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प्राचीन जैन राम - साहित्य में सीता
डा० लक्ष्मीनारायण दुबे
जैन राम - साहित्य :
जैन वाङ्गमय में विपुल रामकथा तथा राम काव्य मिलता है । जैन रामकथा सामान्यतया आदिकवि वाल्मीकि से प्रभावित है। जैन राम साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा कन्नड़ में मिलता है यह इसका पुरातन रूप है ।
प्राकृत में चार ग्रन्थ लिखे गये जिनमें सीता का चरित्र-चित्रण सम्यकरूपेण मिलता है— विमल सूरि का पउमचरियं शीलाचार्य की रामलक्खण चरियम् भद्रेश्वर की कहावती में रामायणम् और भुवनतुरंग सूरि का रामलक्खणचरिय संस्कृत में रवि पेण के पद्मचरित आचार्य हेमचन्द्र के जैन रामायण, जिनदास के रामदेव पुराण, पद्मदेव विजयगणि के रामचरित, सोमसेन के रामचरित, आचार्य सोमप्रभकृत लघुत्रियशलाकापुरुष चरित, मेघविजय गणिवर के लघुत्रियष्टिशलाकापुरुष चरित्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अपभ्रंश में स्वयंभू का पउमचरिउ र का पद्मपुराण आदि प्रसिद्ध हैं कन्नड़ में नागचन्द्र के रामचन्द्र चरित पुराण, कुमुन्देन्दु के रामायण, देवय के रामविजयचरित, देवचन्द्र के रामकयावतार और चन्द्रसागर के जिन रामायण को विस्मृत नहीं किया जा सकता ।
जंन सीता-साहित्य
इसी परम्परा में सीता को लेकर भी कतिपय काव्य लिखे गये थे जो कि विशेष उल्लेखनीय हैंभुवनतुरंग सूरि का सीया चरिय ( प्राकृत), आचार्य हेमचन्द्र का सीता रावण कथानकम् (संस्कृत), ब्रह्म नेमिदत्त, शांत सूरि और अमरदासकृत सीताचरित्र (संस्कृत) हरिषेण का सीताकथानम् । हरितमहल मे 'मैथिली - कल्याण' नामक नाटक संस्कृत में लिखा था ।
जैन - रामकथा की द्वितीय परम्परा के जनक गुणभद्र थे जिनका 'उत्तर पुराण' और कृष्णदास कवि कृत 'पुण्य चन्द्रोदय पुराण' संस्कृत में लिखा गया प्राकृत में 'पुष्पदन्त का तिसट्ठी - महापुरिस गुणालंकार और विमल सूरि की परम्परा में निम्नलिखित साहित्य कन्नड़ में चामुण्डराय का त्रिषष्टि शलाकापुरुष पुराण मिलता है :
लिखा गया ।
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जैन- रामकथा में विमल सूरि की परम्परा को अधिक प्रश्रय मिला है। यह श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में प्रचलित है, परन्तु गुणभद्र की परि पाटी सिर्फ दिगम्बर सम्प्रदाय में ही मिलती है ।
काव्य के अतिरिक्त सीता को लेकर नाटक - साहित्य तथा कथा साहित्य में भी लिखा गया।
जैन कवि हस्तिमल्ल ने सन् 1290 के आसपास संस्कृत में 'मैथिली कल्याण' लिखा जिसका विवेच्य विषय श्रृंगार है । इसके प्रथम चार अंकों में राम और सीता के पूर्वानुराग का चित्रण मिलता है । वे मिलन के पूर्व कामदेव मंदिर तथा माधवी वन में मिलते हैं। तृतीय तथा चतुर्थ अंक में अभिसारिका सीता का वर्णन मिलता है । पंचम तथा अंतिम अंक में राम-सीता के विवाह का वर्णन है।
