Book Title: Nigodthi Moksh Sudhi
Author(s): Padmanabh S Jaini
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अनुसन्धान-४१ निगोदथी मोक्ष सुधी प्रो. पद्मनाभ एस. जैनी जैन शास्त्रो प्रमाणे जीवोनो निगोदथी मांडीने मोक्ष सुधीनो विकास कमिक अने उत्क्रान्ति स्वरूप होय छे. परन्तु आ विकास धीमो ज अने बधां सोपानोने ओळंगतो ज होय तेवु आवश्यक नथी. एक नित्यनिगोद (अव्यवहार राशि)नो जीव निगोदमांथी नीकळी, मनुष्य थई, ते ज भवे मोक्षे पण जइ शके छे. आ वात मरुदेवीना उदाहरणथी सारी रीते समजी शकाय छे. श्वेताम्बर जैनोमां मरुदेवीनी कथा प्रसिद्ध छे. परन्तु आगमो अने आगमेतर साहित्यमां आ वातने पुष्ट करनारां प्रमाणो केटलां - कयां छे - ते आपणे जोइए. पहेलां अंग साहित्यमां जोइए : भगवतीसूत्रना अढारमा शतकमां भगवान महावीर अने माकन्दिकपुत्र वच्चे एक संवाद थाय छे. माकन्दिकपत्र भगवानने पूछे छे : 'भगवन् ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकाय त्यांथी मरी मनुष्य बनी मोक्ष जई शके ?' भगवान कहे छे : 'हा माकन्दिकपुत्र ! कापोतलेश्यावाळो पृथ्वीकाय अपकाय के वनस्पतिकायनो जीव त्यांथी मरी मनुष्य बनी मोक्षे जई शके छे.' आ वात, माकन्दिकपुत्र बीजा साधुओने कहे छे त्यारे ते साधुओ नथी मानता अने फरी भगवानने जई पूछे छे. त्यारे भगवान कहे छे : 'माकन्दिकपुत्र कहे छे ते साचुं छे. अने मात्र कापोतलेश्यावाळा ज नहीं, परंतु कृष्णलेश्या अने नीललेश्यावाळा पण पृथ्वीकाय, अपकाय तथा वनस्पतिकायना जीवो मरी, मनुष्यत्व पामी मोक्षे जई शके छे.' आ सांभळी साधुओ माकन्दिकपुत्र पासे आवी वारंवार क्षमायाचना करे छे. श्वेताम्बरीय कर्मशास्त्रोना नियमो आ त्रण कायना जीवोने असाधारण .. छूट आपे छे ज्यारे अग्नि-वायुकायना जीवोने तो मरीने मनुष्य थवानी पण छूट नथी. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ October-2007 हवे, वनस्पतिमांथी नीकळी सीधा मनुष्य थई मोक्षे जवानुं उदाहरण मळे छे परंतु पृथ्वी - अप्कायनुं नथी मळतं. अने जैनो, व्यवहार राशिमां रहेल पृथ्वी - अप्कायने छोडी व्यवहार- निगोदमां रहेल वनस्पति जीवनी, आवी उच्च परिस्थितिनुं कथन करती कथा लखे ते विचारणीय छे. विकलेन्द्रिय जीवोनी कक्षा पण निगोदना जीव करतां अहीं नीची देखाडी छे. कारण के तेओ अनन्तर भवमां मनुष्यत्व पामवा छतां केवलज्ञान / मोक्ष नथी पामी शकता. मरुदेवी नित्यनिगोदमांथी सीधां आव्यां छे तेवा उल्लेखवाळी कथा आगमेतर साहित्यमा वधारे जोवा मळे छे, पण आगमो अंगोमां तेनो उल्लेख मात्र स्थानाङ्ग सूत्रमां ज छे. ३७ स्थानाङ्ग सूत्रना चोथा स्थानमां चार अन्तक्रियाओनी वात करी छे तेमां आ उल्लेख छे. प्रथम अन्तक्रिया, पूर्वनां