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पण्डित हेमविजयगणिविरचित ऋषभशतक
__सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय प्रथमतीर्थंकर श्रीऋषभदेव भगवाननी स्तवनास्वरूपे रचायेखें आ ऋषभशतक काव्यतत्त्व तथा वर्णननी दृष्टिए अनुपम छे । तेना रचयिता, पं. श्रीकमलविजयजी गणिना शिष्य पं. श्रीहेमविजयजी गणि छे । ऐतिहासिक संदर्भमां तेमनो परिचय आ प्रमाणे छे :
परंपरा : तपागच्छाधिपति सहस्रावधानी आचार्य श्रीमुनिसुन्दरसूरिना राज्यमां थयेल श्रीलक्ष्मीभद्रगणिनी शाखामां शुभविमल थया । तेमना शिष्य अमरविजय, अने तेमना शिष्य पं. श्रीकमलविजयगणिना शिष्य पं. श्रीहेमविजयगणि थया, जेओ एक उत्तम कवि अने समर्थ ग्रन्थकार हता ।
काळ : तेमणे रचेली कृतिओना रचनाकाळना आधारे तेमनो समय विक्रमनी १६मी शतीना उत्तरार्धथी प्रारंभी १७मी शतीना पूर्वार्ध सुधीनो होवानुं अनुमानी शकाय छे । तेमनो स्वर्गवास वि.सं. १६८१मां विजयप्रशस्ति महाकाव्यना १६ सर्ग रच्या बाद थयो हतो । साहित्य सर्जन : तेमणे अढळक प्रगल्भ अने उत्तम संस्कृत कृतिओनी
रचना करी छे :
पार्श्वनाथ चरित्र (सं. १६३२) जिनचतुर्विंशति स्तुति (सं. १६५०) (जेमां प्रत्येक स्तुतिनां ५-५ पद्य छे, अने ४-४ श्लोकना २४ कमलबन्ध छ; जेमा १६ चरणना आद्य अक्षर भेगा करवाथी विविध गुरुभगवंतोनां नाम बने छ।)
ऋषभ शतक (सं. १६५६)
कथारत्नाकर (सं. १६५७) विजयप्रशस्ति-महाकाव्य (सं. १६८१)(आ काव्यना १६ सो रची १. 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' तथा 'जैन संस्कृत साहित्यको इतिहास'ना
आधारे ।
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अनुसंधान-२९
तेओ स्वर्गस्थ थया हता, शेष ५ सर्ग तथा समग्र काव्यनी टीका तेमना गुरुभाई वाचक विद्याविजयना शिष्य वाचक गुणविजये रचेली छे । आ काव्यमां मुख्यत्वे विजय सेनसूरि महाराजनुं ऐतिहासिक जीवनवृत्त तेमणे आलेख्युं छे । कहे छे के-आ काव्य रघुवंशनी बरोबरी करी शके तेवू छ।)
आ सिवाय पण तेमणे अन्योक्तिमुक्तामहोदधि, कीर्तिकल्लोलिनी, सूक्तरत्नावली, सद्भाव शतक, स्तुति त्रिदशतरङ्गिणी, कस्तूरीप्रकर, विजयस्तुति व. कृतिओ तथा सेंकडो स्तोत्रो रच्यां छे ।
गुजरातीमां पण तेमणे घणी रचनाओ करी हशे ते तेमणे रचेल कमलविजयरास, समता सज्झाय (जुओ अनुसन्धान - २४) व. परथी जणाई आवे छ ।
तेमनी प्रतिभा तथा विद्वत्ताथी अंजायेला वाचक गुणविजयजी तेमनी प्रशस्ति करतां कहे छे :
"ते सुकवि हेमविजय, वाग्लालित्य हेमसूरि जेवू हतुं, अने तेमने देव-गुरुने विशे अत्यन्त भक्ति हती । वळी, तेमनी कवितारूपी कान्ता कोने आश्चर्य पमाडती नथी- के जेणे रज विना पण यशरूपी पुत्रने जन्म आप्यो ?"
___ कृतिपरिचय : प्रस्तुत कृतिमां कर्ताए तेना नामने अनुरूप ज श्री ऋषभदेव भगवाननी स्तुति करी छे । आ कृति श्रीजम्बूनाग मुनि विरचित जिनशतक (प्रायः सं. १०२५)नी अनुकृति स्वरूप छे । जिनशतकमां स्रग्धरा छन्दमां सो (१००) पद्यो छे, जेमां २५-२५ श्लोकोना चार परिच्छेदो छ । प्रत्येकमां अनुक्रमे जिनेश्वर भगवंतना चरण-हस्त-वदन तथा वाणी, विविध अलंकारोथी अलंकृत वर्णन जम्बू मुनि ए कर्यु छे । (जुओ काव्यमाला, गुच्छ-७)
आ जिनशतकने सामे राखीने ज जाणे हेमविजयजीए शार्दूलविक्रीडित छन्दमां सो श्लोको रच्या छे । अहीं पण २५-२५ श्लोकोना चार परिच्छेद छ । परंतु तेमणे तद्दन जुदा विषयो लईने ते परिच्छेदो रच्या छे । ते छे अनुक्रमे १. जुओ विजयप्रशस्ति महाकाव्यनी टीकामां करेली प्रशस्ति ।
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१. भगवाननुं लांछन वृषभ,
२. भगवाननी बे पत्नीओ - सुनन्दा तथा सुमंगला,
३. भगवाने दीक्षा वखते लोच करती वेळा इन्द्रनी विनंतिथी राखेली केशजटा,
तथा
४. भगवानना वार्षिक तपनुं श्रेयांस द्वारा इक्षुरस वडे थएल पारणुं ।
आ चारेय विषयो तेमणे भगवानना जीवनक्रमानुसार ज गोठव्या छे । जेमके, भगवान जन्म्या त्यारथी ज तेमना शरीर पर वृषभनुं लांछन हतुं, त्यार बाद यौवनवयमां सुनन्दा - सुमंगला साथे तेमनो विवाह थयो, पछी दीक्षा लेती वखते लोच करतां रहेवा दीधेल केशनी जटा, अने पछी एक वर्षना निर्जळा तप बाद श्रेयांसकुमारे इक्षुरसथी करावेलुं पारणं ।
परमात कवि धनपाले ऋषभपंचाशिका तथा 'ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि'- ए ध्रुव पदवाळी ऋषभस्तवना ( अनुसन्धान-२४) मां ऋषभदेव प्रभुनी अत्यन्त माधुर्य अने प्रसन्नता भरेली तथा अनेक नवी उपमाओ अने कल्पनाओथी छलकाती भावभीनी स्तवना करी छे । ज्यारे अहीं तो कवि मात्र चार ज विषयोने लक्ष्यमा राखी विविध कल्पनाओ तथा अलंकारोथी परिपूर्ण स्तवना करी रह्या छे जे वांचतां ज हृदय तरबतर थई जाय छे ।
