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संशोधन विरुद्ध कट्टरता : घेरी चिन्तानो विषय
डॉ. मधुसूदन ढांकी अटले अक विश्वविश्रुत स्थापत्यशास्त्री, इतिहासवेत्ता, पुरातात्त्विक अने आगमादि शास्त्रोना बहुश्रुत अध्येता. पोतानी विलक्षण स्मरणशक्ति अने मर्मवेधी निरीक्षणक्षमताने कारणे, पोताना रसना अथवा संशोधनना विषयतलस्पर्शी परीक्षण अने ते द्वारा पोताने जडेला निष्कर्षनुं अकाट्य तर्कोपूर्वक छतां वैज्ञानिक - नहि के वैतंडिक .. रीते प्रतिपादन, ओ तेमनी संशोधन पद्धतिनो में अनुभवेलो विशेष छे.
पोताना संशोधन-प्रतिपादनने कारणे कोइ रूढिपूजकने कदीक खोटे लाग्यानी जाण थाय तो, पोताना ते प्रतिपादनमांथी लेश पण विचलित थया विना पण, निर्ग्रन्थ मार्गना क्षमाधर्मने अनुसरीने पेला रूढिपूजकनी क्षमा मागी ले; अने जो तेमना संशोधनने, कोइ बुद्धिमान माणस, अन्य प्रमाणो द्वारा अन्यथा पुरवार करी आपे तो, जाहेरमां अने लिखित रीते पोतानी क्षतिना स्वीकार तथा तेमां करवो घटतो फेरफार करवा जेटली संशोधकसुलभ खेलदिली तेमज उदारता दर्शावी शके, तेनुं नाम ढांकीसाहेब.
मारो अनुभव छे के डो. ढांकीने पुरातत्त्वनां, इतिहासनां तथा आगमादिनां प्रमाणो दर्शावीने तेमना मत के संशोधन साथे तमे मतभेद दर्शावो तो तेओ बहु राजी थाय. पण प्रमाण अथवा आधारो विना ज, आडेधड जो तमे तेमने खोटा पाडवानो आयास करो तो तेमना प्रमाणाधारित अने तर्कबद्ध सवालोनो प्रवाह अवो वहे के भला भला अटवाई जाय.
आवा विलक्षण विद्वान डॉ. ढांकी) जैन इतिहासनी केटलीक विशिष्ट बाबतोने अंगे अनेक शोधलेखो लख्या छे, जे ते ते समये अनेक शोधसामयिको वगेरेमा प्रकाशित थया ज हता, पण थोडा वखत अगाउ ते लेखो 'निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख समुच्चय' भाग १/२ ओ नाम ग्रन्थस्थ थईने सुलभ बन्या छे. आ बन्ने ग्रन्थोनुं, माहिती आपतुं अवलोकन, 'अनुसन्धान' मां पूर्वे प्रगट थयुं ज छे. इतिहास अने संशोधनना क्षेत्रे काम करनार वर्गमां तेनो समादर पण झाझेरो थयो छे.
मुश्केली थोडाक रूढिपूजक अथवा तो रूढिजड लोकोने पडी छे. आ
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लोको, पोताने मळेली रूढ अने पारम्परिक मान्यताओथी जुदी वात कोई संशोधक करे, ओ वातने स्वीकारवा तो नहि, पण बरदास्त करवा पण तैयार नथी होता. अमे जे रूढिगत बाबत परत्वे जे मान्यता धरावीओ छीओ ते ज सनातन सत्य छे, अने ते रीते मानवामां ज धर्म, धर्मश्रद्धा टकी शके छे, तेथी जुएं, अर्थात् स्वीकृत पारम्परिक सत्यने खोटुं पाडे तेवू कांई पण मानवं के लखवू, ते परम्परा प्रत्येनो अछाजतो अपराध छ; आवं, वस्तवमां अनुचित गणाय तेवू वलण आ केटलाक लोकोओ अपनाव्युं छे.
संशोधके करेल प्रतिपादनोनुं प्रमाण पुरस्सर निरसन करवू ते अक स्वस्थ गणाय तेवू वलण छे. क्वचित् प्रमाणो खोळतां के रजू करतां न फावे तो पण, 'तमे गमे ते संशोधन करो, अमे तो अमारी पारम्परिक मान्यताने ज स्वीकारीहूं' आईं कही तो ते पण प्रमाणिक वलण गणाय. परंतु, आQ कशुं ज करवाने बदले, ते संशोधकनां लखाणोने अने तेने ग्रन्थने पाछां खेंची लेवानी अथवा तो ते पर प्रतिबन्ध लादवानी पेरवी करवी, ते तो सर्वथा अप्रमाणिक, अस्वस्थ अने हानिकारक वलण ज बनी रहे तेम छे.
