Book Title: Neminathadi Stotra Traya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी-2005 13 श्रीनेमिनाथादि-स्तोत्र-त्रय म० विनयसागर खरतरगच्छीय श्रीजिनदत्तसूरिजी रचित गणधरसार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति लिखते हुए श्रीसुमतिगणि ने उद्धरण के रूप में अनेक दुर्लभ एवं पूर्वाचार्योंरचित स्तोत्रादि दिये हैं, उनमें से तीन स्तोत्र यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं सुमति गणि - ये सम्भवतः राजस्थान प्रदेश के निवासी थे । इनके जीवन के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है । जिनपालोपाध्याय रचित खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि के आधार से विक्रम सम्वत् १२६० में आषाढ़ वदि ६ के दिन गच्छनायक श्रीजिनपतिसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान की थी और इनका नाम सुमति गणि रखा था । सम्वत् १२७३ में बृहद्वार में नगरकोट के महाराजा पृथ्वीचन्द्र की उपस्थिति में पण्डित मनोदानन्द के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए जिनपालोपाध्याय के साथ सुमतिगणि भी गये थे । यहाँ उनके नाम के साथ गणि शब्द का उल्लेख है, अत: १२७३ के पूर्व ही आचार्य जिनपतिसूरि ने इनको गणि पद प्रदान कर दिया था । इस शास्त्रार्थ में जिनपालोपाध्याय जयपत्र प्राप्त करके लौटे थे । सम्वत् १२७७ में जिनपतिसूरि ने स्वर्गवास से पूर्व संघ के समक्ष कहा था "वाचनाचार्यसूरप्रभ-कीर्तिचन्द्र-वीरप्रभगणि-सुमतिगणिनामानश्चत्वारः शिष्या महाप्रधानाः निष्पन्ना वर्तन्ते" । इस उल्लेख से स्पष्ट है कि गणनायक की दृष्टि में सुमतिगणि का बहुत बड़ा स्थान था और ये उच्च कोटि के विद्वान् थे। सुमतिगणि द्वारा रचित केवल दो ही कृतियाँ प्राप्त होती हैं - १. गणधरसार्धशतक बृहद् वृत्ति - इसका निर्माण कार्य खम्भात में प्रारम्भ किया था और इस टीका का पूर्णाहुति सम्वत् १२९५ में मण्डप (माण्डव) दुर्ग में हुई थी । गणधरसार्धशतक का मूल १५० गाथाओं का है, उस पर १२,१०५ श्लोक परिमाण की यह विस्तृत टीका है । इस टीका में सालंकारी छटा और समासबहुल शैली दृष्टिगत होती है। यह बृहद्वृत्ति अभी तक अप्रकाशित है। २. नेमिनाथरास-यह अपभ्रंश प्रधान मरुगुर्जर शैली में है। श्लोक परिमाण ५७ है । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अनुसन्धान-३१ बृहद्वृत्ति में अनेकों उद्धरण प्राप्त होते हैं । कई-कई उद्धरण तो लघु कृति होने पर पूर्ण रूप से ही उद्धृत कर दिये हैं । मूल के पद्य २ और ३ से ५ की व्याख्या करते हुए ३ स्तोत्र उद्धृत किये हैं- १. आचार्य जिनपतिसूरि रचित उज्जयन्तालंकार-नेमिनाथस्तोत्र, २. श्रीजिनेश्वरसूरि रचित गौतमगणधरस्तव, ३. श्रीसूरप्रभरचित गौतमगणधर स्तव । ये तीनों स्तोत्र प्रस्तुत करने के पूर्व इनके रचनाकारों का भी संक्षेप में परिचय देना आवश्यक है । श्रीजिनपतिसूरि - दादा जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य और मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्रीजिनपतिसूरि का समय विक्रम सम्वत् १२१० से १२७७ तक का है । विक्रमपुर (जैसलमेर के समीपवर्ती) माल्हू गोत्रीय यशोवर्धन सुहवदेवी के पुत्र थे । इनका जन्म वि.सं. १२१० चैत्र कृष्णा ८ को हुआ था । १२१७ फाल्गुन शुक्ला १० को जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा देकर इनका नाम नरपति रखा था । सम्वत् १२२३ भाद्रपद कृष्णा १४ को जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो जाने पर उनके पाट पर सम्वत् १२२३ कार्तिक शुक्ला १३ को जिनदत्तसूरि के पादोपजीवि जयदेवाचार्य ने नरपति को स्थापित किया था और इनका नाम जिनपतिसूरि रखा था। आचार्यपदारोहण के समय इनकी अवस्था १४ वर्ष की थी । इनके लिए षटत्रिंशद वादविजेता विशेषण का उल्लेख अनेक ग्रन्थकारों ने किया है किन्तु खरतरगच्छ की गुर्वावली में कुछ ही वादों का उल्लेख प्राप्त होता है। सम्वत् १२७७ आषाढ़ शुक्ला १० को इनका स्वर्गवास हुआ था । जिनपतिसूरि प्रौढ़ विद्वान् एवं समर्थ साहित्यकार थे । इनके द्वारा प्रणीत १. संघपट्टक बृहद्वृत्ति, २. पञ्चलिङ्गी प्रकरण बृहद्वृत्ति, ३. प्रबोधोदयवादस्थल तथा आठ-दस स्तोत्र प्राप्त १. प्रस्तुत उज्जयन्तालंकार-नेमिजिनस्तोत्र १० पद्यों का है, वसन्ततिलका छन्द में रचित है और इसमें भगवान् नेमिनाथ के पञ्च कल्याणकों की भाव-गर्भित स्तुति की गई है । २. श्रीजिनेश्वरसूरि (द्वितीय) - मरोट निवासी भाण्डागारिक नेमिचन्द्र के ये पुत्र थे और इनकी माता का नाम लक्ष्मणी था । १२४५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी-2005 15 मार्गशीर्ष शुक्ला ११ को इनका जन्म हुआ था । अम्बिका देवी के स्वप्नानुसार इनका जन्म नाम अम्बड़ था । सम्वत् १२५८ चैत्र कृष्णा २ खेड़ नगर के शान्तिनाथ जिनालय में श्रीजिनपतिसूरि ने इनको दीक्षित कर वीरप्रभ नाम रखा था । १२७३ में मनोदानन्द के साथ जिनपालोपाध्याय का जो शास्त्रार्थ हुआ था, उस शास्त्रार्थ के समय वीरप्रभगणि भी सम्मिलित थे। जिनपतिसूरि के मुख से महाविद्वानों की सूची में वीरप्रभमणि का भी नामोल्लेख मिलता है। जिनपतिसूरि ने अपने पाट पर वीरप्रभगणि को बैठाने संकेत भी किया था । सम्वत् १२७७ माघ सुदि ६ को पट्टधर आचार्य बने । उस समय इनका नाम जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) रखा गया । सम्वत् १३३१ आश्विन कृष्णा ५ को जालौर में इनका स्वर्गवास हुआ था । इनके द्वारा १३१३ में रचित श्रावकधर्मविधि प्रकरण और लगभग १२-१३ स्तोत्र प्राप्त हैं । प्रस्तुत गौतमगणधर स्तोत्र प्राकृत भाषा में नौ गाथाओं में रचित है। इसमें उनके विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हुए जीवन की विशिष्ट-विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख हैं । आचार्य बनने के पूर्व रचना होने से इसमें वीरप्रभ का ही नामोल्लेख किया गया है । ३. सूरप्रभगणि - विक्रम सम्वत् १२४५ में फाल्गुन मास में पुष्करणी नगर में जिनपतिसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान कर सूरप्रभ नाम रखा था । १२७७ के पूर्व ही इनको वाचनाचार्य पद प्राप्त हो गया था । आचार्य जिनपतिसूरि की दृष्टि में ये उस समय के उद्भट विद्वान थे । इनके द्वारा रचित कृतियों