Book Title: Mahavir ki Nirvan Tithi per Punarvichar
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार - प्रो. सागरमल जैन सामान्यतया जैन लेखकों ने अपनी काल गणना को शक संवत् से समीकृत करके यह माना है कि महावीर के निर्वाण के 605 वर्ष और पांच माह पश्चात् शक राजा हुआ। इसी मान्यता के आधार पर वर्तमान में भी महावीर का निर्वाण ई.पू. 527 माना जाता है। आधुनिक जैन लेखकों में दिगम्बर परम्परा के पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार एवं श्वेताम्बर परम्परा के मुनि श्री कल्याण विजयजी आदि ने भी वीरनिर्वाण ई.पू. 527 वर्ष में माना है। लगभग 7वीं शती से कुछ अपवादों के साथ इस तिथि को मान्यता प्राप्त है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम "तित्थोगाली"4 नामक प्रकीर्णक में और दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम "तिलोयपण्णन्ति"5 में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि महावीर के निर्वाण के 605 वर्ष एवं 5 माह के पश्चात् शक नृप हुआ। ये दोनों ग्रन्थ ईसा की 6-7वीं शती में निर्मित हुए है। इसके पूर्व किसी भी ग्रन्थ में महावीर के निर्वाणकाल को शक सम्वत् से समीकृत करके उनके अन्तर को स्पष्ट किया गया हो -- यह मेरी जानकारी में नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि लगभग 6-7ीं शती से ही महावीरनिर्वाण शक पूर्व 605 में हुआ था, यह एक सामान्य अवधारणा रही है। इसके पूर्व कल्पसूत्र की स्थविराक्ली और नन्दीसूत्र की वाचक वंशावली में महावीर की पट्टपरम्परा का उल्लेख तो है, किन्तु इनमें आचार्यों के कालक्रम की कोई चर्चा नहीं है। अतः इनके आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि को निश्चित करना एक कठिन समस्या है। कल्पसूत्र में यह तो उल्लेख मिलता है कि अब वीरनिर्वाण के 980 वर्ष वाचनान्तर से 993 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इससे इतना ही फलित होता है कि वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् देवक्षिपणश्रमण ने प्रस्तुत ग्रन्थ की यह अन्तिम वाचना प्रस्तुत की। इसी प्रकार स्थानांग', भगवतीसूत्र और आवश्यकनियुक्ति में निहनवों के उल्लेखों के साथ वे महावीर के जीवनकाल और निर्वाण से कितने समय पश्चात् हुए है -- यह निर्देश प्राप्त होता है। यहीं कुछ ऐसे सूत्र है जिनकी बाह्य सुनिश्चित समय वाले साक्ष्यों से तुलना करके ही हम महावीर की निर्वाण तिथि पर विचार कर सकते हैं। महावीर की निर्वाण तिथि के प्रश्न को लेकर प्रारम्भ से मत-वैभिन्य रहे है। दिगम्बर परम्परा के द्वारा मान्य तिलोयपण्णत्ति में यद्यपि यह स्पष्ट उल्लेख है कि वीरनिर्वाण के 605 वर्ष एवं 5 मास पश्चात् शक नृप हुआ, किन्तु उसमें इस सम्बन्धी निम्न चार मतान्तरों का भी उल्लेख मिलता है।10 वीर जिनेन्द्र के मुक्ति प्राप्त होने के 461 वर्ष पश्चात् शक नृप हुआ। वीर भगवान् के मुक्ति प्राप्त होने के 9785 वर्ष पश्चात् शक नृप हुआ। वीर भगवान् के मुक्ति प्राप्त होने के 14793 वर्ष पश्चात् शक नृप हुआ। 4. वीर जिन के मुक्ति प्राप्त करने के 605 वर्ष एवं 5 माह पश्चात् शक नृप हुआ। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम की "धवला" टीका में भी महावीर के निर्वाण के कितने वर्षों के पश्चात् शक (शालिवाहन शक) नृप हुआ, इस सम्बन्ध में तीन मतों का उल्लेख हुआ है11. 1. वीरनिर्वाण के 605 वर्ष और पांच माह पश्चात् । 2. वीरनिर्वाण के 14793 वर्ष पश्चात् । 3. वीरनिर्वाण के 7995 वर्ष और पाँच माह पश्चात्। श्वेताम्बर परम्परा में आममों की देवदि की अन्तिमवाचना भगवान महावीर के निर्वाण के कितने समय पश्चात् हुई, इस सम्बन्ध में स्पष्टतया दो मता का उल्लेख मिलता है -- प्रथम मत उसे वीरनिर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् मानता है, जबकि दूसरा मत उसे 993 वर्ष पश्चात् मानता है।