Book Title: Prashna Vyakaran ki Prachin Vishayvastu ki Khojh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं यह स्वीकार करती हैं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र (पण्हवागरण) जैन अंग-आगम साहित्य का दसवां अंग-ग्रन्थ है, किन्तु दिगम्बर परम्परा के अनुसार अंग-आगम साहित्य का विच्छेद (लुप्त) हो जाने के कारण वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा अंग साहित्य का विच्छेद नहीं मानती है । अतः उसके उपलब्ध आगमों में प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ आज भी पाया जाता है। किन्तु समस्या यह है कि क्या श्वेताम्बर परम्परा के वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु वही है जिसका निर्देश अन्य श्वेताम्बर प्राचीन आगम ग्रन्थों में है अथवा यह परिवर्तित हो चुकी है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी प्राचीन निर्देश श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग (ठाणंग), समवायांग, अनुयोगद्वार एवं नन्दीसूत्र में और दिगम्बर परम्परा के राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला नामक टीका ग्रन्थों में उपलब्ध है। इनमें स्थानांग और समवायांग लगभग ३ री - ४थी शती एवं नन्दी लगभग ५वीं छठी शताब्दी, राजवार्तिक ८वीं शताब्दी तथा धवला एवं जयधवला १०वीं शताब्दी के ग्रन्थ स्वीकार किये गये हैं। प्रश्नव्याकरण नाम क्यों? , ‘प्रश्नव्याकरण' इस नाम को लेकर प्राचीन टीकाकारों एवं विद्वानों में यह धारणा बन गयी थी कि जिस ग्रन्थ में प्रश्नों के समाधान किये गये हों, वह प्रश्नव्याकरण है। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्करण की विषयवस्तु प्रश्नोत्तरशैली में नहीं थी और न वह प्रश्न विद्या अर्थात् निमित्तशास्त्र से ही सम्बन्धित थी। गुरु-शिष्य सम्वाद की प्रश्नोत्तर शैली में आगम ग्रन्थ की रचना एक परवर्ती घटना है- भगवती या व्याख्या प्रशप्ति इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि समवायांग एवं नन्दौसूत्र में यह माना गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ पूछे गये १०८ नहीं पूछे गये और १०८ अंशत: पूछे गये और अंशत: नहीं पूछे गये प्रश्नों के उत्तर हैं। किन्तु यह अवधारणा काल्पनिक ही लगती है। प्रश्नव्याकरण की प्राचीनतम विषयवस्तु प्रश्नोत्तर रूप में थी या उसमें प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याओं का समावेश था- समवायांग और नन्दी सूत्र के उल्लेखों के अतिरिक्त आज इसका कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रन्थों को प्रश्नों के रूप में विभाजित करने की परम्परा थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आपस्तम्बीय धर्मसूत्र है। जिसकी विषयवस्तु को दो प्रश्नों में विभक्त किया है। इसके प्रथम प्रश्न में ११ पटल और द्वितीय प्रश्न में ११ पटल हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रश्नोत्तर रूप में भी नहीं है। इसी प्रकार बौधायन धर्मसूत्र की विषयवस्तु भी प्रश्नों में विभक्त है। अतः प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण या प्रश्नविद्या से सम्बन्धित होने के कारण इसे प्रश्नव्याकरण नाम दिया गया था, यह मानना उचित नहीं होगा। वैसे इसका प्राचीन नाम 'वागरण' (व्याकरण) ही था। ऋषिभाषित में इसका इसी नाम से उल्लेख है। प्राचीनकाल में तात्त्विक व्याख्या को व्याकरण कहा जाता था। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में जो निर्देश है उससे वर्तमान प्रश्नव्याकरण निश्चय ही भिन्न है। यह परिवर्तन किस रूप में हुआ है, यही विचारणीय है। यदि हम ग्रन्थ के कालक्रम को ध्यान में रखते हुए प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में उपलब्ध विवरणों को देखें, तो हमें उसकी विषयवस्तु में हुए परिवर्तनों की स्पष्ट सूचना उसमें मिल जाती है। (अ) स्थानांग - प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है। इसमें प्रश्नव्याकरण की गणना दस दशाओं में की गई है तथा उसके निम्न दस अध्ययन बताये गये हैं- १. उपमा, २ संख्या ३. ऋषिभाषित ४ आचार्यभाषित ५. महावीरभाषित ६ क्षोभिकप्रश्न ७ कोमलप्रश्न ८. आदर्शप्रश्न (आद्रकप्रश्न), ९. अंगुष्ठप्रश्न, १०. बाहुप्रश्न । इससे फलित होता है कि सर्वप्रथम यह दस अध्यायों का अन्य था। दस अध्यायों के ग्रन्थ दसा (दशा) कहे जाते थे। (ब) समवायांग- स्थानांग के पश्चात् प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु का अधिक विस्तृत विवेचन करने वाला आगम समवायांग है। समवायांग में उसकी विषयवस्तु का निर्देश करते हुए कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्नों १०८ अप्रश्नों और १०८ प्रश्नाप्रश्नों की विद्याओं के अतिशयों (चमत्कारों) का तथा नागों सुपर्णों के साथ दिव्य संवादों का विवेचन है। यह प्रश्नव्याकरण दशा स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक एवं विविध अर्थों वाली भाषा के प्रवक्ता प्रत्येक बुद्धों के द्वारा भाषित अतिशय गुणों एवं उपशमभाव के धारक तथा ज्ञान के आकर आचार्यों के द्वारा विस्तार से भाषित और जगत के हित के लिए वीर महर्षि के द्वारा विशेष विस्तार से भाषित है। यह आदर्श (अद्दाग), अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) एवं आदित्य (के आश्रय से) भाषित है इसमें महाप्रश्न विद्या मनप्रश्नविद्या, देवप्रयोग आदि का उल्लेख है। इसमें सब प्राणियों के प्रधान गुणों के प्रकाशक, दुर्गुणों को अल्प करने वाले, मनुष्यों की मति को विस्मित करने वाले, अतिशयमय कालश एवं शमदम से युक्त उत्तम तीर्थकरों के प्रवचन में स्थित करने वाले, दुरभिगम, दुरवगाह, सभी सर्वज्ञों के द्वारा सम्मत सभी अज्ञजनों को बोध कराने वाले प्रत्यक्ष प्रतीतिकारक, विविधगुणों से और महान् अर्थों से युक्त जिनवर प्रणीत प्रश्न (वचन) कहे गये हैं। 2 . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण अंग की सीमित वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोग द्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात सग्रहणियाँ हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवाँ अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, पैंतालीस उद्देशन काल है, पैंतालीस समुद्देशन काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता हैं । ४ (स) नन्दीसूत्र - नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो उल्लेख है वह समवायांग के विवरण का मात्र संक्षिप्त रूप है। उसके भाव और भाषा दोनों ही समान हैं। मात्र विशेषता यह है कि इसमें प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन बताये गये हैं, जबकि समवायांग में केवल ४५ समुद्देशन कालों का उल्लेख है, ४५ अध्ययन का उल्लेख समवायांग में नहीं है। स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरण का वर्गीकरण दस दशाओं में किया है । सम्भवतः जब प्रश्नव्याकरण के इस प्राचीन संस्करण की रचना हुई होगी तब ग्यारह अंगों अथवा द्वादश गणिपिटिक की अवधार भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पायी थी। अंग-आगम साहित्य के ५ ग्रन्थ उपासकदशा, अन्तकृदशा, प्रश्नव्याकरणदशा, अनुत्तरीपपातिक दशा तथा कर्मविपाकदशा (विपाकदशा) दस दशाओं में ही परिगणित किये जाते थे। आज इन दशाओं में उपर्युक्त पाँच तथा आचारदशा, जो आज दशाश्रुतस्कन्ध के नाम से जानी जाती है, को छोड़कर शेष चारबन्धदशा द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपदशा अनुपलब्ध हैं। उपलब्ध छह दशाओं में भी उपासकदशा और आयारदशा की विषयवस्तु स्थानांग में उपलब्ध विवरण के अनुरूप है। कर्मविपाक और अनुलरोपपातिकदशा की विषयवस्तु में कुछ समानता है और कुछ भिन्नता है। जबकि प्रश्नव्याकरणदशा और अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु पूरी तरह बदल गई है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु सूचित की गई है वही इसका प्राचीनतम संस्करण लगता है, क्योंकि यहाँ तक इसकी विषयवस्तु में नैमित्तिक विद्याओं का अधिक प्रवेश नहीं देखा जाता है। स्थानांग प्रश्नव्याकरण के जिन दश अध्ययनों का निर्देश करता है, उनमें भी मेरी दृष्टि में इसिमासियाई, आयरियभासियाई और महावीरभासियाई — ये तीन प्राचीन प्रतीत होते हैं 'उमा' और 'संखा की सामग्री क्या थी? कहा नहीं जा सकता। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'उमा' में कुछ रूपकों के द्वारा धर्म-बोध कराया गया होगा। जैसा कि ज्ञाताधर्मकथा में कर्म और अण्डों के रूपकों द्वारा क्रमशः यह समझाया गया है कि जो इन्द्रिय संयम नहीं करता है वह दुःख को प्राप्त होता है और जो साधना में अस्थिर चित्त रहता है वह फल को प्राप्त नहीं करता है। इसी प्रकार 'संखा' में स्थानांग और समवायांग के समान संख्या के आधार पर वर्णित सामग्री हो । यद्यपि यह भी संभव है कि संखा नामक अध्ययन का सम्बन्ध सांख्य दर्शन से रहा हो। क्योंकि अन्य परम्पराओं के विचारों को प्रस्तुत करने की उदारता इस ग्रन्थ में थी। साथ ही प्राचीन काल में सांख्य श्रमणधारा का ही दर्शन था और जैन दर्शन से उसकी निकटता थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अद्दागपरिणाइं, बाहुपसिणाई आदि अध्यायों का सम्बन्ध भी निमित्तशास्त्र से न होकर इन नामवाले व्यक्तियों की तात्त्विक परिचर्चा से रहा हो जो क्रमशः आईक और बाहुक नामक ऋषियों की तत्त्वचर्चा से सम्बन्धित रहे होंगे। अद्यागपसिणाई की टीकाकारों ने 'आदर्श प्रश्न' ऐसी जो संस्कृत छाया की है वह भी उचित नहीं है। उसकी संस्कृत छाया 'आर्द्रक प्रश्न' ऐसी होना चाहिए। आईक से हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा - प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरणों की समीक्षा मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु के तीन संस्कार हुए होंगे। प्रथम एवं प्राचीनतम संस्कार, जो 'वागरण' कहा जाता था, सूत्रकृतांग में मिलती है साथ ही वर्तमान ऋषिभाषित में भी 'अद्दाएण' (द) तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि आक्षेप और विशेष के द्वारा हेतु और नय के आश्रय से प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्नव्याकरण कहते है। इसमें लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया जाता है।" - - (इ) धवला - धवला में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु बताई गई है वह तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित विषय-वस्तु से किंचित् विभिन्नता रखती है। उसमें कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण में आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। उसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि आक्षेपणी कथा परसमयों (अन्य मतों) का निराकरण कर ६ द्रव्यों और नव तत्त्वों का प्रतिपादन करती है। विक्षेपणी कथा परसमय के द्वारा स्वसमय पर लगाये गये आक्षेपों का निराकरण कर स्वसमय की स्थापना करती है। संवेदनी कथा पुण्यफल की कथा है। इसमें तीर्थकर गणधर ऋषि चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का विवरण है। निवेदनी कथा पाप फल की कथा है, इसमें नरक, तिर्यच, जरा-मरण, रोग आदि सांसारिक दुःखों का वर्णन किया जाता है। उसमें यह भी कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के अनुसार हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या निरूपण करता है।" इस प्रकार प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीन उल्लेखों में एकरूपता नहीं है। ७५ में ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित ही इसकी प्रमुख विषयवस्तु रही होगी। ऋषिभाषित में 'वागरण' ग्रन्थ का एवं उसकी विषयवस्तु की ऋषिभासित से समानता का उल्लेख है।' इससे प्राचीनकाल ( ई०पू० ४थी या ३री शताब्दी) में उसके अस्तित्त्व की सूचना तो मिलती ही है साथ ही प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित का सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है। . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (आईक) और बाहु (बाहुक) नामक अध्ययन उपलब्ध हैं। हो सकता आचार्यभाषित और महारवीरभाषित ही थी और जिसका अधिकांश भाग है कि कोमल और खोम-क्षोम भी कोई ऋषि रहे हैं। सोम का उल्लेख आज भी ऋषिभाषित आदि के रूप में सुरक्षित है। क्योंकि समवायांग भी ऋषिभाषित में है। फिर भी यदि हम यह मानने को उत्सुक ही में भी प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु को प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित, हों कि ये अध्ययन निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित थे तो हमें यह मानना महर्षिवीरभाषित कहा गया है। स्थानांग में जहाँ ऋषिभाषित शब्द है होगा कि यह सामग्री उसमें बाद में जुड़ी है, प्रारम्भ में उसका अंग वहां समवायांग में प्रत्येकबुद्धभाषित शब्द है। यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित नहीं थी। क्योंकि प्राचीनकाल में निमित्तशास्त्र का अध्ययन जैन भिक्षु के प्रत्येक ऋषि को आगे चलकर जैनाचार्यों ने प्रत्येकबुद्ध के रूप के लिए वर्जित था और इसे पापश्रुत माना जाता था। में स्वीकार किया हैं और यह शब्द-परिवर्तन उसी का सूचक है। स्थानांग और समवायांग दोनों में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो यही कारण है कि इसमें ऋषिभाषित के स्थान पर प्रत्येकबुद्धभाषित विवरण हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं। समवायांग का विवरण परवर्ती कहा गया है। हमारे कथन की पुष्टि का दूसरा आधार यह है कि समवायांग है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र में प्रश्नव्याकरण के एक श्रुतस्कन्ध और ४५ अध्याय माने गये हैं। सम्बन्धी विवरण काफी विस्तृत हो गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण इससे यह सिद्ध होता है कि समवायांग के प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु के दस अध्ययन बताये गये हैं जबकि समवायांग उसमें ४५ उद्देशक सम्बन्धी इस विवरण के लिखे जाने तक भी यह अवधारणा अचेतनरूप होने की सूचना देता है। 