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५. मन ही माटी, मन हो सोना
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एक युवक एकान्त शांत स्थान पर बैठकर एक देवी ने पूछा-वत्स ! यह बताओ तुम्हारे घर देवी की उपासना कर रहा था। चिरकाल तक में अनुचर होंगे, वे तो तुम्हारी बात को बहुत ही उपासना करने के बाद देवी ने स्वयं प्रकट होकर श्रद्धा से सुनते होंगे? तुम्हारे संकेत पर अपने प्यारे कहा कि तुमने मुझे क्यों स्मरण किया है ? बोलो, प्राण न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते होंगे ? तुम्हें क्या चाहिए?
युवक ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहायुवक ने देवी को नमस्कार कर कहा-माँ ! आज के युग में नौकर मालिक बनकर रहते हैं। मेरे अन्तर्मानस में एक इच्छा है कि
मार
मालिक को नौकर की हर बात को मानना पड़ता मेरे वश में हो जाए। मैं जिस प्रक
है। यदि मालिक उनके मन के प्रतिकूल करता है प्रकार वे कार्य करें।
तो वे हड़ताल पर उतारु हो जाते हैं । मालिक को स देवी ने कहा--वरदान देने के पूर्व मेरे कुछ
' सदा यह चिन्ता रहती है कि कहीं नौकर नाराज न प्रश्न हैं ? क्या तुम उन प्रश्नों का उत्तर दोगे ?
हो जाए और इसलिए मालिक सदा नौकर की (NS हाँ, क्यों नहीं दूंगा ? जो भी इच्छा हो, सहर्ष खुशामद करता है कि वे कहीं नाराज होकर न चले आप पूछ सकती हो।
जाएँ इसलिए सदा उनकी बातों पर ध्यान देना _देवी ने पूछा-तुम जहाँ रहते हो। तुम्हारे होता है। म आसपास में अनेक पड़ोसियों के मकान हैं। वे देवी ने अगला प्रश्न किया-अच्छा यह बताओ, अड़ोसी-पड़ोसी तुम्हारे अधीन हैं न ?
तुम्हारे पुत्र और पुत्रियां तो तुम्हारे अनुशासन में उत्तर-माँ ! अड़ोसी-पड़ोसी पर मेरा क्या हैं ना ? वे तो तुम्हारी आज्ञा की अवहेलना नहीं सा अधिकार है, जो मेरे वश में रहें । वे तो सर्वतन्त्र करते होंगे ? स्वतन्त्र हैं । सभी पड़ोसी अपनी मनमानी करते हैं। युवक ने कहा-माँ ! आधुनिक शिक्षा प्राप्त
देवी ने कहा-वत्स ! अड़ोसी पड़ोसी पर बालक और बालिकाओं के सम्बन्ध में क्या पूछ १ तुम्हारा अधिकार नहीं तो यह बताओ कि तुम्हारे रही हो? वे राम नहीं है और न कृष्ण और महा
परिवार के जितने भी सदस्य हैं वे तो तुम्हारे वीर ही हैं जो प्रातःकाल उठकर माता-पिता को संकेत पर नाचते होंगे न?
नमस्कार करते थे। उनकी आज्ञा का पालन करते युवक ने निःश्वास छोड़ते हुए कहा-माँ! थे। पर यह तो कलियुग है, इसमें माता-पिता की आज तो कलियुग है। परिवार के सारे सदस्य आज्ञा का पालन करना तो कठिन रहा, यदि अच्छे अपनी मनमानी करते हैं, न बड़ों का मान है और भाग्य हों तो वे माता-पिता का उपहास नहीं न छोटों पर प्यार है । मेरी शिक्षा भरी बात को करेंगे। आज तो माता-पिताओं को पुत्रों की
भी वे इस तरह से उड़ाते हैं जैसे पतंग आकाश में आज्ञाओं का पालन करना होता है। | उड़ाई जाती है।
देवी ने कहा-वत्स ! यह बताओ तुम्हारी सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
४८६ O K साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Cered Forpivate PersonaliticeOnly
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पत्नी तो पूर्ण आज्ञाकारिणी है न ? वह तो सीता थे। सेर का दूसरा अर्थ सिंह भी है। उस शेर के T की तरह तुम्हारी बात को मानती है न?