संपदास के 'वसुदेवहिण्डि' में जैन महाराष्ट्रीय गद्य जो रामकथा मिलती है उसमें सर्वप्रथम सीता का जन्मस्थल लंका माना गया है । वह मंदोदरी तथा रावण की पुत्री है परन्तु परित्यक्त होकर राजर्षि जनक की दत्तक पुत्री बन जाती है। सीता स्वयंवर में सीता अनेक राजाओं में से राम का चयन एवं वरण करती है। संचदास ने गुणभद्र को भी प्रभावित किया था क्योंकि 'उत्तर पुराण' में रावण की वंशावली एवं सीता की जन्म-गाथा पर्याप्त रूप में 'वसुदेवहिण्डि' से सादृश्य रखती है ।
कालक्रमानुसार प्राचीन जैन राम साहित्य के प्रमुख स्तम्भ निम्नलिखित महाकवि थे
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रविषेण - 'पद्मचरित' ( 660 ई.) प्राचीनतम जैन संस्कृत ग्रन्थ ( संस्कृत )
(ग) स्वयंभू - 'पउमचरिउ' या 'रामायण पुराण' ( अष्टम शताब्दी ई.) (अपभ्रंश)
(घ) गुणभद्र - 'उत्तर पुराण' ( नवम शताब्दी ई.) (संस्कृत)
उपरिलिखित ग्रन्थों में सीता के चरित्र के विविध पक्षों का सम्पक उद्घाटन मिलता है।
'उत्तर पुराण' में भी राम परीक्षा के बिना सीता को स्वीकार करते हैं । सीता अनेक रानियों के साथ ( क ) विमल सूरि पउमचरियं' (तृतीय- चतुर्थ दीक्षा लेती है। अंत में सीता को स्वर्ग मिलता है।
शताब्दी ई.) ( प्राकृत )
विमल सूरि और गुणभद्र की सोता
:
विमल सूरि ने सीताहरण का कारण इस प्रकार विवेचित किया है शम्बूक ने सूर्यहास संग की प्राप्ति के हेतु द्वादश वर्ष की साधना की थी। संग के प्रकट होने पर लक्ष्मण उसे उठाकर शम्बूक का मस्तकच्छेदन कर देते हैं | चन्द्रनखा पुत्र वियोग में विलाप करती है । वह राम-लक्ष्मण की पत्नी बनना प्रस्तावित करती है लक्ष्मण खरदूषण की सेना को रोक देते हैं। रावण सीता पर मुग्ध हो जाता है। वह अवलोकनी विद्या से जान लेता है कि लक्ष्मण ने राम को बुलाने हेतु सिंहनाद का संकेत निश्चित किया है। इसलिए वह युक्ति पूर्वक सिंहनाद करके सीना से लक्ष्मण को पृथक् कर सीताहरण करने में सफल हो जाता है ।
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'पउम चरियं के वित्तरवें पर्व में लंका में श्री राम प्रविष्ट होकर सबसे पहले सीता के पास जाते हैं। दोनों का मिलन देखकर देवगण फूल बरसाते हैं और सीता में निष्कलंक तथा पुनीत सात्विक चरित्र का साक्ष्य देते हैं । इस ग्रन्थ में श्रीराम की किसी शंका या सीता की अग्नि परीक्षा का कोई उल्लेख नहीं है ।
स्वयंभू को सोता
स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में प्रारम्भ में मूक सीता के दर्शन होते हैं। सागर वृद्धि भट्टारक तथा ज्योतिषी
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सीता के कारण रावण एवं राक्षसों के विनाश की भविष्यवाणी कर देते हैं
स्वयं भू ने सीता के चरित्र को अनुपम तथा दिव्य स्वरूप प्रदान किया है।
तेहिं हणेवउ रक्खु महारगे।
जैन-राम-साहित्य में सीता-निर्वासन प्रसंग: जगय-णराहिव-तणय कारणे ।
राम-कथा के समान सीता-निर्वासन के आख्यान और
को भी प्रस्तुत करने का सर्वप्रथम श्रेय महर्षि आयहे कण्णहें कारणेण होइस।
वाल्मीकि को है। विणासु बहु-रक्तसहुँ ।
गुणभद्र के 'उत्तर पुराण' में सीता-त्याग की कोई वन में सीता के चरित्र का विकास मौन रूप में
चर्चा नहीं मिलती । इसकी शृखला में महाभारत, होता है । सीता युद्धों के विपरीत है
हरिवंश पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, नृ संह कर चलण-देह-सिर-खण्डणहु ।
