Book Title: Pacharai aur Gudarke Mahattva purna Jain Lekh
Author(s): Usha Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211310/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचराई और गूडर के महत्त्वपूर्ण जैन-लेख कुमारी उषा जैन, एम० ए०, जबलपुर प्रस्तुत लेखमें पचराई और गूडरके दो महत्त्वपूर्ण लेखोंका विवरण दिया जा रहा है। पचराईका लेख विक्रम सं० ११२२ का है और गूडरका मूत्तिलेख वि० सं० १२०६ का है। दोनों ही लेख उन स्थानों की शांतिनाथ प्रतिमाओंसे सम्बन्धित हैं। इन लेखोंमें लम्बकञ्चुक और परपाट अन्वयोंका उल्लेख है। गूडरके मूत्तिलेखमें किसी राजवंशका उल्लेख नहीं है किन्तु पचराईका लेख प्रतिहार वंशके हरिराजके पौत्र रणपालके राज्यकालमें लिखा गया था। पचराईका लेख यह लेख पचराईके शान्तिनाथ मन्दिरमें है । इसकी लम्बाई ६० सें०मी० और चौड़ाई २० सें०मी० है। लेखकी लिपि नागरी और भाषा संस्कृत है। इसकी आठ पंक्तियोंमें सात श्लोक है। अन्तिम पंक्तिमें romawwc umerayen Delila CalcMARITALIHENOMEमवानाबानाध्यापाराग्राम हामनगरमागीबाना साना वामनबम्बमानाबानाजानी चितानातली अनावशाल मानव मे गती सापावना पहिरन महाक विधीसाठानाकाटको तिमाही मनात समात्यतारकातस्तदान। मानावासादायाचिकात वारी मला त्वामीसाहाताराकानीमा सामान्य माया शवाजीनाममा समाहित नाना नवरयाचा दरवाजा गाना MARमतारा चित्र १. पचराईका लेख वि० सं० ११२२ का उल्लेख है । प्रथम श्लोकमें सोलहवें तीर्थकर भगवान शान्तिनाथकी स्तुति की गई है। और उन्हें चक्रवर्ती तथा रति और मुक्ति दोनोंका स्वामी (कामदेव और तीर्थकर) कहा गया है। द्वितीय श्लोकमें श्री कुन्दकुन्द अन्वयके देशीगणमें हए शुभनन्दि आचार्यके शिष्य श्री लीलचन्द्रसूरिका उल्लेख है। ततीय श्लोकमें रणपालके राज्यकालका उल्लेख है। उसके पिता भीमकी तुलना पांडव भीमसे की गई है और भीमके पिता हरिराजदेवको हरि (विष्णु) के समान बताया गया है। चतुर्थ श्लोकमें परपाट अन्वयके साधु महेश्वरका उल्लेख किया गया है, जो महेश्वर (शिव) के समान विख्यात था। उसके पुत्रका नाम बोध था। पञ्चम श्लोकमें बताया गया है कि बोधके पुत्र राजनकी शुभकीत्ति जिनेन्द्रके समान तीनों भुवनोंमें प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। छठवें श्लोकमें उसी अन्वयके दो अन्य गोष्ठिकोंका उल्लेख है, जिनमें -३४८ - Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रथम पंचमांश में और द्वितीय दशमांशमें स्थित था । स्पष्ट है कि यहाँ पचराई ग्रामके नामको संस्कृत भाषा के शब्द में परिवर्तित कर पंचमांश लिखा गया है। तत्कालीन कुछ अन्य लेखोंमें पचराईका तत्कालीन नाम पचलाई मिलता है। सातवें और अन्तिम श्लोक में प्रथम गोष्ठिकका नाम जसहड़ था, जो समस्त यशोंका निधि था एवं जिनशासन में विख्यात था । अन्तिम पंक्ति में मङ्गलं महाश्री तथा भद्रमस्तु जिनशासनाय उत्कीर्ण है तथा अन्तमें संवत् १९२२ लिखा है । राजा हरिराज बुन्देलखण्ड के प्रतिहार वंशके प्रथम शासक थे । इस वंशका सुप्रसिद्ध गुर्जर प्रतिहार वंशसे क्या सम्बन्ध है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है । हरिराजके समयका विक्रम संवत् १०५५ का एक शिलालेख चन्देरी के निकट थुबौनमें प्राप्त हुआ है और उनका विक्रम संवत् १०४० का ताम्रपत्र लेख भारत कला भवन, काशीमें जमा है । रणपालदेवके समयका विक्रम संवत् ११०० का एक शिलालेख बूढ़ी चन्देरी में मिला है । प्रस्तुत लेख उस नरेशका द्वितीय तिथियुक्त लेख है। पचराईके इस लेखका मूलपाठ निम्न प्रकार है: - इस लेखका मूलपाठ निम्नलिखित है : [श्री] [शां] १. ९ स्त्री सांतिनाथो रतिमुक्तिनाथ: । यस्चक्रवती भुवनांश्च धत्ते ॥ 3 [1] सोभाग्यरासि र भाग्यरासि स्तान्ते वि [F][F] [far] [शु] [fa] २. भूत्यै नसो विभूत्यै । श्री कुंदकुंद संताने । गणदेसिक संज्ञिके । सुभनंदिगुराः सिष्यः सूरिः श्री ली मूलपाठ ३. ल चन्द्रकः ॥ हरी व भूत्या हरिराजदेवो वभूव भीमेंव हि तस्य भीमः । सुतस्तदीयो रणपाल नाम ॥ एतद्धिरा [शु] [श्] [श्] ४. ज्ये कृति राजनस्य ॥ परपाटान्वये सुद्धे साधु नाम्ना महेस्वरः । महेस्वरेव विख्यातस्तत्सुतो [बो] वोध [u] ५. संज्ञकः । तत्पुत्रोराजनोज्ञेयः कीर्तिस्तस्ये यमद्भुता । जिनेंदुवत्सुभात्यंतं ।" राजते भुवन त्र [शु] [शे] ६. ये ॥ तस्मिन्नेवान्वये दित्ये गोष्ठिकावपरौ सुभौ । पचमांसे स्थितो हयेको द्वितीयो द [T] ७. समांसके ॥ आद्यो जसहडो ज्ञेयः समस्त जससां निधिः । भवनोजिनवरस्चायो विख्यातो [शा] ८. जिनसासने ॥ मङ्गलंमहाश्री ॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय ॥ ७ ॥ संवत् १९२२ १. ओम्को चिह्नद्वारा अंकित किया गया है । २. अनावश्यक है । ३. अनावश्यक है | ४. अनावश्यक । - ३४९ - ५. अनावश्यक । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूडरका मूर्तिलेख गूडर खनियाधानासे दक्षिण में लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित छोटा-सा गाँव है । यहाँके आधुनिक जैन मन्दिरकी विपरीत दिशामें एक खेतमें तीन विशाल तीर्थकर मूर्तियाँ स्थित हैं; जो शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथकी हैं। इनमें सबसे बड़ी प्रतिमा लगभग नौ फुट ऊँची है । इस प्रतिमाकी चरणचौकी पर विक्रम संवत् १२०६ का लेख उत्कीर्ण है । लेखकी लम्बाई ३४ सें०मी० एवं चौड़ाई २१ सें०मी० है । सात पंक्तियोंका यह लेख नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषामें है । लेखके प्रारम्भमें श्री शान्तिनाथकी स्तुति की गयी है । आगे बताया गया है कि विक्रम सं० १२०६ में आषाढ़ बदि नवमी बुधवारको, लम्बकञ्चुक अन्वयके माम और धर्मदेवके पिता रत्नेने पञ्चमहाकल्याणक महोत्सवका आयोजन कर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ (रत्नत्रय) की प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराई और वे प्रतिदिन उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करते थे। इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कर्मोंके क्षय हेतु कराई गयी थी । रत्नेकी पत्नीका नाम गल्हा था । रत्नेके पिता सुपट थे, वे मुनियोंके सेवक थे, सम्यक्त्व प्राप्त थे, तथा चतुविध दान किया करते थे । सूपटके पिताका नाम गुणचन्द्र था और वे लम्बकञ्चुक ( आधुनिक लमेचू ) अन्वयके थे। इस लेखका मूलपाठ निम्न प्रकार है: हिराबार Ale दद्वय सिवत उडीयाषाढ वदनमात्रीको साधुगु पर्व इतत्सुतः साधुस पर्ज नमुना प्रागतात मागास म्ह वाकाथन विवदान चिंतामणि सनम तिव पत् तस्यस्मा रागला. योखामा मदवा निवारा या वाताव कपक याविव वैमहाकल्याण नंदे वत्री सैनिकंत प्रस्ताव रत निज्ञापितवार सिपापमत्यागनम वज (श्रीं) (शां) १. - - ॥ जीयात्स्रीसांति: चित्र २. गूडरका लेख मूलपाठ -- पस्स घातघातकः ।-- • दुतिर [ब] [बु] [ब] २. पदद्वयः । संवत १२०६ ।। आषाढ़ वदि नवम्यां वृधे । श्रीमल्लं व कंचुकान्वय [तो] ३. साधुणचंद्र तत्सुतः साधुतः साधुसूपट जिनमुनिपादप्रणतोतमांगः । सम्यकत्वर[ती] [ar] ४. त्नाकरः चतुर्विधदानचितामणिस्तत्पुत्र साधु रत्ने सतित्व व्रतोपेत तस्य भा - ३५० - TELE Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वौ] [सि] [[] [प्तये] 5. र्या गल्हा तयो पुत्रौ मामेधर्मदेवो / तेन विशिष्टतर पुन्यावाप्तौ निज [शां] 6. कम्म क्षयार्थं च पंचमहाकल्याणोपेतं देवश्री सांतिकुंथअरनाथ रत्न / [शं 7. त्रयं प्रतिष्ठापित तथाऽहर्निसं पादौ प्रणमत्युत्तमांगेन भक्त्याः (त्या)। * // उपर्युक्त लेखोंके अलावा अन्य कई लेख पचराईमें उपलब्ध हैं जिनमें देशीगणके पंडिताचार्य श्री श्रतकीतिके शिष्य पंडिताचार्य श्री वीरचन्द्रके शिष्य आचार्य शभनन्दि और उनके शिष्य श्री लीलचन्द्रसूरि आदिके उल्लेख मिलते हैं। - 351 -