाद श्लोक ६० थी ६५मां प्रत्यक्षादि दरेक प्रमाणनी तथा तत्त्व अने तत्त्वसाधक प्रमाणनी व्याख्या आपी छे अने छेल्ले ६६मा श्लोकमां कडं छे के रहस्य सहितनां सर्व शास्त्रो तो दूर रहो, सारी रीते शीखेलो एक अक्षर पण निष्फळ जतो नथी।
___आ साथे प्रतिमां ग्रंथनो स्तबकार्थ पण जूनी गूजरातीमां आपेलो छ । अमुक स्थानोने बाद करतां प्राय : सर्वत्र आ टबो योग्य अने संगत छ । परंतु केटलांक स्थानोमां आ स्तबकार्थ असंगत जणाय छे, तेनी नोंध नीचे आपेल छ। श्लोक असंगत अर्थ
संभवित संगत अर्थ पुन्य-पापनइ संवरइ पुन
पुन्यनो संवरमां अने पापनो पुनरपि कर्मबंध न करइ।
आश्रवमा अंतर्भाव करवो। ज्ञान-दर्शन-चारित्र मोक्षनइ ज्ञान-दर्शन- चारित्र मोक्षनो मार्ग छ। विषइ वर्तइ। एहनइ च्यारि दर्शनना प्रवर्तावक बौद्धोना चार तत्त्वो आर्यसत्य हूआ । अनुक्रमइ आर्य सत्य ए नामे प्रसिद्ध छे। ते आ आख्याय अने तत्त्व।
प्रमाणे । नास्तिक अनुमानना त्रण अंग अनुमिति लिंगथी थाय, जेम कहइ (व.)।
धूमथी अग्निनी अनुमिति । नास्तिक शेष थाकती सिद्धि जे ते अनुमानना त्रण प्रकार छ : सामान्याकारि कहइ (व.)। पूर्व, शेष, सामान्य । (साथे तेना
उदाहरण पण छे) सामान्य प्रकारि विख्यात हुइ ते साध्य साध्य-साधन सामान्यथी कह्या ओपमाइ करी देखाडीयइ ते साधन छे. उपमा आ प्रमाणे छे। आना लीधे कल्पी शकाय छे के मूळ ग्रंथ तथा टबाना कर्ता जुदा जुदा छे.
श्लोक ३१मां आवता मौण्ड्य शब्दनो अर्थ टबाकारे 'मस्तकि सद्र करावई' एवो कर्यो छे । आ सद्र शब्दनो प्रयोग नोंधपात्र छ ।
प्रतनो परिचय : षड्दर्शनपरिक्रमनी आ प्रत पंचपाठी छे । तेनुं लेखन सं. १६३६मां श्रीमालपुरमां थयेलुं छे । अने तेना लेखक (मुनि) समयकलश छ। प्रतिनी शुद्धि सारी छे तथा अक्षरो सुवाच्य छ । कुल पत्रो ३ छ ।
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मूळ कृतिना कर्ता विषे आमां कोइ निर्देश प्राप्त नथी थतो । अवचूरिना कर्ता संभवतः प्रतिना लेखक मुनि समयकलश होय एवं लागे छे; जो के तेनो पण स्पष्ट निर्देश तो नथी ज मळतो।
अज्ञातकर्तृक षड्दर्शनपरिक्रम
गूर्जर अवचूरि सह
जैन मैमांसकं बौद्ध साङ्ख्यं सै(0)वं च नास्तिकम् । स्वं स्वं च तर्कभेदेन जानीयाद(द)र्शनानि षट् ॥११॥ बल-भोगोपभोगानामुभयोर्दान-लाभयोः । अन्तरायस्तथा निद्रा भीरज्ञानं जुगुप्सनम् ॥२॥ हासो रत्यरती राग द्वेषावव(वि)रति[:] स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादश दोषा न यस्य सः ॥३॥ जिनो देवो गुरुः सम्यक् तत्त्वज्ञानोपदेशकः । ज्ञान -दर्शन-चारित्राण्यपवर्गस्य वर्तिन (वर्तनी) |४|| स्याद्वादश्च प्रमाणे द्वे प्रत्यक्षं चो(च) परोक्षकम् । नित्यानित्या(त्यं) जगत् सर्वं नव तत्त्वानि सप्त वा ॥५॥ जीवाजीवौ पुण्यपापे आश्रवः संवरोऽपि च । बन्धो निर्जरणं मुक्तिरेषां व्याख्याऽधुनोच्यते ॥६॥ चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः । सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः ।।७।।