पुराण और अनायकं जातकं भी आते हैं जिनमें सीताणिविण माए हउ भण्डणहु ॥
निर्वासन-आख्यान का अभाव है। परन्तु सीता-त्याग हउं ताएं दिण्णी केहाहुं ।
को अधिकांश जैन-राम-साहित्य स्वीकार करता है। कलि-काल-कियन्तहं जेहाहूँ ।।
सीता-निर्वासन के मुख्य चार कारण थेसीता-हरण के समय वह अपने को बड़ी अभा- (क) लोकापवाद-जैन-राम-साहित्य में इसका गिनी मानती है
प्रतिपादन विमल सरि के 'पउम चरियं' तथा रविषेण
के 'पद्म चरित' में मिलता है । स्वयंभू ने अपने महाको संथवई मई को सुहि कहों दुक्खु महन्तउ ।
काव्य 'पउम चरिउ' में इसकी पृष्ठभूमि का विश्लेषण जहिं जहिं नामि हउं तं तं जि पएस पलित्तउ।।
करते हुए लिखा है : अयोध्या की कतिपय पुश्चली रावण के प्रलोभनों तथा उपसर्गों से सीता का
नारियों ने अपने पतियों के समक्ष यह तर्क किया कि हिमालय जैसा अचल और गंगा जल जैसा पवित्र
यदि इतने दिनों तक रावण के यहाँ रहकर आनेवाली चरित्र रंचमात्र भी विचलित नहीं हो पाया । सीता सीता राम को ग्राह्य हो सकती है तो एक-दो रात अग्नि परीक्षा में सफल होती है
अन्यत्र बिता-कर उनके घर लौटने में पतियों को
आपत्ति क्यों हो ?-इस चर्चा को लेकर नगर में सीताकि किजइ अण्णइ दिव्वे,
विषयक प्रवाद फैलता हैजेण विसुज्झहो महु मणहो ।
पर-पुरिसु रमेवि दुम्भहिलउ, जिह कणय-लालि डाहुत्तर, अच्छणि मज्झे हुआरुहण हो ।
देंति पडुत्तर पह-यणहो ।
कि रामण भुजइ जणय-सुय, अंत में सीता का विरागी मन स्त्री न बनने की
वरिसु वसेवि धरे रामण हो ।। घोषणा कर देता है
राम कुल की मर्यादा के कारण सीता को निष्काएवहि तिह करेमि पुणु रहुवइ ।
सित कर देते हैं । 'पउम चरिउ' अनेक मार्मिक तथा जिह ण होमि पडिवारी तियमइ ।।
भाव-प्रवण प्रसंगों से परिपूर्ण है परन्तु सीता-त्याग का
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प्रसंग सर्वाधिक कारुणिक और विदग्ध है। विभीषण दीवउ होइ सहावें कालउ । सीता के पवित्र चरित्र की निर्दोषिता सिद्ध करने के वट्टि-सिहएं मण्डिज्जइ आलउ ।। लिए अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। लंका से त्रिजटा णर णारिहि एवड्डउ अन्नउ । आकर गवाही देती है। अंत में सीता की अग्नि परीक्षा मरणे विवेल्लिण मेल्लिय तरुवरु ।। होती है । दूसरे दिन जब सीता को सबेरे सभा में
अंत में सीता तपश्चरण के लिए प्रस्थित हो जाती लाकर आसन पर बिठाया जाता है, तब सीता वर
है। स्वयंभू ने सीता के चरित्र को सम्वेदनशीलता से आसन पर संस्थित ऐसी शोभायमान होती है जैसे जिन
आपूर्ण कर दिया है। वह पाठकों की दया, सम्वेदना आसन पर शासन-देवता
तथा सहानुभूति की अधिकारिणी बन जाती है । सीय पइट्ट णिवट्ठ वरासणे ।
___ स्वयंभू के पूर्व विमल सूरि, रविषेण तथा आचार्य सासण देवए जंज़िण-सासणे ॥
हेमचन्द्र ने सीता-त्याग के प्रसंग का सम्यक प्रतिपादन