प्रत्येक विषयनां उदाहरण जोईए ।
१. ( प्रथम परिच्छेद पद्य ५) वृषभलांछनवर्णन
(१) बुद्धिमान पुरुषोना हृदयरूपी गोचरमां चरती, उल्लसित चरण तथा उत्तम रसयुक्त, भगवाननी गौ-वाणीए ज मने अत्यन्त पुष्ट कर्यो छे; माटे ते भगवाननी सेवा करवाथी ज हुं कृतज्ञोमां अग्रणी गणाईश, एवं विचारीने वृषभे लांछनना मिषे जेमनो आश्रय लीधो ते जिनने अमे स्तवीए छीए ।
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(२) (पद्य २०) आ भगवाने पोतानी गतिथी हंस - ऋषभ तथा गजने जीतो लोधा । तेथी हारेला त्रणमाथी प्रथम - हंस देवलोकमां चाल्यो गयो, अने अन्तिम - गज वनभूमिमां जतो रह्यो; ज्यारे वचला वृषभे- महापुरुषोनो कोप प्रणाम करीए ( नहि) त्यां सुधी ज रहे छे - एवं विचारी लांछनाना व्याजे जेमनां चरणोनो आश्रय कर्यो ते जिनपति तमारी सम्पत्तिने पुष्ट करो ।
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अनुसंधान-२९ २. (द्वितीय परिच्छेद - पद्य-११) कन्याद्वयविवाहवर्णन
(१) अश्विनीकुमारोए भगवाननी त्रिभुवनथी पण चढियाता गुणवाळी गाढ रूपश्रीथी पराभव पामीने उपदा (भेटणां) रूपे पोतानी बे बहेनो (भगवानने) भेट धरी । (त्यारे) जेमणे बन्नेना प्रतीक स्वरूप, अनन्यसदृश बे कन्याओगें पाणिग्रहण कर्यु तेवा, अनेक नरेन्द्रोथी वन्दित जिनने अमे वंदीए छीए ।
(२) (पद्य-१५) पशुपतिने गंगा अने गौरी एम बे प्रियाओ छे, (ते ज रीते) सूर्यने छाया अने छवि (प्रभा), विष्णुने श्री तथा गोयी अने कामदेवने रति तथा प्रीति(एम बब्बे पत्नीओ छे); आ रीते बधा देवोनो बे (पत्नी)नो मत, तेओमां (देवोमां) वर्तता मारे माटे पण योग्य छे एम विचारी जेमणे बे स्त्रीओ साथे लग्न कर्यां, ते प्रभु लक्ष्मी माटे थाओ । ३. (तृतीय परिच्छेद-पद्य ४) जटावर्णन
(१) हे महाव्रतिन् ! तुं मारा भाई (यम)नो निर्दयतापूर्वक नाश करवा माटे उत्सुक न था- एवी विज्ञप्ति करवानी इच्छावाळी कालिन्दी (यमुना) ज जाणे भगवानना कर्ण पासे न आवी होय । तेवी जेमना कर्णमूलमां लटकती केशराजी शोभी रही ते भगवान तमने चिरकाळ सुधी श्री माटे थाओ।
(२) (पद्य १२) हृदयरूपी कुण्डमां रहेलां शीतलकिरणोथी धवल ध्यानामृतने रक्षवानी इच्छाथी जाणे ब्रह्माए श्यामल सर्प (रक्षक तरीके) मूक्यो होय एवा, जेमनी भुजा पर विलसता अतसीना पुष्पतुल्य केशसमूहे सौभाग्यने धारण कर्यु ते भगवान सत्पुरुषोनी आबादी मारे थाओ । ४. (चतुर्थ परिच्छेद - पद्य ५) इक्षुरसपारणवर्णन
(१) आ भगवान राजाओमां प्रथम, व्रतधारीओमा प्रथम, तेमज अरिहंतोमा प्रथम छे, (तेमना) उग्र तपनुं आ पहेलुं पारणुं छे; अने सर्वरसोमां इक्षुरस ज प्रथम (श्रेष्ठ) रस छे. तो भगवानने तेनाथी ज शुभ भोजन थशेएवी बुद्धिथी श्रेयांसे धरेलो इक्षुरस जेमणे पीधो ते जिनने अमे स्तवीए छोए।
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(२) (पद्य २१) जेनी वृद्धि विषमां छे, जेनी जन्मस्थिति विषनी साथे छे, जेनी सत्ता विषगृहमां छे, जे विषधरोथी वीटळायेलुं छे अने जे वळी नामथी अमृत (तरीके) थयु (कहेवायु) तेवा स्वर्गना भोजनरूप (अमृत)थी आ यतिने शुं ? एवं विचारीने श्रेयांसे रसथी आपेलो इक्षुरस जेमणे धारण कर्यो (स्वीकार्यो) ते तमारा कल्याण माटे हो ।
आवी अनेक कल्पनाओ तथा उत्प्रेक्षाओ कविए आ शतकमां भरी दीधी छे जेनो रसास्वाद तो वांचवाथी ज माणी शकाशे ।
रचनास्थळ-संवत् आ कृतिनी रचना सं. १६५६मा स्तम्भतीर्थ (खंभात)मां थई छे, अने तेनुं संशोधन पं. श्रीलाभविजयगणिए करेलुं छे ।
प्रतिपरिचय : आ. श्री योगतिलकसूरिजी द्वारा प्राप्त थयेल, राधनपुरना सागरगच्छ जैन पेढीना भंडारनी डा.६/६३ क्रमांकनी हस्तप्रतनी झेरोक्ष नकल परथी आ कृतिनुं सम्पादन करवामां आव्युं छे । प्रतिनुं लेखन अकबरपुर (खंभात)मां थयेलुं छे । आ प्रति मूळ प्रतिनो प्रथमादर्श होय तेवू प्रान्ते लखेल पुष्पिकाथी जणाय छे । अने जो ते साचुं होय तो आश्चर्य ए वातनुं छे के आ प्रतिना लेखनमां थोडी अशुद्धिओ तो रहीज छे, साथे केटलांक अक्षरो / पदो । पंक्तिओ पण छूटी गयां छे ! ते सिवाय पण झेरोक्षमां केटलेक स्थळे अक्षरोनी छाप बराबर न उठी होवाथी ते उकेलवामां मुश्केली थई छे । ते छतां केटलांक स्थानो / अशुद्धिओ पू.गुरुभगवंतनी सहायथी उकेल्यां छे, परंतु थोडां स्थानो अणउकल्यां रही गया छे, ते सुज्ञ वाचकोने उकले तो जणाववा विनंति ।
प्रतिना अक्षर सुन्दर छे, प्रत्येक पृष्ठमां प्रायः १३ पंक्ति छे अने छेल्ला (८/२) पृष्ठमां १२ पंक्तिओ छ । कृतिनुं ग्रन्थाग्र २५० श्लोक प्रमाण छ ।
