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संस्कृत में प्राचीन जैन साहित्य
वास्तव में बीसवीं शताब्दी से पहले जैन संस्कृत-साहित्य विद्वानों की दृष्टि से बिल्कुल ओझल था। किसी को मालूम ही नहीं था कि जैन साहित्य में संस्कृत ग्रन्थों के रूप में अमूल्य निधियां छिपी पड़ी हैं। सबसे पहले जैन संस्कृत ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का श्रेय जर्मन विद्वान डॉ० जेकोबी को है, जिन्होंने अथक परिश्रम करके जैन संस्कृत ग्रन्थों को जैन शास्त्र भण्डारों से खोज कर निकाला और उनका गम्भीर अध्ययन करके मूल्यांकन किया। इसके बाद डा० हर्टल, कीथ और विण्टरनिट्ज आदि पाश्चात्त्य विद्वानों ने भी जैन ग्रन्थों का अपने ग्रन्थों में वर्णन किया है। इसका कारण जैनियों में संस्कृत विद्वानों की कमी थी; क्योंकि ब्राह्मण विद्वान् जैनियों को नास्तिक समझ कर संस्कृत नहीं पढ़ाते थे । बाद में श्री पूज्यपाद गणेशप्रसादजी वर्णी ने बनारस में तथा पूज्यवर गुरु गोपालदास वरैया ने मोरैना (ग्वालियर स्टेट) में जैन संस्कृत विद्यालय स्थापित किये जिनमें पढ़ पढ़कर अनेक जैन विद्वान् निकले और उन्होंने जैन ग्रन्थों का सम्पादन करके उन्हें प्रकाशित करवाया । यद्यपि अब तक अनेक जैन संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, फिर भी अनेक ग्रन्थ- रत्न अप्रकाशित हैं ।
भगवान् महावीर ने भी बुद्ध भगवान् के समान 'सर्वजनहिताय' की भावना से प्रेरित होकर अपना उपदेश सारे उत्तर भारत में समझी जाने वाली अर्धमागधी भाषा में दिया था और उन्हीं का अनुसरण करने वाले जैन आचार्यों ने अपने ग्रन्थ अर्धमागधी भाषा में लिखे थे; किन्तु जिस प्रकार महायानी बौद्धाचार्यों ने बाद में मागधी या पाली भाषा को छोड़कर संस्कृत को ग्रन्थ-रचना के लिए अपनाया, उसी प्रकार छठी शताब्दी से लेकर जैनाचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों के लिए संस्कृत को अपना लिया और अपनी सुन्दर तथा महत्त्वपूर्ण रचनाओं से संस्कृत साहित्य की समृद्धि में अपना योगदान किया ।
यद्यपि साहित्य शब्द संस्कृत में केवल काव्य, नाटक, चम्पू, आख्यायिका, कथा, गेयपद, स्तोत्र तथा सूक्ति-ग्रन्थों के लिए ही प्रयुक्त होता है, किन्तु आधुनिक समय में साहित्य के अन्तर्गत वे सब पुस्तकें आ जाती हैं जो उस भाषा में लिखी गई हों। इसलिए प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत वे सभी ग्रन्थ आते हैं, जिनको जैन आचार्यों ने अथवा जैन विद्वानों ने प्राचीन काल में लिखा था- चाहे वे काव्य-नाटकादि हों अथवा जैन दर्शन, सिद्धान्त, व्याकरणादि विषयों के हों। इसलिए इस लेख में भी पहले प्राचीन जैन काव्यादि का और तत्पश्चात् अन्य प्राचीन जैन संस्कृत ग्रन्थों का वर्णन किया जाएगा ।
संस्कृत साहित्य की कोई भी ऐसी विधा नहीं है, जिसमें प्राचीन जैन विद्वानों ने रचना नहीं की। यद्यपि उन सम्पूर्ण ग्रन्थों का परिचय इतने छोटे लेख में नहीं दिया जा सकता, फिर भी संक्षेप में दिग्दर्शन कराया जाता है ।