कर्मों घणां ओछां होवाथी जे अल्पकष्टथी ज मोक्ष मेळवे तेवा संसारत्यागी अणगारने होय छे. उदा: भरत चक्रवर्ती. द्वितीय अन्तक्रिया, पूर्वनां कर्मो घणां होवा छतां घणां कष्टो सहन करी जे अल्पकालमा ज मोक्ष मेळवे तेवा अणगारने होय छे. उदा: गजसुकुमाल. तृतीय अन्तक्रिया, पूर्वनां कर्मों घणां होय अने तेने घणा काळ सुधी सहन करीने खपावे तेवा अणगारने होय छे. उदा: सनत्कुमार चक्रवर्ती. चतुर्थ अन्तक्रिया, पूर्वनां कर्मो घणां ओछां होय त्यारे ओछा समयमां तेवा प्रकारनां तप कष्टो सहन कर्या विना ज खपावे तेवा अणगार ने होय छे. उदा: मरुदेवी. -- अहीं मूळ सूत्रमां क्यांय मरुदेवीना पूर्वभवनो उल्लेख कर्यो नथी. परन्तु तेनी वृत्तिमां अभयदेवसूरिए तेनो उल्लेख कर्यो छे तथा समाधान पण आप्युं छे के व्याख्या तथा उदाहरणमां सम्पूर्ण साधर्म्य न मळे. आवश्यक निर्युक्तिमां मरुदेवीना प्रसंगने ५०० अबद्ध आदेशोमांनो एक आदेश मानेलो छे : " एवं बद्धमबद्धं आएसाणं हवंति पंचसया । जह एगा मरुदेवी अच्चंत थावरा सिद्धा ||१०२३|| " Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनुसन्धान- ४१ तेनी टीकामां हरिभद्रसूरि महाराज कहे छे 'अत्यन्तस्थावर : अनादिवनस्पतिकायमांथी नीकळीने, मनुष्य थई, मरुदेवी सिद्ध थयां. वृद्धसम्प्रदायमां कह्युं छे के आर्हत प्रवचनमां ५०० आदेशो एवा छे जेनो निर्देश - पाठ अंग- उपांगोमा नथी. आ पण तेमांनो ज एक आदेश छे. आवश्यक निर्युक्ति ( श्लो. १३२० ) नी हारिभद्री टीकामां मरुदेवीनी कथा कही छे. तेमां तेमणे भगवान ऋषभनुं दर्शन कर्तुं होय के महाव्रतो ग्रहण कर्यां होय तेवो कोई उल्लेख नथी. तेमने पूर्वजन्मोनी पण कोई स्मृति नहोती तेथी सम्यग्दर्शन प्राप्त करवा जरूरी सामग्री पण तेमनी पासे नहोती. वळी तेमणे एवां कयां पुण्य (क्यां- क्यारे) कर्यां हशे जेथी तेओ तीर्थंकरनां माता थयां ? अने आ मनुष्यभवमां पण तेमणे सम्यक्त्व क्यारे मेळव्युं हशे ? - सम्यक्त्व पूर्वभवोनी स्मृतिथी अथवा तीर्थंकर / प्रतिमाना दर्शनथी अथवा महाशोक-विषादादिथी थाय. (अहीं नाभिकुलकरना मृत्युनी वात मात्र चउपन्नमहापुरिसचरियं मां ज आवे छे.) ऋषभदेव प्रत्येनो शोक तेवी आत्मिक समानतावाळो नहोतो के जेथी सम्यक्त्व थाय. आ रीते जोईए तो सम्यक्त्वप्राप्तिनुं कोई पण कारण तेमनी पासे नहोतुं अने जैन सिद्धान्त प्रमाणे तो रत्नत्रयीनी पूर्णता ज मोक्ष अपावे. चउपन्नमहापुरिसचरियं मां शीलाङ्काचार्य थोडीक हकीकतो उमेरे - छे : ऋषभदेवने केवलज्ञान थयुं तेनी जाण भरतने थाय ते पहेलां ज इन्द्रो आवी समवसरणनी रचना करी. तेमां भगवाने देशना आपी पांच महाव्रतो समजाव्यां अने ८४ गणधरोनी स्थापना करी. दरम्यान, भरतने जाण थतां ते