ऋषभशतकम् ॥६०॥ ४ नम: सिद्धम् ।।
स्वस्ति श्रीमति यत्र मित्रमहसि प्राप्ते दृशोरध्वनि, स्निग्धाब्जैररिकैरवैश्च युगपल्लेभे प्रमोदोद्गमः ।
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तं विश्वत्रयचित्तचातकचयप्रह्लादने तोयदं श्रीमन्नाभिनराधिराजतनयं कुर्मो मनोवर्त्मनि ॥१॥
पात्रं पुष्टिपटुः पथः पथयिता प्राधान्यहेतुः प्रभुविश्वेऽस्मिन्नयमेव देवतिलको जज्ञे ममाऽहर्निशम् । यं भेजेऽङ्कमिषाद् वृषः शुभगतिर्मत्वेति सल्लक्षणं ध्यायामस्तमशेषदोषविमुखं नित्यं जिनाधीश्वरम् ||२|| पावित्र्येण कटिश्रिया विभुतया वर्यार्जवेणो (णा ) ऽपि यज्जिग्येऽहं विभुनाऽमुनाऽतिबलिना मत्वेति चिह्नच्छलात् । यं गौगौरव (गौर्गौरव) वानन्यगतिकः शिश्राय विश्वाधिपं दध्मः पद्ममिवाऽलिनः प्रणयिनस्तं तीर्थनाथं हृदि ॥३॥ अस्मिन् गर्भमुपेयुषि प्रथमतो दृष्टोऽहमस्याऽम्बया लक्ष्मीमेष मयैव विश्वविदितां धत्ते व (च) धन्योद्धुरः । अङ्केऽप्येष बिभत्ति शस्तकमले मामेव देवोत्तमः सेवा मेऽस्य घटेत यं वृष इति ध्यात्वाऽऽश्रितस्तं स्तुवे ||४||
कुर्वत्या चरणं लसच्चरणया हृद्गोचरे धीमतां
निन्ये पुष्टिमहं महस्विरसया गाढं गवास्यप्रभोः ।
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तेनाऽमुष्य निषेवणादहमदो भावी कृतज्ञाग्रणी - र्ध्यात्वेत्थं भजति स्म लाञ्छनमिषाद् यं गौः स्तुमस्तं जिनम् ॥५॥॥
शश्वत्संश्रितसर्वमङ्गलमभूद् गात्रं च शक्ति शुभा
मन्युध्वंसविधायिनीय नितमां भालं दलाब्जाद्भुतम् । ऐश्वर्यं गुरु यस्य विश्वविदितं तस्यैव पादाब्जयोः स्थाने मत्स्थितिरित्यकाममभजद् यं गौः स वः श्रेयसे ||६||
अस्मादस्मयचित्तवृत्तिसुभगात् सञ्जानया यदवा यच्छन्त्या रसमुज्ज्वलं प्रजनितः प्रौढप्रभावानहम् । किं तत् सूत्रितसर्वसम्मदमहं मुञ्चामि मातामहं यस्याऽङ्कं न जहौ वृषः सुखसखं मत्वेति सोऽस्तु श्रिये ॥७॥
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ग्रामान्तवि(नि)वसन्तमत्र मनुजास्तन्वन्ति सांवाहिनं त्र(त्रा)सं यच्छति सिंहिकातनुरुहो नान्ते वनान्तेऽपि मे । त्रासाद् मद्गतिरेष एव भगवान् भर्ताऽयमाद्यश्च मे मत्वेत्यङ्कमिषाद् यमीशमभजद् गौौरवायाऽस्तु सः ॥८॥ ध्वस्ता मत्पतयः समेऽपि तरसाऽमुष्य प्रतापव्रजैः सर्वे मत्पतयो नमन्त्यमुमयं मत्स्वामिनां वाऽग्रणीः । विश्वेऽस्मिन् मम विश्वसंस्तुतमतेस्तद्दास्यमस्योचितं गौर्यत्पादयुगं श्रितोऽङ्कमिषतो मत्वेति वः पातु सः ॥९॥ स्वः शास्तीव धनं घनं तनुभृतामेनं घनच्छायया संछनः पटुपल्लवैः परिवृतो दास्यत्यसावादितः । एवं ज्ञापयितुं किमम्बुजभुवाऽमुष्यैकचिह्नच्छलादङ्केऽकारि वृषः श्रियं स तनुतां देवः सतां ज्ञानभूः ॥१०॥ स्त्री-स्तम्बेरम-कानन-द्रुम-नदी-भोज्याधिपा अप्सरःशुभ्रानेकप-नन्द[न] तुमहिरुड्-गङ्गा-सुधा-शक्रताम् । प्रापुर्यस्य पुरः स्थितास्त्रिजगतीनाथस्य तत् सोऽङ्कगोऽमुष्यैवाऽर्हति गां न्यधाद् विधिरतो यत्पादयोः स श्रिये ॥११॥ हन्यादूर्जितमार्यवृत्तविमुखं नेतैतदङ्कः स्मरं । वैराग्याम्बुजपुञ्जभञ्जनकरी(रो) घात्योऽस्त्यथी(थो) मेऽपि सः । मत्वैवं भगवान् वृषं वरगतिर्योऽङ्के दधावात्मनस्तं संसारविकारवारिजविधुं वन्दामहे श्रीजिनम् ॥१२॥ आबाल्यादपि गोरसैः प्रियरसैः सन्तुष्टचित्तस्य मे । स्थातुं हीमुचि नोचितं च्युतधियां वृन्दे पशूनां ध्रुवम् । चक्रे यत्पदयोरुपास्तिमृषभो मत्वैवमङ्कच्छलात् तं छायासुभगं महीरुहमिवाऽध्वन्यः श्रये श्रीजिनम् ॥१३॥ प्रोच्चैश्चित्तचमत्करी म[म] गतिः सम्पत्तिहेतुर्गुणां बाल्यादप्यमुना बलेन सहजस्याऽप्याददे स्वामिना ।
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स्थानं निर्गतिकस्य मेऽयमुचितो विश्वत्रयीनायकस्तस्थौ यत्क्रमयोर्वृषोऽङ्कमिषतो ध्यात्वेति वः सोऽवतात् ||१४||
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गौरस्यैव ममोपभोगसुभगा पुष्णात्यसावेव मां भूयोभिश्चरणैः स्थिती रसवरे हगोचरस्यैव मे । ध्यात्वैवं गतपङ्कमङ्कमभजन्त्रित्यं यदीयं वृषः पाथोराशिरिवैष रातु भवभीमुक्तः श्रियं मौक्तिकीम् ॥१५॥