१. नास्तिकं; चार्वाकम् । २. पोतानी(ना) पोताना विचार तेणइ करी ऊपनउ जे भेद तिणइ करी षट् दर्शन जाणिवा । ३. एहवा जे अढार दोष रहित ते जैन देव । ४. सत्य जे तत्त्वज्ञान तेहनउ उपदेश दीयइ ते गुरु । ५. ज्ञान दर्शन चारित्र मोक्षनइ विषइ वर्तइ (?)। ६. प्रमाण दोइ-प्रत्यक्ष, अनुमान; ज्ञाननूं कारण कहतां उपजावीयइ जेणइ करो अन्य अन्य करीयइ ते प्रमाण विजाणिवा। ७. मनुमाऽपि च । द्वितीय(?)पाठान्तरम्।
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आश्रवः कर्मसम्बन्धः कर्मरोधस्तु संवरः । कर्मणां बन्धनाद् बन्धो 'निर्जरा तद्वियोजनम् ।।८।। 'अष्टकर्मक्षयान्मोक्षोऽप्यन्तर्भावश्च कश्चन ।
पुण्यस्य संवरे पापस्याऽऽश्रवे क्रियते पुनः । ॥९॥ 'लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकाग्रस्थस्य चाऽऽत्मनः ।
क्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिरव्यावृत्तिजिनोदिता ॥१०॥ 'सरजोहरणा भैक्ष्यभुजो लुञ्चित मूर्ध्वजाः । श्वेताम्बराः क्षमाशीला: निस्सङ्गा जैनसाधवः ॥११॥ लुञ्चिताः पिच्छकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः । ऊ/शिनो गृहे दातुर्द्वितीयाः स्युजिनर्षयः ।।१२।। "भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षगेति दिगम्बराः । प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः समम् ।।१३॥ इति जैनम् ॥ मीमांसकौ द्विधा कर्म-ब्रह्ममीमांसकस्ततः । वेदान्ती "मन्यते ब्रह्म कर्म "भट्ट-प्रभाकरौ ॥१४|| प्रत्यक्षमनुमानं च वेदाश्चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च "भट्टानां षट्प्रमाण्यसौ ॥१५|| प्रभाकरमते पञ्च तान्येवाऽभाववर्जनात् ।
अद्वैतवादी "वेदान्ती प्रमाणं तु यथा तथा ॥१६॥ १.कर्म छूटीयइ ते निर्जरा । २.आठ कर्म क्षय थकी मुक्ति होइ ते मुक्ति नउ लक्षण केहवउ, एक लीनभाव। ३.पुन्यपापनइ संवरइ पुन-पुनिरपि कर्मबंध न करइ(?) 1 ४.अनंतज्ञान-अनंतदर्शन-चारित्र-सुखलक्षणानि चत्वारि, एहवा ४ अनंत पामइ पछइ आत्मा लोकाग्रकइ विषइ रहइ ।५.क्षीणाष्टकर्मनइ मुक्ति होइ; अपुनरावृत्ति जेनइ कही। ६. रजोहरण साथइ लीधइ चालइ।७. भिक्षायइ जिमइ। ८.लोच करइ । ९. दाताना घरकइ विषइ ऊभा रही जिमइ। १०. दिगंबर कहइ-स्त्रीनइ मुक्ति नही, केवलीनइ भुक्ति नही, श्वेतांबरसुं मोटउ भेदजूजूआ।११.वेदांती उत्तरमीमांसाना जाण ते ब्रह्मनइ मानइ ।१२. भट्टाचार्य अनइ प्रभाकर तेहनउ शिष्य ए बाइ कर्मनइ मानइ। १३.