'उवमा' और 'संखा' नामक स्थानांग में वर्णित में अवश्य थी कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रत्येकबुद्धों, धर्माचार्यों प्रारम्भिक दो अध्ययनों का यहाँ निर्देश ही नहीं है। हो सकता है कि और महावीर के उपदेशों से निर्मित थी, यद्यपि इस काल तक ऋषिभाषित 'उवमा' की सामग्री ज्ञाताधर्मकथा में और 'संखा' की सामग्री-यदि को उससे अलग कर दिया गया होगा और उसके ४५ अध्ययनों के उसका सम्बन्ध संख्या से था तो स्थानांग या समवायांग में डाल दी ___ स्थान पर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विद्याएँ समाविष्ट कर दी गई होंगी। गई हो। 'कोमलपसिणाई' का भी उल्लेख नहीं है। इन तीनों के स्थान यद्यपि निमित्तशास्त्र के विषय जोड़ने का ही ऐसा कुछ प्रयत्न सीमितरूप पर 'असि' 'मणि' और आदित्य' ये तीन नाम नये जुड़ गये हैं, पुनः में स्थानांग में प्रश्न व्याकरण सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व भी इनका उल्लेख भी अध्ययनों के रूप में नहीं है। समवायांग का विवरण हुआ होगा। मेरी धारणा यह है कि प्रश्नव्याकरण में प्रथम निमित्तशास्त्र स्पष्टरूप से यह बताता है कि प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय चमत्कारपूर्ण का विषय जुड़ा और फिर ऋषिभाषित वाला अंश अलग हुआ तथा विविध विद्याओं से परिपूर्ण है। यहाँ इसिभासियाई, आयरियभासियाई बीच का कुछ काल ऐसा रहा जब वही विषयवस्तु दोनों में और महावीरभासियाइं इन तीन अध्ययनों का विलोप कर यह निमित्तशास्त्र समनान्तर बनी रही। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जहां सम्बन्धी विवरण इनके द्वारा कथित है- यह कह दिया गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन होने का उल्लेख है, वहां वस्तुत: समवायांग का विवरण हमें प्रश्नव्याकरण के किसी दूसरे समवायांग में इसके ४५ उद्देशन काल और नन्दी में ४५ अध्ययन परिवर्धित संस्करण की सूचना देता है जिसमें नैमित्तशास्त्र से सम्बन्धित होने का उल्लेख है- यह आकस्मिक नहीं है। यह उल्लेख प्रश्नव्याकरण विवरण जोड़कर प्रत्येक बुद्धभाषित (ऋषिभाषित), आचार्यभाषित और और ऋषिभाषित की किसी साम्यता का संकेतक है। वर्तमान वीरभाषित (महावीरभाषित) भाग अलग कर दिये गये थे और इस प्रश्नव्याकरण में दस अध्ययन होना भी सप्रयोजन है- स्थानाङ्ग के प्रकार इसे शुद्धरूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया गया था। पूर्व विवरण से संगति बैठाने के लिए ही ऐसा किया गया होगा। दस उसे प्रामाणिकता देने के लिए यहाँ तक कह दिया गया कि ये प्रत्येक और पैतालीस के इस विवाद को सुलझाने के दो ही विकल्प हैंबुद्ध, आचार्य और महावीरभाषित हैं। प्रथम सम्भावना यह हो सकती है कि प्राचीन संस्करण में दस अध्याय तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो विवरण रहे हों और उसके ऋषिभाषित वाले अध्याय के ४५ उद्देशक रहे हों उपलब्ध है वह इतना अवश्य सूचित करता है कि ग्रन्थकार के सामने अथवा मूल प्रश्नव्याकरण में वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्याय ही प्रश्नव्याकरण की कोई प्रति नहीं थी उसने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु हों क्योंकि इनमें भी ऋषिभाषित के साथ महावीरभाषित और के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह कल्पनाश्रित ही है। यद्यपि आचार्यभाषित का समावेश हो ही जाता है। यह भी सम्भव है कि धवला में प्रश्नव्याकरण के सम्बन्ध में जो निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्यायों में से कुछ अध्याय ऋषिभाषित कुछ विवरण है, वह निश्चय ही यह बताता है कि ग्रन्थकार ने उसे के अन्तर्गत और कुछ आचार्यभाषित एवं कुछ महावीरभाषित के अन्तर्गत अनुश्रुति के रूप में श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से प्राप्त किया होगा। उद्देशकों के रूप में वर्गीकृत हुए हों। महत्त्वपूर्ण यह है कि समवायांग धवला में वर्णित विषयवस्तु वाला कोई प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में भी में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन न कहकर ४५ उद्देशन काल कहा रहा होगा, यह कहना कठिन है। गया है, किन्तु प्रश्नव्याकरण से अलग करने के पश्चात् उन्हें एक ही जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि समवायांग का प्रश्नव्याकरण ग्रन्थ के अन्तर्गत ४५ अध्यायों के रूप में रख दिया गया हो। एक की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरण स्थानांग की अपेक्षा परवर्ती काल का महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि समवायांग में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन है। फिर भी इसमें कुछ तथ्य ऐसे अवश्य हैं जो हमारी इस धारणा कहे गये हैं जबकि वर्तमान ऋषिभाषित में ४५ अध्ययन हैं। क्या वर्धमान को पुष्ट करते हैं कि प्रश्नव्याकरण की मूलभूत विषयवस्तु ऋषिभाषित, नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज ७७ नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे क्या प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु सुरक्षित है? महावीरभाषित में परिगणित नहीं किया गया था या अन्य कोई कारण यहां यह चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या प्रश्नव्याकरण के प्रथम था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय और द्वितीय संस्कारों की विषयवस्तु पूर्णत: नष्ट हो गई है या वह में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, साथ ही यह अध्याय चार्वाक दर्शन आज भी पूर्णत: या आंशिक रूप में सुरक्षित है। का प्रतिपादन करता है। अतः इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्रथम संस्करण में ऋषिभाषित, हो। समवायांग और नन्दीसूत्र के मूलपाठों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर आचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी वह आज यह है कि नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन हैं- ऐसा स्पष्ट भी ऋषिभाषित, ज्ञाताधर्मकथा, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में बहुत पाठ है। जबकि समवायांग में ४५ अध्ययन, ऐसा पाठ न होकर ४५ कुछ सुरक्षित है। ऐसा लगता है कि ईस्वी सन् के पूर्व ही उस सामग्री उद्देशन काल है, मात्र