यो(या) जाड्याम्बुजभञ्जने द्विपवधूगरस्य विश्वेशितुः सैवैनं जननीव शावमनिशं पुष्णाति पुण्याकृति: । तेनाऽत्रैव वृषोऽयमु [ च्च] सुगतिश्चिह्नच्छलादच्छलं यत्पादौ सृजतेति वारिजभुवा ध्यातं स्तुमस्तं जिनम् ॥ १६ ॥ विष्णोर्नीरधिनन्दनी कुमुदिनी नित्यं तुषारत्विषः पौलोमी च बिडौजसः कमलिनी भूच्छायविध्वंसिनः । युक्तोमाऽपि तथा प्रिया वृषधरस्यैवेति तद्वल्लभं यं चक्रे वृषलाञ्छनं जलजभूर्नाथः स वोऽस्तु श्रिये ॥१७॥ लोकेऽहं शिशुनाऽमुना प्रकटितो यूनाऽप्यहं पालितो वृद्धि वार्धकधारिणाऽतिशयतः संप्रापितः सर्वदा । तेन स्यामनृणोऽहमस्य चरणोपास्त्येति जानन् वृषो यत्पादाम्बुजयुग्ममङ्कमिषतो भेजे भजे तं जिनम् ॥१८॥ गोपालस्य गवां द्रुतं दशशती यत्तुण्डकुण्डोद्भवं रम्यं गोरसमत्ति दृग्जमहसांमित्रं पिबत्यन्वहम् । तेनैतत्पदयोर्मम स्थितवतो भावी स्वकैः सङ्गमो मत्वा गौरिति यत्क्रमेऽङ्कमिषतस्तस्थौ तमीशं स्तुमः ||१९|| [ गत्या ] येन जिता गतिप्रतिभटा हंसर्षभानेकपास्तन्मध्यात् प्रथमोऽगमत् सुरगृहं वन्यावन चाऽन्तिमः । कोपः स्यान्महतां प्रणत्यवधिको मत्वेति मध्योऽश्रयद् यत्पादौ ध्वजदम्भतः स जिनपः पुष्णातु वः सम्पदम् ||२०||
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श्लाघाहेतुमुषापतेर्ध्वजमुमाभर्तुश्च लात्वा बलादेणं चाक्ष(क्षि)णि लाञ्छने च वृषभं बिभ्रद् भृशं हारिणि । स्वस्वाङ्के स्पृहया कलानिधिमहाव्रत्याश्रितो यो बभौ तद्वाग् देवगवा[क्ष]चारुचरणा दिश्यात् सतां गोरसम् ॥२१॥ यः स्वामी वृषवानपि प्रतिदिनं नोच्चैः सुरासक्तिमान् नो मातङ्गसखो बभूव भुवने नाऽपि द्वि[जि] ह्वाश्रयः । इत्याकारसतत्त्वजोऽजनि महान् भेदः सतां निन्दितो यस्मिन् सत्यपि चित्रहेतुमहिमा सार्वः स वः श्रेयसे ॥२२॥ आसंसारमिदं स्वयं विदधतः पाथोजयोनेजगज्जातः सच्चरणोऽयमेव भगवान् श्रीनाभिराजाङ्गजः । तन्मां पोषयितैष एव मतिमान् मत्वेति यत्पादयोश्चक्रे चिह्नमिषाद् वृषः सुखमनाः सेवां स दिश्याच्छ्रियम् ॥२३॥ भीनेनेव पयोधिजातनुरुहो दम्भोलिनेवाऽद्रिभिद् दैत्यारातिरिव द्विजिह्वरिपुणा केकावतेवाऽग्निभूः । यः शोभां बिभरांबरांबभूव (बिभराम्बभूव) भगवाञ् शश्वद् वृषेणाऽद्भुतां देयाच्छम सतां स देवतिलकस्तोयं तडित्वानिव ॥२४॥ शश्वद् यस्य मुखे वृषस्थितिरभूत् पार्वं वृषोपासितं श्रेयःश्रीशरणं च चारुचरणद्वन्द्वं वृषेणाऽद्भुतम् । इत्थं यस्त्रिजगतीपतिवृषमयो रेजे गुणानां निधिः म्न(तं) चेतस्यनघं वहेम विजयश्रीहद्यमाद्यं जिनम् ॥२५॥ श्रीऋषभशतकसरसी-विविधालङ्कारकमलपरिकलिता । श्रीलाभविजयपण्डितमतिशरदा निर्मला जयति ॥२६॥
॥ इति पण्डितश्रीकमलविजयगणिशिष्यभुजिष्य-पं. हेमविजयविचारचिते (विरचिते) श्रीऋषभजिनशतके ऋषभलाञ्छनवर्णनो नाम प्रथमः स्तवः सम्पूर्णः छ।।शाछ।
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स्वस्ति श्रीव्रजराजिनिर्जरवधूवृन्दैरमन्दादरैरुद्री गतिरान्तरा भवतु मे श्रीनाभिराजात्मजे । सङ्गं स्वर्गि (र्ग) तरङ्गिणीयमुनयोर्नाथो यथा पाथसां यः पाणिग्रहणं विरचयत् रेजे द्वयोः कन्ययोः ॥ | १ ||
एकस्मिन् ह्युभयोस्तु वस्तुनि मनोरोधे विरोधे स्थितिः स्यादेवाऽज्ञ्जनजालशालि वहतोः श्यामत्वमन्तर्मिथः । मा भूकमृगीदृगीक्षणसुखान्मन्नेत्रयोस्तत्कलिः द्वे ऊढे युगपज्जिनेन युवती येनेति वः पातु सः ||२||
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विश्वं विश्वसृजः सुखेन सृजतो विश्वत्रयं यो नृणां रत्नं चाऽत्र सुमङ्गला बलिगृहस्त्रीणां सुनन्दा पुनः । स्वःस्त्रीणां तदधीशदत्तमिव यस्तत् पर्यणैषीत् तयोर्द्वन्द्वं सन्निभमात्मनः स भगवान् भूयाद् विभूत्यै सताम् ||३||
आवाभ्यां मुमुचे रि (चिरन्तनतरक्रोधाविरो (?) मिथः स्वामिंस्त्वामधिगम्य सिद्धिसदनं शान्तं रिपुभ्यामपि । तन्नौ स्वीकुरु यो रमां गिरमपि स्त्रीयुग्मदम्भात् प्रभुः (भु)स्ते द्वे ज... इवोदुवाह भगवान् श्रेयः श्रिये सोऽस्तु वः ||४||
याम्योदक्ककुभोर्गतिं कृतवता ये अर्जिते ऊर्जिते सम्पत्ती रविणो (णा ) ऽतितीव्रमहसं यस्य प्रतापप्रथाम् । बाढं सोढुमशक्तिना जलजदृग्युग्मच्छलाद् ढौकिते ऊढे प्रौढपराक्रमेण विभुना ते येन सोऽस्तु श्रिये ॥५॥
सत्पक्षः कमलाकरप्रणयिधीः शश्वद् विधिप्रीतिभूः श्रीमन्मानसवाससङ्गतिरतो यद् राजहंसोऽभवम् । स्याद् द्वाभ्यां रहितस्य मे न तु कथं तत्पक्षि (क्ष) तिभ्यां गति-र्येन स्त्रीद्वयदम्भतो भगवता ते स्वीकृते सश्रिये ॥ ६ ॥
छायाकान्तिपतिः पितेव यमुनाभ्रातुर्निशाकौमुदी - युक्तश्चन्द्र इवाऽतिसुन्दररसाधीशप्रमोदप्रदः ।
