Book Title: Satipratha aur Jain Dharm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. एवमेगे 3 पासत्या पनवंति अणारिया । इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा || जहा गंडं पिलागं वा, पिरपीलेज्ज मुहुत्तंगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया || - सूत्रकृतांग, १/३/४/९-१० , ६७. उपासकदशा, १,४८ । ६८. अणंगसेणा पामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं ...... आवश्यकचूर्णि भाग १, पृ० ३५६ | ६९. आदिपुराण, पृ० १२५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९१९ । ७०. अड्डा जाव .........सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा ईसर सेणावच्चं कारेमाणी ७१. देखें, जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भाग २, डा० सागरमल जैन, पृ० २६८ । ७२........असईजणपोसणया । उपासकदशा, १ / ५१ 'सती' शब्द का अर्थ 'सती' की अवधारणा जैनधर्म और हिन्दूधर्म दोनों में ही पाई जाती है । दोनों में सती शब्द का प्रयोग चरित्रवान स्त्री के लिए होता है' श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा में तो आज भी साध्वी श्रमणी 1 को सती या महासती कहा जाता है। यद्यपि प्रारम्भ में हिन्दू परम्परा में 'सती' का तात्पर्य एक चरित्रवान या शीलवान स्त्री ही था किन्तु आगे चलकर हिन्दू परम्परा में जबसे सती प्रथा का विकास हुआ, तब से यह 'सती' शब्द एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। सामान्यतया हिन्दूधर्म में 'सती' शब्द का प्रयोग उस स्त्री के लिए होता है जो अपने पति की चिता में स्वयं को जला देती है। अतः हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि जैनधर्म को 'सती' की अवधारणा हिन्दू परम्परा की सतीप्रथा से पूर्णतः भिन्न है। यद्यपि जैनधर्म में 'सती' एवं 'सतीत्व' को पूर्ण सम्मान प्राप्त है किन्तु उसमें सतीप्रथा का समर्थन नहीं है । जैनधर्म में प्रसिद्ध सोलह सतियों के कथानक उपलब्ध हैं और जैनधर्मानुयायी तीर्थकरों के नाम स्मरण के साथ इनका भी प्रातः काल नाम स्मरण करते हैं - ब्राह्मी चन्दनवालिका भगवती राजीमती द्रौपदी । कौशल्या च मृगावती च सुलसा सीता सुभद्रा शिवा ।। कुन्ती शीलवती नलस्यदयिता चूला प्रभावत्यपि । पद्मावत्यपि सुन्दरी प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ।। इन सतियों के उल्लेख एवं जीवनवृत्त जैनागमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य तथा प्राचीन जैनकाव्यों एवं पुराणों में मिलते हैं । किन्तु उनके जीवनवृत्तों से ज्ञात होता है कि उनमें से एक भी ऐसी नहीं है ७३. साविका जाया अबंभस्स पच्चक्खड णण्णत्य रायाभियोगेण । आवश्यकचूर्णि भाग १, पृ० ५५४-५५ । जैनशिलालेख संग्रह, भाग २ अभिलेख क्रमांक ८ । सती प्रथा और जैनधर्म - , ७५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - शान्तिसूरीय वृत्ति अधिकार२, ३० । ७६. ज्ञाताधर्मकथा, ४/६ । ७७. तम्हा उ वज्जए इत्थी ......