यही पाठ है। हो सकता है कि समवायांग के को वहां से अलग कर इसिभासियाई के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप रचना-काल तक वे उद्देशक रहे हों, किन्तु आगे चलकर वे अध्ययन में सुरक्षित कर लिया गया था। जैन परम्परा में ऐसे प्रयास अनेक कहे जाने लगे हों। यदि समवायांग के काल तक ४५ अध्ययनों की बार हुए हैं जब चूला या चूलिका के रूप में ग्रन्थों में नवीन सामग्री अवधारणा होती तो समवायांगकार उसका उल्लेख अवश्य करते क्योंकि जोड़ी जाती रही अथवा किसी ग्रन्थ की सामग्री को निकालकर उससे समवायांग में अन्य अंग आगमों की चर्चा के प्रसंग में अध्ययनों का एक नया ग्रन्थ बना दिया। उदाहरण के रूप में किसी समय निशीथ स्पष्ट उल्लेख है। को आचारांग की चूला के रूप में जोड़ा गया और कालान्तर में उसे इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र वहाँ से अलग कर निशीथ नामक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। इसी एवं चामत्कारिक विद्याओं से युक्त कोई प्रश्नव्याकरण बना भी था या प्रकार आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के आठवें अध्याय (पर्युषणकल्प) यह सब कल्पना की उड़ानें हैं? यह सत्य है कि प्रश्नव्याकरण की की सामग्री से कल्पसूत्र नामक एक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। पद-संख्या का समवायांग, नन्दी, नन्दीचूर्णी और धवला में जो उल्लेख अत: यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पहले प्रश्नव्याकरण में है, वह काल्पनिक है। यद्यपि समवायांग और नन्दी, प्रश्नव्याकरण इसिभासियाई के अध्याय जुड़ते रहे हों और फिर अध्ययनों की सामग्री के पदों की निश्चित संख्या नहीं देते हैं—मात्र संख्यात-शत-सहस्र- को वहां से अलग कर इसिभासियाई नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ अस्तित्व ऐसा उल्लेख करते हैं, किन्तु नन्दीचूर्णी एवं समवायांगवृत्ति३ में उसके में आया हो। मेरा यह कथन निराधार भी नहीं है। प्रथम तो दोनों पदों की संख्या ९२१६००० और धवला'४ में ९३१६००० बतायी नामों की साम्यता तो है ही। साथ ही समवायांग में यह भी स्पष्ट गई है, जो मुझे तो काल्पनिक ही अधिक लगती है। उल्लेख है कि प्रश्नव्याकरण में स्वसमय और परसमय के प्रज्ञापक मेरी अवधारणा यह है कि स्थानांग, समवायांग, नन्दी, तत्त्वार्थ, प्रत्येकबुद्धों के कथन हैं। (पण्हावागरणदसासुणं ससमय-परसमय राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु पण्णवय-पत्तेअबुद्ध .......भासियाइणं, समवायांग ५४७)। इसिभासियाई का जिस रूप में उल्लेख है वह पूर्णत: काल्पनिक चाहे न हो, किन्तु के सम्बन्ध में यह स्पष्ट मान्यता है कि उसमें प्रत्येकबुद्धों के वचन उसमें सत्यांश कम और कल्पना का पुट अधिक है। यद्यपि निमित्तशास्त्र हैं। मात्र यही नहीं समवायांग ‘स-समय-पर समय पण्णवय पत्तेअबुद्ध-अर्थात् के विषय को लेकर कोई प्रश्नव्याकरण अवश्य बना होगा, फिर भी स्वसमय एवं परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख कर इसकी उसमें समवायांग और धवला में वर्णित समग्र विषयवस्तु एवं चामत्कारिक पुष्टि भी कर देता है कि वे प्रत्येक बुद्ध मात्र जैन परंपरा के नहीं हैं, विद्याएं रही होंगी यह कहना कठिन ही है। अपितु अन्य परम्पराओं के भी है। इसिभासियाई में मंखलिगोशाल, इसी सन्दर्भ में समवायांग के मूलपाठ 'अद्दागंगुट्ठबाहुअसिमणि देवनारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि से सम्बन्धित खोमआइच्चभासियाणं५ के अर्थ के सम्बन्ध में भी यहां हमें पुनर्विचार अध्याय भी इसी तथ्य को सूचित करते हैं। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण करना होगा। कहीं अदाग, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, खोम (क्षोम) का प्राचीनतम अधिकांश भाग आज भी इसिभासियाई में तथा कुछ और आदित्य व्यक्ति तो नहीं हैं- क्योंकि इनके द्वारा भाषित कहने भाग सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा और उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों के का क्या अर्थ है? स्थानाङ्ग के विवरण की समीक्षा करते हुए जैसी रूप में सुरक्षित है। प्रश्नव्याकरण का इसिभासियाई वाला अंश वर्तमान कि मैंने सम्भावना प्रकट की है कि कहीं अदाग-आईक, बाहु-बाहुक, इसिभासियाइं (ऋषिभाषित), महावीरभासियाई में तथा आयरियभासियाई खोम-सोम नामक ऋषि तो नहीं है, क्योंकि ऋषिभाषित में इनके उल्लेख का कुछ अंश उत्तराध्ययन के अध्यनों में सुरक्षित है। ऋषिभाषित के हैं। आदित्य भी कोई ऋषि हो सकते हैं। केवल अंगुट्ठ, असि और तेतलिपुत्र नामक अध्याय की विषय सामग्री ज्ञाताधर्मकथा के १४वें मणि ये तीन नाम अवश्य ऐसे हैं, जिनके व्यक्ति होने की सम्भावना तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय में आज भी उपलब्ध है। धूमिल है। उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय प्रश्नव्याकरण के अंश थे, इसकी इस समग्र चर्चा का फलित तो मात्र यही है कि प्रश्नव्याकरण पुष्टि अनेक आधारों से की जा सकती है। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन नाम की विषयवस्तु समय-समय पर बदलती रही है। ही इस तथ्य को सूचित करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर-अध्ययनों Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ से बना हुआ ग्रन्थ है। इसका तात्पर्य है कि इसकी विषय-सामग्री पूर्व मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांग में प्रस्तुत जैन साहित्य-विवरण के में किसी ग्रन्थ का उत्तरवर्ती अंश रही होगी। इस तथ्य की पुष्टि का पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अस्तित्व में नहीं दूसरा किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप गाथा 4 में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उत्तराध्ययन में था। का कुछ भाग अंग साहित्य से लिया गया है। उत्तराध्ययन नियुक्ति पुन: उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के ग्रन्थों से लिये गये है। नियुक्तिकार का यह कथन तीन मुख्य बातों करने के पश्चात् ३७वें प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए पर प्रकाश डालता है। प्रथम तो यह कि उत्तराध्ययन के जो 36 अध्ययन भगवान परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु की हैं, उनमें कुछ जिनभाषित (महावीरभाषित) और कुछ प्रत्येकबुद्धों के चर्चा करते हुए उसमें पृष्ट, अपृष्ट और पृष्टापृष्ट प्रश्नों का विवेचन संवाद रूप है तथा अंग साहित्य से लिये गये हैं। अब यह प्रश्न स्वाभाविक होना बताया गया है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरण रूप से उठता है कि वह अंग-ग्रन्थ कौन सा था, जिससे उत्तराध्ययन और उत्तराध्ययन की समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ट प्रश्नों