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स्मेराक्षीयुगलेन मञ्जुलमभात् पाणौ गृहीतेन यस्तं निःशेषविशेषविद्वरगवीगेयं स्तुवेऽहं जिनम् ॥७॥ सर्वज्ञं नरकच्छिदं च हृदये विज्ञाय वामाद्वयव्याजाद् विश्वविलोचनालिनलिनी ह्लादैकहेलिच्छवी । सोल्लासं श्रयतः स्म शैलतनया पाथोधिपुत्री च यं पुण्यः पुण्यपथप्रकाशनपटुर्भूयात् स वः प्रीतये ॥८॥ ऐश्वर्यं वृषभध्वजत्वमननघं(मनघं) यस्मिन्नवेक्ष्य प्रभौ नष्टे स्वामिनि चित्तजन्मनि रति-प्रीती तदेणीक्षणे । नित्यं निर्गतिके इव प्रणयिनं यं चक्रतुः स्त्रीद्वयव्याजाद् विश्ववनप्रसूनसमयः पुष्णातु पुण्यं स वः ॥९॥ स्नेहाढ्ये सुदृशे अनश्वरमहे सत्पात्रिके दीपिके जाते ये सुदृशौ विधेर्विदधतो विश्वातिते(गे) एव यः । गृह्णाति स्म करेण दर्शनधिया सत्कर्मधर्माध्वनोः श्रीमन्तः प्रथयन्तु पुण्यपटव: पादास्तदीया: शिवम् ॥१०॥ दत्राभ्यां भुवनातिशायिगुणया रूपश्रिया सान्द्रया ध्वस्ताभ्यामुपढौकिते उपदया [तत्] स्वस्वसाराविव । यो जग्राह करेण तत्प्रतिनिधी कन्ये उभे निर्निभे नम्रानेकनरेन्द्रवन्दितपदं वन्दामहे तं जिनम् ॥११॥ ऊर्ध्वाधःककुभोः प्रतापपटलैराक्रान्तयोर्भीततद्भर्तृभ्यामुपढौकिते इव निज(जा)स्थानश्रियां मण्डने । के लि?]प्राभृतके प्रभुः प्रणयवान् पाणौगृहीते उभे यश्चक्रे सुचिरं चिनोतु रुचिरां चारित्रचर्यां स वः ॥१२॥ आद्यस्तीर्थकृतां तथा क्षितिभृतां भावी समेषामयं विश्वेऽस्मिन्निति तच्छ्यिोः प्रतिभुवौ मत्वेव कन्ये उभे । यः पूज्यैः परिणायितः किल रति-प्रीती इव श्रीसुतः श्रीमान्नाभिसुतः प्रयच्छतु स व: पद्मामुदन्वानिव ॥१३॥
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स्यात् पित्रोर्युगपत् पवित्रपदयोर्नेपुण्यपुण्यात्मनोः कर्तुं भक्तिमलं विलम्बरहितां नैका स्रुषा जातुचित् । ध्यात्वैवं परिणीतवान् विनयवांस्तत्कर्ममर्मक्षमे यो द्वे पद्मविलोचने अवतु वस्तापादिवेन्दुर्भवात् ॥१४॥
अनुसंधान - २९
द्वे गङ्गागिरिजे प्रिये पशुपतेश्छायाछवी भास्वतः श्रीगोप्यौ च तमोरिपोरपि रति- प्रीती च चेतोभुवः यो द्वैवं ( धं? ) मरुतां मतः समुचितस्तद्वर्तिनः मेऽपि स ध्यात्वैवं परिणीतवान् प्रभुरुभे यः मुत्तुवो (सुभ्रुवौ ) स श्रये ||१५||
एकमेव हि युग्मजातमनुजास्तन्वन्ति तन्वीं ध्रुवं पूर्वेषां प्रथमः क्रमः क्रमजुषोऽप्येष ध्रुवं मूलत: । उच्छेद्योऽस्ति ममेति योऽत्र तदभिज्ञानाय सद्ज्ञानवान् कान्ते द्वे परिणीतवान् स कुरुतां कैवल्यकेली (लिं) सताम् ॥१६॥ नाऽऽप्ताः पङ्क्तिविभेदिनः स्युरिति यो भोगार्थमभ्यर्थितः स्वः स्त्रीभिर्वसुधाभृतां युवतिभिश्चाऽनेकशो वाग्भरैः । कामोर्वीरुहवारिवाहसदृशो द्वे सुध्रुवी वू ( व्यू) ढवांस्तासां तुष्टिकृते पृथक् पृथगसौ स्वामी श्रिये वः सदा ||१७||
लोकेशत्वगभीरताजितसरोजन्मासनाम्भोनिधि
क्ष्मापाभ्यां स्वसुते उपायनकृते साक्षादिव प्रेषिते । यो दोर्दण्डमखण्डचण्डमहसं बिभ्रद् भ[ ] भासुरः कन्ये द्वे परिणीतवान् प्रथयतु श्रेयांसि भूयांसि सः ॥ १८ ॥
आसीदग्निवृषो धृतामृतरुचिः साक्षादसावीश्वर
स्तेनोमा च सरस्वती च मरुतामस्यैव युक्ते प्रिये । सञ्चिन्त्येति विरचिनोभयवधूव्याजात् तयोर्दत्तयोः पाणि पीडयति स्म योऽस्तु पुरुषापीडः स पीडापहः ॥१९॥
एकां क्ष्मां रमणीमनन्यगतिकामन्यां च सिन्धोः सुतां दत्ते नाभिनराधिपेन गुरुणा बाल्येऽपि भुञ्जन् प्रभुः ।
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स्पर्धामाश्रितया सहात्मपतिना यः पर्यणैषीत् स्त्रियौ द्वे मात्राऽपि समर्पिते इव युवा वः पातु सोऽर्हद्गुरुः ॥२०॥ यं चेन्दं च विचिन्त्य चेतसि चिरं जैवातृकत्वात् समौ ब्राह्मयौ तत्कृतये विधिर्विहितवान् कन्ये उभे सन्निभे । एकं वीक्ष्य वलक्ष[पक्ष] युगलं शुक्लैकपक्षं परं तद्दत्तामुदुवाह यस्तदुभयीमप्येककः स श्रिये ॥२१॥ सूर्यं वीक्ष्य रजस्वलामपि सदा भुञ्जानमम्भोजिनींनित्यैकाम्बरचारिणं च दयितं दुःखै शं व्याकुलाम् । छायां गां च समागतामिनतया ख्यातस्त्रिलोकीपतिः स्त्रीरूपां परिणीतवान् सपदि यस्तं संमुगः(संस्तुमः) स्वामिनम् ॥२२।। मत्वा मामृषसं(भं) मदर्थमकरोद् गां स्पष्टमष्टश्रवा मां चेन्द्रं जयवाहिनीं जयकरीमेते च मामाश्रिते । नो लोकेशनिदेशलोप उचितश्चित्ते विचिन्त्येति यश्चक्रे द्रागुभयोस्तयोरुपयमं स्त्रीरूपयोः सोऽवतात् ॥२३॥ अस्त्यव्यस्तधनो महाव्रतिसुहृद् भर्तेष मद्देवरो मत्सख्योरमुना समं परिणये स्यात् तद्वियोगो न मे । मत्वैवं शिवया वशाद्वयमिषाद् द्वे एव ते ढौकिते य: स्वामी परिणीतवान् शिवसखः श्रेयःश्रिये सोऽस्तु वः ॥२४॥ नेता य: कलयाम्बभूव कमलां लोलेक्षणाभ्यां रतिप्रीतिभ्यामिव मन्मथो हरिकुलोल्लासी कलावत्सुहृत् । स श्रीनाभिनरेशवंशसरसोजन्माब्जिनीवल्लभः कान्त्या तप्तनवीनहेमविजयः पुष्णातु वः सम्पदम् ॥२५॥ श्रीऋषभशतकसरसी विविधालङ्कारकमलपरिकलिता । श्रीलाभविजयपण्डितमतिशरदा निर्मला जयति ॥२६॥
॥ इति पण्डितश्रीकमलविजयशिष्यभुजिष्य-पं. हेमविजयगणिविरचिते श्रीऋषभशतके कन्याद्वयविवाहवर्णनो नाम द्वितीयः स्तवः सम्पूर्णः ॥