आघाते ण सेवि णिग्गंथे । सूत्रकृतांग १, ४, १,११ ७८. कप्पइ निग्गंचीणं विइकिए काले सज्झायं करेत्तए निर्णय निस्साए । (तथा) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सट्ठिवास परियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्ताए । " " व्यवहारसूत्र ७, १५, व २० । ७९. इस समस्त चर्चा के लिए देखें मेरे निर्देशन में रचित और मेरे द्वारा सम्पादित अन्य जैन और बौद्ध भिक्षुणी संप- डॉ अरुण प्रताप सिंह । - जिसने पति की मृत्यु पर उसके साथ चिता में जलकर उसका अनुगमन किया हो, अपितु ये उन वीरांगनाओं के चरित्र हैं जिन्होंने अपने शील रक्षा हेतु कठोर संघर्ष किया और या तो साध्वी जीवन स्वीकार कर भिक्षुणी संघ में प्रविष्ट हो गईं या फिर शीलरक्षा हेतु मृत्युवरण कर लिया । आगमिक व्याख्या साहित्य में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता धारिणी आदि कुछ ऐसी स्त्रियों के उल्लेख हैं जिन्होंने अपने सतीत्व अर्थात् शील की रक्षा के लिए देहोत्सर्ग कर दिया। अत: जैनधर्म में सती स्त्री वह नहीं जो पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर उसका अनुगमन करती है अपितु वह है जो कठिन परिस्थितियों में अपनी शीलरक्षा का प्रयत्न करती है और अपने शील को खण्डित नहीं होने देती है, चाहे इस हेतु उसे देहोत्सर्ग ही क्यों न करना पड़े । सती प्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न सतीप्रथा के औचित्य और अनौचित्य का प्रश्न एक बहुचर्चित और ज्वलन्त प्रश्न के रूप में आज भी उपस्थित है। निश्चित ही यह प्रथा पुरुष प्रधान संस्कृति का एक अभिशप्त परिणाम है। यद्यपि इतिहास के कुछ विद्वान इस प्रथा के प्रचलन का कारण मुस्लिमों के आक्रमणों के फलस्वरूप नारी में उत्पन्न असुरक्षा की भावना एवं उसके शील भंग हेतु बलात्कार की प्रवृत्ति को मानते हैं, किन्तु मेरी दृष्टि में इस प्रथा के बीज और प्रकारान्तर से उसकी उपस्थिति के प्रमाण हमें अति प्राचीनकाल से ही मिलते हैं । सती प्रथा के मुख्यतः दो रूप माने जा सकते हैं, प्रथम रूप जो इस प्रथा का वीभत्स रूप है; इसमें नारी को उसकी इच्छा के विपरीत पति के शव के साथ मृत्युवरण को विवश किया जाता है । दूसरा रूप वह है जिसमें पति की मृत्यु पर भावुकतावश स्त्री स्वेच्छा से . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती प्रथा और जैनधर्म पति के प्रति अपने अनन्य प्रेम के कारण मृत्यु का वरण करती है। भोगलिप्सा का शिकार होकर नारकीय जीवन जीने की अपेक्षा मृत्युकभी-कभी वह इसलिए भी पति की चिता पर अपना देहोत्सर्ग कर देती वरण को श्रेष्ठ मान लिया / / है कि भावी जन्म में उसे पुन: उसी पति की प्राप्ति होगी। जैनाचार्यों ने फिर भी जैनाचार्यों ने कभी भी इस प्रथा का समर्थन नहीं सती-प्रथा के इन रूपों को उचित नहीं माना है। किन्तु इन रूपों से भिन्न किया-उनके अनुसार यदि स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चापत् मरने को एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने उचित माना है जिसमें स्त्री-मात्र विवश किया जाता है तो यह कृत्य पंचेन्द्रिय मनुष्य की हत्या का बर्बर अपने शील की रक्षा के लिए पति के जीवित रहते हुए या पति की मृत्यु कृत्य ही माना जायेगा अत: वह कृत्य धार्मिक या धर्मसम्मत कृत्य नहीं के उपरान्त मृत्यु का वरण कर देहोत्सर्ग कर देती है। है / अपितु महापातक ही है और मारने वाला उस पाप का दोषी है / उपर्युक्त स्थितियों में जहाँ तक पति के स्वर्गवास के पश्चात् यदि दूसरी और स्त्री स्वेच्छा से असुरक्षा की भावनावश या अनन्य उसकी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मात्र इस विचार से कि परलोक प्रेमवश मृत्यु का वरण करती है तो उसका यह कृत्य रागयुक्त होने के में वह उसे उपलब्ध होगी उसके साथ दफना देने या जला देने की प्रथा कारण आत्महत्या की कोटि में जाता है, यह आत्म-हिंसा है अत: यह का प्रश्न है, यह अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। मिस्र