भट्टाचार्य छ प्रमाण करी अर्ध(थ) सिद्ध मानइ; उत्तरमीमांसाना जाण। १४. षण्णां प्रमाणानां समाहारः षट्प्रमाणी। भट्टाचार्यनइ छविध प्रमाण नेत्रनिर्धारते प्रत्यक्ष(१) वेगला थकी संदेह आणी वस्तु निर्धार कीजइ ते अनुमान(२) वेदोक्त ते प्रमाण(३) उपमा देइने निर्धार कीजइ सु उपमा प्रमाण(४) अणघटनइ घटावी निर्धार कीजई ते अर्थापत्ति ते किम गृहस्थनइ अति आनंदादिकई करी धर्म निर्धारीयइइत्यादि अर्थापत्ति प्रमाण(५) अभाव ते कहीयइ जे एक ठामि अछतइ बीजइ ठामि कीजइ छती-ते किमइहां घट नथी बीजइ ठामि छतउ कीधउ इत्यादि ते अभावप्रमाण(६) । १५. वेदांती एक ब्रह्मनइ मानइ । १६. छ प्रमाणमांहि जेहनउ प्रस्ताव हुइ तेणइ प्रमाणि करी अर्थसिद्धि मानइ ।
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'सर्वमेतदिदं ब्रह्म वेदान्तेऽद्वैतवादिनाम् ।
आत्मन्येव लयो मुक्तिर्वेदान्तिकमते मता ।।१७।। 'अकुकर्मा सषट्कर्मा शूद्रानादिविवर्जकः । ब्रह्मसूत्री द्विजो भट्टो गृहस्थाश्रमसंस्थितः ॥१८॥ "भगवन्नामधेयास्तु द्विजा वेदान्तदर्शने । 'विप्रगेहभुजस्त्यक्तोपवीताव(ता ब्रह्मवादिनः ॥१९॥
चत्वारो भगवद्भेदा:कुटीचर-बहूदको ।
हंसः परमहंसश्चाऽ"धिकोऽमीषु परः परः ॥२०|| मीमांसकः॥ अथ बौद्धम् ॥
बौद्धानां" सुगतो देवो विश्वं च क्षणभङ्गुरम् । "आर्यसत्याख्यया तत्त्व चतुष्टयमिदं क्रमात् ॥२१॥ दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः । मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः ॥२२॥ "दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पञ्च प्रकीर्तिता : ।
विज्ञानं वेदना सज्ञा संस्कारो रूपमेव च ॥२३॥ अथाऽऽयतनानि - पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् ।
धर्मायतनमेतानि द्वादशाऽऽयतनानि तु ॥२४॥ अथ समुदयः- रागादीनां गणो यस्मात् समुदेति नृणां हृदि ।
आत्मा(त्मना)ऽऽत्मीस्वभावाख्यः स स्यात् समुदयः पुनः ॥२५॥
१. सर्व प्रपंच ब्रह्म-एहवउ वेदांतीन अद्वैतवाद । २.परमात्मा नइ विषइ लीन ते वेदांतीनइ मनइ मुक्ति । ३.भट्ट नइ कुत्सितकर्म न करइ अनइ षट्कर्म करइ । ४.शूद्रादिकनइ घरि अन्न न जिमइ, एतलइ ब्राह्मणनइ अत्रइ जीवइ । ५. ब्रह्मसूत्री कहता जनोई पहिरइ अनइ ब्रह्मयुक्त हुइ, विद्वांस हुइ। ६. गृहस्थाश्रमइ रहइ । ७. वेदांतदर्शनइ भगवन एहवउ नामधेय । ८. ब्राह्मणनइ धरि जिमइ अनइ जनोई छांडइ अनइ परमात्मानइ मानइ । ९. ते भगवनना ४ भेद मठ मांडी रहइ ते कुटीचर(१) मठरहित ते बहूदक(२) सर्वसंग मूकइ ते हंस(३) दिगंवर ते परमहंस(४)। १०.एतइ चडती चडती क्रिया जाणिवा । ११. बौद्धनइ सुगत एहवइ नामइ देव कहेतां परमेश्वर । १२. सर्व क्षणमाहिइ पलटातुं मानइ । १३. एहनइ च्यारि दर्शनना प्रवविक हुआ अनुक्रमइ आर्य(१) सत्य(२) आख्याय(३) तत्त्व(४) ४ जाणिवा । १४. एहना शास्त्रनइ विषइ ४ नउ निरूपण एक दुःख(१) आयतन(२) समुदय(३) मार्ग(४) । १५.संसारी जीवनइ ५ स्कन्ध दु:ख कहीयइ । ते केहा-एक विशेषज्ञान(१) बीजु सदुःखानुभव(२) आहारादि संज्ञा(३) संस्कारो-कर्म वासना(४) रूप-शुक्लादि (५)।