मरुदेवीने हाथी पर समवसरण तरफ लई चाल्यो. त्यारे मरुदेवीए देवोना मुखेथी 'जय जय' एवा शब्दो सांभळ्या, साथै ज तेमणे तीर्थंकरनी अमृतमय देशना पण सांभळी अने ते सांभळतां ज मनां कर्मोंनो घणो मोटो भाग क्षय पाम्यो, तेमनी भ्रमणाओ भांगी गई, हृदयमां आनन्द फेलायो अने पुत्र प्रत्येना रागनां बन्धनो तूटी गयां तेओ क्षपक श्रेणि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ October-2007 चडी केवलज्ञान पाम्यां अने ते ज वखते आयुः क्षय थये सिद्ध थयां. देवोए तेमनो उत्सव को अने भरतने जणाव्यु. त्यार बाद भरत समवसरणमां गया. भगवाननी स्तोत्र बोलवा द्वारा स्तुति करी. पछी भगवाने देशना आपी, महाव्रतो समजाव्यां अने ऋषभसेन व. ८४ गणधरोनी स्थापना करी. अहीं धर्मकथा-व्रतदान-गणधरस्थापननुं पुनः कथन करवामां शीलाङ्काचार्यनो हेतु-मरुदेवीए मोक्ष माटे जरूरी ज्ञान कई रीते मेळव्यु- ते छे. परन्तु आ विधान नन्दीसूत्रमा कहेला मरुदेवीना अतीर्थसिद्धत्व साथे संगत थतुं नथी. ते ज ग्रन्थमा आगळ शीलाङ्काचार्ये ब्राह्मी-सुन्दरी कया कारणथी स्त्रीपणुं पाम्यां ते वर्णवे छे, परन्तु तेमणे मरुदेवीना स्त्रीत्व माटे कोई कारण आप्युं नथी, अने वनस्पतिकाय/निगोदमांथी तेओ सीधा ज मनुष्यत्व पाम्यां तेनो पण निर्देश करता नथी. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमां हेमचन्द्राचार्ये पण आवो कोई निर्देश कों नथी. अलबत्त तेओए योगशास्त्रनी स्वोपज्ञवृत्तिमां आ प्रश्न उठावीने तेना समाधानरूपे का छे के - योगना प्रभावथी मरुदेवीए शुक्लध्याननो अग्नि प्रज्वलित कर्यो अने कर्मोने भस्मीभूत कर्यां. तत्त्वार्थसूत्रमा जो के, पूर्वना ज्ञाताने ज शुक्लध्यान संभवी शके छे, तेवं कडं छे. छतां हरिभद्रसूरि आवश्यकनियुक्तिमां तेनो खुलासो करतां कहे छे के पूर्वना व्यावहारिक ज्ञान विना पण शुक्लध्यान संभवे छे अने ते माषतुष मुनि अने मरुदेवीनां दृष्टान्तोमा जोई शकाय छे. उपर कहेला बधा ज. सन्दर्भो, मरुदेवीए क्षपक श्रेणि करी हती तेम कहे छे; अने ते माटे व्यावहारिक व्रत-संयम अथवा बाह्य चारित्र आवश्यक नथी, भावपरिणामथी ज तेवी परिस्थिति उत्पन्न थई शके, तेवू नोंधे छे. वळी, बधा ज ग्रन्थो ए वातथी सभान छे के - मरुदेवीनी सिद्धत्वप्राप्तिमां घणा अपवादो- छूटो मूकवामां आव्यां छे. (तेथी ते आश्चर्यरूप छे.) अने पञ्चवस्तुक-सङ्ग्रहनी शिष्यहिता वृत्तिमां हरिभद्रसूरि पण आ ज Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० वात कहे छे. मरुदेवीमां एवी ते शी योग्यता हती जे तेओने आटला ट्रंका गाळामां मोक्षे लई जाय ? ए प्रश्ननो जवाब तथाभव्यत्वना सिद्धान्तथी आपी शकाय, तेवुं उपा. यशोविजयजी व. कहे छे. (अध्यात्ममतपरीक्षा). तथाभव्यत्त्व