के ये भाग लिये गये? कुछ आचार्यों ने दृष्टिवाद से इसके परिषह का व्याकरण है। आदि अध्यायों को लिये जाने की कल्पना की है, किन्तु मेरी दृष्टि हम यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि पूर्व में ऋषिभाषित में इसका कोई आधार नहीं है। इसकी सामग्री उसी ग्रन्थ से ली जा ही प्रश्नव्याकरण का एक भाग था। ऋषिभाषित को परवर्ती आचार्यों सकती है जिसमें महावीरभाषित और प्रत्येकबुद्ध भाषित विषयवस्तु ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को हो। इसप्रकार विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की ही थी अत: उससे ही इन्हें प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन लिया गया होगा। यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकार की जा सकती एवं ऋषिभाषित एक दूसरे से निकटरूप से सम्बन्धित थे और किसी है कि चाहे उत्तराध्ययन के समस्त अध्ययन तो नहीं, किन्तु कुछ अध्ययन एक ही ग्रन्थ के भाग थे। हरिभद्र (८वीं शती) आवश्यकनियुक्ति की तो अवश्य ही महावीरभाषित हैं। एक बार हम उत्तराध्ययन के 36 वृत्ति (8/5) में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते हैं। तेरहवीं वें अध्ययन एवं उसके अन्त में दी हुई उस गाथा को जिसमें उसका शताब्दी तक भी जैन आचार्यों में ऐसी धारणा चली आ रही थी कि महावीरभाषित होना स्वीकार किया गया है, परवर्ती एवं प्रक्षिप्त मान ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है। जिनप्रभसूरि की भी लें, किन्तु उसके 18 वें अध्ययन की 24 वीं गाथा जो न केवल विधिमार्गप्रपा में, जो 14 वीं शताब्दी की एक रचना है- स्पष्ट रूप इसी गाथा के सरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित का अन्तर्भाव प्राचीन लगती है- प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के सम्वादरूप हैं ___ को समग्र रूप में एक ग्रन्थ मानें तो ऐसा लगता है कि उस ग्रन्थ तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अंग ग्रन्थ के भाग हो सकते का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तरवर्ती भाग उत्तराध्ययन कहा हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निर्देश करते हुए स्थानांग, जाता था। समवायांग और नन्दीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं यह तो हुई प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात। प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्र प्रधान दूसरे के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं। उत्तराध्ययन ___ संस्करण की क्या स्थिति हो सकती है- क्या वह भी किसी रूप में के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें तो स्पष्टरूप से उनमें नमिपव्वज्जा, सुरक्षित है? कापिलीय, संजयीया आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येक बुद्धों के सम्वादरूप जहां तक निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित प्रश्नव्याकरण के दूसरे मिलते हैं। जबकि विनयसुत्त, परिषह विभक्ति, संस्कृत, अकाममरणीय, संस्करण के अस्तित्व में होने का प्रश्न है- मेरी दृष्टि में वह भी क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे हैं और केसी-गौतमीय, गद्दमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित प्रश्नव्याकरण से पृथक् कर उसके स्थान पर आश्रयद्वार और संवरद्वार कहे जा सकते हैं। अत: प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने विषय-सामग्री से इस उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण जिनवाणी, दिसम्बर 1980 में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्नव्याकरण हुआ है। नामक कुछ अन्य ग्रन्थों का संकेत किया है। 'प्रश्नव्याकरणाख्य यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया जयपायड' के नाम से एक ग्रन्थ मुनि जिनविजयजी ने सिंघी जैन है, किन्तु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है। ___ग्रन्थमाला के ग्रन्थ क्रमांक 43 में संवत् 2015 में प्रकाशित किया जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके है स्थानाङ्ग ही ऐसा प्रथम ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के आधार पर प्रकाशित किया है जो जैन आगम-साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप की सूचना देता है। गया है। ताड़पत्रीय प्रति खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के ज्ञानभण्डार Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज जैसलमेर से प्राप्त हुई थी और यह विक्रम संवत् 1336 की लिखी का ग्रन्थ बना दिया गया। पुनः लगभग ७वीं शताब्दी में यह निमित्तशास्त्र हुई थी। ग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में हैं और उसमें 378 गाथाएं वाला हिस्सा अलग किया गया और उसके स्थान पर पांच आश्रव हैं। उसके साथ संस्कृत टीका भी है। यह प्रकाशित ग्रन्थ पार्श्वनाथ तथा पाँच संवरद्वार वाला वर्तमान संस्करण रखा गया। जैसा कि मैंने विद्याश्रम, वाराणसी के पुस्कालय में है। ग्रन्थ का विषय निमित्तशास्त्र सूचित किया कि प्रश्नव्याकरण के पूर्व के दो संस्करण भी चाहे उससे से सम्बन्धित है। इसी प्रकार जिनरत्नकोश में भी शान्तिनाथ भण्डार पृथक् कर दिये गये हों किन्तु वे ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन और खंभात में उपलब्ध जयपाहुड प्रश्नव्याकरण, नामक ग्रन्थ की सूचना प्रश्नव्याकरण नामक अन्य निमित्तशास्त्र के ग्रन्थों के रूप में अपना अस्तित्व रख रहे हैं। आशा है, इस सम्बन्ध में विद्वद्वर्ग आगे और एक अन्य प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ की सूचना हमें नेपाल के महाराजा मन्थन करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। की लायब्रेरी से प्राप्त होती है। श्री अगरचन्द जी नाहटा की सूचना के अनुसार इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि तेरापन्थ धर्मसंघ के आचार्य मुनिश्री प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु की समरूपता का नथमलजी ने प्राप्त कर ली है। इस लेख के प्रकाशन के पूर्व श्री जौहरीमल प्रमाण जी पारख, रावटी, जोधपुर के सौजन्य से इस ग्रन्थ की फोटो कापी ऋषिभाषित और प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तुओं की पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्राप्त हो गई है। इसे अभी पूरा एकरूपता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक पढ़ा तो नहीं जा सका है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ज्ञात 31 वें अध्ययन में मिल जाता है। इसमें पार्श्व की दार्शनिक अवधारणाओं हुआ कि इसकी मूलगाथाएं तो सिंघी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित की चर्चा