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अथ मार्ग:- क्षणिकाः सर्वसंस्काराः इति या व (वा) सना स्थिरा । स मार्ग इति विज्ञेयः स च मोक्षोऽभिधीयते ॥ २६॥ 'प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणद्वितयं पुनः ।
चतुः प्रस्थानका बौद्धाः ख्याता वैभाषिकादयः ॥२७॥ अर्थो ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहुमन्यते । सौत्रान्तिकेण प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थो न बहिर्मतः ॥ २८ ॥ आकारसहिता बुद्धिर्योगाचारस्य सम्मता ।
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केवलं संविदं स्वस्थां मन्यन्ते मध्यमाः पुन ॥ २९ ॥ रागादिज्ञानसन्तानवासनोच्छेदसम्भवा ।
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चतुर्णामपि बौद्धानां मुक्तिरेषा प्रकीर्तिता ॥ ३० ॥ "कृत्ति: "कमण्डलुण्ड्यं" चीरं" पूर्वाह्णभोजनम् ।
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" सङ्घो रक्ताम्बरत्वं च शिश्र ( श्रिये बौद्ध भिक्षुभिः ||३१||
अथ साङ्ख्यम् ॥
'साङ्ख्ये देवः शिवः कैश्चिन्मत्तो (तो) नारायणः परैः । उभयो " [:] सर्वमप्यन्यत्तत्त्वप्रभृतिकं समम् ||३२|| स(सा) ङ्ख्यानां" स्युर्गुणाः सत्त्वं रजस्तम इति त्रयः । साम्यावस्था भवे (व) त्येषां त्रयाणां प्रकृति (ति:) पुनः ||३३||
१. बौद्धनइ मार्ग सर्व क्षणिक क्षणभंगुर - एहवी जेहनी बुद्धि स्थिर रहने मार्ग, एतलुं जाण्यइ मोक्ष कहीयs । २. प्रत्यक्ष अनइ अनुमान प्रमाण करी वस्तुनी सिद्धि करइ । ३. बिहु शास्त्राना प्रवर्तावक ४ ( च्यारि) वैभाषिकादि शिष्य छइ । ४. वैभाषिक तेहवुं मानइ-पदार्थनइ ज्ञान एक मानइ । ५. सौत्रांतिक ते प्रत्यक्ष तेहज अर्थ पदार्थ मानइ अनइ अप्रत्यक्ष स्वर्ग, नरकादि न मानइ । ६. योगाचार ते बुद्धिनइ आकार मानइ - एतइ घटादि सर्व बुद्धयाकार। ७. मध्यम ते केवल जे ज्ञान तेहनइ आत्मस्थित मानइ, चिहुं बुद्धिनइ मुक्ति एह परिनी मानइ । ८. राग-द्वेषादि तेहनूं जे जाणपणं तेहनउ जे संमोह तेहनी वासना कहेतां संस्कार तेहनउ उच्छेद कहेतां नाश तेह थकी ऊपनी मुक्ति कहइ च्यारि बौद्ध । ९. बौद्धाण्डभाजनम् । द्वितीयपाठः । १०. अथ बौद्धना भिक्षु कहइ छइ । कृ त्ति चर्मपरिधान। ११. उदक पात्र कमण्डलु । १२ मस्तक सद्र करावइ । १३. वाकल - वृक्ष त्वचा परिहइ ।१४. बिहुं पहुरामाहि जिमइ । १५. संघाडइ हींडइ । १६. वली राता वस्त्र पहिरइ । १७. बौद्धना भिक्षु एहवा वेस आश्रइ । १८. सांख्यभेद कहइ एक सांख्य शिवनइ मानइ, केहा एक नारायणनइ मानई । १९. बिन्हइ तत्त्व २४ ज मानइ । २०. सांख्यनइ त्रीनि गुण छइ - एक सत्त्व (१) रज (२) तम (३) । २१. ए तिन्हि गुणनी समी अवस्था तेहनइ प्रकृति कहइ ।