भी चार पांव होते हैं। चालीस शेरों को जीत __युवक ने कहा-आधुनिक पत्नियाँ घर की जितना कठिन है उससे भी अधिक कठिन है मन मालकिन होती हैं। उनके संकेत पर ही पति को को जीतना।
कार्य करना होता है। यदि पति पत्नी की आज्ञा कुरुक्षेत्र के मैदान में वीर अर्जुन ने श्रीकृष्ण । | का पालन न करे तो उसे रोटी मिलना भी कठिन से कहा-यह मन बड़ा ही चंचल है। वायु की तरह र हो जाता है।
इस पर नियन्त्रण करना कठिन है। ऐसा कौन
सा उपाय है जिससे कि मन अपने अधीन में हो देवी ने कहा-अब मेरे अन्तिम प्रश्न का भी
जायउत्तर दे दो । वह प्रश्न है कि तुम्हारा मन तो
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवददृढम् । तुम्हारे अधीन है न ? तुम मन के मालिक हो या
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। गुलाम हो?
श्रीकृष्ण ने चिन्तन के सागर में डुबकी लगाई __ युवक ने कहा-माँ ! मन तो बड़ा चंचल है।
। और उन्होंने कहा-मन को वश में करने के दो ही प्रतिपल प्रतिक्षण नित्य नई कल्पनाएँ संजोता रहता
उपाय हैं अभ्यास और वैराग्य । निरन्तर अभ्यास है । मैं जितना मन को वश में करने का प्रयत्न
करने से मन एकाग्र होता है और संसार के पदार्थों करता रहता हूँ, उतना ही वह अधिक भागता है।
के प्रति मन में वैराग्य भावना उद्भूत होती है तो बहत प्रयास किया पर मन मानता नहीं। __ देवी ने कहा-वत्स ! जब तुम्हारा मन ही
मन चंचल नहीं होता। तुम्हारे अधीन नहीं है तुम उसके स्वामी नहीं हो तो अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी एक फक्कड सन्त संसार पर तुम्हारा नियन्त्रण कैसे होगा? जिसने थे। आध्यात्मिक साधना में सदा तल्लीन रहने मन को नहीं जीता, वह संसार को जीत नहीं वाले थे। उन्होंने चौबीस तीर्थंकरों पर सारगर्भित सकता । इसलिए गीर्वाण गिरा के एक यशस्वी अन- और दार्शनिक भावना से संपृक्त चौबीसी का भवी चिन्तक ने कहा है-'मनोविजेता जगतो- निर्माण किया। बड़ी अद्भुत है वह चौबीसी । जब ? विजेता ।' जिसने मन को जीत लिया. वह संसार भी साधक उन पद्यों को गाता है तो श्रोतागण को भी जीत सकता है और जिसने मन को नहीं
में श्रद्धा से झूम उठते हैं। उन्होंने कुन्थुनाथ की प्रार्थना - जीता, वह संसार को कभी जीत नहीं सकता।
में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहो कि 'मन' The
शब्द संस्कृत में नपुंसकलिंग है। नपुसक व्यक्ति में देवी की बात इतनी मार्मिक थी कि युवक के शक्ति नहीं होती। वह कभी भी रणक्षेत्र में जझ एम पास उसका उत्तर नहीं था। मन बड़ा ही चंचल है नहीं सकता। पर मन एक ऐसा नपूसक है जो बड़े बड़े-बड़े साधक भी मन को वश में नहीं कर सके, बड़े वीर शक्तिशाली मर्दो को भी पराजित कर वे भी मन के प्रवाह में बह गये।
देता है। रावण कितना शक्तिशाली था, जिसने हमारे श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्रीपुष्कर देवी शक्तियों को भी अपने अधीन कर रखा था। मुनिजी महाराज ने एक बार कहा कि मन को देवी शक्तियाँ भी उसके सामने काँपती थीं, वह जीतना चालीस सेर से भी अधिक कठिन है । राज- महाबली रावण भी मन का गुलाम था। मन को स्थानी में 'मन' और 'मण' ये दो शब्द हैं । मण जो वह भी न जीत सका । मन के अधीन होकर ही वह एक नाप विशेष है, प्राचीन युग में वह चालीस सेर सीता को चुराने के लिए चल पड़ा। सीता के का एक होता था और एक सेर के चार पाव होते सामने हाथ जोड़कर दास की तरह खड़ा रहता
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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था। सीता उसे फटकारती, कुत्ते की तरह धुत्कारती, शैतान का घर होता है। मन को कभी भी खाली । तथापि वह गूलाम कुत्ते की तरह दुम हिलाता रहता न रखो। मन बालक के सदृश है । बालक के था । यह नपुसक मन की शक्ति थी जिसने रावण में यदि शस्त्र है तो वह स्वयं का भी नुकसान करेगा को भी पराजित कर दिया था इसलिए कवि ने और दूसरे का भी। यदि बालक के हाथ से शस्त्र कहा