में भी भी पापकर्म है / पुन: जैनधर्म की मान्यता है कि परलोक में व्यक्ति को इस प्रथा के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, यह पुरुष-प्रधान संस्कृति का कौन सी योनि मिलेगी यह तो उसके कर्मों (सदाचरण या दुराचरण) पर सर्वाधिक घृणित रूप था जिसमें स्त्री मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु थी। निर्भर करता है, पति की मृत्यु पर उसका सहगमन करने पर अनिवार्य उसके उपभोग की अन्य वस्तुओं के समान उसे भी उसके साथ दफनाना रूप से पतिलोक को प्राप्त होगी, यह आवश्यक नहीं है / अत: इस आवश्यक माना जाता था / जहाँ तक जैनधर्म और उसके साहित्य का भावना से सती होकर वह सत्री पतिलोक को प्राप्त होगी, स्त्री का पति प्रश्न है, हमें ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं है जहाँ इस प्रथा का की चिता पर जलाया जाना या जलना जैनधर्म की दृष्टि से न तो धार्मिक उल्लेख और उसे अनुमोदन प्राप्त हो / यद्यपि जैनकथा साहित्य में ऐसे है और न नैतिक ही / इसके विपरीत डा० जगदीश चन्द्र जैन की उल्लेख अवश्य मिलते हैं जिसमें एक भव के पति-पत्नी अनेक भवों सूचनानुसार महानिशीथ (वर्तमान स्वरूप ईसवी सन् 8 वीं शती के पूर्व) तक पति-पत्नी के रूप में एक दूसरों को उपलब्ध होते रहे हैं, किन्तु में एक उल्लेख आता है कि राजा की एक विधवा कन्या सती होना किसी भी घटना में ऐसा उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला, जहाँ मात्र चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रकार की परम्परा नहीं थी इसी प्रयोजन से स्त्री के द्वारा मृत्युवरण किया गया हो और जिसका अत: उसने अपना विचार त्याग दिया / इस घटना के उल्लेख से यह जैनाचार्यों ने अनुमोदन किया हो / अतः सतीप्रथा का यह रूप जैनधर्म स्पष्ट हो जाता है, उस युग में सम्पूर्ण समाज में सती होने की परम्परा में कभी मान्य नहीं रहा। नहीं थी अपितु राजकुलों में भी केवल कुछ ही राजकुलों में ऐसी परम्परा जहाँ तक स्वेच्छा से, असुरक्षा का अनुभव करके या पति के थी। प्रति अनन्य प्रेमवश पति की मृत्यु पर उसका सहगमन का प्रश्न है - श्री अगरचन्द जी नाहटा ने भी पट्टावलियों के आधार पर यह जैन साहित्य में सर्वप्रथम निशीथचूर्णि (७वीं शताब्दी) में हमें एक उल्लेख किया है कि श्री जिनदत्त सूरि (ई० सन् 11 शती) ने जब वे उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सोपारक के एक राजा ने करापवंचन झंझुणु (राज.) में थे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा को उपदेश के अपराध में नगर के पाँच सौ व्यापारियों को जीवित जला देने का देकर सती होने से रोका और उसे जैनसाध्वी की दीक्षा प्रदान की / इसी आदेश दिया, उनकी पत्निायाँ भी अपने पतियों का अनुसरण करते हुए प्रकार १७वीं शती के सन्त आनन्दघन ने भी सती प्रथा की आलोचना जलकर मर गई / यद्यपि जिनदास गणि महत्तर इस घटना का विवरण करते हुए ऋषभदेव स्तवन में लिखा है कि परलोक में पति मिलेगा इस प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे किसी भी रूप में इसका अनुमोदन नहीं करते आकांक्षा से स्त्री अग्नि में जल जाती है, किन्तु यह मिलाप सम्भव नहीं हैं / यद्यपि इस कथानक से इतना अवश्य फलित होता है कि यह होता है / अत: पति की मृत्यु पर पत्नी द्वारा देहोत्सर्ग कर देना जैनधर्म सतीप्रथा भारत में मुस्लिम शासकों के आक्रमण के पूर्व भी अस्तित्व में कभी भी अनुमोदित नहीं था। में थी, वैसे हमें ७वीं शती के पूर्व निर्मित हिन्दू