Book Title: Prakrit katha Sahitya ka Mahattva
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —•— प्राकृत कथा साहित्य का महत्व D डॉ० उदयचन्द्र जैन, प्राध्यापक, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत साहित्य की लोकप्रियता उसके सर्वोत्कृष्ट कथा-साहित्य के ऊपर आश्रित है। मानव-जीवन का सहज आकर्षण इसी विधा पर है क्योंकि कथा-साहित्य में मानव-जीवन के सत्य की अभिव्यंजना, कला-माधुर्य और उत्कण्ठा को सार्वभौमता स्पष्ट रूप से झलकती है। मानव को सुसंस्कृत संस्कारों के साथ उल्लास भरी दृष्टि इसी से प्राप्त होती है जब हम अपनी दृष्टि सीमित क्षेत्र को छोड़कर उन्मुक्त पक्षी की तरह फैलाते हैं, तब हमें प्राचीनता में भी नवीनता का अभास होने लगता है। जिसे आज हम प्राचीन कहते हैं, वह कभी तो नवीन रूप को लिए होगी । आज जो कुछ है, वह पहले नहीं था, यह कहना मात्र ही हो सकता है जो आज हमारे सुसंस्कृत एवं धार्मिक विचार हैं, वे सब प्राचीनता एवं हमारी संस्कृति के ही धोतक हैं। मानव के हृदय परिवर्तन के लिये कथानकों का ही माध्यम बनाया जाता है। उपनिषद्, वेद, पुराणों में जो आख्यान हैं, वे निश्चित ही गूढ़ार्थ का प्रतिपादन करते हैं । पुराण - साहित्य का विकास वेदों की मूलभूत कहानियों के आधार पर हुआ है। पंचतन्त्र, हितोपदेश, बृहत्कथामंजरी, कथासरितसागर आदि संस्कृत आख्यान एवं बौद्ध-जातककथाएँ विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं। फिर भी प्राकृत कथा साहित्य ने जो कथा-साहित्य के विकास में योगदान दिया यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। प्राकृत कथा साहित्य बहुमुखी कारणों को लिये हुए है। जैन आगम परम्परा का साहित्य कथा एवं आख्यानों से भरा हुआ है । नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अंतगड, अनुत्तरोपातिक, विवागसुत्त आदि अंग ग्रन्थों की समग्र सामग्री वात्मक है। इसके अतिरिक्त ठाणांग, सूयगडंग आदि अनेक रूपक एवं कथानकों को लिए हुए सिद्धान्त की बात का विवेचन करते हैं, जो प्रभावक एवं मानव जीवन के विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण माने गये हैं। प्राकृत कथा साहित्य ईसा की चौथी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक प्राकृत कथा साहित्य का विशेष विवेचन के साथ निर्माण होता रहा है । आज प्राकृत कथा साहित्य इतने विपुल रूप में है कि इसके शोध के १०० वर्ष भी कम पड़ जायेंगे। इस साहित्य में समाज, संस्कृति, सभ्यता, राजनीति चित्रण, मन्त्र-तन्त्र एवं आयुर्वेद आदि विषयों का विवेचन पर्याप्त रूप में प्राप्त होता ही है साथ ही प्रेमाख्यानों की भी अधिकता है। कई ऐसे गम्भीर हृदय को ओत-प्रोत करने वाले विचारों का भी चित्रण किया गया है । जैन प्राकृत कथा-साहित्य अन्य कथा-साहित्य की अपेक्षा समृद्ध भी है। जैन कथा साहित्य में तीर्थंकरों श्रमणों एवं शलाकापुरुषों के जीवन का चित्रण तो हुआ ही है, परन्तु कथानकों के साथ आत्मा को पवित्र बनाने वाले साधनों का भी प्रयोग किया गया है। धार्मिक कहानियाँ प्रारम्भ में अत्यन्त रोमांचकारी होती हैं और आगे कथानक की रोचकता के साथ दुःखपूर्ण वातावरण से हटकर सुखपूर्ण वातावरण में बदल जाती है। प्रत्येक कथा का कथानक एकांगी न होकर बहुमुखी होता है, जिसमें भूत, भविष्यत और वर्तमान के कारणों का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है। देश, काल के अनुसार कथानक में सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं प्राकृतिक चित्रण का भी पूर्ण समावेश देखा जाता है, जिससे हमें तत्कालीन विशेषताओं का भी प्रर्याप्त बोध हो जाता है । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत कथा साहित्य का महत्व प्राकृत कथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ काव्य की दृष्टि से प्राकृत कथा साहित्य को भी महाकाव्य, खण्डकाव्य और मुक्तककाव्य में विभाजित किया जा सकता है। पउमचरित्र, जंवरि पासनाहचरिअ, महावीरचरित्र, सुपासनाहचरित्र सुदंसणचरित्र कुमारपालचरि आदि महाकाव्य के लक्षणों से पूर्ण हैं । इन चरित्र -प्रधान काव्यों में प्रांतज, देशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है तथा जिस प्रान्त में कथा काव्यों को लिखा गया, उस प्रान्त की संस्कृति सभ्यता, रहन-सहन का भी बोध हो जाता है । समराइच्चकहा, णाणपंचमीकहा, आक्खाणमणिकोस, कुमारवालपडिवोह, पाइअकहासंग्गह, मलयसुन्दरीकहा, सिरीबालकहा, कंबोडो, लीलावई, सेतुबंध, वसुदेवडी, आदि प्रमुख खण्डकाव्य हैं। मुक्तक काव्य के रूप में गाथा सप्तसती का विशेष नाम आता है। इन सभी कथा - काव्यों में त्याग, तपश्चर्या, साधना पद्धति एवं वैराग्य - भावना की प्रचुरता है। ये साधन जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण कहे गये हैं। इस मार्ग का अनुसरण कर मानव अपने जीवन को - समुन्नत बना सकता है । कथाओं का वर्गीकरण प्राकृत कथाओं का वर्गीकरण विषय, पात्र, शैली और भाषा की दृष्टि से किया जा सकता है। विषय की दृष्टि से आगम ग्रन्थों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ रूप कथाओं के भेद उपलब्ध होते हैं । दशकालिक में 'अत्थकहा, कामकहा, धम्मक हा चेव मीसिया य कहा' । अर्थात् ४६७ (१) अर्थकथा, (१) कामकथा, (३) धर्मकथा और (४) मिश्रितकथा — इन चार कथाओं और उनके भेदों का वर्णन दशवैकालिक सूत्र में किया गया है। समराइच्चकहा में अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और संकीर्णकथा का उल्लेख आता है । आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण प्रथम पर्व में ( श्लोक ११८ - ११९) में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थ रूप कथाओं का वर्गीकरण करते हुए कहा है कि “धर्मकथा आत्मकल्याणकारी है और यह ही संसार के बन्धनों से मुक्त कर सच्चे सुख को प्रदान करने वाली है।" अर्थ और काम कथा धर्मकथा के अभाव में विकथा कहलायेंगी । डा० नेमिचन्द्र ने कथा साहित्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "लौकिक जीवन में अर्थ का प्रधान्य है। अर्थ के बिना एक भी सांसारिक कार्य नहीं हो सकता है सभी सुखों का मूलकेन्द्र अर्थ है अतः मानव की आर्थिक समस्याओं और उनके विभिन्न प्रकारों के समाधानों की कथाओं, आख्यानों और दृष्टान्तों के द्वारा व्यंग या अनुमित करना अर्थकथा है। अर्थ कथाओं को सबसे पहले इसीलिए रखा गया है कि अन्य प्रकार की कथाओं में भी इसकी अन्विति है" । " विद्या, शिल्प, उपाय के लिए जिसमें वर्णन किया गया हो, वह अर्थ कथा है । क्योंकि अर्थ की प्रधानता अर्थात् असि मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और सेवा कर्म के माध्यम से कथावस्तु का निरूपण किया जाता है । प्रेमीप्रेमिका की आत्मीयता का चित्रण काम - कथाओं में किया जाता है। प्रेम के कारणों का उल्लेख हरिभद्रसूरि की दशकालिक के ऊपर लिखी गयी वृत्ति में किया गया है— सई दंसणाउ पेम्मं पेमाउ रई रईय विस्संभो । विस्संना पणओ पंचविहं वड्ढए पेम्मं ॥ अर्थात् सदा दर्शन, प्रेम, रति, विश्वास और प्रणय-पाँच कारणों से प्रेम की वृद्धि होती है । पूर्ण सौन्दर्य वर्णन (नख से शिख का) तथा वस्त्र, अलंकार, सज्जा आदि सौन्दर्य के प्रतीक हैं और इन्हीं माध्यमों या साधनों के आधार पर कामकथा का निरूपण किया जाता है । धर्मकथा द्रव्य क्षेत्र, काल, तीर्थ, भाव एवं उसके फल की महत्ता पर प्रकाश डालती है । क्षमा, मार्दव, १. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ० नेमिचन्द्र पृ० ४४५. . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .-.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-. ...marare.............................. आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और परिग्रह इन दर्शधर्म रूप साधनों का विशेष कथानकों के माध्यम से निरूपण किया जाता है। जीव के भावों का निरूपण भी धर्मकथा का माध्यम होता है। वीरसेनाचार्य ने धवलाटीका में आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार प्रकार की धर्मकथाओं का उल्लेख किया है। दशवकालिक में उक्त कथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। पात्र एवं चरित्र-चित्रण के आधार पर प्राकृत कथा साहित्य में दिव्या, दिव्यमानुषी और मानुषी इन तीन भेदों का उल्लेख किया है। लीलावई' कथा में दिव्यमानुषी कथा को विशेष महत्त्व दिया है। समराइच्चकहा' में भी दिव्वं, "दिव्वमाणुसं, माणुसं च' अर्थात् दिव्य, दिव्यमानुष और मानुष इन इन कथाओं का उल्लेख किया है तथा इन कथाओं में से देवचरित्र वाली कथाओं को विशेष महत्त्व दिया है। दिव्य-कथाओं में दिव्यलोक (देव-लोक) के पात्र होते हैं और उन्हीं की घटनाओं के आधार पर कथा का विस्तार किया जाता है। दिव्य-मानुष-कथा में देवलोक और मनुष्यलोक के पात्रों के आधार पर कथानक को आदर्श एवं सर्वप्रिय बनाया जाता है। मानुष-कथा में मनुष्य लोक के ही पात्र होते हैं । उनके चरित्रों में पूर्ण मानवता की झलक रहती है। शैली और भाषा के आधार पर कौतूहल कवि ने संस्कृत, प्राकृत और मिश्र इन तीन रूप में वर्गीकरण किया है। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में स्थापत्य के आधार पर पाँच भेद किये हैं-'सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा । तहावरा कहियत्ति सकिण्णकत्ति ।' अर्थात् सकलकथा, खण्डकथा, उल्लासकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा इसमें भी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए सकल कथा को महत्त्वपूर्ण बतलाया है। इसकी शैली महाकाव्य के लक्षणों से युक्त होती है। इसमें शृगार, वीर और शान्त रस में से किसी एक रस की प्रमुखता होती है। इसका नायक आदर्श चरित्र वाला होता है। खण्डकथा की कथावस्तु छोटी होती है। इसमें एक ही कथानक प्रारम्भ से अन्त तक चलता रहता है। उल्लासकथा में नायक के साहसिक कार्यों का निरूपण किया जाता है। परिहास कथा हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण श्रोताओं को हँसाने वाली होती है। मिश्र-कथा में अनेक तत्त्वों का मिश्रण होता है, जो जनमानस के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करती रहती है। प्राकृत-कथा-साहित्य का दृष्टिकोण जितने भी आगम ग्रन्थ हैं, उन सभी में किसी न किसी रूप में हजारों दृष्टान्तों द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों, आध्यात्मिक तत्त्वों, नीतिपरक विचारों एवं गूढ़ से गूढ़ समस्याओं का समाधान प्राप्त हो जाता है। ये आगम ग्रन्थ कथानकों से परिपूर्ण हैं, इनके ऊपर लिखी गयी नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि अनेक कथानकों का भी चित्रण करते हैं। आगम-ग्रन्थ केवल धार्मिक या आध्यात्मिक होने के कारण महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही कथा-साहित्य के विकास में प्राकृत साहित्य के इन आगम ग्रन्थों का और भी महत्त्व बढ़ जाता है। क्योंकि प्रत्येक आगम मग की नाभि की कस्तुरी की तरह है। जो इनकी गहराइयों में प्रवेश कर जाता है वह अपने विकास के साधनों को अवश्य खोज निकालता है । प्राकृत-कथा साहित्य में प्रयुक्त आख्यान सजीव, मनोरंजक और उपदेशपूर्ण है। आचारांग में महावीर की जीवनगाथा का वर्णन किया है। साधना, तपश्चर्या एवं परीषह सहन का मार्मिक चित्र पढ़ने को मिलता है। कल्पसूत्र में तीर्थंकरों की नामावली का उल्लेख है। न्यायाधम्मकहाओ जो कि मूल रूप से प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों में और दूसरे श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में अनेक ऐसे कथानक हैं, जिन्हें पढ़कर या सुनकर व्यक्ति अपने जीवन की सार्थकथा को समझ सकता है। कूर्म अध्ययन ० ० १ लीलावई-गा० ३५ "तं जह दिब्बा, तह दिवमाणुसी माणुसी तहच्चेय २ समराइच्चकहा का सांस्कृतिक अध्ययन-डॉ० झनकू यादव ३ डॉ. प्रेमसुमन-कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्व ४६६ ...................................... ....-. -. -.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-... में पंचेन्द्रिय गोपन के कारण का निर्देश किया है तथा इस उदाहरण द्वारा यह बतलाने की कोशिश की है कि जो चंचल कछुए की तरह इन्द्रियों को रखता है, वह निश्चित ही मारा जाता है और जो इन्द्रियों को वश में किये हुए रहता है, वह मुक्ति की ओर अग्रसर हो जाता है। तुम्बक अध्ययन में अष्टकर्म के विषय में समझाया गया है। जो कर्म से युक्त रहता है, वह बन्धनों से युक्त रहता है, परन्तु जो बन्धन तू बी पर अष्टलेप लगे होने पर भी संयम तप आदि से उन लेप को दूर कर अष्ट लेपों से रहित होकर तूंबी की तरह ऊपर जाता है, वह बन्धनों से छूट जाता है। भगवती सूत्र में संवाद शैली का प्रयोग किया गया है, जो अपने आप में एक विशिष्ट स्थान रखती है। सूत्रकृतांग के छठे और सातवें अध्ययन में आर्द्र कुमार के गोशालक और वेदान्ती तथा पेढालपुत्र उदक के गौतम स्वामी के साथ वार्तालाप का उल्लेख आता है। द्वितीय खण्ड में पुण्डरीक का आख्यान बहुत ही शिक्षापूर्ण है। उत्तराध्ययन' में अनेक भावपूर्ण एवं शिक्षापूर्ण आख्यान है। प्रथम अध्ययन में विनय का आख्यान आज की परम्परा के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके सभी आख्यान गहन-सैद्धान्तिक तत्त्वों को समाविष्ट किये हुए पद्यशैली में अपने एक विशेष आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। राजीमती और रथनेमि, केशीकुमार और गौतम, भृगुपुत्र आदि के संवाद कर्णप्रिय के साथ अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। सनाथ और अनाथ का परिसंवाद विशुद्ध आचार की शैली को प्रकट करता है। श्रमण की भूमिका क्या, कैसी होनी चाहिए इसकी सम्यक विवेचना उत्तराध्ययन के प्रत्येक अध्ययन में समाविष्ट है। सुभाषित वचनों से युक्त गीता की तरह उत्तराध्ययन भी विशुद्ध भावों से परिपूर्ण ग्रन्थ है। धम्मपद का जो स्थान बौद्धधर्म में है वही उत्तराध्ययन का जैनधर्म में है। श्रमण परम्परा के अनुयायी इसका अध्ययन करते हैं और इसके धर्म का अनुसरण करते हैं। गुहस्थ भी इसका अध्ययन करके अपने जीवन को महत्त्वपूर्ण बना सकते हैं। प्राकृत कथा साहित्य धीरे-धीरे आगम परम्परा से