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अनुसंधान-२९
कल्याणधुति यस्य बाहु-शिरसि श्यामा सहस्रत्विषः कोडे स्थास्नुकलिन्दसूरिव दधौ शोभा लुठन्ती जटा । तं श्रेयोवनवारिवाहसदृशं विद्यानवद्यैर्यतिव्रातैर्वन्दितपादपद्ममनघं नाभेयदेवं स्तुमः ॥१॥ कि लोकत्रयचित्तवृत्तिमथनप्रह्वस्य चेतोभुवक्ष्माराजस्य भुजालतामसिरसावुच्छेत्तुमुद्यत्त (द्युक्तवान् ?) । रोलम्बच्छविरंसदेशपतितो यत्केशपाशो बभौ देवं दर्पकदर्पसर्पविनताजन्मानमीहामहे ॥२॥ स्फूर्जच्छक्तिमताऽतिधन्यधवलध्यानैकसप्ताचिषा निर्दग्धोल्बणकर्ममर्मसमिधां धूमस्य किं धोरणिः । प्राप्तो यद्भुजमूर्ध्नि मूर्धजभरो रोलम्बनीलो लसत्प्रीति वस्तुनुतां स संसृतिसरिन्नाथैककुम्भोद्भवः ॥३।। मा ध्वंसाय महाव्रतिस्त्वमदयं मद्भातुरौत्सुक्यवान् भूयाः कर्तुमनाः कलिन्ददुहिता विज्ञप्तिमेनामिव । कर्णाभ्यर्णमुपेयुषी श्रवणयोर्मूले लुठन्ती बभौ राजी यस्य शिरोरुहां स भगवानस्तु श्रिये वश्चिरम् ॥४॥ देवेन्द्रैः कुमुदेन्दुसुन्दरतरैः सञ्चालितैश्चामरैः श्लिष्टा यच्छ्रुतिपार्श्वयोरधिगता जात्याञ्जनाभा जटाः । दैवात् सम्मिलितैर्जलैर्दिविषदां नद्या मिथः सङ्गताः कल्लोला इव यामुनाः शुशुभिरे सोऽहंञ् शिवायाऽस्तु वः ॥५॥ स्पर्धी सार्धमहं त्वदङ्गमुखजैः कर्ताऽस्मि नो सौरभैः स्तेनाऽकीर्तिकरी कुरङ्गजठरावस्थानजां वेदनाम् । स्वामिन् ! भिन्ध्यभिधातुमित्युपगता कस्तूरिकेव स्वयं यं स्कन्धशिरोजराजिमिषतस्तं तीर्थनाथं स्तुमः ॥६॥ भुक्तायाश्चिरमृद्धराज्यकमलालोलेक्षणाया व्रतादानस्याऽवसरे सरागविनयादालिङ्ग्य यान्त्या इयम् ।
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लेखा कज्जलपेशलाक्षिपयसां किं स्कन्धयोः सङ्गता श्रेणी यस्य शिरोरुहां श्रियमधात् पायादपायात् स वः ।।७।। हा ! नैकाऽपि मया महोदयशिला पूर्णीकृतौजस्विना सप्तानामपि मध्यतश्च नरको नैकोऽपि रिक्तीकृतः । व्यज्ञायि स्वमकीर्तियुग्ममनिशं येनेति भाऽलकाः स्वस्कन्धोपरिगा द्विधा शितितमास्तं दध्महे हृद्गहे ॥८॥ घ्राणानन्धरविन्दकुन्दकुमुदीमोदश्रियां जित्वरं घ्रातुं सौरभमास्यसम्भवमसौ कि स्मैत्यलीनां ततिः । कालिन्दीसलिलोमिवर्मितशरव्योमोपमो निःसमो यस्याउंसे शुशुभे लुठञ् शिरसिजस्तोमः स्तुमस्तं जिनम् ॥९॥ द्वे मोक्षस्य ..... पद्धतिधुरे सार्धं द्वयोः स्कन्धयोर्यस्योव्यौं वहतस्तदेक पिशुने चिह्न इवोद्धर्षजे । दोर्मूोः पतितौ पृथग् जलधरश्यामौ श्रियं बिभ्रतुश्वारू यच्चिकुरोच्चयौ चयमयं प्रीणातु पुण्यात्मनाम् ॥१०॥ भर्ता भोगभृतां त्वमेव बलवांश्चाऽचाऽमी वयं भोगिनस्तेनाऽस्मत्कलकालतो गरुडतो नः पाहि दासानिति । कि विज्ञसुमितास्त एव फलिनीनीलोत्पलश्यामला लग्ना यच्छुतिमूलयोः शुशुभिरे केशाः स ईश: श्रिये ॥११॥ हत्कुण्डस्थमनुष्णधामधवलं ध्यानामृतं रक्षितुं देवेनाऽम्बुजजन्मना विनिहित: किं श्यामल: कुण्डली । यद्दोर्मूर्धनि मूर्धजव्रज उमापुष्पोपमः प्रोल्लसन् सौभाग्यं बिभराम्बभूव भगवान् भूत्यै सतामस्तु सः ॥१२।। माऽस्मिन् दुष्टदृशां दृशामसदृशां दोषः मुखध्वंसकृद् भूयाद्विश्वमनोरमे भगवतः काये निकाये श्रियाम् ।.. मत्वेत्यब्जभुवाऽऽञ्जनी जनितमुद्रेखा कृता किं स्वयं यस्याउंसे पतिताऽलकालिरभसात् सोऽर्हन् श्रियं रातु वः ॥१३॥
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न्यस्ता संयमबालयाऽलिफलिनीसंकाशवासोङ्गिका सद्यस्काञ्जनरत्नकङ्कणभृता भावाद् भुजेवाऽऽत्मनः । यस्याऽऽनन्दवतः शिरोरुहततिः स्कन्धे लुठन्ती बभौ श्रेयस्वी भगवाञ् श्रिये श्रितवतां ज्ञानार्णवः सोऽस्तु वः ||१४|| भिन्नोर्मिप्रसरा स्वसाऽपि नृपतेर्दत्तप्रमोदा सुधी[ : ] हंसानां सहसेयमुत्तरति किं शृङ्गाद् गिरेः स्वःसदाम् । दृष्ट्वा यस्य सुवर्णवर्णवपुषः स्कन्धे लुठन्तीं जटां श्यामां चित्त इति व्यचिन्ति चतुरैः पायात् स वस्तीर्थराट् ॥१५॥
अनुसंधान - २९
पद्माह्लादलसद्गुणोत्करकला कूलङ्कषाकूलयोः
किं याता अभिराममुद्गममी सर्वेऽपि दूर्वाङ्कुराः । रेजुर्यस्य पृथक् पृथक् स्थितिसृजः केशाः प्रभोरंसयोस्तं प्रावीण्यपटुप्रसिद्धिकमलागेहं स्तुवेऽहं जिनम् ॥१६॥ उता अंसशरावयोः सुभगयोः किं मुक्तिसीमन्तिनीवीवाहाय शिवावदानवयवाङ्कराः प्रवृद्धिस्पृश: । केशास्तालतमाल [जाल) सदृशो यत्स्कन्धयो रेजिरे तं वन्दे विनयावनम्रशिरसि न्यस्ताग्रहस्तः (तं) प्रभुम् ॥१७॥
ईशेऽस्मिल्लपनच्छलाच्छ्रितवति श्वेतद्युतौ साम्प्रतं
स्थातुं वैरिणि नैव मे भुजशिरोनिश्रेणितो नश्यतः । अङ्कस्येत्यसिता इवाऽहियुगलन्यासोद्भवा पद्धतिर्यत्स्कन्धे पतिता स्म भाति चिकुरश्रेणिः स वः श्रेयसे ||१८||