किया है। प्रखर तथा स्पष्टवादिनी सीता का, शंकालु तथा नारी-चरित्र की भर्त्सना करने वाले श्री राम को कितना 'पउम चरियं' के पूर्व 92 94 में सीता-त्याग का आत्माभिमानपूर्ण एवं सतेज उत्तर है कि गंगा जल विस्तृत वर्णन मिलता है। लका से लौट आने के समय गॅदला होता है, फिर भी सब उसमें स्नान करते हैं। भी जनता के अपवाद की चर्चा मिलती है। श्री राम चन्द्रमा सकलंक है, लेकिन उसकी प्रभा निर्मल, मेघ स्वतः गर्भवती सीता को वन में विभिन्न जैन चैत्यालय काला होता है परन्तु उसमें निवास करनेवाली दिखला रहे थे कि अयोध्या के अनेक नागरिक उनके विद्युत्छटा उज्ज्वल । पाषाण अपूज्य होता है, यह सर्व- पास आए और अभयदान पाकर उन्होंने अपने आगमन विदित है परन्तु उससे निर्मित प्रतिमा में चन्दन का का निमित्त निरूपित किया । उनसे श्री राम को सीता लेप लगाते हैं । कमल पंक से उत्पन्न होता है लेकिन का अपवाद विदित होता है और वे अपने सेनापति उसकी माला जिनवर पर चढ़ती है, दीपक स्वभाव से कृतांतवदन को जिन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता काला होता है लेकिन उसकी शिखा भवन को आलो- को गंगा पार के वन में छोड़ आने का आदेश देते हैं। कित करती है। नर तथा नारी में यही अन्तर है जो संयोग से वन में पुण्डरीकपुर के नरेश बज्रजंघ ने सीता वृक्ष और बेलि में । बेलि सूख जाने पर भी वृक्ष को । का करुण क्रन्दन सुन लिया जिस पर वह उन्हें अपने नहीं छोड़ती
भवन में ले आया और उसके यहाँ सीता के दो पुत्र
साणुण केण वि जणेण गणिज्जइ । गंगा गइहिं तं जि ण हाइज्जइ ॥ ससि क्लंक तहिं जि पह णिम्मल । कालउ मेह तहिं जें तणि उज्जल ।। उवलु अपुइजु ण केण वि छिप्पइ । तहि जि पडिप चन्दणेण विलिप्पइ ।। धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ । कमल-भाल पुणु जिणही बलग्गइ ।
'पदमचरित' के छियान्नवे पर्व में सीता के ग्रहण स्वरूप दुष्परिणामों में प्रजा का मर्यादाविहीन स्वरूप
और नारियों का हरण, प्रत्यावर्तन तथा उनकी स्वीकृति बतलाई गयी है।
_ 'योगशास्त्र' (द्वादश शताब्दी) में सीता निर्वासन के तदन्तर एक घटना का वृत्तांत मिलता है । तदनुसार श्री राम अपनी भार्या के अन्वेषण में बन गये हुए थे
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किन्तु सीता कहीं नहीं मिल पायी। राम ने यह विचार करके कि मीता किसी हिंसक पशु द्वारा समाप्त हो चुकी है, अतएव, उन्होंने परावर्तित होकर सीता का श्राद्ध किया ।
(ख) धोबी का आख्यान :
जैन- राम- साहित्य में इसकी चर्चा नहीं मिलती । (ग) रावण का चित्र :
इस वृत्तांत को प्रस्तुत करने का सर्वप्रथम एवं प्राचीनतम श्रेय जैन - राम साहित्य को है ।
हरिभद्र सूरि के ( अष्टम शताब्दी) उपदेश पद में सीता द्वारा रावण के चरणों के चित्र निर्मित करने का सूत्र मिलता है। टीकाकार मुनिच्चन्द्रसूरि ( द्वादश शताब्दी) के कथानानुसार सीता ने अपनी ईर्ष्यालु सपत्नी के प्रोत्साहन से रावण के पैरों का चित्र बनाया था। इस पर सपत्नी ने राम को यह चित्र दिसला दिया दिया और उन्होंने सीता का त्याग कर दिया ।