आq हानिकारक वलण डॉ. ढांकीना उपर उल्लेखेला ग्रन्थ परत्वे थोडाक रूढिपूजक लोकोओ अपनाव्यु होवानुं जाणवा मळे छे, जे खरुं होय तो खूब ज खेद जनक छे. डॉ. ढांकीओ 'नवकार' विशे अक विचारोत्तेजक अने संशोधनात्मक लेख लख्यो छे. ओ लेखथी आ लोकोनी श्रद्धाविषयक धारणाना पाया हचमची ऊठ्य छे. तेथी तेमणे पोताना तनिष्ठ प्रयत्नो करीने आ ग्रन्थोने 'अयोग्य' ठरावीने तेना पर 'प्रतिबन्ध' कही शकाय तेवी परिस्थिति लादवानो प्रबंध कर्यानुं जाणवा मळ्युं छे. वधुमां, आ ग्रन्थ साथे 'कस्तूरभाई लालभाई स्मारकनिधि'नुं नाम प्रकाशक तरीके जोडायुं होवाने कारणे, तेना संचालको, पेला रूढिजड लोकोना आग्रहने अधीन थई गया होवार्नु पण जाणवा मळे छे.
प्रसंगोपात्त एक बीजी बाबत पण अहीं उल्लेखवी जरूरी लागे छे. डॉ. ढांकी शिल्प-स्थापत्यशास्त्रना विश्वख्यात विशिष्ट विद्वान छे. भारतनां मन्दिरो विशेना विश्वकोशनी तेमनी योजना अने ते विषयना तेमना ग्रन्थो, ए शोधक्षेत्रना इतिहास- अक सीमाचिह्न गणाय छे. तेमना आ विषयना ज्ञाननो लाभ जैन संघने मळे ते हेतुथी, शेठ कस्तूरभाई लालभाई तथा मुनिराज श्री पुण्यविजयजी
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जेवा महानुभावोओ, केटलांक जैन पुरातन मन्दिरोना शिल्प शास्त्रीय परिचयो तैयार करी आपवा डॉ. ढांकीने कहेलुं. तदनुसार डॉ. हांकी) आठेक तीर्थोना परिचयो तैयार करी आप्या, जे Monographs कहीं शकाय तेवी पुस्तिकाओ (सचित्र) रूपे प्रकाशित पण थया छे. आ परिचयो परम्परागत आस्थाना पोषण-संवर्धन माटे नहि, पण ते ते तीर्थ/ मन्दिरना शिल्पशास्त्रीय तथा स्थापत्यकीय परिचयनी प्राप्ति खातर ज लखाया छे ते तो स्वयंस्पष्ट छे.
जे काम अंग्रेजीमां थाय तो विश्वभरमां तेनुं भारे मूल्य अंकाय, ते काम, जैन संघना लाभार्थे, ज गुजरातीमां, डो ढांकी) कर्यु. पण पेला रूढिजड लोकोने आ मूल्यवान काम पण ना गम्यु. जाणवा मळ्या मुजब तेमणे अम कडं के ' आ पुस्तिकाओमां ते ते तीर्थ प्रत्ये भक्ति अने श्रद्धा जागे-वधे, तेवू कांई ज लखाण नथी, माटे आ पुस्तिकाओ पर प्रतिबन्ध होवो जोईओ.' फलतः आ ज संचालकोओ पेला लोकोनी आ मागणीनो पण स्वीकार तथा अमल को होवानुं जाणवा मळे छे.
जैन समाजनी सांप्रत नेतागीरी अत्यारे कया मार्गे छे तेनुं आ बे घटनाओमां स्पष्ट प्रतिबिम्ब जोवा मळे छे, जे जोतां, विवेकभान-विहीन, धर्म तथा सम्प्रदायने शोभे तेवी उदारता तेमज विचारशीलता विहोणी, जडता अने कट्टरतानो भयजनक रोग जैन समाजने लागु पड्यो छे के शुं ? ओवी दहेशत हवे जागे छे.
