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रागमाला-शान्तिनाथ स्तवन ॥
'रागमाला' ए पंदरमा-सोळमा शतकमां प्रवर्तेलो एक विषय (धीम) छे. मुघल-कालमां शास्त्रीय संगीतने मळेली सर्वोच्च लोकप्रियता ए तेनुं निदान छे. आ समयमां रागोनां चित्रो सर्जायां, जे रागमाला-चित्रावलि तरीके पोथीचित्रो के लघुचित्रो (मिनिएचर पेइन्टिग्स रूपे) उपलब्ध तेमज प्रकाशितरूपे पण उपलब्ध छे. आ विषयने केन्द्रमा राखीने तत्कालीन कविओए 'रागमाला'ना नामे शृङ्गाररसमय काव्यरचनाओ पण करी छे. तो जैन मुनिओए पण ए विषयने अर्थात् संगीतना रागोने माध्यम बनावीने प्रभुभक्तिरसमय 'रागमाला' ओ रची छे. एवी ज एक 'रागमाला' अहीं प्रकाशित करवामां आवे छे.
आ रागमाला जैनोना सोळमा तीर्थंकर शान्तिनाथनी स्तुति/विज्ञप्ति रूपे रचाई छे. ३१-३२ कडीओमां पथरायेल आ रागमालामा १४ रागोनो समावेश छे, जेमा १. सामेरी, २. असाउरी, ३. रामगिरि, ४. राजवल्लभ, ५. गुडी, ६. देशाख, ७. परदु धन्यासी, ८. धोरणी, ९. केदारा गोडी, १०. मल्हार, ११. श्रीराग, १२. टोडी, १३. कल्याण, १४. धन्यासी - एटला रागो जोवा मळे छे. कर्ताए दरेक पदनी छेल्ली पंक्तिमां ते ते रागनुं नाम वणी लीधुं छे. क्वचित् प्रथम पंक्तिमां पण वण्र्यु छ : 'रामगिरि , तो गुडी रागनुं नाम जोवा नथी मळतुं.
आना कर्ता, तपगच्छपति विजयदानसूरिना शिष्य पं. जगराजना शिष्य मुनि सहजविमल छे एम, 'कलश'नी कडी द्वारा जाणवा मळे छे. रचनानो संवत तो सोंधायो नथी, परन्तु अनुमानतः आ रचना सोळमा सैकानी होय ए वधु सम्भवित छे. विजयदानसूरिनो सत्ताकाल १५मो-१६मो शतक छे, अने तेमना प्रशिष्ये, तेमना शासनकाळमां ज आनी रचना करी होवार्नु 'कलश' परथी ज नक्की थाय छे.
आ रचना, खंभातना श्रीपार्श्वचन्द्रगच्छना ज्ञानभण्डारनी वि.२, पो. ६४ नी क्रमांक ८३१ नी प्रतिमाथी ऊतारेल छे. ३७ पत्रनी ए प्रतिनुं नाम 'स्तवनसंग्रह' छे. तेमां पुष्पिका तो नथी, पण अनुमानतः ए १७मा शतकमां लखाएली हशे तेम जणाय छे. तेना प्रथमना अढी पत्रमा आ 'रागमाला'
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अनुसन्धान ३३
लखायेल छे.
____ अलबत्त, प्रतिना अक्षर खूब सुन्दर होवा छतां, प्रत खूब अशुद्ध छे. अशुद्धिओ सुधारीने नकल करवी ए जरा विकट काम जणायुं छे.
आ प्रतनी झे० नकल वर्षों पूर्व उपाध्यायश्री भुवनचन्द्रजी द्वारा मळेली, तेना आधारे आ सम्पादन कर्यु छे. बीजी प्रतोनो आधार लईने पाठशुद्धि करवानो पूरो अवकाश छेज. प्रतनी नकल आपवा बदल ज्ञानभण्डारना कार्यवाहकोनो आभारी छु..