भद्रेश्वर की 'कहावली' (एकादश शताब्दी) में यह आख्यान आया है कि सीता के गर्भवती हो जाने पर ईर्ष्यालु तथा द्वेषमयी सपत्नियों के आग्रह पर सीता ने रावण के पैरों का चित्र निर्मित किया जिसे उन्होंने सीता द्वारा रावण के स्मरण के प्रमाण स्वरूप राम के समक्ष उपस्थित कर दिया । राम ने इसकी उपेक्षा करदी । सौतों ने रावण चित्र का किस्सा दासियों के द्वारा जनता में फैला दिया। तत्पश्चात राम गुप्त वेष धारण कर नगरोद्यान में गये जहाँ उन्होंने अपनी इस हेतु निंदा सुनी गुप्तचरों ने भी लोकापवाद की चर्चा की । राम का निर्देश पाकर कृतांतवदन तीर्थयात्रा के बहाने सीता को वन में छोड़ आया । उसके बाद राम ने लक्ष्मण एवं अन्य विद्याबरों के साथ विमान में चढ़कर सीतान्वेषण किया
परन्तु उन्हें न पाकर यह समझ लिया कि वे किसी हिंसक जानवर का ग्रास बन गई हैं।
हेमचन्द्र के जैन रामायण' ( द्वादश शताब्दी) में भी यही गाथा है । नागरिकों ने भी सीता के लोकापवाद की चर्चा की जिसे राम ने ठीक पाया ।
देवविजयगणि के 'जैन रामायण' (सन् 159 ) में नारियाँ राम से शिकायत करती हैं कि सीता रावण के चरणों की पूजा-अर्चना करती है
स्वामिन् एषा सीता रावण मोहिता रावणांही भूमौ लिखित्वा पुष्पादिभिः पूजयति ॥
जैन रावण-चित्र- कथा का भारतीय रामायणों पर प्रभाव :
जैन राम - साहित्य में आयी, सीता द्वारा रावण के चित्र के निर्माण की घटना का भारतीय रामायणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता दिखलायी देता है ।
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बंगाल में कृतिवास ओझा द्वारा लिखित रामकथा 'कृतिवास रामायण' या 'श्रीराम पांचाली' (पन्द्रहवीं शताब्दी का अंत) में सखियों से प्रेरित होकर सीता रावण का चित्र खींचती है ।
सिक्खों के दशमेश गुरु गोविन्दसिंह ने 'रामावतार कथा' या गोविन्द 'रामायण' (सन् 1668 ) में रावणचित्र के कारण राम के सीता पर संदेह होने का वृत्तांत मिलता है।
संस्कृत की 'आनन्द रामायण' (पन्द्रहवीं शताब्दी) के तृतीय सर्ग में कैकयी के आग्रह पर सीता रावण के सिर्फ अंगूठे का चित्र बनाती है जिसे कैकयी पूरा करती है, और राम को बुलाकर नारी चरित्र की आलोचना करती है
यत्र यत्र मनोलग्नं स्मयंते हृदि तत्सदा । स्त्रियाच चरित्र को वेत्ति शिवाया मोहिताः स्त्रिया ||
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काश्मीरी रामायण' अथवा 'रामावतार चरित' मार्गों न गांग गंगलिया गंगाजल पानी, गंगाजल पानी हो (अट्ठारहवीं शताब्दी) में दिवाकर भट्ट ने रावण के ननदी समुहे के ओवरी लियावउ तौ खना उरेहों हो।। चित्र के ही कारण सीता-त्याग को चरितार्थ होते मांगिन गांग गंगुलिया गंगाजल पानी, गंगाजल पानी हो निरूपित किया है । राम की सगी बहिन सीता से हेइ हो, समुहें के ओबरी लिपाइन तो खना उरेहैं हो। चित्र बनवाती है।
हथवा उरेही सीता गोड़वा उरेही अवर उरेही दृइनों
__ आंखि । नर्मदा द्वारा रचित गुजराती रामायण 'रामायण- हेइ हो, आइ गये सिरीराम आंचर छोरि मूदिनि हो । नोसार' (उन्नीसवीं शताब्दी) के अनुसार राम सीता को रावण का चित्र खींचते हए और अपनी दासी से
___लोकगीतों में सर्वत्र सीता-परित्याग का कारण
रावण के चित्र का निर्माण ही बताया गया है। सीता रावण का वृत्तांत कहते हए सुनते हैं।
पहले से ही चित्रकला विशारदा थी और लोकगीतों में जैन हिन्दी रामकथा 'पदम पुराण' (सन् 1661) विवाह के पूर्व भी कई स्थलों पर सीता के चित्रकला में दौलत राम ने भी रावण के चित्र का उल्लेख किया प्रावीण्य का वृत्तांत मिलता है। अतएव, लंका से लौटने