प्राचीन जैन संस्कृत काव्यों के अन्तर्गत महाकाव्य, खण्डकाव्य, आख्यायिकाएं, कथाएं, नाटक, चम्पू, पुराण, स्तोत्र तथा सूक्तिग्रन्थ आते हैं। प्राचीन जैन संस्कृत काव्यों में श्री हरिश्चन्द्र महाकवि द्वारा रचित धर्मशर्माभ्युदय, आचार्य श्री वीरनन्दि द्वारा रचित चन्द्रप्रभ चरितम् श्री विजय सूरि द्वारा रचित मल्लिनाथचरितम् तथा मुनिसुव्रतचरितम् श्री कमलप्रभ सूरि रचित प्रद्युम्नचरितम्, पार्श्वनाथचरितम् पुण्डरीकचरितम् आदि जैन संस्कृत महाकाव्य पथ शिशुपालवध, किरातार्जुनीय कुमारसम्भव, रघुवंश आदि संस्कृत काव्यों के समकक्ष हैं । इनमें काव्य के भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों का ही सुन्दर समन्वय है। इनमें बहुत ही सुन्दर वर्णन-शैली तथा काव्यांगों का अनुसरण किया गया है। इसी श्रेणी के अन्य महाकाव्यों में श्री हेमचन्द्राचार्य का आदिनाथचरितम्, शुभशील गणी का विक्रमचरितम्, जयशेखर सूरिका जैनकुमारसम्भव, जिन सूरि का वस्तुपालचरितम्, कुमारपालचरितम् तथा अन्य जैन कवियों द्वारा रचित जम्बूस्वामिचरितम् तथा शान्तिनाथचरितम् आदि अनेक जैन संस्कृत महाकाव्य उल्लेखनीय हैं।
डॉ० शिवचरणलाल जैन
खण्डकाव्यों में पाश्वभ्युदय, विदग्धमण्डन, युधिष्ठिरविजय, द्रौपदी स्वयंवर, क्षत्रचूडामणि, पवन जैन आदि अनेक खण्ड-काव्य गिनाये जा सकते हैं। नेमिचरित अथवा नेमिनिर्वाण काव्य में तो प्रसिद्ध मेघदूत काव्य के प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण की समस्यापूर्ति बड़े रोचक तथा वर्णनीय विषयानुकूल रंग से की गई है।
जैन साहित्यानुशीलन
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प्राचीन जैन संस्कृत काव्यों में द्वयस्मय अथवा द्वयर्थक काव्यों का अपना निराला ही स्थान है। श्री धनञ्जय महाकवि द्वारा रचित द्विसन्धान महाकाव्य में रामायण तथा पाण्डवकथा श्लिष्ट रूप में साथ-साथ वर्णन की गई हैं। इसी प्रकार श्री हरिदत्त सूरि के राघवनैषधीय महाकाव्य में श्रीराम और महाराज नल-दोनों कथाओं का श्लिष्ट रूप में वर्णन है। तथा राघवपाण्डवीय काव्य में श्रीराम और पाण्डवों की कथाएं साथ-साथ श्लिष्ट रूप में चलती हैं । यद्यपि महाकाव्यों में दो-चार सगों में यमकालंकार का प्रदर्शन अवश्यंभावी है, किन्तु पार्वाभ्युदय काव्य का कोई भी श्लोक ऐसा नहीं है जिसमें यमकालंकार न हो। यही नहीं, श्री मेघविजय सूरि के सप्तसंधान नामक महाकाव्य में सात कथाएं श्लिष्ट रूप से वणित की गई हैं।
जैन साहित्य में प्राचीन संस्कृत आख्यायिकों की गणना में जैनकवि श्री वादिराजसूरि रचित गद्यचिन्तामणि तथा श्री धनपाल कविरचित तिलकमजरी, कादम्बरी तथा दशकुमारचरित की समकक्ष रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त नर्मदासुन्दरीचरित, श्रीशान्तिनाथचरित, चंद्रकेवलिचरितम्, भुवनभानुकेवलिचरितम्, पृथ्वीचरित, शीलव्रत कथा, प्रियंकर नृपकथा, आदिभरतेश्वर वृत्ति, बृहत्कथाकोष, चन्द्रधवलभूपकथा आदि गद्यमय आख्यायिका-ग्रन्थ जैन कवियों के द्वारा रचे गये हैं और वे संस्कृत गद्यकाव्य के भण्डार को सुशोभित करते हैं।