देव ! त्वं पुरुषोत्तमोऽसि तमसो दस्युस्तमोऽहं पुन
हन्ता तेन मम त्वमेव तदहं न ध्वंसनीयस्त्वया । किं विज्ञसुमिति श्रुतेस्तटमितः स्वर्भाणुरेष स्फुटं यत्स्कन्धे शुशुभे शिरोजनिचयः पायात् स वः श्रीजिनः ॥ १९ ॥ न स्पर्धां ध्वनिना त्वया सममहं कर्ताऽस्मि तेन प्रभो ! मद्दोषं द्विकपुष्टताख्यमयशोमूलं त्वमुन्मूलय ।
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इत्याख्यातुमिवाऽऽगत: पिकयुवा यत्कर्णपार्वे लसन् वालौघ: कलयाम्बभूव कमलामस्तु श्रियेऽर्हन् स वः ॥२०॥ तुङ्गानङ्गपतङ्गदाहनिपुणे नित्यामृतस्नेहयुग हृत्पात्रे पृथुधीदशे प्रकटितप्रौढप्रकाशप्रथे । शुक्लध्यानदशेन्धने शुचिरुचो यस्यांऽसभाक् कुन्तलव्यूहः कज्जलतामुवाह स जिनः पुष्णातु पुण्यानि वः ॥२१॥ आधिव्याधिविरोधवारिगहनात् संसारनीराकराद् घोरादुत्तरतोऽसदेशलसिताः शेवालवल्लयः किमु ? । यस्य स्कन्धतटे जटा धनघटा श्रीकण्ठकण्ठोपमा रेजुर्विश्वगुरोर्गुरोरवतु वः क्लेशात् स आद्योऽर्हताम् ।।२२। पर्जन्यास्तव सेवकाः पुनरहं तेष्वेव सौ[भाग्यवान् ?] ----[महाबलो बलवतां मुख्योऽपि भूयाद् भवान् । किं विज्ञापयितुं भुजङ्गमभुजाब)घ एष श्रवोमूले मुक्त इति व्यभाद् यदलकस्तोमोऽसयोः स श्रिये ।।२३।। पद्मानन्दविधायिना न शुचिना वक्त्रेण वीर ! त्वया श्रीर्नेया निधनं सदामृतरुचेश्चन्द्रस्य बन्धोर्मम । एतद् वक्तुमिवाऽऽगता कुवलयश्रेणिः प्रभोः कर्णयोर्यस्याउंसस्थलशालिनीश्रियमधात् केशालिरव्यात् स वः ॥२४॥ श्रेणिं क्षोणिरुहामिवाऽमरगिरिः कादम्बिनीबन्धुरां यः केलिं कलयाञ्चकार चिकुरवातं वहन् मूर्धनि । दिश्यात् स प्रवराणि बिभ्रदनघं वाऽस्तसत्पद्मिनीगर्भादित्यमदीनहेमविजयश्रीधाम धामानि वः ॥२५॥ श्रीऋषभशतकसरसी विविधालङ्कारकमलपरिकलिता । श्रीलाभविजयपण्डितमतिशरदा निर्मला जयति ॥२६॥
।। इति पण्डितश्रीकमलविजयगणिशिष्यभुजिष्य-पं.हेमविजयगणिविरचिते श्रीऋषभशतके जटावर्णनो नाम तृतीयः स्तवः सम्पूर्णः ॥३||
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श्रेयस्वत्यनघे मम स्थितवत: कोडे पितुः शैशवे दत्ता (वा) ssदावपि यं हरि [वि] हितवानिक्ष्वाकुरित्यन्वयम् । दीक्षायामपि भुक्तिरत्र घटतो तानेव तावद् हृदि ध्यात्वेतीक्षुरसेन यः प्रविदधे प्राक् पारणं स श्रिये ॥ १ ॥
अनुसंधान - २९
आसीज्ज्येष्ठमिदं मदीयमनघं तीव्रं तपो वार्षिकं ज्येष्ठेनैव रसेन तेन घटते श्रीकारणं पारणम् । मत्वैवं मधुरेण यो विहितवानिक्षो रसेनाऽशनं वर्षान्ते वृषभः स रक्षतु जगत् संसारनीराकरात् ॥२॥ प्राग्जन्मार्जित [ विघ्न ] कर्मसमिधः संवत्सरो दुस्तरो जज्ञे ज्वालयतस्तपोहुतभुजा तीव्रांशुतीव्रेण मे । तत्तन्नो भविताऽमुनैव तुहिनः कायो मदीयो भृशं मत्वेतीक्षुरसं पपौ प्रथमके यः पारणे तं स्तुवे ||३||
अन्यन्मत्तपसो तपो भगवतां भावि त्रयोविंशतेस्तत् प्राक् पारणकेऽपि भिद् भवतु मे मत्वेति तत्पारणे । पौरस्त्ये परमान्नमेव कलयन्नब्दान्त आदीश्वरचोक्षेणेक्षुरसेन तत्प्रविदधे यः पारणं तं स्तुमः || ४ ||
आद्यः क्षोणिभृतामयं व्रतवतामाद्यस्तथैवाऽर्हतामाद्यः पारणमाद्यमुग्रतपसः पौण्ड्रस्तथाऽऽद्ये (द्यो ) रसः । सर्वेष्वेष रसेषु तद्भगवतोऽनेनैव भुक्तिः शुभा श्रेयांसेन धियेति ढौकितमपाद् यस्तं स्तुमस्तं जिनम् ॥५॥ पूर्वं पावकपक्वमोदनमसौ नाऽस्ति स्म वेश्मस्थितो दीक्षायामपि पारणे प्रथमके स्तादेवमेव ध्रुवम् । श्रेयांसेन वितीर्णमैक्षवरसं ध्यात्वेति धन्यात्मना यः प्रीतः पिबति स्म पुण्यपदवीपान्थः प्रभु पातु सः ||६||
सद्गाम्भीर्यरसेशतातिशयतोऽनेनाऽस्म्यहं निर्जितो
मा भूयोऽपि बली पराभवतु मामेषोऽधुनेत्यब्धिरी ( ? ) ।
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बुद्धयैवाऽमृतमेनदैक्षवरसव्याजात्कृतं प्राभृतं स्वामी यस्तदपात् स पातु भवतः पुण्यात्मनामग्रणीः ।।७।। क्लृप्तोऽयं दलश: प्रयच्छति रसं रम्यं च निःपीडितोऽप्येष प्रोज्झति नो निजां मधुरता-मिक्षुस्ततः सत्तमम् । हत्स्थस्तेन ममाऽधुनाऽतिधवलध्यानद्रुरेतद्रसाद् भावी भद्रफलो धियेति तमधाद् योऽन्तस्तमीडे प्रभुम् ॥८॥ गच्छद्भिनिधनं द्रुपैदिविषदां माधुर्यमत्रैव किं स्वं न्यस्तं विदतेति दत्तमनघं माधुर्यवर्यं मुदा । इक्षोरेव रसं रसेश्वरभुवा श्रेयांससज्ञेन यः । पुण्यात्मा पिबति स्म पेशलपदः पुष्णातु वः स श्रियम् ॥९॥ लोकास्तोकमनोविनोदविदुषा कर्ता(l)ऽस्मि कर्ता मुदा स्पर्धा सार्धमहं त्वदीयवचसा माधुर्यधुर्येण नो । तापात् पाहि तपस्विनं हुतभुजां तन्मां जिनेन्द्राऽधुना किं विज्ञप्त इतीक्षुजं रसमिमं योऽपात् स व: श्रेयसे ॥१०॥ सम्पन्नः सुमना अयं -----------