के बाद सीता के द्वारा रावण के चित्र के निर्माण में
कोई अस्वाभाविकता आती प्रतीत नहीं होती। एक सम्राट जहाँगीर के समय में मूल्ला मसीह या
भोजपुरी लोकगीत मोहर में भी इसी भावना की परम सादुल्लाह कैरानवी तखल्लुस मसीह ने फारसी में
पुष्टि मिलती हैलिखित 'रामायण मसीही' अथवा 'हदीस-इ-राम-उसीता' के अनुसार राम की बहिन ने सीता से रावण
राम अवरु लछुमन भइया, का चित्र खिचवाकर कहा कि सीता रात-दिन इस चित्र आरे एकली बहिनियाँ हइहों की। की पूजा करती है।
ए जीवा रामजी बइठेले जेवनखा,
बहिन लइया लखे रे की । जैन रावण चित्र-कथा का लोकगीतों पर प्रभाव :
ए भइया भौजी के दना बनवसवा,
जिनि . खना उरेहे ले की। इस मूलस्रोत को हमारे लोकगीतों ने भी स्वी
जिनि सीता भूखा के भोजन देली, कार किया है। लोकगीतों में सीता-परित्याग की घटना
और लागा के बहतरवा ।। का अत्यन्त मार्मिक वर्णन तथा सीता का चरित्र-चित्रण
होनी से हो सीता गहबाइ रे आसापति, मिलता है। एक अवधी सोहर लोकगीत में ननद के
कइसे बनवासिन हो कि । कहने से सीता ने रावण का चित्र बनाया था
इसी प्रकार एक बुन्देली लोकगीत में भी सीताननद भौजाई दुइनों पानी गयीं अरे पानी गयीं।
निर्वासन का कारण रावण के चित्र का निर्माण हैभौजी जौन खन तुम्हें हरि लेइ ग उरेहि देखावहु हो । जौमें खना उरेहों उरेहि देखावउं, उरेहि देखाव उना। चौक चंदन बिन आंगन सनौ कोयल बिन अमराई । ननदी सनि पइहैं बिरना तोहार तौ देसवा निकरि हैं हो ॥ रामा विना मोरी सूनी अजोध्या लछमन बिन ठकुराई ।। लाख दोहइया राजा दशरथ राम मथवा छुवो, सीता बिना मोरी सनी रसोइया कौन करे चतुराई ।
राम मथवा छुवोना। आम इमलिया की नन्हीं नन्हीं पतियाँ, नीम की शीतल भौजी लाख दोहइया लछिमन भइया जौ भइया बताव हो
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ओई तरं बैठी ननद भोजाई कर रही रावन की बात जौन खना भौजी तुमें हर लेगव हमें उरेइ बताव । रवन उरे हो जबई दारी ननदी घर में सबर न होय । जो सुन पाहें बीरन तुम्हारे घर में देंय निकार । राम की सौगंध लखन की सौगंध दसरथ लाख दुहाई । हमारी सौगंध खाओ बारी ननदी तुमको कहा पट जाई । अपनी सौगंध खात हों भोजी, सिजिया पावन देऊ । सुरहन गऊ के गोवर मगाओं वैया मिटिया देव लिपाई । हाथ बनाये, पांव बनाये और बत्तीसई दांत | ऊपर को मस्तक लिखन नहि पाओ, आ गए राजाराम । ल्याव ने बैया पिछोरिया लिखना देय लुकाय
जैन रावण चित्र कथा का विदेशी रामकाव्य पर प्रभाव :
जावा के 'सुरत काण्ड' में कैकयी स्वतः सीता के पंखे पर रावण का चित्र अंकित करती है और सुषुप्ता वस्था में लीन सीता के पर्व पर रख देती है। हिकायत सेरी राम' में कीकवी देवी भरत शत्रुधन की सहोदरी है । सीता ने कीकवी देवी के आग्रह के कारण पंखे पर रावण का चित्र खींच दिया । कीकवी ने उसे सीता के वक्षस्थल पर रख दिया और यह आक्षेप किया कि सोने के पूर्व सीता ने उस चित्र का चुम्बन किया था । राम ने की कवी पर विश्वास कर लिया।