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प्रकृतेश्च महांस्तावदहकारस्ततोऽपि च । पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि स्युश्चक्षुरादीनि पञ्च च ।।३४|| कर्मेन्द्रियाणि वाक्-पाणिचरणोपस्थ-पायवः । "मनश्च पञ्च तन्मात्राः शब्द(ब्दो) रूपं रसस्तथा ॥३५।। स्पर्शो गन्धोऽपि तेभ्यः स्यात् पृथ्व्याद्यं भूतपञ्चकम् । "इयं प्रकृतिरेतस्यां " परस्तु पुरुषो मतः ॥३६॥ पञ्चविंशतितत्त्वीयं नित्यं साङ्ख्यमते जगत् । "प्रमाणत्रितयं चाऽत्र प्रत्यक्षमनुमाऽऽगमः ॥३७॥ यदे(दै)व ज्ञायते भेदः प्रकृते(:) पुरुषस्य च । मुक्तिरुक्ता तदा साङ्ख्यैः ख्यातिः सैव च भण्यते ॥३८॥ साङ्ख्यः "शिखी "जडी "मुण्डी कषायाद्यम्बरोऽपि च ।
वेषेनी(नाऽऽ)स्थैव साङ्ख्यस्य पुनस्तत्त्वे महाग्रहः ॥३९। साङ्ख्यम् ।। अथ शैवम् ॥ शैवस्य दर्शने तर्कावुभौ न्याय-विशेषकौ।।
न्याये षोडशतत्त्वी स्यात् षट्तत्त्वी च विशेषकै":(के) ॥४०॥ “अन्योन्यतत्त्वान्तर्भावात् द्वयोर्भेदोऽस्ति नाऽस्ति वा । द्वयोरपि शिवो देवो नित्य(:) सृष्ट्यादिकारकः ॥४१॥ नैयाकानां" चत्वारि प्रमाणानि भवन्ति च । प्रत्यक्षमागमोऽन्यश्चाऽनुमानु(न) मुपमाऽपि च ॥४२॥
१. हिवइ चउवीस तत्त्व कहइ छइ २. एक प्रकृति (१) अनइ प्रकृतिथी उपन इ ३. महत(त्त)त्त्व(२) ४. अहंकार (३) ५. चक्षु आदि पांचबुद्धे(ध्दी)द्रिय (४-८)। ६. पांच कर्मेन्द्रिय एक वाणी, हाथ, चरण, गुह्यनइ गुद एवं (९-१३) १३ । ७. मन (१४) । ८. अनइ पांच तन्मात्रा एक शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गंध ए पांच एवं (१५-१९। ९.अनइ पृथ्व्यादि पांच भूत एवं (२०-२८)। १०.एवं २४ तत्त्वे प्रकृति कहीयइ। ११. तेथी अलगउ ते पुरुष कहेता परमेश्वर १२. सांख्यनइ चउवीस तत्त्व पंचवीसमउ परमेश्वर, तिणइ करी जगत मानइ । १३. प्रमाण त्रिन्हि मानइ एक प्रत्यक्ष (१) अनुमान(२) अनइ वेद(३) । १४. अथ सांख्यना भिक्षु कहइ छइ एक शिखा रखावइ (१) १५. एक वधारइ (२)। १६. एक मूंडावइ (३) । १७. लूगडां कषायांबर पहिरइ । १८. अमुकइ ज वेषि हीडई एहवी आस्था नही, अनइ तत्त्वनइ विषइ निरूपण घणु करइ । १९. शैवदर्शनी शैवदर्शनका विषइ वितर्क छइ, एक न्यायशास्त्र छई (१) बीजुं विशेषशास्त्र छइ(२) । २०. ज्ञा(न्या) यनइ विषय १६ पदार्थ छइ । २१. विशेष नइ विषय छ पदार्थ छइ । २२. परस्परइ तत्त्वनउ अंतर्भाव कीधउ छइ; एतलइ सोलनइ विषय षट्, षट्नइ विषइ १६ । सोल मानइ ते ६ न थापइ, छ थापइ ते १६ न थापइ ! २३. एणि चिहुं प्रमाणे करी पदार्थनी सिद्धि करइ ।
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अथ तत्त्वानि प्रमाणं च प्रमेयं च संशयश्च प्रयोजनम् । दृष्टान्तोऽप्यथ सिद्धान्तावयवा ' तर्क निर्णय ||४३|| "वादो "जल्पो "वितण्डा च " हेत्वाभासच्छलानि च। "जातयो निग्रहस्थानानीति तत्त्वानि षोडश ॥४४॥
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१८.