जैन साहित्य में गद्यमय कथा-साहित्य की भी कमी नहीं है। अपराजितकथानकम् , जैनकथाकोष, चित्रसंभूति कथा, पर्वकथा संग्रह, भविष्यदत्तकथा, मूलदेवकथा आदि कथाग्रन्थ जैन साहित्य के संस्कृत पद्यमय कथा-साहित्य के उदाहरण हैं । गद्य-पद्यमय सुन्दर शैली में लिखे गये चम्पू-काव्यों की भी प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य में बड़ी ही सुन्दर रचनाएं हुई हैं। श्री सोमदेवसूरि-रचित यशस्तिलक चम्पू, श्री हरिश्चन्द्र महाकवि विरचित जीवन्धर चम्पू तथा अन्य जैन संस्कृत कवियों के द्वारा रचित पुरुदेव चम्पू आदि ग्रन्थ जैन चम्पू-काव्यों के सुन्दर नमूने हैं और तुलना में ये जैनेतर संस्कृत चम्पूकाव्य-नलचम्पू, भारतचम्पू आदि के समकक्ष रखे जा सकते हैं । बल्कि यशस्तिलक चम्पू तो राजनीति का सुन्दर काव्य समझा जाता है।
प्राचीन जैन संस्कृत-साहित्य में सुन्दर जैन संस्कृत-नाटक भी विद्यमान हैं, कितु संख्या में काफी कम हैं। श्री हस्तिमल्ल कवि द्वारा रचित-विक्रान्तकौरव तथा मैथिलीकल्याण नाटक बहुत ही सुन्दर नाटक हैं। इसी प्रकार कवि नागदेव का मदनपराजय तथा अन्य जैन कवियों के मकरध्वज-पराजय, मुक्तिबोध, मुदित कुमुदचन्द्र, प्रबोध-चन्द्रोदय आदि नाटक मनोभावों का मानवीयकरण बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत करते हैं।
प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य में सुभाषित-रत्नसन्दोह, नीति-वाक्यामृत, उपदेशतरंगिणी आदि नीति-ग्रन्थ भी विद्यमान हैं, जिनको हम सूक्तिकाव्यों में रख सकते हैं ।
प्राचीन जैन कवियों ने सुन्दर काव्यमय शैली में जैन स्तोत्र भी रचे हैं, जिनमें श्री समन्तभद्राचार्य का देवागमस्तोत्र तथा स्वयंभूस्तोत्र बड़ी ही सुन्दर दार्शनिक शैली के स्तोत्र हैं । देवागमस्तोत्र के ऊपर तो आत्ममीमांसा वृत्ति तथा अष्टसाहस्री महाभाष्य लिखे गये हैं। इसमें जिनेन्द्र भगवान् को सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। इनके अतिरिक्त भक्तामर, कल्याणमन्दिर एकीभाव, विषापहार, ऋषि मंडलस्तोत्र, जिन चतुर्विशतिस्तोत्र, अकलंकस्तोत्र आदि अनेक स्तोत्र काव्यमय शैली में लिखे गये हैं।
यदि यहां जैन पुराणों का परिचय नहीं दिया जाय तो यह लेख अधूरा ही समझा जायेगा । प्राचीन जैनाचार्यों ने जैन पुराणों को लिखने में भी काव्यमय शैली का ही अनुसरण किया है। सबसे पहला जैन संस्कृतपुराण पद्मपुराण है जिसे हम जैन रामायण भी कह सकते हैं। इस पुराण को श्री रविषेणाचार्य ने श्री विमल सूरि के प्राकृत महाकाव्य 'पउम-चरिअ' के आधार पर संस्कृत में श्लोकबद्ध किया था। इसमें श्रीराम और रावण की वंशावलि का इतिहास भी दिया गया है । तत्पश्चात् जिनसेनाचार्य ने हरिवंश पुराण की रचना की और इसके बाद काव्यमय शैली में महापुराण लिखा गया। आचार्य श्री जिनसेन ने इसे प्रारम्भ किया और वे इसके आदिपुराण भाग को ही पूरा कर पाये। इसके शेष भाग को इनके प्रधान शिष्य श्री गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण के रूप में पूरा किया। आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती का वर्णन है तथा उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकरों, चक्रवतियों, नारायण, प्रतिनारायण तथा बलभद्रों का वर्णन है । इनके अतिरिक्त पाण्डवपुराण, पार्श्वपुराण आदि अन्य पुराण भी जैन आचार्यों ने संस्कृत पद्यों में लिखे।