प्रत्येक धर्म अने तेनी परम्पराने जेम तेनो पोतानो इतिहास छे, तेम अने पोताना आगवा तिहासिक गोटाळा पण होय छे. आपणे त्यां, ऐतिहासिक तथ्यो अने साधनोनी नोंध अने मावजत करवानी प्रथा-पद्धति ज नथी. महदंशे बधु कण्ठ अने कर्ण-परम्पराथी ज नभतुं आव्युं छे. बहु मोडेथी थोडाक लोकोने इतिहास-बोध जागृत थतां तेमणे, प्रबन्धादिरूपे, तेमने उपलब्ध ओवी विगतोनी नोंध करी जरूर; पण तेमां समयना, नामोना तेमज विगतोना अटला बधा व्यत्ययो, व्युत्क्रमो थया के तेना कारणे अनन्त गोटाळा सर्जाया. ज्यारे विद्वान संशोधको, आधुनिक अर्थात् वैज्ञानिक पद्धतिथी संशोधन करवा बेठा, त्यारे आवा गोटाळा तेमनी शोधक दृष्टिथी पकडावा मांड्या.
जैन इतिहासनी घटनाओनो, व्यक्तिओनो तथा तेना काळनो निर्णय करवो
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होय त्यारे, विद्वानोओ, भारतवर्षना राजकीय इतिहासने, अन्य अटले के वैदिक अने बौद्ध जेवा मतोना इतिहासने, भाषाप्रयोगोने, साहित्यिक तथा शिलालेखी प्रमाणोने, पुरातात्त्विक उत्खननो अने शोधखोळो द्वारा सांपडतां तथ्योने - आ बधांने पण नजर समक्ष राखीने, तेना परिप्रेक्ष्यमां ज निर्णय करवानो होय छे. पारम्परिक धार्मिक मान्यताओने 'साची ज' मानीने ज जो तेमने संशोधन करवान होय तो तो पछी तेमनां संशोधननो अर्थ ज क्यों रहे छे ?
हवे ज्यारे आ बधी बाबतोने लक्ष्यमा लईने कोई अेक जैन घटनानो निर्णय करवानो होय, तो ते वखते पछी धार्मिक परम्परा के मान्यता शुं छे तेनो विचार संशोधक माटे अप्रस्तुत ज बनी रहे. अलबत्त, पोताना संशोधननो अर्थ अने उपयोग, धार्मिक मान्यतानी परम्परा पर प्रहार करवा माटे करवानु, साचा संशोधकना मनमां पण न होय, तेनुं काम तो पोताने सूझेलं संशोधन विद्वानो तथा विचारको समक्ष रजू करी देवानुं ज होय छे. पछी तेनो स्वीकार करवो के न करवो ते तो परम्परानी इच्छा उपर ज निर्भर होय छे. आम छतां, संशोधकना आशय उपर मलिनतानो आक्षेप करवो अने तेमना संशोधनने तथा तेना प्रसार-प्रचारने रोकवानी योजना करवी, ते तो बौद्धिक क्षमतानी दृष्टिओ पछात होय तेवा समाजमां ज शोभे; जैनोने नहि. ___ जैन मुनिओ तो विचारशील होय; उदार होय; पोतानी परम्परागत वातोनुं बहुमान तेमना हृदयमां अखूट ज होय, पण साथे साथे, नवां अने प्रमाणभूत अवां संशोधनो तेमज विचारो परत्वे अमनो दृष्टिकोण जिज्ञासासभर होय अने तिरस्कारभर्यो तो नहीं ज. ___अक रूढ मान्यता, धारो के सेंकडो वर्षोथी चाली आवती होय; बधा ज तेनो स्वीकार श्रद्धाभेर करता होय; अने ओ मान्यता परत्वे कोई संशोधक विद्वान, अधिकृत प्रमाणो दर्शाववापूर्वक, ते मान्यताथी तद्दन विपरीत वात शोधी बतावे, तो तेमां तेणे अपराध शो कर्यो ? हा, परम्परा ते प्रमाणभूत वातने स्वीकारे तो तेने 'मिथ्या'ना त्यागनो अने 'सत्य' ना पुरस्कारनो सम्यक्त्व-लाभ जरूर थाय; पण तेम करवू जो शक्य न होय तो, तेम करवा माटे पेला संशोधक आपणने कांइ फरज तो पाडवाना नथी ज ! तो पछी संशोधक अने तेना संशोधनथी आपणे आटला बधा डरीओ छीओ शा माटे ? अकळाइ जवानुं
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शा माटे ? अन्तिम कही शकाय तेवां पगलां भरवानुं शा माटे ?
आथी तो अq थशे के मूळे जैन होय तेवा विद्वान के संशोधक तो आपणी पासे छे नहि. नवा तैयार थाय तेवो अक पण संयोग आपणे रहेवा पण दीधो नथी ! अने जे बे-त्रण जणा छे, तेमनो लाभ पण, आपणी आवी वृत्ति-प्रवृत्तिने कारणे, आपणने मळतो अटकी जशे.