है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रन्थकार ने स्पष्ट रूप से यह कृति के समान ही हैं, किन्तु टीका भिन्न है। इसकी एक अन्य फोटो उल्लेख किया है कि व्याकरणप्रभृति ग्रन्थों में समाहित इस अध्ययन कापी लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद का ऐसा दूसरा पाठ भी मिलता है। यह मूलपाठ इस प्रकार हैसे भी प्राप्त हुई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण की सूचना हमें पाटन वागरणगंथाओं पभिति सामित्तं ज्ञान भण्डार की सूची से प्राप्त होती है। यह ग्रन्थ भी चूड़ामणि नामक इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सतिर टीका के साथ है और टीका का ग्रन्थांक 2300 श्लोक परिमाण बताया इसका तात्पर्य तो यह है कि ऋषिभाषित की विषयवस्तु प्रश्नगया है। यह प्रति भी काफी पुरानी हो सकती है। व्याकरण में भी सामहित थी। यद्यपि यह एक विवादास्पद प्रश्न होगा इस सब आधारों से ऐसा लगता है कि प्रश्नव्याकरण का कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु से ऋषिभाषित का निर्माण हुआ या निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित संस्करण भी पूरी तरह विलुप्त नहीं हुआ ऋषिभाषित की विषयवस्तु से प्रश्नव्याकरण का। लेकिन यह सुस्पष्ट होगा, अपितु उसे उससे अलग करके सुरक्षित कर लिया गया हो। है कि किसी समय प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु समान यदि कोई विद्वान् इन सब ग्रन्थों को लेकर उनकी विषयवस्तु को थी और उनमें कुछ पाठान्तर भी थे। अत: वर्तमान ऋषिभाषित में प्राचीन समवायांग, नन्दीसूत्र एवं धवला में प्रश्नव्याकरण की उल्लिखित विषय प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का होना निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता सामग्री के साथ मिलान करे तो यह पता चल सकेगा कि प्रश्नव्याकरण है। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि मूल प्रश्नव्याकरण में पार्श्व नामक जो अन्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण आदि प्राचीन अर्हत् ऋषियों के दार्शनिक विचार एवं उपदेश के ही अंश हैं या अन्य हैं। यह भी सम्भव है कि समवायांग और निहित थे। नन्दी के रचनाकाल में प्रश्नव्याकरण नामक कई ग्रन्थ वाचना-भेद से प्रचलित हो और उनमें उन सभी विषयवस्तु को समाहित किया गया प्रश्नव्याकरण और जयपायड की विषयवस्तु की आंशिक समानता हो। इस मान्यता का एक आधार यह है कि ऋषिभाषित, समवायांग, 'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' नामक जिस ग्रन्थ का हमने उल्लेख नन्दी एवं अनुयोगद्वार में वागरणगंथा एवं पण्हावागरणाइं- ऐसे बहुवचन किया है, उसकी विषय सामग्री निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है। पुन: प्रयोग मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इस काल में वाचनाभेद उसमें कर्ता ने तीसरी गाथा में 'पण्हं जयपायडं वोच्छं' कहकर के से या अन्य रूप अनेक प्रश्नव्याकरण उपस्थित रहे होंगे। प्रश्नव्याकरण और जयपायड की समरूपता को स्पष्ट किया है। प्रस्तुत इन प्रश्नव्याकरणों की संस्कृत टीका सहित ताड़पत्रीय प्रतियां ग्रन्थ की इसी गाथा की टीका में ग्रन्थ की विषयवस्तु को स्पष्ट करते में ये ग्रन्थ अस्तित्व में थे, क्योंकि ९-१०वीं शताब्दी में जब इनकी टीकाएं लिखी गईं, तो उसके पूर्व भी ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में रहे होंगे। सम्भवत: ईसा की लगभग २-३री शताब्दी में प्रश्नव्याकरण में निमित्तशास्त्र सम्बन्धी सामग्री जोड़ी गई हो और फिर उसमें से ऋषिभाषित का हिस्सा अलग किया गया और उसे विशिष्ट रूप से एक निमित्तशास्त्र आदि सम्बन्धी प्रश्न हैं। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि धवलाकार ने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख किया है उसकी इससे बहुत कुछ समानता है। 21 प्रस्तुत ग्रन्थ के विषयों में मुष्टिविभाग प्रकरण, नष्टिका चक्र, संख्या प्रमाण, लाभ प्रकरण, अस्त्रविभाग प्रकरण आदि ऐसे हैं जिनकी विषयवस्तु समवायांग में प्रश्नव्याकरण के वर्णित विषयों से यत्किचित् समान हो सकती है।२२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित होते हुए भी विद्वानों को इस ग्रन्थ की था। किन्तु जब परवर्ती आचार्यों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा जानकारी नहीं है। यह जैन निमित्तशास्त्र का प्राचीन एवं प्रमुख ग्रन्थ है। और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमित्तिक विद्याओं की ग्रन्थ की भाषा को देखकर सामान्यतया यह अनुमान किया जा उपासना में रत देखा होगा तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त सकता है कि यह ईस्वी सन् की चौथी-पाँचवी शताब्दी की हो सकती विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार है। ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त पायड या पाहुड शब्द से भी यह फलित वाला विवरण रख दिया। प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं होता है कि यह ग्रन्थ लगभग पाँचवी शताब्दी के आसपास की रचना ज्ञानविमल ने भी विषय-परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार होना चाहिए, क्योंकि कसायपाहुड एवं कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ इसी किया है।२२ / कालावधि के कुछ पूर्व की रचनाएं हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में भी विषयों का प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी वर्गीकरण पाहुडों के रूप में हुआ है। अत: यह सम्भावना हो सकती गई और उसके स्थान पर पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार रूप है कि जयपायड प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण का कोई रूप हो, नवीन विषयवस्तु रख दी गई, यह प्रश्न भी विचारणीय है। अभयदेवसूरे यद्यपि इस सम्बन्ध में अन्तिमरूप से तभी कुछ कहा जा सकता है ने अपनी स्थानांग और समवायांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश जब प्रश्नव्याकरण के नाम से मिलने वाली सभी रचनाएं हमारे समक्ष किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध उपस्थित हों और इनका प्रामाणिक रूप से अध्ययन किया जाये। नहीं है।