उपर्युक्त जैन संस्कृत काव्य-साहित्य के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अलंकार-ग्रन्थ भी लिखे, जिनमें श्री धनञ्जय कवि का दशरूपक नाटकों के ऊपर तथा श्री अजितसेनाचार्य रचित 'अलंकारचिन्तामणि' अलंकारों के ऊपर सुन्दर ग्रन्थ हैं । इसके अतिरिक्त श्री वाग्भट्टाचार्य का काव्यानुशासन तथा वाग्भट्टालंकार, श्री हेचन्द्राचार्य का काव्यानुशासन आदि अलंकार-ग्रन्थ भी बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके साथ-साथ काव्यकल्पलतावृत्ति, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोष आदि ग्रन्थ काव्यरचना के शिक्षा-ग्रन्थ हैं। श्री धनंजय कवि की धनंजयनाममाला' नाम का जैन कोष-ग्रन्थ भी जैन संस्कृत साहित्य में विद्यमान है।
प्राचीन जैनाचार्यों ने संस्कृत व्याकरण-ग्रन्थ भी लिखे। इनमें श्री शाकटायनाचार्य का शाकटायन व्याकरण, श्री गुणनन्दि आचार्य का जैनेन्द्र व्याकरण तथा उसके ऊपर शब्दार्णवचन्द्रिका, जैनेन्द्र-महावृत्ति तथा जैनेन्द्र-प्रक्रिया आदि संस्कृत-व्याकरण के सुन्दर ग्रन्थ हैं। जैन सिद्धान्त के ऊपर प्राचीन ग्रन्थ यद्यपि मूलरूप में अर्धमागधी प्राकृत भाषा में रचे गये थे, किन्तु बाद में उनकी गाथाओं को संस्कृत छायारूप
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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में परिणत कर दिया गया; इसलिए इन छाया-ग्रन्थों की गणना संस्कृत ग्रन्थों में की जा सकती है। ऐसे ग्रन्थों में गोमट्टस्वामि द्वारा रचित गोमट्टसार जीवकाण्ड में जीवों का तथा गोमट्टसार कर्मकाण्ड में कर्मों का विस्तृत वर्णन है। नेमिचन्द्राचार्य के 'द्रव्यसंग्रह' में षड्द्रव्यों का, पञ्चास्तिकाय में कालद्रव्य के अतिरिक्त पांच द्रव्यों का वर्णन है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति' में तीनों लोकों का भौगोलिक वर्णन दिया गया है।
जैन संस्कृत आचार-ग्रन्थों में श्री समन्तभद्राचार्य का रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्री अमितगति आचार्य का पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्री आशाधर स्वामी का सागरधर्मामृत तथा अनगारधर्मामृत आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में श्रावकों के तथा मुनियों के आचरण-सम्बन्धी विधिनिषेधमय नियमों, आचारों तथा क्रिया-कलापों का वर्णन है। इनके साथ-साथ जैनाचार्यों ने संस्कृत में आध्यात्मिक ग्रन्थों की भी रचना की जिनमें आत्मा-परमात्मा का, अनित्यादि भावनाओं का समाधिभरणादि का चिन्तन है। ऐसे ग्रन्थों में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, आत्मानुशासन, समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। तत्त्वार्थसूत्र अथवा मोक्षशास्त्र जैन सिद्धान्त का संस्कृत सूत्र-शैली में लिखा गया मूल ग्रन्थ है। भिन्न-भिन्न विषयों के ऊपर इसमें दस अध्याय हैं जिनमें सारा जैन सिद्धान्त विषय समाविष्ट है । इसके ऊपर सर्वार्थसिद्धि, राजवातिक, श्लोकवार्तिक आदि बड़े-बड़े भाष्य भी संस्कृत में लिखे गये हैं। संस्कृत भाषा में लिखे गये जैन दर्शनशास्त्रों की तो जैन साहित्य में बहुलता है। जैन न्यायदीपिका, आत्ममीमांसा, आत्मपरीक्षा, जैन तत्त्वानुशासन, अष्टसाहस्री आदि अनेक जैन दर्शनशास्त्र ओजस्वी भाषा में लिखे गये, जिनमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं तथा सिद्धान्तों का खण्डन और अपने सिद्धान्तों का मण्डन अकाट्य युक्तियों द्वारा किया गया है। विशेषतः इनमें बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन है।
जैन तर्कशास्त्र का मूल, सूत्र रूप में लिखा गया संस्कृत-ग्रन्थ 'परीक्षामुख' है । इसके ऊपर प्रमेयरत्नमाला छोटा तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड बड़ा भाष्य है।
इसके अतिरिक्त जैन साहित्य में अनेक मन्त्रशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र तथा औषधिशास्त्र भी संस्कृत में लिखे गये हैं।
इस प्रकार साहित्य शब्द के व्यापक रूप में जैन संस्कृत ग्रन्थों का यहां पर संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है, जिससे हमें ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों तथा विद्वानों का संस्कृत भाषा तथा साहित्य में कितना बड़ा और व्यापक योगदान है।
सांसारिक वैभव की असारता का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं
आयुर्वायुतरस्तरंग तरलं लग्नापदः संपदः
___ सर्वेऽपीन्द्रिय गोचराश्च चटुलाः संध्याभ्ररागादिवत् । मित्र स्त्री स्वजनादिसंगमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपम
तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ॥ मनुष्य का जीवन हवा के झोंकों से लहराती हुई लहरों के समान चंचल है। सम्पत्ति विपत्तियों से घिरी हुई है। सुख दुःख से लगा हुआ है। जीवन का हर नाटक दुःखान्त है। कान-नाक-जीभ आदि इन्द्रियों को सुखद प्रतीत होने वाले विषय संध्या-काल के आकाश की अरुणिमा (लालिमा) की भांति कुछ क्षण-भर ही टिकने वाले हैं। और मित्र-स्त्री-स्वजन-पुत्र आदि विषयों के मिलन का सुख ऐता है जैसे जादूगर का खेल हो, या कोई मधुर स्वप्न हो । संसार की प्रत्येक वस्तु जब ऐसी क्षण-विनाशिनी है, अनित्य है, तब विवेकी पुरुष के लिए, वस्तु के परिणाम को समझने वाले ज्ञानी के लिए, संसार में ऐसा क्या है, जिसके सहारे, जिसके आलम्बन से, उसे कुछ शाश्वत सुख की अनुभूति हो?- अर्थात् ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमें शाश्वत सुख दे सके। अतः भव्य जीवों को अपने एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए श्री जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित धर्म को धारण करके नित्य-निरन्तर आत्म-कल्याण की भावना करनी चाहिए।
(-आचार्य रत्न श्री देशभुषणजी महाराज-कृत उपदेशसारसंग्रह, प्रथम भाग, पृ० ११)
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