ए भव्यत्वनो ज विस्तार छे. ते सिद्धान्त प्रमाणे जो के दरेक भव्य जीव समान ज होय छे, छतां तेओनुं तथाभव्यत्व जुदुं जुदुं होय छे. तेथी कोई जीव तीर्थंकर - गणधरादि बने, कोई सामान्य केवली बने. (अने ज्यारे तेओ सिद्ध बने त्यारे बधा समान ज होय.) अन्यथा तीर्थंकर - अतीर्थंकर जीवोमां कोई तफावत न रहे. -- अनुसन्धान- ४१ ( गोपीनाथ कविराजे पण आ ज प्रश्न उठावीने कह्युं छे के : 'बधा ज जीवो समान होवा छतां केटलाक ज तीर्थंकर/ ईश्वर बने छेतो ते जीवोमां तेवी कई योग्यता छे अने तेओए तेने केवी रीते मेळवी छे ते आपणे जाणता नथी. परन्तु जैनदर्शन आ तफावतने समजावता सिद्धान्तो आपणने आपे छे.) वळी, तथाभव्यत्वनां कारणो सिवाय पण जीवोने परस्पर जुदा दर्शावता बीजा तफावतो छे, तेम ललितविस्तरानी टीकामां भद्रङ्करसूरि जणावे छे. तेओ कहे छे के पुरिसुत्तमाणं व पदो तीर्थंकरना जीवनी सार्वकालिक उच्चतानुं प्रतिपादन करे छे. अहीं तेओ क्षेमङ्करगणिना सत्पुरुषचरितनो सन्दर्भ आपे छे के ज्यारे तीर्थंकरना जीवो अव्यवहारराशिमां होय त्यारे पण बीजा जीवोथी चडियाता होय छे. (मात्र तेओनी उच्चता ढंकायेली होय छे.) ज्यारे व्यवहारराशिमां आवे छे त्यारे, पृथ्वीकायमां चिन्तामणि रत्न वगेरे तरीके जन्मे, अपकायमां तीर्थजलपणुं पामे, तेजस्कायमां आरती व नुं अग्नित्व पामे, वायुकायमा वसन्तऋतुमां सुगन्धीस्थाने जन्मे, वनस्पतिमां जन्मे तो कल्पवृक्षरूपे जन्मे बेइन्द्रियमां दक्षिणावर्त्त शंख तरीके जन्मे, पंचेन्द्रियमां श्रेष्ठ अश्व / हस्ति a. बने इत्यादि. आ रीते तीर्थंकरनो जीव बीजा जीवोथी जुदो पड़े छे ते तथाभव्यत्वना सिद्धान्तने प्रमाणित करे छे. अने आ सिद्धान्तथी ज भव्यजीवनो मोक्ष तेना भव्यत्वना परिपाकथी जुदा जुदा समये थाय छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ October-2007 ४१ (दिगम्बरो पण कहे छ के भव्यत्वनी गुणवत्ता जुदा जुदा आत्माओमां भिन्न भिन्न होय छे अने ते काललब्धि व. ने आधीन छे. परन्तु तेओ आ मुद्दानो उपयोग श्वेताम्बरोनी जेम करता नथी.) निगोदजीवो तथा मोक्ष विशे यापनीय तथा दिगम्बरोनो मत आचार्य शिवार्यनी भगवती आराधना परनी यापनीय अपराजितसूरिनी विजयोदय टीकामां - भरत चक्रवर्तीना घणा पुत्रोए दीक्षा लीधा बाद ढूंका गाळामां ज मोक्ष प्राप्त कर्यो – तेवं निरूपण छे. (मरुदेवीनो तेमां कोई उल्लेख नथी.) ते ज ग्रन्थमा आगळ कर्वा छे के - 'अनादिमिथ्यादृष्टि जीवो पण बहु ओछा काळमां-आराधनाना बळे - सिद्ध बनी शके. आत्मिक विकास माटे काल बहु महत्त्वनो नथी. केटलाय जीवो एक मुहूर्तमां ज संसारसमुद्रने तरी गया छे. भरतना वर्धन व. ९२३ पुत्रो नित्यनिगोदपणामांथी प्रथमवार ज त्रसत्व