12 श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणकाल को लेकर भी दो मान्यतायें पायी जाती है। प्रथम परम्परागत मान्यता के अनुसार वे वीरनिर्वाण सम्वत् 215 में राज्यासीन हुए13 जबकि दूसरी हेमचन्द्र की मान्यता के अनुसार वे वीरनिर्वाण के 155 वर्ष पश्चात् राज्यासीन हुए।14 हेमचन्द्र द्वारा प्रस्तुत यह दूसरी मान्यता महावीर के ई.पू. 527 में निर्वाण प्राप्त करने की अवधारणा में बाधक है।15 इस विवेचन से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में प्राचीनकाल में भी विवाद था। बँकि महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में प्राचीन आन्तरिक साक्ष्य सबल नहीं थे, अतः पाश्चात्य विद्वानों ने बाह्य साक्ष्यों के आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि को निश्चित करने का प्रयत्न किया, परिणाम स्वरुप महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में अनेक नये मत भी प्रकाश में आये। महावीर की निर्वाण तिथि के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार 1. हरमन जकोबी० ई.पू. 477 इन्होंने हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व के उस उल्लेख को प्रामाणिक माना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के 155 वर्ष पश्चात् राज्यासीन हुआ और इसी आधार पर महावीर की निर्वाण तिथि निश्चित की। 2. जे. शारपेन्टियर 17 ई.पू. 467 इन्होंने भी हेमचन्द्र को आधार बनाया है और चन्द्रगुप्त मौर्य के 155 वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण माना। 3. पं. ए. शान्तिराज शास्त्री18 ई.पू. 663 इन्होंने शक सम्वत् को विक्रम सम्वत् माना है और विक्रम सं. के 605 वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण माना। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन 256 4. प्रो. काशीप्रसाद जायसवाल19 इन्होंने अपने लेख आइडेन्टीफिकेशन आफ कल्की में मात्र दो परम्पराओं का उल्लेख किया है। महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण नहीं किया है। 5. एस. व्ही. वैक्टेश्वर20 ई. पू. 437 इनकी मान्यता अनन्द विक्रम संवत् पर आधारित है। यह विक्रम संवत के 90 वर्ष बाद प्रचलित हुआ था। 6. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार21 ई.पू. 528 इन्होंने अनेक तर्कों के आधार पर परम्परागत मान्यता को पुष्ट किया। 7. मुनि श्री कल्याणविजय22 ई.पू. 528 इन्होंने भी परभ्यरागत मान्यता की पुष्टि करते हुए उसकी असंगति के निराकरण का प्रयास किया है। 8. प्रो. पी. एच. एल इगरमोण्ट23 ई.पू. 252 इनके तर्क का आधार जैन परम्परा में तिष्याप्त की संघभेद की घटना का जो महावीर के जीवनकाल में उनके कैवल्य के 18वें वर्ष में घटित हुई, बौद्ध संघ में तिष्यरक्षिता द्वारा बोधि वृक्ष को सुखाने तथा संघभेद की घटना से जो अशोक के राज्यकाल में हुई थी समीकृत कर लेना है। 9. वी. ए. स्मिथ24 ई.पू 527 इन्होंने सामान्यतया प्रचलित अवधारणा को मान्य कर लिया है। 10. प्रो. के. आर. नारमन25 लगभग ई.पू. 400 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करने हेतु जैन साहित्यिक स्रोतों के साथ-साथ हमें अनुश्रुतियों और अभिलेखीय साक्ष्यों पर भी विचार करना होगा। पूर्वोक्त मान्यताओं में कौन सी मान्यता प्रामाणिक है, इसका निश्चय करने के लिये हम तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण करेंगे और यथासम्भव अभिलेखीय साक्ष्यों को प्राथमिकता देंगे। भगवान महावीर के समकालिक व्यक्तियों में भगवान बुद्ध, बिम्बसार, श्रेणिक और अजातशत्रु कूणिक के नाम सुपरिचित हैं। जैन स्रोतों की अपेक्षा इनके सम्बन्ध में बौद्ध स्रोत हमें अधिक जानकारी प्रदान करते हैं। जैन स्रोतों के अध्ययन से भी इनकी समकालिकता पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता है। जैन आगम साहित्य बुद्ध के जीवन वृतान्त के सम्बन्ध में प्रायः मौन है, किन्तु बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में