"अथ वैशेषिकम् वैशेषके मते तावत् प्रमाणत्रितयं भवेत् ।
प्रत्यक्षमनुमानं च तार्त्तीयकमथाऽऽगमः || ४५ ॥
कर्मसामान्यं सविशेषकम् ।
१० _.२१ २२ द्रव्य समवायश्च षट्तत्त्वी तद्व्याख्यानमथोच्यते ॥ ४६ ॥ द्रव्यं नवविधं प्रोक्तं पृथ्वी - जल - वह्नयस्तथा । पवनो गगनं कालो दिगात्मा मन इत्यपि ॥४७॥ नित्यानित्यानि चत्वारि कार्यकारणभावतः ।
२४
मनो- दिग्(क्) काल आत्मा च व्योम नित्यानि पञ्च तु ॥४८॥
२३
अथ गुणाः- स्पर्शो रूपं रसो गन्धः सङ्ख्याऽथ परिमाणकम् ।
구두
२९
"पृथक्त्वमथ संयोग विभागोऽथ पत्रे (त्व) कम् ॥४९॥ 'अपरत्वं बुद्धिसौख्ये (दुःखे ) च्छे द्वेष - यत्त्रकौ " । धर्मा-धर्मा च संस्कारा गुरु (त्वं) द्रव इत्यपि ॥५०॥
३४
१. चिहुं प्रमाणे एक पदार्थ ( १ ) | २. दृश्य पदार्थ ते प्रमेय (२) । ३. इम ए हुइ कि न हुइ तेहनउ निर्णय ( ३ ) 1 ४. अर्थसिद्धि (४) । ५. दृष्टांत करी प्रीछवीयइ ते (५) । ६. सिद्धांतनिश्चय (६) ७ अंशइ करीनइ पदार्थसिध्दि (७) ८. विचार ( ८ ) । ९. निर्णय ( ९ ) । १०. तत्त्वविचारनी वार्ता ते वाद (१०) । ११. उत्तमकथा ते जल्प ( ११ ) । १२. माहोमाहे विचार ते वितण्डावाद ( १२ ) । १३. हेतु सरिखुं पणइ हेतु न ते हुइ हेत्वाभास (१३)। १४. वाक्य बीजुं अनइ अर्थथी बीजुं करी छलियइ ते छल (१४) । १५. जात (ति) कहेता सामान्य विशेष बिहुं प्रकारनी छइ (१५) । १६. वादीनइ निग्रहना स्थानक (१६) । १७. ए १६ तत्त्व | १८. अथ वैशेषिक कहइ छ । १९. वैशेषिकनइ त्रिहुं प्रमाणे करी अर्थसिद्धि मानइ । २०. एहनइ छ पदार्थ कहइ छइ । २१. द्रव्य कहेतां नव । २२. गुण कहेतां २४ । २३. कर्म बिहुं प्रकारनउ । २४. पृथ्वीजलाग्निवायु ए च्यारि नित्य छइ अनित्य छइ, परमाणु भावइ नित्य स्थूलभावइ अनित्य । २५. पृथक्त्व कहेतां नील पीतादिभेद द्वयोः । २६. संयोगः द्वयो: । २७. विभाग कहेतां विहचवुं । २८. परत्व कहेतां न्यून | २९. अपरत्व कहेतां अधिकमति ३०. इच्छा वांछा । ३१. यत्र कहेतां रक्षानुं (?) करवुं । ३२ संस्कार कहेतां वासना । ३३. गुरुत्व कहेतां भारो । ३४. द्रवत्व कहेतां ढीलुं थावु ।
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स्नेहः ' शब्दों गुणा एवं विंशतिश्चतुरन्विता । अथ कर्माणि वक्षा (क्ष्या) मः प्रत्येकममिधानतः ॥ ५१ ॥ "उत्क्षेपणावक्षेपणा - कुञ्चन प्रसारणम् ।