श्रीराग सामेरी ॥ वंछितपूरण मनोहरूं सयलसंघ-मंगलकरू जिनवरू चउवीसि नितुं वंदिइ ए ॥१॥ ब्रह्मवादिनी मनि धरुं निजगुरुचलणे अणसरूं सा मेरी मति एणि परि निरमल करू ए ॥२॥
राग असाउरी ॥ मति निरमल जिननामि कीजइ, लहिइ अति आणंद । अचिरामाता उअरि धरीया, विश्वसेन-कुलचंद ॥३॥ जसु नाम सुणंता सिवसुख लहिइ, सिझइ वंछित काम । सो शांतिनाथ सोलमो, तवीजे असारी अरिभिराम (असाअरी अभिराम ?) ॥४॥
राग रामगिरि ॥ अभिराम गिरिवर मेरुशृंगि जनम महोच्छव सार । चउसठि सुरपती करइ उच्छव जव जनमिया जगादाधार ॥५॥ इम करीइ उच्छव मात पासि, थापिया जिनराय । अति गहिय समकित निरमलू निजठामि सुरपती जाइ ॥६॥
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राजवल्लभ राग ॥ दिनदिन वाधइ दीपतु ए, शांतिकुअर गुणवंत । सकल कला मुखचंदलु रे, त्रिभुवंन मन मोहंत ॥७॥ यौवन पहुता राया तणी रे, परणी कुमरी जाम । राजवल्लभ भय (मय?) दीपतु, मंडलीक थया ताम ॥८॥
राग गुडी ॥ एणी परि राज करंता सीमाढा सवे । सेवक थइ आवी मिल्या ए ॥९॥ सुखीय थया तव लोक, तस्कर परचक्र । उपद्रव तेहना सवि टल्या ए ।। पुरव पुण्यप्रमाण आयुधशालाइ । परदलना मद मोदनु (मोडतु ?) ए ॥ चक्र उपजूं सार उगशेरी दिनकार | सहसकिरण जस छोरनु ए ॥१०॥
राग देशाख ॥ चक्र लेइनि चालिआ तव षटखंड जीत्या(जीत) । चक्रवति थया पांचमा, प्रभु त्रिजग वदीत ॥११॥ वैताढवासी जे नरवलं वलता ते मिलिया । देसा खयरी विद्याधरा ते सवि पाच्छा वलया ॥१२॥ विजय करी घरि आविआ बंदी करइं जइकार । वधावइ वरकामिनी बोलइ मंगल च्यार ॥१३॥ पंच विषय सुख भोगवि सोवनवन तनु चंग । गजपुरि नयरि वसंत केदारो कउ रागउग ॥१४॥
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राग परदु धन्यासी ॥
देवलोकांतिक इम कहि ए
जागो जागो जोगिंद, विषयसुख परिहरु ए । त्रिभुवननि हितकारणि ए, तारणि भवजल एह संजम सहि वरु ए ।
दान संवच्छरि तुं दयां ए उरण कीधो लोक | जय जय सुर करि ए
परिदोल विबुधा सुणिए धन्यासी दमिश्रनु ( ? ) । थ (प्र) भु संज्यम वरइ ए ||१६||
अनुसन्धान ३३
राग धोरणी ॥
सीह तणी परि एकलु, विचरइ देसविदेस 1
घनघाती क्रम खय क्रिया ध्यान सुकल विसेसो रे, केवलश्री वरि निवड मिथ्यात अनेको रे, तिम दूरिं करइ ||१७||
सुरनर किंनर तिहा मिलि, रचइ समोश्रण सार । तिहा बेसी प्रभुजी कहें, धर्म ज च्यार प्रकार रे, त्रिभुवन तारेवा सिद्ध धोरणी जिनराउ रे, विघन निवारेवा ||१८||
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राग केदारा गोडी ॥
साधु साध्वी श्रावक श्राविका, थापिठं संघ उदार रे । मुगतिमारग चलावतु आप दयासिरदार रे ||१९||
कुमति - राहुनइ सिहारउ ऊगोरी भानु तिंग रे । केदारा गउरी नांटिक करइ, सुरतणी बाली निज अंग रे ॥ शांतिजिनेश्वर सेवीइ ॥२०॥
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राग मल्हार ॥ सुरराजि सिरुसखित्त(?) चरणां-तलिं कनककमल ज करि निरमल पुण्य पोति भंडार, भवजलनिध सुर एणी जुगतिं तरि ।।२१।। तिहा कुसुमगंधि बहिकि अति, ध्वजा दंड उपरि ऊची लहकंति । भामंडल तेजइ झलहलंति, विश्वसेन मल्हार नीकु दीपंत ॥२२॥
श्रीराग ॥ इसी युगति आठ प्रतिपाली टाली बहु मिथ्याते धन ! समेताचलनि शृंगि मनोहर पहुता साथि साधु जन ।। सेव करइ नरा सोधइ(?) कोडाकोडि अमर सिंहा आवि गावइ
सुर श्रीराग करी अणसण लेइ करम खपेइ जिनवर मुगतिरमणि ज वरी