खरेखर तो आपणे आवा शोधक विद्वानोनो भरपूर लाभ उठाववो जोइओ. ओ माटे अमनी बधी वातो साथे सहमत थर्बु के होवू जरूरी नथी होतुं. आपणी श्रद्धाने अकबंध राखीने पण तेमना दृष्टिकोण तथा विचारो समजी शकाय छे. तेमणे गवेषेला प्रमाणो जाणी शकाय छे, अने तेनी साधक-बाधक चर्चा पण थई शके छे. आईं करी शकाय तो आपणे घणा घणा समृद्ध बनी शकीले अमां शंका नथी.
बाकी डॉ. ढांकी विषे अटलुं ज कहुं के दिगम्बरो द्वारा थता अनेक शास्त्रीय तथा तात्त्विक आक्षेपोनो प्रमाणभूत तथा अधिकारपूर्वक प्रतिवाद आपनार - आपी शकनार, तथा ते लोकोनां खोटां संशोधनो तथा अर्थघटनोनां मर्मस्थानोने पकडी पाडीने तेना तर्कपूत, शास्त्रसिद्ध तेमज इतिहाससिद्ध प्रत्युत्तर आपनार जो कोइ श्वेताम्बर विद्वान आपणी पासे होय तो ते एक मात्र डॉ. मधुसूदन ढांकी छे. आवा विद्वानने गुमाववा- आपणने पालवे तेम नथी, मे वात भात्र कोई सुज्ञ तथा विवेकी व्यक्ति ज समजी शके तेम छे.
हा, तमारी पासे परम्परानो, आगमादि पंचांगीनो, तथा अन्यान्य शक्य तेटली अधिक विद्याशाखाओनो सुदृढ अभ्यास होय तो, तमे तेना आधारेप्रमाणपूर्वक, डो. ढांकीओ करेला जे पण विधानो सामे तमने वांधो होय, तेनुं खण्डन के तेनो प्रतिवाद अवश्य लखी शको छो. विचारशील अने विवेकी मनुष्यने तो आq करQ ज शोभे. पण आटली-आवी सज्जता क्याथी लाववी? पण तेवी सज्जता न होय तोय कांइ विवेक टो न ज चूकाय !
संशोधन अने पारम्परिक मान्यता ओ बे वच्चनो तफावत पण समजवा जेवो तो छ ज. दा.त.
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१. आपणे त्यां अटले के जैन संघमां, कोई पण प्रतिमा जरा प्राचीन होय अने तेना पर लेख-लांछनादि निशान न होय, तो ते प्रतिमाने 'सम्प्रति राजानी भरावेली प्रतिमा' तरीके ओळखवामां क्षणनो पण विलम्ब थतो नथी. 'प्रतिमा जेम प्राचीन तेम तेनी उपासनामां भावोल्लास वधु थाय' ओवी श्रद्धा ज आमां काम करती होय छे ते तो सहेजे समजी शकाय तेवं छे.
हवे आ बाबते संशोधक-दृष्टिनो उपयोग करवामां आवे तो आ रीते विश्लेषण थई शके : (१) प्रतिमा पर कच्छ-कंदोराना चिह्नो होय ज, अटले
ओ वधुमां वधु पंदरसो वर्ष जेटली पुराणी गणाय; ते पहेलांनी नहि ज. (२) प्रतिमा आरसपहाणनी होय तो ते दसमा सैकाथी वधु प्राचीन न होय; आरसनो उपयोग १०मा सैका पछी ज चाल थयो छे. (३) प्रतिमानो आकार-प्रकार जोतां ज ते १२ मा के १५मा सैकानी हशे तेम अनुभवी अभ्यासी तत्काळ नक्की करी शके. (५) प्रतिमानी पलाठीमां अखण्ड के त्रुटक लेख होय तो तेना आधारे पण समयनो निर्धार थई जाय. ____ ताजेतरमा ज अक जग्याओ बोर्ड वांच्यु : “२२०० वरस जूनी आ प्रतिमा छे." हवे प्रतिमाना घाटघूट वगेरे जोतां ते स्पष्टत: वधुमां वधु ४०० वर्ष पुराणी जणाती हती. ओक ठेकाणे बारमा सैकानी प्रतिमा पण '२३०० वर्ष प्राचीन' तरीके वखणाय छे.
संशोधनथी बीजो कोई लाभ नथी थतो, पण मिथ्या धारणाओने के असत्य मान्यताओने ते रोकी शके छे, अने सत्य के यथार्थ मान्यता तरफ श्रद्धाळुने दोरी जाय छे.