महावीर और बुद्ध की समकालिक उपस्थिति के अनेक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- सन्दर्भ हैं। किन्तु यहाँ हम उनमें से केवल दो प्रसंगों की चर्चा करेंगे। प्रथम प्रसंग में दीघनिकाय का वह उल्लेख आता है जिसमें अजातशत्रु अपने समय के विभिन्न धर्माचार्यों से मिलता है। इस प्रसंग में अजातशत्रु का महामात्य निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र के सम्बन्ध में कहता है . "हे देव ! निर्गन्ध ज्ञातृपुत्र संघ और गण के स्वामी हैं, गण के आचार्य हैं, ज्ञानी, यशस्वी तीर्थंकर हैं, बहुत से लोगों के श्रद्धास्पद और सज्जन मान्य हैं। ये चिरप्रव्रजित एवं अर्धगतवय (अधेड़ ) हैं 126 तात्पर्य यह है कि अजातशत्रु के राज्यासीन होने के समय महावीर लगभग 50 वर्ष के रहे होंगे, क्योंकि उनका निर्वाण अजातशत्रु कोणिक के राज्य के 22वें वर्ष में माना जाता है। उनकी सर्व आयु 72 वर्ष में से 22 वर्ष कम करने पर उस समय वे 50 वर्ष के थे यह सिद्ध हो जाता है। 27 जहाँ तक बुद्ध का प्रश्न है वे अजातशत्रु के राज्यासीन होने के 8वें वर्ष में निर्वाण को प्राप्त हुए, ऐसी बौद्ध लेखकों की मान्यता है। 28 इस आधार पर दो तथ्य फलित होते हैं प्रथम महावीर जब 50 वर्ष के थे, तब बुद्ध ( 80-8) 72 वर्ष के थे अर्थात् बुद्ध, महावीर से उम्र में 22 वर्ष बड़े थे। दूसरे यह कि महावीर का निर्वाण, बुद्ध के निर्वाण के ( 22-8=14) 14 वर्ष पश्चात् हुआ था। ज्ञातव्य है कि "दीघनिकाय" के इस प्रसंग में जहाँ निर्गन्थ ज्ञातृपुत्र आदि छहों तीर्थंकरों को अर्धवयगत कहा गया वहाँ गौतम बुद्ध की क्य के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है 29 - बुद्ध हैं 257 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार किन्तु उपरोक्त तथ्य के विपरीत "दीघनिकाय" में यह भी सूचना मिलती है कि महावीर के जीवनकाल में ही निर्वाण को प्राप्त हो गये थे । " दीघनिकाय" के वे उल्लेख निम्नानुसार -- ऐसा मैंने सुना एक समय भगवान् शाक्य (देश) में वेधन्जा नामक शाक्यों के आम्रवन प्रासाद में विहार कर रहे थे। -- "तुम इस उस समय निगण्ठ नातपुत्त (= तीर्थंकर महावीर) की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी । उनके मरने पर निगण्ठों में फूट हो गई थी, दो पक्ष हो गये थे, लड़ाई चल रही थी, कलह हो रहा था। वे लोग एक-दूसरे को वचन रूपी वाणों से बेधते हुए विवाद करते थे धर्मविनय (धर्म) को नहीं जानते मैं इस धर्मविनय को जानता हूँ। तुम भला इस धर्मविनय को क्या जानोगे ? तुम मिथ्या प्रतिपन्न हो (तुम्हारा समझना गलत है), मैं सम्यक् - प्रतिपन्न हूँ | मेरा कहना सार्थक है और तुम्हारा कहना निरर्थक । जो (बात) पहले कहनी चाहिये थी वह तुमने पीछे कही और जो पीछे कहनी चाहिये थी, वह तुमने पहले की तुम्हारा वाद बिना विचार का उल्टा है। तुमने वाद रोपा, तुम निग्रह स्थान में आ गये। इस आक्षेप से बचने के लिये यत्न करो, यदि शक्ति है तो इसे सुलझाओ । मानो निगण्ठों में युद्ध (बध ) हो रहा था । -- निगण्ठ नातपुत्त के जो श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य थे, वे भी निगण्ठ के वैसे दुराख्यात (ठीक से न कहे गये), दुष्प्रवेदित (ठीक से न साक्षात्कार किये गये), अ-नैर्याणिक (पार न लगाने वाले), अन्-उपशम- संवर्तनिक (न- शान्तिगामी), अ-सम्यक् संबुद्ध - प्रवेदित ( किसी बुद्ध द्वारा न साक्षात् किया गया), प्रतिष्ठा ( नींव )-रहित भिन्न- स्तूप, आश्रयरहित धर्म में Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन 258 अन्यमनस्क हो खिन्न और विरक्त हो रहे थे।