१०
गमनानीति कर्माणि पञ्चोक्तानि तदागमे ॥ ५२॥
११
१२
"सामान्यं भवति द्वेधा परं चैवाऽपरं तथा ।
प्र(पर) माणुषु वर्तन्ते विशेषा नित्यवृत्तयः ॥५३॥ सामान्यविशेषौ । "भवेदयुतसिद्धानामाधाराधेयवर्तिनाम् ।
१४
सम्बन्धः समवायाख्य इहप्रत्ययहेतुक: ॥ ५४॥ "विषयेन्द्रियबुद्धीनां वपुषः सुख-दुःखयो: । अभावो (वा) दात्मसंस्थानं मुक्ति नै ( मैं ) यायिकैर्मता ॥ ५५ ॥ "चतुर्विंशवैशेषिकगुणान्तर्गुणान्तरगुणा) नव ।
बुद्धयादयस्तदुच्छेदो मुक्ति वैशेषिकी तु सा ॥ ५६ ॥
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"आधार- भस्म को (कौ) पीन जटां - यज्ञोपवीतिन: २९॥
"मन्त्राचारादिभेदेन चतुर्धा स्युस्तपस्विनः ॥५७॥
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शैवाः पाशुपताश्चैव महाव्रतधरास्तथा ।
तुर्या: कालमुखा मुख्या भेदा एते तपस्विनाम् ॥५८॥ इति शैवम् ।
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१. स्नेह कहेतां चिक्कणता । २. शब्द आकाशोद्भव (२४) । ३. एवं गुण २४ हुआ । ४. हिवइ कर्मना नाम कहइ छइ । ५. उडवउं । ६. अध: जाइवुं । ७. ताणिवुं । ८. विस्तारवुं । ९. जावुं । १०. तेहना आगमन विषइ पांच बोल्यां । ११. सामान्य बिहुं प्रकारे । १२. सर्वत्र वर्तइ ते पर, अनइ एक विषइ वर्तइ ते अपर, ए बिहुई करी पदार्थ निर्धार करीयइ । १३. परमाणुं विषइ वर्तइ तेहनइ विशेष कहीयइ अनइ नित्यवर्ती कहीयइ । १४. अथ समवाय जूजूआ नीपजइ ते अयुतसिद्ध, ते एक एकनइ आधारि रहइ । तेहनउ जु संबंध तेहनइ समवाय कहीयइ : आहा छइ एह ज्ञाननउ कारण ते समवायः । १५. विषय इंद्रिय बुद्धि अनइ शरीरनुं सुख दुःख तेहनउ जे अभाव कहेता नाश, एहवा आत्मानउं थापिवुं नैयायिकनइ ते मुक्ति बोलीय । १६. पूर्वोक्त २४ गुण मांहि बुद्धयादिक जे नव तेहनउ जे उच्छेद नाश ते वैशेषिकनइ मुक्ति । १७. नैयायिकना तपस्वी कहइ छइ झोली भिक्षापात्र लीधइ होंडइ । १८. राख अडाडइ । १९. १ वस्त्र राखइ । २०. जटा राखई । २१. जनोऊ पहिर । २२. ए चिहुं प्रकारना मंत्रभेद करी च्यारि तपस्वी छन् । २३. एकशिवोपासका: शैवाः ।