पौराणिक साहित्य में किन्तु दोनों रूपों से भिन्न अपने शील की रक्षा के लिये ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पत्नी-पति की मृत्यु पर उसकी चिता में देहोत्सर्ग कर देना सतीत्व का एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने जलकर सहगमन करती है / अत: जैन स्रोतों से भी इतना तो निश्चित मान्यता दी है। उनके अनुसार चाहे पति जीवित हो या उसका स्वर्गवास हो जाता है कि यह प्रथा मुस्लिम शासकों के पूर्व भी अपना अस्तित्व हो चुका हो यदि स्त्री इस स्थिति में आ गई है कि शीलरक्षा हेतु रखती थी / इतना अवश्य हुआ कि मुस्लिम शासकों के आक्रमण और मृत्युवरण के अतिरिक्त उसके सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया नारी जाति के प्रति उनके और उनके सैनिकों के दुर्व्यवहार से नारी में है, तो ऐसी स्थिति में अपने शील की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों का असुरक्षा की भावना बढ़ती गयी एवं अपनी शील-रक्षा का प्रश्न उसके उत्सर्ग कर देना ही श्रेयस्कर है। जैनाचार्य मात्र ऐसी स्थिति में ही स्त्री सामने गम्भीर बनता गया / फलत: भारतीय मानस सतीप्रथा का के मृत्युवरण को नैतिक एवं धार्मिक मानते हैं / जैनाचार्यों की दृष्टि में समर्थन करने लगा और नारी ने पति की मृत्यु के पश्चात् दूसरों की पतिव्रता होना स्त्री के लिये अति आवश्यक है किन्तु पतिव्रता होने का Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ यह अर्थ नहीं है कि वह पति की मृत्यु होने पर स्वयं भी मृत्यु का वरण असम्मानित होती थीं और न असुरक्षित ही। यही कारण थे कि जैनधर्म करे, उनकी दृष्टि में पतिव्रता होने का अर्थ है शीलवान या चारित्रवान में सती प्रथा को विकसित होने के अवसर ही नहीं मिले / होना और पति की मुत्यु होने पर पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना। यद्यपि प्रो० काणे१६ ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में सती पति की मृत्यु पर स्त्री का प्रथम कर्तव्य होता था कि वह संयम पूर्ण प्रथा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि बंगाल में जीवन जीते हुए अपनी सन्तान का पालन-पेषण करे- जैसा कि राजगृही मेघातिथि स्त्री को पति की सम्पत्ति का अधिकार मिलने के कारण ही की भद्रा सार्थवाही ने किया था अथवा सन्तान के योग्य हो जाने पर सतीप्रथा का विकास हुआ, किन्तु यदि यह सत्य माना जाये तो फिर चारित्र (दीक्षा) ग्रहण कर साध्वी का जीवन व्यतीत करें।२ / प्राचीन जैनधर्म में भी सतीप्रथा का विकास होना था किन्तु जैनधर्म में ऐसा नहीं जैनाचार्यों ने सदैव ही पति की चिता पर जलने के स्थान पर श्रमणी बनने हुआ / स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार मिलने की स्थिति में हिन्दू धर्म में पर बल दिया / प्राचीन जैन कथा साहित्य में हमें अनेक ऐसे कथानक स्त्री स्वयं सती होना नहीं चाहती थी अपितु सम्पत्ति लोभ के कारण मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ श्रमण जीवन अंगीकार कर लेती हैं / जहाँ परिवार के लोगों द्वारा उसे सती होने को विवश किया जाता है किन्तु महाभारत एवं अन्य हिन्दू पुराणों में कृष्ण की पत्नियों के सती होने के अहिंसा प्रेमी जैनधर्मानुयायियों की दृष्टि में सम्पत्ति पाने के लिये स्त्री को उल्लेख है१३ वहाँ जैन साहित्य में उनके साध्वी होने के उल्लेख हैं। आत्मबलिदान हेतु विवश करना उचित नहीं था, यह तो स्पष्ट रूप से हिन्दू परम्परा में सत्यभामा