30 इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ एक और त्रिपिटक साहित्य में महावीर को अधेड़वय का कहा गया है, वहीं दूसरी ओर बुद्ध के जीवनकाल में उनके स्वर्गवास की सूचना भी है। इतना निश्चित है कि दोनों बातें एक साथ सत्य सिद्ध नहीं हो सकतीं। मुनि कल्याणविजयजी आदि ने बुद्ध के जीवनकाल में महावीर के निर्वाण सम्बन्धी अवधारणा को भ्रान्त बताया है, उन्होंने महावीर के कालकवलित होने की घटना को उनकी वास्तविक मृत्यु न मानकर, उनकी मृत्यु का प्रवाद माना है। जैन आगमों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि उनके निर्वाण के लगभग 16 वर्ष पूर्व उनकी मृत्यु का प्रवाद फैल गया था, जिसे सुनकर अनेक जैन श्रमण भी अश्रुपात करने लगे थे। चूँकि इस प्रवाद के साथ महावीर के पूर्व शिष्य मखलीगोशाल और महावीर एवं उनके अन्य श्रमण शिष्यों के बीच हुए कटु-विवाद की घटना जुड़ी हुई थी। अतः दीघनिकाय का प्रस्तुत प्रसंग इन दोनों घटनाओं का एक मिश्रित रूप है। अतः बुद्ध के जीवनकाल में महावीर की मृत्यु के दीघनिकाय के उल्लेख को उनकी वास्तविक मृत्यु का उल्लेख न मानकर गोशालक के द्वारा विवाद के पश्चात् फेंकी गई तेजोलेश्या से उत्पन्न दाह ज्वार जन्य तीव्र बीमारी के फलस्वरूप फैले उनकी मृत्यु के प्रवाद का उल्लेख मानना होगा। चूँकि बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रुकुणिक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष31 में हुआ, अतः महावीर का 22वें वर्ष में 32 हुआ होगा। अतः इतना निश्चित है कि महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण के 14 वर्ष बाद हुआ। इसलिये बुद्ध की निर्वाण की तिथि का निर्धारण महावीर की निर्वाण तिथि को प्रभावित अवश्य करेगा। सर्वप्रथम हम महावीर की निर्वाण तिथि का जैनस्रोतों एवं अभिलेखों के आधार पर निर्धारण करेंगे और फिर यह देखेंगे कि इस आधार पर बुद्ध की निर्वाण तिथि क्या होगी ? महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करते समय हमें यह देखना होगा कि आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र की महापद्मनन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से, आचार्य सुहस्ति की सम्प्रति से, आर्य मंक्षु ( मंगू), आर्य नन्दिल, आर्य नागहस्ति, आर्यवृद्ध एवं आर्य कृष्ण की अभिलेखों में उल्लेखित उनके काल से तथा आर्य देवर्द्धिक्षमाश्रमण की वल्लभी के राज ध्रुवसेन से समकालीनता किसी प्रकार बाधित नहीं हो। इतिहासविद् सामान्यतया इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि चन्द्रगुप्त का राज्यसत्ताकाल ई.पू. 321 से ई.पू. 297 तक रहा है। अतः वही सत्ताकाल भद्रबाहु और स्थूलीभद्र का भी होना चाहिये। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि चन्द्रगुप्त ने नन्दों से सत्ता हस्तगत की थी और अन्तिम नन्द के मन्त्री शकडाल का पुत्र स्थूलीभद्र था। अतः स्थूलीभद्र को चन्द्रगुप्त मौर्य का कनिष्ठ समसामयिक और भद्रबाहु को चन्द्रगुप्त मौर्य का वरिष्ठ समसामयिक होना चाहिये। चाहे यह कथन पूर्णतः विश्वसनीय माना जाये या नहीं माना जाये कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन दीक्षा ग्रहण की थी -- फिर भी जैन अनुश्रुतियों के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि भद्रबाहु और स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के समसामयिक थे। स्थूलीभद्र के वैराग्य का मुख्य कारण उसके पिता के प्रति नन्दवंश के अन्तिम शासक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार महापद्मनन्द का दुर्व्यवहार और उनकी घृणित हत्या मानी जा सकती है।34 पुनः स्थूलीभद्र भद्रबाहु से नहीं अपितु सम्भूतिविजय से दीक्षित हुए थे। पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना के समय वाचना प्रमुख भद्रबाहु और स्थूलीभद्र न होकर सम्भूतिविजय रहे हैं -- क्योंकि उस वाचना में ही स्थूलीभद्र को भद्रबाहु से पूर्व-ग्रन्थों का अध्ययन कराने का निश्चय किया गया था -- अतः प्रथम वाचना नन्द शासन के ही अन्तिम चरण में कभी हुई है। इस प्रथम वाचना का काल वीरनिर्वाण संवत्.. माना जाता है। यदि हम एक बार दोनों परम्परागत मान्यताओं को सत्य मानकर यह माने कि आचार्य भद्रबाहु वीरनिर्वाण सं. 