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...----- ढौकितं श्रेयांसेन धियेति यस्तमपिबत् सम्पत्प्रदः सोऽस्तु वः ॥११॥ उप्तः स्याद् यदि पुण्यभाजि भगवत्क्षेत्रेऽत्र पूर्वं मया माधुर्यस्य खनी रसः फलमहं प्राप्तोऽस्मि तदबीजजम् । श्रेयांसेन धियेति यत्करभुवि न्यस्तो रसः पुण्ड्रभूः क्षेत्रान्तर्निदधे स एव तरसा येनेशिता स श्रिये ॥१२॥ आसीदेष वलक्षपक्षयुगल: श्रीराजहंसो जिनो धत्ते गोरसतां रसोत्तमतयो(या) युक्तोऽयमिक्षो रसः । एतत्पानममुष्य साम्प्रतमिति ध्यात्वेति यं ढौकितं श्रेयांसेन पपौ प्रभुः प्रथितधीर्यः सोऽस्तु वः शर्मणे ॥१३।।
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अनुसंधान-२९
पत्राणां प्रकरोऽस्ति तोरणकृते पुष्पं पिकप्रीतये सौरभ्यं प्रसन्नं मुदे मधुलिहां यस्या रसालावलेः । तेनाऽस्यैव रसः प्रकाममुचितस्तस्या रसालेशितुः श्रेयांसार्पितमित्यपात् तमखिलं यः श्रेयसे सोऽस्तु वः ॥१४॥ ऊधस्यं जठर[स्थव ?]स्तु मिलनात् सर्वं भृशं कश्मलं सर्पिोरसजं तथाऽन्नमखिलं तत्कृर्णवाश्रितम् । अस्य स्ताददनार्थमैक्षवरसो निर्दोष इत्याशया श्रेयांसेन वितीर्णमेनमदधद् यः स श्रिये वः प्रभुः ॥१५।। दीक्षाऽऽदायि मनोज्ञमुक्तिरमणीदूती व्यधायि, स्फुरन्माहात्म्यं च तपो रसाय विभुना ज्येष्ठाय येनाऽऽब्दिकम् । तन्मेसो(?) भवतात् प्रभोरिति धिया तत्कारणं ढौकितं श्रेयांसेन य ऐक्षवं रसमधात् तं दध्महे हृद्गृहे ॥१६॥ प्राग्जाते: स्मरणाद्रसं सुमधुरं प्रापं(प्राप्य) प्रभुं प्रेक्ष्य यद् दातव्योऽद्य स एव तत् प्रथमतोऽमुष्मै मया स्वामिने । पौत्रेणेत्युपदीकृतं सुकृतिना श्रेयांसनाम्नैक्षवं यो जग्राह रसं रसाय भवतां शान्ताय सोऽस्तु प्रभुः ॥१७] भर्ता यः सलिलं विना कृततपो वर्षोपवासात्मकं सा तज्जा तड़पैति ----ना नीरेण नाशं कथम् ? | तद्ध्वंसाय रसं ददामि मधुरं ध्यात्वेति दत्तं दधौ श्रेयांसेन रसं रसालजमसौ य: सोऽस्तु वः स्वस्तिकृत् ॥१८॥ अन्यत्राऽनुपलब्धितो मधुरता चित्तस्य किं मोरटद्वाराऽऽधायि सुधेक्षुभिः क्षितितलात् स्वादुस्तदीयो रसः । श्रेयांसेन सुधेत्यदौकि विबुधाधीशाय यस्मै मुदा हस्ताभ्यां निपिबन् सतं(तां) वितनुतां श्रेयांसि भूयांसि वः ॥१९॥ ज्येष्ठो योऽस्ति रसो रसेषु मधुरो भत्रे कृतज्ञाय चेदेतस्मै प्रवितीर्यतेऽयमपि मे दत्ते द्रुतं तं बहुम् ।
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तद्बीजं रसमेनमैक्षवमिति श्रेयांसविश्राणितं
यः स्वामी निजकानने निहितवान् सोऽर्हञ् श्रियं रातु वः ||२०||
वृद्धिर्यस्य विषे विषेण च समं जन्मस्थितिः सद्विषागारे यद्विषिभिश्च वेष्टितमभून्नाम्नाऽमृतं यत्पुनः । स्वर्भोज्येन किमस्य तेन यतिनो मत्वेति दत्तं दधौ श्रेयांसेन रसाद् रसालजरसं यः श्रेयसे सोऽस्तु वः ॥२१॥
मा लात्वात्तमदङ्गजः प्रियवृषादानो बली मा[म] सावित्थं त्रासवता सता पविभृता श्रेयांसतां बिभ्रता । अन्यस्माद् विगतस्पृहस्य भवताद् भक्त्यै सुधाऽस्योपदा दत्तेतीक्षुरसा (स) च्छलाद् भगवतः सा यस्य सोऽस्तु श्रिये ॥२२॥
देशानिभ्यभरप्रभूतनगरान् हित्वा पुरं हास्तिनं
प्राप्तः पद्ममभूषयन्मम गृहं यो राजहंसः शुचिः । ज्येष्ठेनैव रसेन भुक्तिरुचिता ज्येष्ठस्य तन्मे पितुः पौत्रेणेति रसं प्रदत्तमदधद् यः पौण्ड्रमेष श्रिये ॥ २३ ॥
चारित्रस्मितचक्षुषोऽपि दमिना पाणिग्रहो निर्ममे मर्त्यामर्त्यसमक्षमक्षयसुखानन्दाय भर्त्राऽमुना | तद्रोगो (तदयोगो) मधुराद्रसादधिगतादेवेति पौत्रेण यः प्रत्तं पौण्ड्रमपादसं प्रभुरसौ भूयात् सतां भूतये ||२४|| पीयूषं निपिबन् सुरैरिव हरिः शश्वत्सुपर्वाञ्चितो यादोभिर्मुदि रोधयन्निव पय: सिन्धो रसोल्लासवान् । भुञ्जानोऽञ्जलिना व्यलोकि मनुजै रक्षो रसं यो जिनो भूयाद् दीधितिक्लृप्तहेमविजयः स्वामी स वः शर्मणे ||२५||
श्रीॠषभशतकसरसी विविधालङ्कारकमलपरिकलिता । श्रीलाभविजयपण्डितमतिशरदा निर्मला जयति ॥ २६ ॥
श्रीहीरहीरविजयव्रतिराजपट्टपद्मांशुमद्विजयसेनमुनीन्द्रराज्ये ।
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________________ 22 अनुसंधान-२९ श्रीस्तम्भतीर्थनगरे रस-बाण-भूप (1656) वर्षे समाप्तिमगमत् शतकं सदर्थम् // 27 // // इति पं.श्रीकमलविजयगणिशिष्यभुजिष्यपण्डितश्रीहेमविजयगणिविरचिते श्रीऋषभशतके इक्षुरसपारणा-वर्णनो नाम चतुर्थः स्तवः / श्रीऋषभशतकं समाप्तम् // अकब्बरपुरे प्रौढे श्रीसङ्घः सकलोऽनघः / अलीलिखत् प्रतिरेताः (प्रतिमेतां) प्रथम(मां) श्रुतभक्तये // 1 // / / ग्रन्थाग्रं - 250 /