में केवल एक ही कृति प्राप्त होती है, वह है - श्रीजिनदत्तसूरि रचित कालस्वरूपकुलक-वृत्ति । यह वृत्ति अपभ्रंशकाव्यत्रयी में प्रकाशित हो चुकी है। गौतमगणधर स्तव - यह संस्कृत भाषा में रचित नौ पद्यों की रचना है। शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, मालिनी, अनुष्टुप् आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है । इस स्तोत्र में भी भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति (गौतम स्वामी) के गुणों की स्तवना भक्तिपूरित हृदय से की गई है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 श्रीजिनपतिसूरिग्रथितं उज्जयन्तालङ्कार- नेमिजिनस्तोत्रम् सुगृहीतनामधेयैः समुपचितनिचितभागधेयैः स्वमतिप्रतिभाप्रतिहतसुरगुरुभिर्गुणगणगुरुभिः प्रवरनव्यकाव्यप्रबन्धमधुमधुरसुधारसपानप्रमोदितसूरिभूरिभिः श्रीयादवकुलतिलकस्य समुद्रविजयाङ्गजस्य निष्पिष्टदुष्टाङ्गजस्य समस्तत्रिभुवनसौभाग्यभाग्यलक्ष्मीसनाथस्य श्रीनेमिनाथस्य स्तुतिश्चक्रे । तद् यथा व्याख्यास्तु यस्य रदनद्युतयोऽसिताङ्ग भाशारिता विसृमरा हरिदङ्गनानाम् । वक्ष:सुनीलमणिखण्डविमिश्रमुक्ता यस्याङ्गनिर्यदतिसान्द्रविसारिनील कान्तिप्रतानपिहिताः ककुभो विभाव्य । जन्मोत्सवस्य दिवसे नववारिवाह सन्दोहशङ्कधियो ननृतुर्मयूराः ॥ २॥ दामश्रियं विदधिरेऽवतु वः स नेमिः ||१|| श्रीमच्चतुर्वदनभाषितवाङ्मयाब्धिः, पादोपगूहनपवित्रितराजहंसः । पद्मोद्भवस्त्रिजगतीभवकृत्स्वयम्भू र्यो दिद्युते नियमितस्फुरदक्षमालः ||३|| कृत्स्नागसन्धिसुभगां प्रणिधिप्रधानां, सद्विग्रहां मृदुकरां वरदन्तियानाम् । उत्सृज्य राज्यकमलां गुणराजमानां, राजीमतीं च दयितां जगृहे व्रतं यः ॥ ४ ॥ भामानिलीनहृदयः सहितो बलेन, सद्धर्मचक्रमथितप्रतिपन्थिसार्थः । गोपालपूगकृतसंस्तवनोर्व्यते यो, अनुसन्धान- ३१ गोमण्डलं जडविपत्तित उद्दधार ||५|| Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेबुआरी-2005 दीक्षामहस्यतनुसान्द्रदरिद्रताद्रु विद्रावणं वितरता द्रवित वितन्द्रम् । येन द्रुतं तनुभृतः सुखिनोऽक्रियन्त, सातायर्वजगतौ(साताय सर्वजगतां ?) महतां हि भूमिः ॥६॥ स्फूर्जत्कलानिलयसंकलितोत्तमाङ्गो, विश्वम्भराभृदतिशायिकृतानुरागः । रोचिष्णुगूरुचितशक्तिधरः स्मरारि र्यो भारतं परमसिद्धिलवं चकार ||७|| आश्चर्यमेकमपि यस्य वचो विचित्रां, लोकस्य संशयतति युगपन्निरास्थत् । भव्यात्मनां भुवि सदा फलितस्य पुण्य कल्पद्रुमस्य क इवाविषयोप्यवार्यः ॥८॥ यत्कौशिकस्य परमप्रमदं तनोति, __ शश्वन्महोभिरधिकं विधुमादधाति । विस्फारयत्यनुदितं कुमुदं च यस्य, तत्केवलं कथमिवार्कसमं समस्तु ॥९॥ अद्यापि यत्प्रतिकृती रुचितां पिपत्ति, __पुंसां स्थिता गुरुणि रैवतकाद्रिश्रृङ्गे । स श्रीसमुद्रविजयक्षितिपाङ्गजः श्री नेमिः श्रियं जिनपतिस्तनुतान्तरां वः ॥१०॥ [गणधरसार्धशतकबृहद्वृत्ति सुमतिगणि कृत. द्वितीय पद्यव्याख्या, दानसागर ज्ञान भण्डार, बीकानेर ग्रन्थाङ्क १०६१, ले. १६७४, पत्र ४० बी] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुसन्धान-३१ श्रीजिनेश्वरसूरि-सूरप्रभ-सन्दृब्धं श्रीगौतमगणधर-स्तवद्वयम् तथा जिनेश्वरसूरिभिः श्रीसूरप्रभाभिधैश्च भगवतः श्रीगौतमस्वामिनो नानाप्रकारसारवृत्तार्यायमकालङ्कारगाथादिभिः स्तुतिश्चक्रे यथा अक्खीणमहाणसिचारुचारप्पमुहलद्धिनिवहनिद्धि(रिद्धी?)