156 से 170 तक आचार्य रहे35 और चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण सं. 215 में राज्यासीन हुआ तो दोनों की सम-सामयिकता सिद्ध नहीं होती है। इस मान्यता का फलित यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यासीन होने के 45 वर्ष पूर्व ही भद्रबाहु स्वर्गवासी हो चुके थे। इस आधार पर स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के लघु सम-सामयिक भी नहीं रह जाते हैं। अतः हमें यह मानना होगा कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के 155 वर्ष पश्चात् ही राज्यासीन हुआ। हिमवन्त स्थविरावली36 एवं आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में भी यही तिथि मानी गई है। इस आधार पर भद्रबाहु और स्यूलिभद्र की चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। लगभग सभी पट्टावलियों भद्रबाहु के आचार्यत्वकाल का समय वीरनिर्वाण 156-170 मानती हैं।38 दिगम्बर परम्परा में भी तीन केवली और पाँच श्रुतकेवलि का कुल समय 162 वर्ष माना गया है । भद्रबाहु अन्तिम भुतकेचलि थे अतः दिगम्बर परम्परानुसार भी उनका स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. 162 मानना होगा। इस प्रकार दोनो परम्पराओं के अनुसार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम-सामयिकता सिद्ध हो जाती है। मुनि श्री कल्याणविजयजी ने चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु की सम-सामयिकता सिद्ध करने हेतु सम्भूतिविजय का आचार्यत्वकाल 8 वर्ष के स्थान पर 60 वर्ष मान लिया। इस प्रकार उन्होंने एक ओर महावीर का निर्वाण समय ई.पू. 527 मानकर भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम-सामयिकता स्थापित करने का प्रयास किया। किन्तु इस सन्दर्भ में आठ का साठ मान लेना उनकी अपनी कल्पना है, इसका प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है।41 सभी श्वेताम्बर पट्टावलियों वीरनिर्वाण सं. 170 में ही भद्रबाहु का स्वर्गवास मानती हैं। पुनः तित्थोगाली में भी यही निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण संवत् 170 में चौदह पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद (क्ष्य) प्रारम्भ हुआ। भद्रबाहु ही अन्तिम 14 पूर्वधर थे-- उनके बाद कोई भी 14 पूर्वधर नहीं हुआ। अतः भद्रबाहु का स्वर्गवास श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. 170 में और दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. 162 ही सिद्ध होता है और इस आधार पर भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता तभी सिद्ध हो सकती है जब महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व 410 तथा ई.पू. 467 माना जाये। अन्य अभी विकल्पों में भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्दराजा और चन्द्रगुप्त मौर्य से समकालिकता घटित नहीं हो सकती है। "तित्थोगाली पइन्नयं" में भी स्थूलीभद्र और नन्दराजा की समकालिकता वर्णित हैं।42 अतः इन आधारों पर महावीर का निर्वाण ई.पू. 467 ही अधिक युक्ति संगत लगता है। पुनः आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा की समकालीनता भी जैन परम्परा में सर्वमान्य है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन 260 इतिहासकारों ने सम्प्रति का समय ई.पू. 231-221 माना है।43 जैन पट्टावलियों के अनुसार आर्य सुहस्ति युग प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण सं. 245-291 तक रहा है। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. 527 को आधार बनाकर गणना करें तो यह मानना होगा कि आर्य सुहस्ति ई.पू. 282 में युग प्रधान आचार्य बने और ई.पू. 236 में स्वर्गवासी हो गये। इस प्रकार वीरनिर्वाण ई.पू. 527 में मानने पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा में किसी भी रूप में समकालीनता नहीं बनती है। किन्तु यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानते हैं तो आर्य सुहस्ति आचार्य काल 467-245 ई.