सिद्ध हवा भवजल तरी ।।२३।।
राग टोडी ॥ सो शांतिनाथजिन राव सुणु हमारा एकाग्रचितु नितु सेव करु तुहारा । संसारसागर दु(?) पारग तारि सामी करुणानिधि करि कृपा मुझ पारगामी ॥२५॥ चउरासी लष्य जीवाज्योनि भम्यु हूं देवा कीनी सदा हरिहरादि मुधा सेवा । तू मइ लह्यो नयनभूषण नाथ आज कर्मसंतति टोडी करूं आप काज ॥२६॥
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________________ 68 अनुसन्धान 33 राग कल्याण // भवियण जण सुणउ हितवात खरी प्रभु सेवउ मन एकांत करी / यम अलिअ विघन सवि जाइ टरी लच्छी घरि आवइ रंग भरी // 27 // जस धा(ध?)न्य अनोपम कलपतरु चिंतामणि सम उपमान हरु / सदा सेवीत सुरनर सुंदर सो सयलसंघ कल्याणकरू // 28 // राग धन्यासी // इम राग कुसुममाला करी पूजा कीनी मइ अतिखरी / मुगतिसिरि दिउ दान ए गा(सा?)मी ए // 29 / / भवि विधिरता ते धन्या, सिर नामइ तुह एकमना / तेहना वंछित काम सवि सरइ ए // 30 // कलस // तपगच्छनायक मुगतिदायक सकल गुणमणिसागरु श्रीविजयदानसुरिंद्रगच्छपति संप्रति सोहम गणधरु / जगराज पंडित तणइ सीसि सहजविमल इम वीनवई ए वीनती जे भणइ भावें अनंत सुख सो अनुभवई // 31 // इति श्री रागमाला-शांतिनाथस्तवनं समाप्तः //
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________________ श्रीसूरचन्द्रोपाध्यायनिर्मितम् म० विनयसागर प्राचीन समय में उपाध्यायगण/गुरुजन व्याकरण का इस पद्धति से अध्ययन करवाते थे कि शिष्य/छात्र उस विषय का परिष्कृत विद्वान् बन जाए। प्रत्येक शब्द पर गहन मन्थन युक्त पठन-पाठन होता था / जिस शब्द या पद पर विचार करना हो उसको फक्किका कहते थे / इन फक्किकाओं के आधार पर छात्रगण भी शास्त्रार्थ कर अपने ज्ञान का संवर्द्धन किया करते थे / कुछ दशाब्दियों पूर्व फक्किकाओं के आधार पर प्रश्न-पत्र भी निर्मित हुआ करते थे, उक्त परम्परा आज शेष प्राय: हो गई है / उसी अध्यापन परम्परा का सूरचन्द्रोपाध्याय रचित यह प्रणम्यपदसमाधानम् है / / उपाध्याय सूरचन्द्र खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) के राज्य में हुए / सूरचन्द्र स्वयं खरतरगच्छ की जिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचक वीरकलश के शिष्य थे और इनके शिक्षागुरु थे - पाठक चारित्रोदय / वाचक शिवनिधान के शिष्य महिमासिंह से इन्होंने काव्य-रचना का शिक्षण प्राप्त किया था / इनका समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १८वीं शताब्दी का प्रारम्भ है / सूरचन्द्र प्रौढ़ कवि थे और इनका स्थूलिभद्रगुणमाला काव्य भी प्राप्त होता है, जो कि मेरे द्वारा सम्पादित होकर सन् 2005 में शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशन रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुका है / कवि के विशिष्ट परिचय के लिए यह ग्रन्थ द्रष्टव्य है : प्रणम्यपदसमाधानम् में प्रणम्य परमात्मानम् इस शब्द पर गहनता से विचार किया गया है / प्रणम्य परमात्मानम् पद्य कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन की लघुवृत्ति का मंगलाचरण भी है और सारस्वत व्याकरण का मंगलाचरण भी है। इसी लेख में 'प्रणम्य प्रक्रियां ऋजु कुर्वः' इससे स्पष्ट होता है कि सूरचन्द्र ने सारस्वतप्रक्रिया के मंगलाचरण पर ही विचार किया है / /