हिं । सिरिगोयमगणनाहं थुणामि निद्दलियदुहदाहं ॥१॥ समचउरंससुसंठाणसंठिय-वज्जरिसहसंघयणं । तिरुजव्व(?) कंचणच्छायकायमुच्छिन्नमयमायं ॥२॥ जणि जिट्ठाहिं जायं मगहासु गुव्वरग्गामे । गुत्तेण गोयमं गोयमं नमसामि गणसामिं ॥३।। पुहवी-वसुभूईणं च नंदणं मंडणं मुणिगणस्स । गोयमसामिं वंदे सत्तकरुस्सेहदेहमहं ॥४॥ सिरिइंदभूइमंचामि गणहरं गरुयगुणगणगरिष्टुं । जिटुं सहोयरं अग्गिभूइ-सिरिवाउभूईणं ।।५।। पन्नासं गिहिवासे छउमत्थत्ते य जस्स तीससमा । बारस य केवलत्ते तं गोयमसामिमंचामि ॥६॥ जणेह(जण्णेह)दिक्खियाणं ताणं पन्नरसतावससयाणं । उप्पन्नं केवलमुज्जलं व सो गोयमो जयइ ||७|| पालिय बाणवइवच्छराइं सव्वाउमुवगउ(ओ) सिद्धं(द्धि) | जो रायगिहे नगरे स गोयमो हुज्ज मे सरणं ॥८॥ इय मुसुमूरियवम्मह ! वीरप्पहपत्तसोह ! हयमोहं । सिरिगोयमवरगणहर ! वियरसु मम केवलन्नाणं ॥९॥ तथा - अब्धिलब्धिकदम्बकस्य तिलको निःशेषसूर्यावले रापीडः प्रतिबोधनैपुणवतामग्रेसरो वाग्मिनाम् । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 फेबुआरी-2005 दृष्टान्तो गुरुभक्तिसालमनसां मौलिस्तवः श्रीजुषां, सर्वाश्चर्यमयो महिष्टसमय: श्रीगौतमः स्तान्मुदे ॥१॥ यस्य द्वापरमात्मगोचरमहो वीरः स्वयं केवला लोकालोकितविश्ववस्तुनिकरः कारुण्यवारांनिधिः । युक्त्या वेदगिरा निरस्य नितरां दीक्षां ददे पञ्चभिः, सार्धं शिष्यशतैः स गौतमगुरुर्दिश्यान्मनोगौरवम् ॥२॥ मगधेषु मगध्यामो मणीयामपि गोर्वरम् । पृथिवीं विद्मवसुधां यत्राजायत गौतमः ॥३॥ यः शिष्येभ्यो बहुभ्यः त्रिभुवननयनं केवलालोकमोकः, सर्वस्या एव ऋद्धेः परमपदसमारोहनिःश्रेणिकल्पम् । दत्त्वा श्वेतोपमेय(यो ?)महिमपरिमलोगारगौरव्यकीर्तिः, ___ स श्रीमानिन्द्रभूतिः क्षिपतु मयि दृशं निर्विवादप्रसादम् ॥४॥ सकलसमयसिन्धोः पारगामीति विद्वा ___ नपि विनयविवेकब्रह्मसंवर्मितात्मा । किमपि किमपि तत्त्वं सत्त्ववर्गोपकृत्यै, जिनमनुयुयुजे यः सोऽवताद् गौतमो वः ।।५।। यं निःशेषगुणाकरं गुरुतयाङ्गीकृत्य सर्पिर्मधु स्वादी यः(?) परमान्नपूर्णजठराः स्वामोदमेदस्वितः(नः?)। सद्यः केवलितामिता बत परिव्राजो जिनायापि नो तेऽमुस्तं(नेमुस्तं) परमोपकारिणमहं वन्दे गणाधीश्वरम् ॥६॥ यस्याग्रे भगवज्जगद्गुरुमहावीराहतोऽनुज्ञया, देवाः प्रेक्षाणाकं त्रिलोकजनताचित्तेक्षणां मांक्षिणम्(चित्तेक्षणाकांक्षिणम्)। कुर्वाणा कृतकृत्यतामिव कलाकौशल्यदिव्यश्रियोमन्यन्ते स्म स मान्यतां मुनिपतिः श्रीगौतमः सत्तमः ।।६।। श्रुतमपि बहुभक्त्याऽऽराध्यमाना अजस्रं, ददति किमपि कृच्छात्प्रायशः सूरयोन्यो(योऽन्ये?) । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-३१ --दिन सपदि यस्तु ब्रह्मशिष्योत्तमेभ्यः, . स जयति भगवान् श्रीगौतमाचार्यवर्यः // [सुमतिगणि कृत गणधरसार्धशतक बृहद्वृत्ति, पत्र 3 से 5 व्याख्या, दानसागरज्ञानभण्डार, ग्रंथांक 1061, ले. 1639 पत्रांक 45 ए.बी.] C/o. प्राकृत भारती 13 A, मेन मालवीय नगर जयपुर 302017