पू. 222 से प्रारम्भ होता है। इससे समकालिकता तो बन जाती है-- यद्यपि आचार्य के आचार्यत्वकाल में सम्प्रति का राज्यकाल लगभग 1 वर्ष ही रहता है। किन्तु आर्य सुहस्ति का सम्पर्क सम्प्रति से उसके यौवराज्य काल में, जब वह अवन्ति का शासक था, तब हुआ था और सम्भव है कि तब आर्य सुहस्ति संघ के युग प्रधान आचार्य न होकर भी प्रभावशाली मुनि रहे हो। ज्ञातव्य है कि आर्य सुहस्ति स्थूलीभद्र से दीक्षित हुए थे। पट्टावलियों के अनुसार स्थूलिभद्र की दीक्षा वीरनिर्वाण सं. 146 में हुई थी और स्वर्गवास वीरनिर्वाण 215 में हुआ था। इससे यह फलित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक के 9 वर्ष पूर्व अन्तिम नन्द राजा (नव नन्द) के राज्यकाल में वे दीक्षित हो चुके थे। यदि पट्टाक्ली के अनुसार आर्य सुहस्ति की सर्व आयु 100 वर्ष और दीक्षा आयु 30 वर्ष मानें तो वे वीरनिर्वाण सं. 221 अर्थात् ई.पू. 246 ( वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर) में दीक्षित हुए हैं। इससे आर्य सुहस्ति की सम्प्रति से समकालिकता तो सिद्ध हो जाती है किन्तु उन्हें स्थूलीभद्र का हस्त-दीक्षित मानने में 6 वर्ष का अन्तर आता है, क्योंकि उनके दीक्षित होने के 6 वर्ष पूर्व ही वीरनिर्वाण से 215 में स्थूलीभद्र का स्वर्गवास हो चुका था। सम्भावना यह भी हो सकती है कि सुहस्ति 30 वर्ष की आयु के स्थान पर 23-24 वर्ष में ही दीक्षित हो गये हों। फिर भी यह सुनिश्चित है कि पट्टावलियों के उल्लेखों के आधार पर आर्य सुहस्ति और संप्रति की समकालीनता वीरनिर्वाण ई.पू. 467 पर ही सम्भव है। उसके पूर्व ई.पू. 527 में अथवा उसके पश्चात् की किसी भी तिथि को महावीर का निर्वाण मानने पर यह समकालीनता सम्भव नहीं है। इस प्रकार "भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की महापद्मनन्द और चन्द्रगुप्त मौर्य से तथा आर्य सुहस्ती की सम्प्रति से समकालीनता वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर सिद्ध की जा सकती है। अन्य सभी विकल्पों में इनकी समकालिकता सिद्ध नहीं होती है। अतः मेरी दृष्टि में महावीर का निर्वाण ई.पू. 467 मानना अधिक युक्ति संगत होगा। अब हम कुछ अभिलेखों के आधार पर भी महावीर के निर्वाण समय पर विचार करेंगे --- मथुरा के अभिलेखों44 में उल्लेखित पाँच नामों में से नन्दिसूत्र स्थविराक्ली45 के आर्य मंगु, आर्य नन्दिल और आर्य हस्ति (हस्त हस्ति)-- ये तीन नाम तथा कल्पसूत्र स्थविरावली46 के आर्य कृष्ण और आर्य वृद्ध ये दो नाम मिलते हैं। पट्टावलियों के अनुसार आर्य मंगु का युग-प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण संवत् 451 से 470 तक माना गया है।47 वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर इनका काल ई.पू. 16 से ई.सन् 3 तक और वीरनिर्वाण ई.पू. 527 मानने पर इनका काल ई.पू. 76 से ई.पू. 57 आता है। जबकि अभिलेखीय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 आधार पर इनका काल शक सं. 52 (हुविष्क वर्ष 52 ) अर्थात् ई. सन् 130 आता है 48 अर्थात् इनके पट्टावली और अभिलेख के काल में वीरनिर्वाण ई.पू. 527 मानने पर लगभग 200 वर्षों का अन्तर आता है और वीरनिर्वाण ई. पू. 467 मानने पर भी लगभग 127 वर्ष का अन्तर तो बना ही रहता है। अनेक पट्टावलियों में आर्य मंगु का उल्लेख भी नहीं है । अतः उनके काल के सम्बन्ध में पट्टावलीगत अवधारणा प्रामाणिक नहीं है। पुनः आर्य मंगु का नाम मात्र जिस नन्दीसूत्र स्थविरावली में है और यह स्थविरावली भी गुरु-शिष्य परम्परा की सूचक नहीं है। अतः बीच में कुछ नाम छूटने की सम्भावना है जिसकी पुष्टि स्वयं मुनि कल्याणविजयजी ने भी की है। 49 इस प्रकार आर्य मंगु के अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाण काल का निर्धारण सम्भव नहीं है। क्योंकि इस आधार पर ई. पू. 