पण जो तेनो स्वीकार करी ले, तो तो पोते जे स्थानादिनो महिमा वधारवा झंखता होय ते न वधारी शकाय. अटले संशोधनने मिथ्या ठेरववामां ज तेवाओने लाभ रहे छे. सवाल अटलो ज के सत्य हाथवगुं होवा छतां मिथ्या धारणाने ज यथार्थ ठेरववानी आ प्रवृत्तिने 'सम्यक्त्व' गणी शकाय खरी ?
२. शत्रुञ्जयतीर्थनो अनर्गळ महिमा जैन संघमा प्रवर्ते छे तेनो सघळोये आधार 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' नामना ग्रन्थ उपर छे, ओ तो सर्वविदित छे. आ
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ग्रन्थ तेरमा शतकमां थयेला आ. धनेश्वरसूरिओ रचेलो छे, ते पण तेनी प्रशस्ति तथा अन्य साधनो थकी सिद्ध बाबत छे.
आम छतां, परम्परागत मान्यता अवी छे के आ धनेश्वरसूरि ते मल्लवादीगणिना वखतमां थया हता अने तेमनी आ रचना छे. हवे आ ग्रन्थ माटे, सम्भवतः १५ मा शतकमां कोइ अज्ञात पण अभ्यासी मुनिवरे लखेली ग्रन्थसूचि नामे बृहट्टिप्पनिकामां "कूटग्रन्थोऽयं" ओ रीते उल्लेख थयो छे, जे वांचीने अेक विद्वान मुनिजने कहेलुं के आ उल्लेख वहेलो जड्यो होत तो आ ग्रन्थ अर्वाचीन होवानुं पुरवार करवा करेली संशोधनात्मक मथामण में न करी होत.
वधु चर्चा नथी करवी. परंतु आ ओक ज उल्लेख घणी बधी पारम्परिक आस्थाओ उपर प्रश्नार्थचिह्न मूकी आपवा माटे पूरतो पर्याप्त छे. तो शुं आपणे ते ग्रन्थसूचिकार मुनिवरने वखोडी काढीशुं ? तेमनी ते सूचि उपर प्रतिबन्ध लादीशु ?
खरेखर तो ओ सूचि पण कायम छे, अमां ओ उल्लेख पण यथावत् छे; अने छतां जनमानसमां सदीओथी केळवायेली तथा व्यापेली, आ ग्रन्थ प्रत्येनी तथा शत्रुञ्जयतीर्थ प्रत्येनी आस्था पण अक्षुण्ण छे. ___ संशोधन अने संशोधक परत्वेनो समग्र दृष्टिकोण, आथी ज बदलवा योग्य छे. जो मे नहि बदलाय तो ते कारणे थनारी हानि समग्र जैनसंघने हशे, विद्याजगतने हशे, संशोधनविश्वने हशे, इतिहासने हशे, अने तेनी सम्पूर्ण जवाबदारी आवा प्रतिबन्धो लादनाराओनी तथा ते लादवानी प्रेरणा करनाराओनी रहेशे, ते नि:शंक छे.
वस्तुतः जैन समाजने लागेवळगे छे त्यां सुधी, जैन धर्म-दर्शनने सर्वांगीण रीते समजवा माटे जेम आगमोनी अने शास्त्रोनी जरूर छे; तीर्थो, मन्दिरो अने प्रतिमानी जरूर छे; आचार्यादि साधुगण तथा गृहस्थवर्गनी जरूर छे; तेम इतिहासनी अने संशोधनदृष्टिनी पण जरूर छे; तेम शिल्प-स्थापत्यादि शास्त्रोनी पण जरूर छे.
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________________ June-2006 दा.त. एक मूतिने आपणे हजारो वर्ष पुराणी मानता होईए, अने तेने इतिहासादि 500-700 वर्ष पहेलांनी ज होवानुं पुरवार/प्रमाणित करी आपे तो ते शक्य छे अने तेमां नाराज थवानुं कोई वाजबी कारण पण नथी. ऊलटुं, आq थाय तो आपणी भ्रान्ति-भ्रान्त मान्यता तूटे छे, अने विश्वसमाजमां सत्यनी तथा सत्यनो स्वीकार करनार समाज तरीके आपणी प्रतिष्ठा वधे छे. एकांगी दृष्टिने विकृत थतां वार लागती नथी, तेथी सर्वतोमुख दृष्टि हवे अपनाववी अनिवार्य छे. --x