को छोड़कर कृष्ण की शेष पत्नियाँ सती हो नारी हत्या थी / अतः सम्पत्ति में विधवा के अधिकार को मान्य करने जाती हैं सत्यभामा वन में तपस्या के लिए चली जाती है, जबकि जैन पर भी अहिंसा प्रेमी जैनसमाज सतीप्रथा जैसे अमानवीय कार्य का परम्परा में कृष्ण को सभी पटरानियाँ श्रमणी बन जाती हैं। हिन्दू कथाओं समर्थन नहीं कर सका / दूसरे, यह कि यदि वह स्त्री स्वेच्छा से दीक्षित में सीता पृथ्वी में समा जाती है, जैन कथा में लव-कुश के युवा हो जाने हो जाती थी तो भी उन्हें सम्पत्ति का स्वामित्व तो प्राप्त हो ही जाता था। पर वह श्रमणी बन जाती है।५ / ये कथाएँ चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से अतः जैनधर्म में सामान्यतया सतीप्रथा का विकास नहीं हुआ अपितु विवादास्पद हों किन्तु इनसे जैनाचार्यों के दृष्टिकोण का पता तो चल ही उसमें स्त्री को श्रमणी या साध्वी बनने को ही प्रोत्साहित किया गया / जाता है कि वे सती प्रथा के समर्थक नहीं थे। जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा के लिए भिक्षुणी संघ का सम्मानजनक द्वार सदैव खुला हुआ था। जहां वह सुरक्षा और सममान जैनधर्म में सती प्रथा के विकसित नहीं होने के कारण के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी कर सकती थी। अत: जैनाचार्यों जैनधर्म में सतीप्रथा के विकसित नहीं होने का सबसे प्रमुख ने विधवा, परित्यक्ता एवं विपदाग्रस्त नारी को भिक्षुणी संघ में प्रवेश कारण जैनधर्म में भिक्षुणी संघ का अस्तित्व ही है / वस्तुत: पति की हेतु प्रेरित किया, न कि सती होने के लिए। यही कारण था कि जैनधर्म मृत्यु के पश्चात् किसी स्त्री के सती होने का प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्रमणियों या भिक्षुणियों की संख्या असुरक्षा एवं असम्मान की भावना है / जैनधर्म में पति की मृत्यु के भिक्षुओं की अपेक्षा बहुत अधिक रही है। यह अनुपात 1:3 का रहता पश्चात् स्त्री को अधिकार है कि वह सन्तान की समुचित व्यवस्था करके आया है। भिक्षुणी बनकर संघ में प्रवेश ले ले और इस प्रकार अपनी असुरक्षा की पुन: जैनधर्म में संलेखना (समाधिमरण) की परम्परा भी भावना को समाप्त कर दे। इसके साथ ही सामन्यतया एक विधवा हिन्दू प्रचलित थी / अत: विधवा स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी तपसमाज से तिरस्कृत समझी जाती थी, अत: उस तिरस्कारपूर्ण जीवन त्यागपूर्वक जीवन बिताते हुए अन्त में संलेखना ग्रहण कर लेती थी। जीने की आशंका से वह पति के साथ मृत्यु का वरण करना ही उचित वस्तुपाल प्रबन्ध में वस्तुपाल की पत्नी ललितादेवी और तेजपाल की मानती है / जैनधर्म में कोई भी स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती है तो वह पत्नी अनुपमा देवी द्वारा अपने पतियों के स्वर्गवास के पश्चात् गृहस्थ समाज में आदरणीय बन जाती है / इस प्रकार जैनधर्म भिक्षुणी संघ की जीवन में बहुत काल तक धर्माराधन करते हुए अन्त में अनशन द्वारा व्यवस्था करके स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् भी सम्मानपूर्वक जीवन देहत्याग के उल्लेख हैं / किन्तु यह देहोत्सर्ग भी पति की मृत्यु के जीने का मार्ग प्रशस्त कर देता है। तत्काल पश्चात् न होकर वृद्धावस्था में यथासमय ही हुआ है / अत: हम स्त्री द्वारा पति की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति में अधिकार न होने कह सकते है कि जैनधर्म में सती प्रथा का कोई स्थान नहीं रहा है। से आर्थिक संकट भी हिन्दू नारी की