527 की परम्परागत मान्यता ई. पू. 467 की विक्रमान्य मान्यता दोनों ही सत्य सिद्ध नहीं होती है। अभिलेख एवं पट्टावली का समीकरण करने पर इससे वीरनिर्वाण ई.पू. 360 के लगभग फलित होता है । इस अनिश्चता का कारण आर्य मंगु के काल को लेकर विविध भ्रान्तियों की उपस्थिति है। भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार जहाँ तक आर्य नन्दिल का प्रश्न है हमें उनके नाम का उल्लेख भी नन्दिसूत्र में मिलता है। नन्दिसूत्र में उनका उल्लेख आर्य मंगु के पश्चात् और आर्य नागहस्ति के पूर्व मिलता है। 50 मथुरा 'के अभिलेखों में नन्दिक (नन्दिल) का एक अभिलेख शक सम्वत् 32 का है। दूसरे शक सं. 93 के लेख में नाम स्पष्ट नहीं है, मात्र "न्दि" मिला है। 51 आर्य नन्दिल का उल्लेख प्रबन्धकोश एवं कुछ प्राचीन पट्टावलियों में भी है किन्तु कहीं पर भी उनके समय का उल्लेख नहीं होने से इस अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाणकाल का निर्धारण सम्भव नहीं है। -- अब हम नागहस्ति की ओर आते हैं सामान्यतया सभी पट्टावलियों में आर्य वज्र का स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. 584 में माना गया है। आर्य वज्र के पश्चात् 13 वर्ष आर्य रक्षित, 20 वर्ष पुष्यमित्र और 3 वर्ष वज्रसेन युगप्रधान रहे अर्थात् वीरनिर्वाण सं. 620 में वज्रसेन का स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में इसके बाद आर्य निर्वाण 621 से 690 तक युगप्रधान रहे 152 यदि मथुरा अभिलेख के हस्तहस्ति ही नागहस्ति हो तो माधहस्ति के गुरु के रूप में उनका उल्लेख शक सं. 54 के अभिलेख में मिलता है अर्थात् वे ई. सन् 132 के पूर्व हुए हैं। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानते हैं तो उनका युग प्रधान काल ई. सन् 154-223 आता है। अभिलेख उनके शिष्य को ई. सन् 132 में होने की सूचना देता है यद्यपि यह मानकर सन्तोष किया जा सकता है युग प्रधान होने के 22 वर्ष पूर्व उन्होंने किसी को दीक्षित किया होगा । यद्यपि इनकी सर्वायु 100 वर्ष मानने पर तब उनकी आयु मात्र 11 वर्ष होगी और ऐसी स्थिति में उनके उपदेश से किसी का दीक्षित होना और उस दीक्षित शिष्य के द्वारा मूर्ति प्रतिष्ठा होना असम्भव सा लगता है । किन्तु यदि हम परम्परागत मान्यता के आधार पर वीरनिर्वाण को शक संवत् 605 पूर्व या ई. पू. 527 मानते हैं तो पट्टावलीगत उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में संगति बैठ जाती है। इस आधार पर उनका युग प्रधान काल शक सं. 16 से शक 15 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन 262 सं. 85 के बीच आता है और ऐसी स्थिति में शक सं. 54 में उनके किसी शिष्य के उपदेश से मूर्ति प्रतिष्ठा होना सम्भव है। यद्यपि 69 वर्ष तक उनका युग प्रधानकाल मानना सामान्य बुद्धि से युक्ति संगत नहीं लगता है। अतः नागहस्ति सम्बन्धी यह अभिलेखीय साक्ष्य पट्टावली की सूचना को सत्य मानने पर महावीर का निर्वाण ई.पू. 527 मानने के पक्ष में जाता है। पुनः मथुरा के एक अभिलेखयुक्त अंकन में आयकृष्ण का नाम सहित अंकन पाया जाता है। यह अभिलेख शक संवत् 95 का है। यदि हम आर्यकृष्ण का समीकरण कल्पसूत्र स्थविरावली में शिवभूति के बाद उल्लिखित आर्यकृष्ण से करते हैंतो पट्टावलियों एवं विशेषावश्यक भाष्य के आधार पर इनका सत्ता समय वीरनिर्वाण सं. 609 के आस-पास निश्चित होता है। क्योंकि इन्हीं आर्यकृष्ण और शिवभूति के वस्त्र सम्बन्धी विवाद के परिणाम स्वरूप बोटिक निहन्व की उत्पत्ति हुई थी और इस विवाद का काल वीरनिर्वाण संवत् 609 सुनिश्चित है। वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर उस अभिलेख काल का 609-4673142 ई. आता है। यह अभिलेखयुक्त अंकन 95+78=173 ई. का है। चूंकि अंकन में आर्यकृष्ण को एक आराध्य के रूप अंकित करवाया गया है। यह स्वाभाविक है कि उनकी ही शिष्य परम्परा के किसी आर्य अहं बरा ई.