हिन्देसिया के 'हिकायत महाराज रावण' में यह वृत्तांत आया है कि रावण वध के उपरान्त राम को लंका में रहते सात माह हो गये । रावण की पुत्री अपने पिता का चित्र सोती सीता की छाती पर रख देती है। सीता निद्रावस्था में उस चित्र का चुम्बन करती है, उसी क्षण राम उनके पास आते हैं और उस दृश्य को देखकर राम आग बबूला हो जाते हैं ।
हिन्दचीन अर्थात् रुमेर वाङ्मय की सर्वाधिक सशक्त कृति 'रामकेति (सत्रहवीं शताब्दी) है। इसके पचहत्तरवें सर्ग में अतुलय राक्षसी सीता की सखी वन
कर उससे रावण का चित्र अंकित कराती है और इस चित्र में प्रविष्ट हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप सीता प्रयास करने के बाद भी उस चित्र को मिटा नहीं पाती है, और अंततः हताश होकर पलंग के नीचे उसे छिपा देती है । तदुपरांत राम के इस पलंग पर लेट जाने पर उनको तेज बुखार हो आता है । जब उन्हें उस चित्र का पता चलता है तो वे लक्ष्मण को सीता को वन में ले जाकर मार डालने का आदेश देते
हैं ।
श्यामदेश की रचना 'राम कियेन' में अल नामक शूर्पणखा की पुत्री सीता से रावण का चित्र अंकित करवाती है और तत्पश्चात् इसी चित्र में प्रवेश कर जाती है जिससे सीता उसे मिटा नहीं पाती है।
सोलहवीं शताब्दी में 'राम जातक' की रचना हुई थी श्याम के उत्तर पूर्वीय प्रांतों के लाभो भाषा में जिसमें भी रावणचित्र के कारण सीता त्याग होता है ।
लाओस के 'ब्रह्मचक्र' या 'पोम्पनका' में शूर्पणखा स्वतः छद्मवेश में सीता के पास आकर उनसे चित्र बनवा लेती है ।
थाईलैण्ड की 'बाई रामायण' में भी इसी चित्र की पर्याप्त चर्चा है।
सिंहली रामकथा में उमा सीता के पास आकर उनसे केले के पत्ते पर रावण का चित्र अंकित करवाती है । अकस्मात राम के आगमन पर सीता इस चित्र को पलंग के नीचे फेंक देती है। राम उस पलंग पर बैठ जाते हैं और पलंग काँपने लगता है । कारण विदित होने पर राम अत्यन्त क्रुद्ध हो जाते हैं ।
रावण के चित्र का मूल जिसने विदेशों में जाकर बड़ा धारण कर लिया है।
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उत्स जैन साहित्य है उग्र तथा विशिष्ट रूप
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________________ (घ) परोक्ष कारग हिन्दी की जैन-राम-कथा की मध्यकालीन परम्परा ___'पउम चरियं' के पूर्व 103 में यह कथा आयी है में मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं:कि सीता ने अपने पूर्व जन्म में मुनि सुदर्शन की बुराई (क) मुनिलावण्य की 'रावण मन्दोदरी सम्वाद्'। की थी और इसके परिणामस्वरूप वह स्वयं लोकापवाद की पात्र बन गयीं। (ख) जिनराजसूरी की 'रावण मन्दोदरी सम्वाद' और (ग) ब्रह्मजिनदास का 'रामचरित' या 'रामरस' और समाकलन : 'हनुमंत रस' / सम्पूर्ण जैन राम-साहित्य सीता की विभिन्न इनमें सीता के चरित्र के अनेक उज्ज्वल तथा छबियों तथा बिम्बों से परिपूर्ण है / उनको जैन कवियों सरस पाश्वों को सफलतापूर्वक उदघाटित किया गया ने अपने धर्म-सम्प्रदाय तथा सिद्धान्त के अनुसार गढ़ने का सफल प्रयास किया है। भारतीय वाड मय को जैन राम-साहित्य का यह अप्रतिम प्रदेय है कि उसने सीता को धरती-पुत्री के समान ही आकलित किया। 248