छीनकर ले लिया जायेगा तो वह रोयेगा चिल्लामैं जाण्यू ए लिंग नपुंसक सकल मरद ने ठेले येगा। समझदार व्यक्ति बालक के हाथ में चमबीजी बातें समरथ छे नर एहने कोइ न झेले चमाता हुआ खिलौना देता है और उसके पास से हो कुन्थुजिन मनडूं किम ही न बाझे
शस्त्र ले लेता है। वैसे ही मन रूपी बालक के हाथ राजस्थान की एक लोक कथा है कि एक सेठ में विषय-वासना, राग-द्वेष के शस्त्र हैं, विकथा का ने भूत को अपने अधीन किया ! भूत ने कहा कि मैं
शस्त्र है तो उसके स्थान पर उसे स्वाध्याय, ध्यान, तुम्हारा जो भी कार्य होगा कर दंगा पर शर्त यह चिन्तन का यदि खिलौना पकड़ा दिया गया तो वह है कि मुझे सतत् काम बताना होगा जिस दिन अशुभ से हटकर शुभ और शुद्ध में विचरण करेगा। तुमने काम नहीं बताया उस दिन मैं तुम्हें निगल जो मन मारक था वह तारक बन जायेगा। जाऊँगा।
जैन साहित्य में एक बहुत ही प्रसिद्ध कथा है । सेठ बड़ा चतुर था। उसने सोचा कि मेरे पास प्रसन्नचन्द्र नामक राजर्षि एकान्त शान्त स्थान में & इतना काम है कि यह भूत करते-करते परेशान हो ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे । उस समय सम्राट
जायेगा। हजारों बीघा मेरी जमीन है धान्य के ढेर श्रेणिक सवारी सजाकर श्रमण भगवान महावीर लग जाते हैं तथा अन्य भी कार्य हैं। सेठ ने भूत को वन्दन करने के लिए जा रहा था। प्रसन्नचन्द्र की शर्त स्वीकार कर ली और कहा जाओ जो मेरी राजर्षि को ध्यान मुद्रा को देखकर उसका हृदय खेती है सबको काट डालो। अनाज का ढेर एक श्रद्धा से अभिभूत हो गया। सम्राट नमस्कार कर स्थान पर करो और भूसा एक स्थान पर करो। समवशरण की ओर आगे बढ़ गया । कुछ राहगीर अनाज की बोरियाँ घर में भर दो, कोठार में भर परस्पर वार्तालाप करने लगे कि प्रसन्नचन्द्र तो साधु दो। आदेश सुनकर भूत चल पड़ा और कुछ ही बन गये हैं पर इनके नगर पर शत्रुओं ने आक्रमण
क्षणों में कार्य सम्पन्न कर लौट आया। उसने दूसरा कर दिया है और वे नगर को लूटने के लिए तत्पर C कायं बताया, वह भी उसने कर दिया। उसने पुन: है। ये शब्द ज्योंही राजर्षि के कर्ण-कुहरों में गिरे,
आकर कहा- बताओ कार्य, नहीं तो मैं तुम्हें खा उनका चिन्तन धर्म-ध्यान से हटकर आर्त और 5 जाऊँगा। प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न श्रेष्ठी ने भत से रौद्र ध्यान में चला गया और वे चिन्तन करने लगे
कहा-चौगान में एक खम्भा गाड दो और मैं जबकि मैं शत्रओं को परास्त कर दंगा। मेरे सामने तक नया काम न बताऊँ तब तक तुम उस पर चढ़ते शत्रु एक क्षण भी टिक नहीं सकेंगे। प्रसन्नचन्द्र और उतरते रहो।
राजर्षि ने मन में युद्ध की कल्पना प्रारम्भ की । शत्रु भूत श्रेष्ठी की बात सुनकर सोचने लगा कि सेना दनादन मर रही है । स्वयं युद्ध के लिए सन्नद्धा यह बड़ा चालाक और बुद्धिमान है। मेरे चंगुल में हो चुके हैं। मन में संकल्प है सभी शत्रुओं को । कभी भी फंस नहीं सकता। वह श्रेष्ठी के चरणों समाप्त करके ही मैं संसार को बता दूंगा कि मैं
गिर पडा। भारत के उन तत्वदर्शी मनीषियों ने कितना वीर हैं। इस लोक कथा के माध्यम से इस सत्य को उजागर सम्राट श्रेणिक ने श्रमण भगवान महावीर को किया है कि मन भी भूत के सदृश है । खाली मन वन्दन कर पूछा भगवन् ! मैं श्री चरणों में आ रहा सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