एक प्रमुख समस्या है जिससे बचने के लिए स्त्री सती होना पसन्द करती है / श्रमणी जीवन में जैन नारी परवर्तीकाल में जैनधर्म में सतीप्रथा का प्रवेश सम्मानजनक रूप से भिक्षा प्राप्त करके आर्थिक संकट से भी बच जाती यद्यपि धार्मिक दृष्टि से जैनधर्म में सतीप्रथा को समर्थन और थी, साथ ही जैनधर्म हिन्दूधर्म के विरुद्ध सम्पत्ति पर स्त्री के अधिकार को उसके उल्लेख प्राचीन जैन धार्मिक ग्रन्थों में नही मिलते हैं / किन्तु मान्य करता है / जैनग्रन्थों में भद्रा आदि सार्थवाहियों का उल्लेख मिलता सामाजिक दृष्टि से जैन समाज भी उसी बृहद् हिन्दू समाज से जुड़ा हुआ है जो पति के स्वर्गवास के पश्चात् अपने व्यवसाय का संचालन स्वयं था जिसमें सती प्रथा का प्रचलन था / फलत: परवर्ती राजपूत काल के करती थीं / अत: यह स्वाभाविक था कि जैनस्त्रियाँ वैधव्य के कारण न कुछ जैन अभिलेख ऐसे हैं जिनमें जैन समाज की स्त्रियों के सती होने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ सती प्रथा और जैनधर्म 571 के उल्लेख हैं / ये सहवर्ती हिन्दू समाज का प्रभाव ही था जो कि अत: निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि जैनधर्म में विशेषत: राजस्थान के उन जैनपरिवारों में था जो कि निकट रूप से राज- धार्मिक दृष्टि से सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला क्योंकि वे सभी परिवार से जुड़े हुए थे। कारण जो सती प्रथा के प्रचलन में सहायक थे। जैन-जीवन दृष्टि और श्री अगरचन्दजी नाहटा ने अपने ग्रन्थ बीकानेर जैन लेख संग्रह संघ-व्यवस्था के आधार पर और जैनधर्म में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था में जैनसती स्मारकों का उल्लेख किया है१८ / वे लिखते हैं कि जैनधर्म से निरस्त हो जाते थे। की दृष्टि से तो सती-दाह मोहजनित एवं अज्ञानजनित आत्मघात ही है, किन्तु स्वयं क्षत्रिय होने से वीरोचित जाति-संस्कारवश, वीर राजपूत जाति के घनिष्ठ सम्बन्ध में रहने के कारण यह प्रथा ओसवाल जाति (जैनों की एक जाति) में भी प्रचलित थी / नाहटाजी ने केवल बीकानेर 1. देखें - संस्कृत-हिन्दी कोश (आप्टे), पृ० 1062 / के अपने अन्वेषण में ही 28 ओसवाल सती स्मारकों का उल्लेख किया 2. देखें- हिन्दू धर्म कोश (राजबली पाण्डेय), पृ०६४९ / है। इन लेखों में सबसे प्रथम लेख वि० सं० 1557 का और सबसे 3. जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, भाग 5, पृ. 185 / अन्तिम लेख वि० सं० 1866 का है / वे लिखते हैं कि बीकानेर राज्य 4. ब्राह्मी आदि इन सोलह सतियों के जीवनवृत्त किन आगमों एवं की स्थापना से प्रारम्भ होकर जहाँ तक सती प्रथा थी वह अविच्छिन्न रूप ___ आगमिक व्याख्याओं में है, इसलिए देखें - से जैनों में भी जारी थी। यद्यपि इन सती स्मारकों से यह निष्कर्ष निकाल (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 5, पृ० 375 लेना कि सामान्य जैन समाज में यह सती प्रथा प्रचलित थी, उचित नहीं (a) Prakrit Proper Names, part I and II होगा। मेरी दृष्टि में यह सती प्रथा केवल उन्हीं जैनपरिवारों में प्रचलित सम्बन्धित नाम के प्राकृतरूपों के आधार पर देखिये / रही होगी जो राज-परिवार से निकट रूप से जुड़े हुए थे। बीकानेर के 5. आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ. 320 / उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त भी राजस्थान में अन्यत्र ओसवाल जैनसतियों 6. देखें - (अ) हिन्दूधर्म कोश, पृ०६४९।। के स्मारक थे। श्री पूर्णचन्द्र नाहर ने भामा शाह के अनुज ताराचन्द जी (ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, (काणे) भाग 2, पृ. 