हटकर साहित्यिक सरस वर्णन के साथ एकरूपता के स्थान पर विविधता और नवीनता से युक्त होकर मानव-मन का मनोरंजन करने लगा। पात्र, विषयवस्तु, वातावरण, उद्देश्य, रूपगठन एवं नीति-संश्लेषण आदि का प्रयोग और भी अधिक रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा, जो अत्यन्त ही विस्तृत रूप से कथा-साहित्य के विकास का साधन बन गया। विशुद्ध कथा का रूप प्रथम तरंगवती में आया है । पादलिप्त सूरि ने इस कथा ग्रन्थ की रचना प्रेमकथा के आधार पर विक्रम संवत् की तीसरी शती में की है। वसुदेवहिण्डी वसुदेव के भ्रमण एवं शलाकापुरुषों के जीवनवृत्त के साथ अनेक मनोरंजक कथानकों से परिपूर्ण है। हरिभद्रसूरि' की समराइच्चकहा प्राकृत कथा-साहित्य की समृद्धि का कारण माना गया है । धूर्ताख्यान इसी लेखक की एक व्यंगप्रधान अत्यन्त रोचक रचना है, जिसमें पाँच धूर्तों की बातों का आख्यान अत्यन्त ही रोमांटिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अपनी शैली का एक विशिष्ट एवं अनुपम कथा ग्रन्थ हैं। समराइच्चकहा एक धर्मकथा है। जिसमें आख्यानों के माध्यम से धर्म की विशेषताओं का परिचय दिया है। नायक-नायिकाओं के प्रेम-कथाओं और उनके चरित्रों का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। पहले कथानक प्रेम रूप में पल्लवित होता है और अन्त में वही कथानक संसार की असारता को प्रकट करता हुआ वैराग्य की ओर मुड़ जाता है । इसके कथानक कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन करते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इस काव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा है और कहीं-कहीं पर शौरसेनी है। प्राकृत का भी प्रभाव स्पष्ट रूप से पाया जाता है । भाषा सरल एवं प्रवाहबद्ध है। १. डॉ० सुदर्शन जैन-उत्तराध्ययन का सांस्कृतिक अध्ययन, प्र. पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी २. डा० जगदीशचन्द्र जैन-वसुदेवहिण्डी का आलोचनात्मक अध्ययन, अहमदाबाद, १९७६ ३. डा० नेमिचन्द्र-हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +G ४७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कुवलयमाला, कथाकोषप्रकरण, कहारयणकोस, आख्यानकमणिकोष, कुमारपालप्रतिबोध आदि कुछ ऐसे थ काव्य हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सीलावई का प्रेम कथाकृति में महत्वपूर्ण स्थान है। समराइन्बकहा और लीलावईकहा का स्थान एक हो है। दोनों ही अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं। फिर भी दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। कथानक दोनों ही प्रेम से प्रारम्भ होते हैं, परन्तु लीलावई पूर्ण प्रेम-परक कथा का रूप लेकर ही सामने आती है। जबकि समराइच्चकहा प्रेमाख्यान के साथ धर्माख्यान की विशेषताओं से भी महत्त्वपूर्ण हैं । हरिभद्रसूरि ने स्वयं ही इसे धर्मकथा के रूप में स्वीकार किया है। उद्योतनसूरि की कुवलयमाला भी अनेक अवान्तर कथाओं से युक्त है इसके कथानक धर्मपरक और प्रेमरक दोनों रूप हैं । इस काव्य के कथानक कौतूहल के साथ मनोरंजन भी करते हैं । प्राकृत-कथा-साहित्य और वैचारिकों का दृष्टिकोण डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने प्राकृत-कथा को लोक कथा' का आदि रूप कहा है । गुणाढ्य की बृहत्कथा लोककथाओं का विश्वकोष कहा जाता है । प्राकृत कथा साहित्य का मूल ध्येय ऐसे कथानकों से रहा है जो प्रभावक हो तथा जीवन में नया मोड़ उत्पन्न कर सके। पालि कथा साहित्य भी विस्तृत एवं विपुलकाय है, परन्तु