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________________ 10 अथ नास्तिकम् पञ्चभूतात्मकं वस्तु प्रत्यक्षं च प्रमाणकम् / नास्तिकानां मते नान्यदन्यत्रा(दत्रा)ऽमुत्र शुभाशुभम् // 59 // प्रत्यक्षमविसंवादि ज्ञानमिन्द्रियगोचरम् / लिङ्गतोऽनुम(मि) तिधूमादिव वढेरवस्थितिः // 60 // अनुमानं त्रिधा पूर्वं शेषं सामान्यतो यथा / 'दृष्टेः सस्यं नदीपूराद् वृ-ष्टिरस्तांद्रवेर्गतिः // 61 / / ख्यातं सामान्यतः साध्यं साधन चोपमा यथा। स्याद् "गोवद् गवयः सानादिमत्त्वमुभयोरपि // 62 // आगमश्चाऽऽसवचनं "स" च कस्याऽपि कोऽपि च / वाच्याप्रति(ती)तौ तत्सिध्दयै प्रोक्ताऽर्थापत्तिरुत्तमैः // 63 // बहुपीनोऽह्नि नाऽश्नाति रात्रावित्यर्थतो यथा। "पञ्चप्रमाणसामर्थ्य वस्तुसिद्धिरभावतः // 64|| स्थापितं वादिभिः स्वं स्वं मतं तत्त्वप्रमाणतः / 'तत्त्वं सत्परमार्थेन प्रमाणं तत्त्वसाधकम् // 65 // "सन्तु सर्वाणि शास्त्राणि सरहस्यानि दूरतः / एकमप्यक्षरं सम्यक् शिक्षितं नैव निष्फलम् // 66|| 1. प्रपंच पंचभूतात्मक मानइ / 2. अनइ प्रत्यक्ष तेहि प्रमाण मानइ, बीजुं न मानइ 3. अनइ नास्तिक मति इहा नइ परलोकि शुभाशुभ नथी / 4. प्रत्यक्षइ जूठउ न थाइ ते ज्ञानेंद्रिय करी देखयइ ते प्रमाण मानइ / 5. नास्तिक अनुमानना 6 अंग कहइ चिह्नइ करी (1) मविवइ करी (2) स्थितइ करी (3); जिम धूम थकी वह्नि जाणीयइ तिम अनुमानना ए 3 अंग अहिन्हणि आतलूं आतलू इत्यादि, चिरकाल]लागइ ते स्थिति / 7. नास्तिक शेष थाकती सिद्धि जे ते सामान्याकारि कहइ 8. जिम निष्पत्तिइ धान्यनइ मानइ। 9. नदी पूरइ वृष्टिनइ मानइ / 10. आथम्यइ रविनी गतिनइ मानइ / एतलइ नास्तिकनउ मत पूरउ थयु / 11. सामान्य प्रकार विख्यात हुइ ते साध्य / 12. ओपमाइ करी देखाडीयइ ते साधन 13. जिम गाइ सरिखउ गवय कहेतां अरण्य पशु, ते किम कांबलउ बिहुँनइ सरीखुं हुइ / 14. यथार्थ बोलणहारनउ वचन ते. आगम कहीयइ / 15. ते आप्तभाषी कहइ एकनइ को एक छइ / 16, उत्तम पुरुष एहनइ अर्थापति कहइ ते वाच्यनी प्रतीतिनइ विषइ तेहनी सिद्धिनइ काजइ / 17. जिम घणू जाडउ अनइ दोहइ न जिमइ तउ जाणीयइ ते रात्रइ जिमइ ज छइ, ए अर्थापत्ति प्रमाण / 18. पांचे प्रमाणे करी वस्तुसिद्धि कहइ। 19. को एक अभावथी कहइ ए छइ प्रमाण। 20. परमार्थइ करी तत्त्व ते सत्य, अनइ प्रमाण ते जे तत्त्वनइ साधइ / 21. सर्वशास्त्र हुउ किंलक्षणानि सपणिरहस्य, दूरि छइ पिणि एक अक्षर सीख्यउ हुइ रुडी पड़ ते निष्फल न हुइ किंतु सफल ज हुइ।