पामी ऋषभदेव पासे दीक्षित थई मोक्षने पाम्या छे.' आ निरूपण श्वेताम्बर आगमोमां कहेल - नित्यनिगोदमांथी प्रथमवार ज त्रसत्वने पामी सिद्धत्व मेळवी शकाय छे ए - वातने प्रमाणित करे छे. यापनीयो जो के आ वातने अनन्तकाळे थनारी के आश्चर्यरूप नथी मानता, वळी तेओ- मरुदेवीने श्वेताम्बरोए जे सरळताथी मोक्षप्राप्ति देखाडी छे ते रीते न मानता, व्रतग्रहण व. नी आवश्यकता उपर भार मूके छे. स्त्रीमुक्तिप्रकरणना कर्ता शाकटायन (यापनीय) ब्राह्मी-सुन्दरीराजीमती-चन्दना व.ना मोक्षनी वात करे छे पण मरुदेवीना सिद्धत्व अथवा मल्लिना तीर्थंकरत्वनो उल्लेख करता नथी. संभवित छे के मरुदेवीना प्रसंगनी आगमबाह्य होवाथी तेमणे नोंध लीधी नथी अथवा श्वेताम्बरोए जे रीते तेमनो मोक्ष मान्यो छे ते तेओने मान्य नथी. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनुसन्धान-४१ दिगम्बरो तो तेमना सिद्धान्त प्रमाणे मरुदेवीनो मोक्ष मानता ज नथी. आदिपुराणमा आचार्य जिनसेन नाभिने १४मा कुलकर गणावे छे. तेमना मते तो नाभि पहेलां ज केटलाय समय पूर्वे युगलिकपणुं विच्छेद पाम्युं हतुं. तेओ मरुदेवीनुं वर्णन पण घणुं करे छे परन्तु तेमना पूर्वभव विशे मौन छे. (व्रतद्योतन-श्रावकाचारमां अभ्रदेव कहे छे के मरुदेवी युगलिक हता. तेमनो पूर्वभव दर्शावता ग्रन्थकार कहे छे - पूर्वविदेहमां अमरालका नगरीमां वसुधारवणिकनां पत्नी वसुमती ए मरुदेवीनो जीव हतो. वसुमतीए एकवार बहु गर्वथी जैन मुनिने आदर विना दान आप्युं तेथी ते अनन्तर भवमां युगलिक तरीके जन्मी. आ वात पारम्परिक दिगम्बर मतथी घणी जुदी पडे छे.) आदिपुराणमां आ आगळ कर्वा छे के, मरुदेवी तथा नाभि पोताना पुत्रनी दीक्षामा उपस्थित हतां, परन्तु ते पछी - केवलज्ञान व. अवसरोमां तेओ उपस्थित नथी. वळी, आ अवसर्पिणीना प्रथम सिद्ध मरुदेवी नहि, परन्तु भरतना नाना भाई अनन्तवीर्य हता. दिगम्बर पुराणोमां श्वेताम्बरीय-मरुदेवीना सिद्धत्व के यापनीय वर्धन बन्धुओना सिद्धत्वनो निर्देश नथी. वळी, दिगम्बर मते नित्यनिगोदमांथी नीकळेल जीव मनुष्य तो थई शके परन्तु ते गृहस्थधर्मथी आगळ जई न शके. षट्खण्डागमनी धवला टीकामां कडं छे के, तेवो जीव-स्त्री के पुरुष - सम्यक्त्व के पांचमुं गुणस्थान प्राप्त करी शके. तेथी आगळ न जई शके. तेथी, दिगम्बरोए मरुदेवी, सिद्धत्व मात्र स्त्री होवाना लीधे ज इन्कार्यु होय ते कदाच संभवित नथी. भगवती आराधना अने विजयोदय टीका - बन्ने यापनीयोना छे तेवू संशोधन ताजेतरमा ज नथुराम प्रेमी अने ए. एन. उपाध्येए कयुं छे. अन्यथा, दिगम्बरो तेमां वर्णवेल वर्धन बन्धुओना सिद्धत्वने शी रीते स्वीकारी शके ? तेओए आ कथाने बदलवानो प्रयत्न अवश्य कर्यो छे. द्रव्यसङ्ग्रहनी टोकाना