२४ मात्र यही नहीं, उन्होंने पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण पर ही टीका लिखी है। अत: विषय-सामग्री में परिवर्तन क्यों? वर्तमान संस्करण की निम्नतम सीमा अभयदेव के काल अर्थात् ईस्वी यद्यपि यहां यह प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठता है कि प्रथम सन् 1080 से पूर्ववर्ती होना चाहिए। पुन: अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित आदि भाग को हटाकर उसमें में एक श्रुतस्कन्ध है या दो श्रुतस्कन्ध है इस समस्या को उठाते हुए निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण रखना और फिर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य का मत उद्धृत विवरण हटाकर आश्रवद्वार और संवरद्वार सम्बन्धी विवरण रखना- यह किया है- 'दो सुयसंघा पण्णत्ता आसवदारा य संवरदारा य-।' अभयदेव सब क्यों हुआ? सर्वप्रथम ऋषिभाषित आदि भाग क्यों हटाया गया? ने पूर्वाचार्य की मान्यता को अस्वीकार भी किया है और यह भी कहा मेरी दृष्टि में इसका कारण यह है कि ऋषिभाषित में अधिकांशत: अजैन है कि यह दो श्रुतस्कन्धों की मान्यता रूढ़ नहीं है। सम्भवतः उन्होंने परम्परा के (ऋषियों के उपदेश एवं विचार संकलित थे- इसके पठन- अपना एक श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी मत समवायांग और नन्दी के आधार पाठन से एक उदार दृष्टिकोण का विकास तो होता था, किन्तु जैनधर्म ___ पर बनाया हो। इसका अर्थ यह भी है कि अभयदेव के पूर्व भी संघ के प्रति अटूट श्रद्धा खण्डित होती थी तथा परिणामस्वरूप संघीय प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में ही कोई व्याख्या व्यवस्था के लिए अपेक्षित धार्मिक कट्टरता और आस्था टिक नहीं लिखी गई थी, जिसमें दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता को पुष्ट किया गया पाती थी। इससे धर्मसंघ को खतरा था। पुन: यह युग चमत्कारों द्वारा था। उसका काल अभयदेव से 2-3 शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की लोगों को अपने धर्मसंघ के प्रति आकर्षित करने और उनकी धार्मिक 8 वीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा। पुन: आचार्य जिनदासगणि श्रद्धा को दृढ़ करने का था- चूंकि तत्कालीन जैन परम्परा के साहित्य महत्तर ने नन्दीसूत्र पर शक संवत् 598 अर्थात् ईस्वी सन् 676 में इसका अभाव था, अत: उसे जोड़ना जरूरी था। समवायांग में ई० में अपनी चूर्णी समाप्त की थी। उस चूर्णी में उन्होंने प्रश्नव्याकरण प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध हैं उससे भी इस तथ्य में पंचसंवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है।२६ इससे की पुष्टि होती है-उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोगों को भी यह सिद्ध हो जाता है कि ईस्वी सन् 676 के पूर्व प्रश्नव्याकरण जिनप्रवचन में स्थित करने के लिए, उनकी मति को विस्मित करने का पंचसंवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लिए सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इसमें- के लेखनकाल के पश्चात् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान महाप्रश्नविद्या, मनःप्रश्नविद्या, देवप्रयाग आदि का उल्लेख किया गया प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर निमित्तशास्त्र को पापसूत्र की प्रथम गाथा, जिसमें 'वोच्छामि' कहकर ग्रन्थ के कथन का निश्चय कहा गया, किन्तु संघहित के लिए दूसरी ओर उसे अंग आगम में सूचित किया गया है, की रचना शेष सभी अंग आगमों के प्रारम्भिक सम्मिलित कर लिया गया, क्योंकि जब तक उसे अंग साहित्य का कथन से बिलकुल भिन्न है। यह ५वीं-६ठी शताब्दी में रचित ग्रन्थों भाग बनाकर जिनप्रणीत नहीं कहा जाता तब तक लोगों की आस्था की प्रथम प्राक्कथन गाथा के समान ही है। अत: प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण उस पर टिक नहीं पाती और जिनप्रवचन की अतिशयता प्रकट नहीं रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी माना जा सकता है। होती। अत: प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में परिवर्तन करने का दोहरा इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वह प्रश्नव्याकरण जिसमें उसकी लाभ था एक ओर अन्यतीर्थिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थी, प्राचीनतम किया जा सकता था और दूसरी ओर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी नई संस्करण है जो लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना होगी। सामग्री जोड़कर उसकी प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता फिर ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज 81 विवरण जुड़े जिनकी सूचना उसके स्थानांग के विवरण से मिलती तक प्रश्नव्याकरण के उपर्युक्त दो प्राचीन लुप्त संस्करणों की है। इसके पश्चात् ईसा की चौथी शताब्दी में ऋषिभाषित आदि भाग विषयवस्तु का प्रश्न है, उसमें से प्रथम संस्करण की विषयवस्तु अलग किये गये और उसे निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया, समवायांग अधिकांश रूप से एवं कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान में उपलब्ध का विवरण इसका साक्षी है। इस काल में प्रश्नव्याकरण के नाम से ऋषिभाषित (इसिभासियाई), उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग एवं ज्ञाताधर्मकथा वाचनाभेद से अनेक ग्रन्थ अस्तित्व में थे ऐसी भी सूचना हमें आगम में समाहित है। द्वितीय निमित्तशास्त्र सम्बन्धी संस्करण की विषयवस्तु, साहित्य से मिल जाती है। लगभग ईसा की 6 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध जयपायड और प्रश्नव्याकरण के नाम से उपलब्ध अन्य निमित्तशास्त्रों में इन ग्रन्थों के स्थान पर वर्तमान प्रश्नव्याकरण सूत्र का आश्रव एवं के ग्रन्थों में हो सकती है। यद्यपि इस सम्बन्ध में विशेषरूप से संवर के विवेचन से युक्त वह संस्करण अस्तित्व में आया है जो वर्तमान शोध की आवश्यकता है। आशा है विद्वद्जन इस दिशा में ध्यान में हमें उपलब्ध है। यह प्रश्नव्याकरण का अन्तिम संस्करण जहां देंगे। सन्दर्भ पण्हावागरणेसु अद्वैत्तरं पसिणसयं अत्तरं अपसिणसयं अद्भुत्तरं बाहपसिणाइं अद्दागपसिणाई, अन्नेवि विचित्ता विज्जाइसया, नाग-सुवण्णेहिं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्नेहिं सद्धिं दिव्व संवाया सद्धिं दिव्या संवाया आघविज्जन्ति। आघविज्जंति। -समवायांगसूत्र, 546 / पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वागरणगंथाओ पभिति............। इसिभासियाई-३१। वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जत्तीओ, संखेज्जाओ, पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-उवमा, संख, संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ। इसिभासियाई, आयरियभासियाई, महावीरभासियाई, खोमगपसिणइं, से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंघे, पणयालीसं अज्झयणा, कोमलपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई। - पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई स्थानांगसूत्र, 10/116 पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता से किं तं पण्हावागरणाणि? पण्हावागरणेसु अट्ठत्तरं पसिणसयं पज्जवा, परित्ता तसा, अणन्ता थावरा, सासयकडनिबद्धनिकाइया अद्भुत्तरं अपसिणसयं, अद्रुत्तरं सिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्नेहि जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जन्ति, पण्णविज्जन्ति, परूविज्जन्ति, सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जंति। दंसिज्जन्ति, निदंसिज्जन्ति, उवदंसिज्जन्ति। पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमय पण्णवय-पत्तेअबुद्ध- से एवं आया, एवं नाया एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा विविहत्थभासा-भासियाणं अइसयगुण-उवसम-णाणप्पगार- आघविज्जई, स तं पण्हावागरणाई। -नन्दीसूत्र,५४। आयरियभासियाणं वित्थरेणं, वीरमहेसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च आक्षेपविक्षेपैहेंतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, जगहियाणं अद्दागंगुट्ठ-बाहु-असि-मणि-खोम-आइच्चभासियाणं तस्मिल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः।-तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20 विविहमहापसिणविज्जा-मणपसिणविज्जा-देवयपयोग-पहाण-गुणप्पगासियाणं (पृ० 73-74) / सब्भूयदुगुणप्पभाव-नरगणमइविम्हयकराणं अइसयमईयकालसमय अक्खेवणी विक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी चेदि चउविहाओ दम-सम-तित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगम-दुरवगाहस्स कहाओ वण्णेदि तत्थ अक्खेवणी नाम छद्दव्व-णव पयत्थाणं सरूवं सव्वसव्वन्नुसम्मअस्स अबुह-जण-विबोहणकरस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं दिगंतरसमयांतर-णिराकरणं मुद्धिं करेंती परूवेदि। पण्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविज्जति। विक्खेवणी णाम परसमएण ससमयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करती पण्हावागरणेसुणं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ ससमयं थावंती छद्दव्वा-णवपयत्थे परूवेदि।। पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ संवेयणी णाम पुण्णफलसंकहा। काणि पुण्णफलाणि? तित्थयरनिज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ। गणहर-रिसि-चक्कवट्टि-बलदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ। से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं उद्देसणकाला, णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि? णिरय-तिरियपणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं कुमाणुसजोणीसु जाइ-जरा-मरण-वाहि-वेयणा- दालिद्दादीणि। पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता संसारसरीरभोगेसु वेरग्गुप्पाहणी णिव्वेयणीणा........। तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता पण्हाओ हद-नट्ठ-मुट्ठि-चिंता-लाहालाह-सुह-दुक्ख-जीविय- मरणभावा आघविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जति निदंसिञ्जति उवदंसिज्जंति। से एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया जय-पराजय-णाम-दव्वासु-संखं च परूवेदि। आघविज्जंति। से तं पण्हावागरणाई 10 / -धवला,पुस्तक 1, भाग१, पृ० 107-8 / -समवायांगसूत्र, 546-549 / 8. वागरणगयाआ पाभात जाव साामत्त इम अज्झयण ताव इमा बाआ 5. से किं तं पण्हावागरणाइं? पण्हावागरणेस णं-अट्ठत्तरं पसिणसयं, पाढो दिस्सति, तंजहाः अद्भुत्तरं अपसिणसयं, अट्ठत्तर पसिणापणिसयं, तंजहा-अंगुट्ठपसिणाई, -इसिभासियाई, अध्याय 31| Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 9. नवविहे पावसुयपसंगे पण्णत्ते, तं जहा उप्पाए, नेमित्तए, मत्ते, आइक्खए, तिगिच्छीए। कलावरण-अन्नाणे, मिच्छापावयणत्तिय।। - स्थानाँग, स्थान 9 10. पत्तेयबुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिट्ठणेमिस्स। पासस्स य पण्णरस वीरस्स विलीणमोहस्स।। - इसिभासियाई, पढमा संग्रहणी, गाथा, 1 11. चोयलीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुया भासिया पण्णत्ता। . - समवायांगसूत्र, 44/258 12. अंगट्ठाए दसमे अंगे, एगे सुअखंधे, पणयालीसं अज्झयणा। -नन्दीसूत्र-५४। 13. (क) पदग्गं बाणउतिंलक्खा सोलस य सहस्सा। - नन्दीचूर्णि, पृ०७०। (ख) द्विनवतिलक्षाणि षोडश च सहस्राणि। 14. पण्हवायरणो णाम अंग तेणउदिलक्ख–सोलससहस्सपदेहि। -धवला, भाग 1, पृ० 104 15. समवायांग, 547 16. समवायांग, 547 17. प्रश्नव्याकरण, जयप्राभृत, (ग्रन्थ० 228), जैन ग्रन्थावली, पृ०३५५। (अ) चूडामणिवृत्ति (ग्रन्थ 2300), पाटन केटलोग, भाग 1, पृ० 8 (ब) लीलावती टीका, पाटन केटलोग, भाग 1, पृ० 8 एवं इन्ट्रोडक्शन, 20. महमाहप्पुप्पाय, भुवणब्भंतरपवंत (वत्त) वावारं। अइसयपुण्णं णाणं, पण्हं जयपायडं वोच्छं।। -प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् 3 / 21. नष्टमुष्टिचिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुःख-जीवित-मरणाभिव्यजंकत्वम्। -प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्, टीका। तुलनीय- पण्हादो हद-नट्ठ-पुट्ठि-चिंता-लाहालाहसुह-दुक्ख-जीवियमरण-जथ-णाम-दव्वायु-संखं च परूवेदि। -धवला, भाग 1, पृ० 107-8 22. प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। - प्रकरण 14, 17, 21, 38 / 23. (अ) अतिशयानां पूर्वाचार्यैरेदंयुगीनानामपुष्टालम्बनप्रतिषेविपुरुषापेक्ष योत्तारितत्वादिति। - प्रश्नव्याकरणवृत्ति (अभयदेव) प्रारम्भ। (ब) पूर्वाचायैरेदंयुगीनपुरुषाणां तथाविधहीनहीनतरपाण्डित्यबलबुद्धिवीर्यापेक्षया पुष्टालम्बनमुद्दिश्य प्रश्नादिविधास्थाने पंचाश्रव-संवररूपं समुत्तारितम्। -प्रश्नव्याकरण टीका (ज्ञानविमल), प्रारम्भ। 24. (अ) प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशा दशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्थपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशा:। अयं च व्युत्पत्त्यर्थोऽस्य पूर्वकालेभूत्। इदानीं त्वाश्रवपंचकसंवरापंचकव्याकृतेरेवेहोपलभ्यते। -- प्रश्नव्याकरण वृत्ति (अभयदेव) प्रारम्भ। (ब) प्रश्ना: अंगुष्ठादिप्रश्नविद्या व्याक्रियन्ते अभिघीयन्ते अस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् एतादृशं पूर्वकालेऽभूत। इदानीं तु आश्रव-संवरपंचकव्याकृतिरेव लभ्यते। -प्रश्नव्याकरण टीका (ज्ञानविमल) प्रारम्भ। 25. शकराज्ञो पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नंद्यध्ययनचूर्णी समाप्ता।। -नन्दीचूर्णि (प्राकृत-टेक्स्ट-सोसायटी)। पाठान्तर-सकराक्रान्तेषु पंचसु वर्षशतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता।। -नन्दीचूर्णि (ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम)। 26. तम्हि पण्हावागरणे अंगे पंचासवदाराई वा व्याख्येयाः परप्पवादिणो य। –णंदीत्तचूण्णि, पृ० 69 / पृ०६। (स) प्रदर्शनज्योतिर्वृत्ति, पाटन केटलोग, भाग 1, पृ० 8 एवं इन्ट्रोडक्शन, पृ०६। बृहद्वृत्तिटिप्पणिका (जैन साहित्य संशोधक, पूना 19:5, क्रमांक 560), जैन ग्रन्थावली, पृ० 355 / -जिनरत्नकोश, पृ० 274 18. जिनरत्नकोश, पृ० 274 /