348 कपाड़िया के स्वर्गवास पर उनकी 4 पत्नियों के सती होने का सादड़ी 7. तेसिं पंच महिलासंताई ताणि वि अग्गिं पावट्ठाणि / के अभिलेख का उल्लेख किया है१९ / स्वयं लेखक को भी अपने गोत्र -निशीथचूर्णि, भाग 4, पृ० 14 के सती-स्मारक की जानकारी है। अपने गोत्र एवं वंशज लोगों के द्वारा __ - बृहद्कल्पभाष्य वृत्ति, भाग 3, पृ० 208 इन सती स्मारकों की पूजा स्वयं लेखक ने भी होते देखी है / अत: यह 8. देखें - (अ) विष्णुधर्म सूत्र, 25/14 / उद्धृत हिन्दूधर्मकोश स्वीकार तो करना होगा कि जैन परम्परा में भी मध्यकाल में सती प्रथा पृ० 649 / / का चाहे सीमित रूप में ही क्यों न हो किन्तु प्रचलन अवश्य था। यद्यपि (ब) उत्तररामायण, 17/15, , , , , इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह प्रथा जैनधर्म एवं (स) महाभारत, आदि पर्व 95/65 ,, ,, ,, ,, जैनाचार्यों के द्वारा अनुशंसित थी, क्योंकि हमें अभी तक ऐसा कोई भी (द) महाभारत, मौसलपर्व 7/18, 7/23-84 ,, ,,,,, सूत्र या संकेत उपलब्ध नहीं है जिसमें किसी जैन ग्रन्थ में किसी जैनाचार्य 9. देखें - हिन्दू धर्म कोश, पृ० 650 ने इस प्रथा का समर्थन किया हो / जैन ग्रन्थ और जैनाचार्य तो सदैव 10. महानिशीथ, पृ०२९ देखें - जैन आगम साहित्य में भारतीय ही विधवाओं के लिए भिक्षुणी संघ में प्रवेश की अनुशंसा करते रहे हैं। समाज, पृ. 271 / अत:परवर्ती काल के जो सती स्मारक सम्बन्धी जैन अभिलेख मिलते 11. बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका, पृ० 95 की पाद टिप्पणी / हैं वे केवल इस तथ्य के सूचक हैं कि सहवर्ती हिन्दु परम्परा के प्रभाव 12. केई कंतकारण काष्ट भक्षण करै रे, मिलस कंत नै धाय / के कारण विशेष रूप से राजस्थान की क्षत्रिय परम्परा के ओसवाल जैन ए मेलो नवि कइयइ सम्भवै रे, मेलो ठाम न ठाय / समाज में यह प्रथा प्रवेश कर गई थी / और जिस प्रकार कुलदेवी, -आनन्दघन चौबीसी-श्री ऋषभदेव स्तवन कुलभैरव आदि की पूजा लौकिक दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों द्वारा की 13. आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ० 372 / जाती थी उसी प्रकार सती स्मारक भी पूजे जाते थे / राजस्थान में बीकानेर 14. (अ) महाभारत, मौसलपर्व 7/73-74, विष्णुपुराण, से लगभग 40 किलोमीटर दूर मोरखना सुराणी माता का मन्दिर है। 5/38/2 इस मन्दिर की प्रतिष्ठा धर्मघोषगच्छीय पद्माणंदसूरि के पट्टधर (ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग 1, 348 नंदिवर्धनसूरि द्वारा हुई थी। ओसवाल जाति के सुराणा और दुग्गड़ गोत्रों 15. अन्तकृतदशा के पंचम वर्ग में कृष्ण की 8 रानियों के तीर्थंकर में इसकी विशेष मान्यता है / सुराणी माता सुराणा परिवार की कन्या अरिष्टनेमि के समीप दीक्षित होने का उल्लेख है। थी जो दूगड़ परिवार में ब्याही गई थी। यह सती मन्दिर ही है / फिर 16. पउमचरियं, 103/165-169 भी इस प्रकार की पूजा एवं प्रतिष्ठा को जैनाचार्यों ने लोकपरम्परा ही 17. धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग 1, पृ० 352 माना था, आध्यात्मिक धर्मसाधना नहीं / बीकानेर के सती स्मारक में दो 18. कल्पसूत्र, 134 स्मारक माता सतियों के हैं, इन्होंने पत्रप्रेम में देहोत्सर्ग किया था जो एक 19. बीकानेर जैन लेख संग्रह - भूमिका, पृ० 94-99 विशिष्ट बात है। प्रवेश की अनाचार्य तो सब के जो सती