बीजा भागना पृ. ३१८मां लख्यु छे के, भरतना ९२३ पुत्रो नित्यनिगोदमांधी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ नकळी इन्द्रगोप तरीके साथे ज जन्म्या. पछी ते बधा ज भरतना हाथीना पग नीचे कचडाई मरी गया अने भरतना ज पुत्रोरूपे जन्म पाम्या. पछी तेओए साथै ज दीक्षा लीधी अने ट्रंक समयमां ज तप व कर्या विना मोक्ष पाम्या. October-2007 आ कथामां निगोदत्व अने मनुष्यत्वनी वच्चे इन्द्रगोपनो जन्म बताव्यो ते सहेतुक छे. दिगम्बर कर्मशास्त्रो प्रमाणे नित्यनिगोदनो जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय थई पछी जो मनुष्यत्व पामे तो ते, ते ज भवमां मोक्षे जई शके छे. इन्द्रगोप जो के संज्ञी पंचेन्द्रिय नथी छतां तेने तेवो मानी लेवामां आव्यो छे. कारण के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर बन्ने कर्मशास्त्रो प्रमाणे बेइन्द्रिय तेइन्द्रियचउरिन्द्रिय जीवो मनुष्य बने तो पण मोक्ष न पामी शके. उपसंहार धवला टीकामां वीरसेन कहे छे के, "वर्धनकुमारो नित्यनिगोदमांथी नीकळी, मनुष्यत्व पामी, क्षायिक 'सम्यक्त्व पाम्या हता. " परन्तु तेनाथी आगळ जेओ कंइ कहेता नथी. 1 कर्मसिद्धान्तोने बहु महत्त्व न आपीए तो मरुदेवीनी अथवा भरतना ९२३ पुत्रोनी कथा 'निगोदथी मोक्ष' माटे बधां ज सोपानो जरूरी नथी ते देखाडे छे. - - मरुदेवीनुं चरित्र ध्यानार्ह छे कारण के तेमां एक ज जीवनी कोई पण बाह्य परिस्थिति विना प्रगति सिद्धि थई छे, जे आश्चर्यरूप छे, ज्यारे भरतना पुत्रोनी प्रगति आश्चर्यरूप नथी. यामनीय- दिगम्बर कथाओ पण ध्यानार्ह छे. निगोदमां एक साथे अनन्तवार जन्म-मरण करी इन्द्रगोपना जीवो तरीके साथे ज जन्म, हाथीना पग - नीचे दबाई साथे ज मरण, फरी भरतना पुत्रो तरीके साथे ज जन्म--साथे ज दीक्षा अने अल्पकाळमां साथे ज मोक्ष, जाणे सामूहिक यात्रा !! आवां चरित्रो सांभळी लोको तो ऋषभदेव - महावीर व ना जीवोनी जेम घणा भवोनुं भ्रमण पसंद न करतां मरुदेवी व नी जेम मोक्षे जवुं पसंद करे. पण आ पसंदगीनी वात नथी. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 अनुसन्धान-४१ दिगम्बरो जो के आ मुद्दा विशे कंई कहेता नथी, परन्तु श्वेताम्बरोनो तथाभव्यत्वनो सिद्धान्त आ विशे घणो प्रकाश पाडे छे के - जीवो तेमना माटेना पूर्वनिर्धारित पथो पर ज चालीने प्रगति करे छे, भले तेमना भव्यत्व समान होय. [ "Jainism and Early Buddhism : Essays in Honor of Padmanabh S. Jaini" - Part I पुस्तकमां छपायेल From Nigoda to Moksa : The Story of Marudevi लेखनो सारांश.] गुजरातीमां सारांश : मुनि कल्याणकीर्तिविजय Prof. Padmanabh S. Jaini University of California Berkeley, CA 94720 U.S.A.