४६१ . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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________________ था, मैंने मार्ग में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यानस्थ पूछा कि भगवन् वे मरकर कहाँ जाएँगे इसीलिए अवस्था में देखा। वे इस समय काल कर जाएँ तो मैंने सातवीं नरक की बात कही और जब यद्ध में की कहाँ पर पधारेंगे? उनका हाथ सिर पर गया और उन्हें स्मरण हो / - भगवान् ने जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे, कहा- आया कि मैं तो साधु हूँ, साधु होकर मैं कहाँ भटक 'श्रेणिक ! इस समय यदि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि आयु गया। पश्चात्ताप की आग में सुलगने लगे और कर्मों। पूर्ण करें तो सातवीं नरक में जायेंगे। श्रेणिक के की निर्जरा करते हुए उन्होंने केवलज्ञान और केवल / / आश्चर्य का पार न रहा / एक महासन्त जो ध्यान- दर्शन को प्राप्त कर लिया है। इसीलिए भारत के lir स्थ है मेरु पर्वत की तरह अडोल है, वे सातवीं नरक महामनीषियों ने कहा है-'मन एव मनुष्याणां D में कैसे जाएँगे। कुछ क्षण रुककर पुनः जिज्ञासा कारणं बन्ध मोक्षयोः / ' मन से ही कर्मों का बन्धन प्रस्तुत की इस समय आयु पूर्ण करेंगे तो कहाँ होता है और मन से ही कर्मों की मुक्ति भी होती है। जाएँगे। भगवान ने कहा-छट्ठी नरक में / पुनः मन विष भी है और अमृत भी है। प्रश्न उठा / अब कहां जाएँगे ? भगवान ने पांचवीं, एक तिजोरी है। वह तिजोरी जिस चाबी से || चोथी, तीसरी, दूसरी और पहली नरक की बात खोली जाती है उसी चाबी से वह तिजोरी बन्द भी कही। उसके पश्चात् स्वर्ग में उत्तरोत्तर विकास होती है। केवल चाबी को घुमाने से ही तिजोरी / की स्थिति बताई और सम्राट सोच ही रहे थे कि बन्द भी होती है. और खुलती भी है / वैसे ही मन यह गजब की पहेली है / कहाँ सातवीं नरक और की तिजोरी भी अशुभ विचारों से कर्म का बन्धन र कहाँ सर्वार्थसिद्ध देवलोक कुछ ही क्षणों में पतन से करती है और शुभ विचारों से कर्म को नष्ट भी उत्थान की ओर गमन ? इतने में सम्राट के कर्ण करती है इसलिए हमें अशुभ विचारों से हटकर शुभ कुहरों में देव दुन्दुभि गडगडाने की आवाज आई। विचारों में रमण करना चाहिए। इसीलिए मैंने सम्राट ने पूछा कि देव दुन्दुभि की आवाज कहाँ से प्रवचन के प्रारम्भ में रूपक की भाषा में उस सत्य आ रही है भगवन् ! भगवान् ने स्पष्टीकरण किया को उजागर किया कि जब तक तुम अपने मन पर कि प्रसन्न चन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान और केवल नियन्त्रण नहीं कर सकोगे, तब तक विश्व पर नियंदर्शन हो चुका है। त्रण नहीं कर सकते / मन हमारा मित्र भी है और सम्राट श्रेणिक ने सहज जिज्ञासा प्रस्तुत की- दुश्मन भी है। मन से ही मोक्ष मिलता है। बिना 6 मैं इस अबूझ पहेली को नहीं बुझा सका हूँ। यह मन वाले प्राणी को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और न रहस्यमयी बात मेरी समझ में नहीं आई है। भग- अणवत और महावत ही प्राप्त होते हैं अतः हम वान ने समाधान की भाषा में कहा-प्रसन्नचन्द्र मन को साधे / मन को अपने नियन्त्रण में रखें तभी राजर्षि के अन्तर्मानस में जो द्वन्द युद्ध चल रहा था आनन्द का महासागर ठाठे मारने लगेगा। (EPh) और वे युद्ध की पराकाष्ठा पर थे तब तुमने मेरे से (शेष पृष्ठ 488 का) . सातवीं नरक में ले जाने वाला इन्द्रियों का असंयम वाले राजा की कहानी बताई। आप सम्यक प्रकार था। अरणक मुनि जब इन्द्रियों के प्रवाह में बहे से समझ गए होंगे कि इन्द्रिय संयम की कितनी तो साधना से भटक गये और जब इन्द्रियों पर आवश्यकता है / आज भौतिकवाद के युग में इन्द्रिय उन्होंने नियन्त्रण किया तो मोक्ष में पहुँच गये / हम असंयम के अनेक साधन उपलब्ध हैं। हम उनके 8 भी इन्द्रिय संयम कर अपने जीवन को महान बना प्रवाह में न बहें तभी आत्मा से परमान्मा और नर। सकते हैं / इन्द्रियों के प्रवाह में न बहें इसीलिए मैंने से नारायण बन सकेंगे। प्रारम्भ में आपको इन्द्रिय प्रवाह में प्रवाहित होने 462 सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन SANDRANI @ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Private & Personal Use Only