सभी कथानकों का एक ही उद्देश्य, एक ही शैली एवं एक ही दृष्टिकोण पुनर्जन्म तक सीमित है । उपदेशपूर्ण कथानक होते हुए बोधिसत्व की प्राप्ति के कारण तक पालि ही कथा की सीमा है । जबकि प्राकृत कथा साहित्य जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्ध के साथ सैद्धान्तिक भावों को भी गम्भीरता के साथ प्रस्तुत करता है। प्राकृत कथा का विकास प्रेमकथा या लोककथा के साथ होता चला जाता है । पात्र के चरित्र-चित्रण की विशेषताक्षों के साथ नैतिक, सैद्धान्तिक एवं धार्मिक विचारों को प्रतिपादित करता है । डा० जगदीशचन्द्र जैन ने प्राकृत जैन तथा साहित्य में कथा साहित्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि जब मानव ने लेखन कला नहीं सीखी थी, तभी से यह कथा-कहानियों द्वारा अपने साथियों का मनोरंजन करता आया है । प्रो० हर्टले का विचार है कि "कहानी कहने की कला की विशिष्टता प्राकृत कवाओं में पायी जाती है। ये कहानियां भारत के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों के रस्म-रिवाज को पूर्ण सचाई के साथ अभिव्यक्त करती हैं। ये कथाएँ जनसाधारण की शिक्षा का उद्गम स्थान ही नहीं है, वरन् भारतीय सभ्यता का इतिहास भी है ।" विण्टरनित्स ने लिखा है कि " प्राकृत का कथा साहित्य सचमुच में विशाल है । इसका महत्त्व केवल तुलनात्मक परिक साहित्य के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं है, बल्कि साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा हमें इसमें जनसाधारण के वास्तविक जीवन की झाँकियाँ भी मिलती है। जिस प्रकार इन कथाओं की भाषा और जनता की भाषा में अनेक साम्य है उसी प्रकार उनका वर्ण्यविषय भी विभिन्न वर्गों के वास्तविक जीवन का चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है । केवल राजाओं और पुरोहितों का जीवन ही इस कथा साहित्य में चित्रित नहीं है, अपितु साधारण व्यक्तियों का जीवन भी अंकित है ।* १. श्री मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, कथा खण्ड २. प्राकृत जैन कथा साहित्य — डा० जगदीशचन्द्र जैन, ३. आन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बरास आफ गुजरात, पृ० ८ ४. ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५४५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 471 इसके अतिरिक्त डा. सत्यकेतु, डा० याकोबी, डा० सी० एच० टान, हर्टल, ब्यूल्हर, तैस्सितोरि, आदि अनेक 'विद्वानों ने इस विधा पर पर्याप्त काम किया है। प्रो० श्रीचन्द जैन ने 'जैन कथा साहित्य : एक अनुदृष्टि' में कथा साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हए लिखा है कि जैन कथाओं की कुछ ऐसी विशिष्टताएँ हैं जिनके कारण विश्व के कलाकारों ने इन्हें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूपों में अपनाया है।' डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में साहित्य की सभी विधाओं पर विचार करते हए जैन कथाओं की विशिष्टता पर लिखा है कि “जैन संस्कृति के मूल तत्त्वों को अनावृत्त करते हुए एक ऐसी प्राचीन परम्परा की ओर संकेत करते हैं, जो कई युगों से भारतीय जीवन को प्रभावित कर रही है।" सभी विशेषताओं का चित्रण करता है / आज जो भी कथा साहित्य है, चाहे किसी भी भाषा का क्यों न हो, उसे प्राकृत-कथा-साहित्य से सर्वप्रथम योग मिला। इसीलिए इस साहित्य को कथा साहित्य के विकास का एक अंग मानना अति आवश्यक हो जाता है। 1. श्री मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ-कथा खण्ड