सन् 173 में यह अंकन उनके स्वर्गवास के 20-25 वर्ष बाद ही हुआ होगा। इस प्रकार यह अभिलेखीय साक्ष्य वीरनिर्वाण संवत् ई.पू. 467 मानने पर ही अन्य साहित्यिक उल्लेखों से संगति रख सकता है, अन्य किसी विकल्प से इसकी संगति बैठाना सम्भव नहीं है। मथुरा अभिलेखों में एक नाम आर्यवृद्धहस्ति का भी मिलता है। इनके दो अभिलेख मिलते हैं। एक अभिलेख शक सं. 60 (हुविष्क वर्ष 60 ) और दूसरा शक सं. 79 का है।56 ईस्वी सन् की दृष्टि से ये दोनों अभिलेख ई. सन् 138 और ई.सन् 157 के है। यदि ये वृद्धहस्ति ही कल्पसूत्र स्थविरावली के आर्यवृद्ध और पट्टावलियों के वृद्धदेव हों तो पट्टावलियों के अनुसार उन्होंने वीरनिर्वाण 695 में कोरंटक में प्रतिष्ठा करवाई थी। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानते हैं तो यह काल 695-467%218 ई. आता है। अतः वीरनिर्वाण ई.पू. 527 मानने पर इस अभिलेखीय साक्ष्य और पट्टाक्लीगत मान्यता का समीकरण ठीक बैठ जाता है। पट्टावली में वृद्ध का क्रम 25वा है। प्रत्येक आचार्य का औसत सत्ता काल 25 वर्ष मानने पर इनका समय वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानने पर भी अभिलेख से वीरनिर्वाण 625 आयेगा और तब 625-4673158 ई. संगति बैठ जायेगी। अन्तिम साक्ष्य जिस पर महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण किया जा सकता है, वह है महाराज ध्रुवसेन के अभिलेख और उनका काल। परम्परागत मान्यता यह है कि वल्लभी की वाचना के पश्चात् सर्वप्रथम कल्पसूत्र की सभा के समक्ष वाचना आनन्दपुर (बडनगर) में महाराज धुक्सेन के पुत्र-मरण के दुःख को कम करने के लिये की गयी। यह काल वीरनिर्वाण सं. 980 या 993 माना जाता है। 8 धुवसेन के अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। ध्रुवसेन प्रथम का काल ई.सं. 525 से 550 तक माना जाता है। यदि यह घटना उनके राज्यारोहण के द्वितीय वर्ष ई.सन् 526 की हो तो महावीर का निर्वाण 993-526469 ई.पू. सिद्ध होता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार इस प्रकार इन पाँच अभिलेखीय साक्ष्यों में तीन तो ऐसे अवश्य हैं, जिनसे महावीर का निर्वाण ई.पू. 467 सिद्ध होता है। जबकि दो ऐसे हैं जिनसे वीरनिर्वाण ई. पू. 527 भी सिद्ध हो सकता है। एक अभिलेख का इनसे कोई संगति नहीं है। वे असंगतियाँ इसलिये भी है कि पट्टावलियों में आचार्यों का जो काल दिया गया है उसकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है और आज हमारे पास ऐसा कोई आधार नहीं है जिसके आधार पर इस असंगति को समाप्त किया जा सके। फिर भी इस विवेचना में हम यह पाते हैं कि अधिकांश साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य महावीर के निर्वाण काल को ई. पू. 467 मानने की ही पुष्टि करते हैं। ऐसी स्थिति में बुद्ध निर्वाण ई. पू. 482, जिसे अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों ने मान्य किया है, मानना होगा और तभी यह सिद्ध होगा कि बुद्ध के निर्वाण के लगभग 15 वर्ष पश्चात् महावीर का निर्वाण हुआ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 2. 3. 4. 5. 6. सन्दर्भ ( ब ) ( अ ) णिव्वाणे वीर जिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ।। - तिलोयपण्णत्ति, 4/1499 पंच य मासा पंच य उप्णणो सगो राया ॥ | पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता, 1956, पृ. 26-44, 45-46 वासा इच्छेव होंति वाससया । परिणिव्वु अस्सऽरिहतो सो • तित्थोगाली पइन्नय 623 ➖➖ मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, प्रकाशक क. वि. शास्त्र समिति, जालौर (मारवाड़), पृ. 159 9. तित्थोगाली पइन्नयं ( गाथा 623), पइण्णयसुत्ताई, सं. मुनि पुष्यविजय, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई 400036 तिलोयपण्णत्ति, 4 / 1499 सं प्रो. हीरालाल जैन, जैन संस्कृतिरक्षक संघ शोलापुर, कल्पसूत्र, 147, पृ. 145, अनुवादक माणिकमुनि, प्रकाशक सोभागमल हरकावत, अजमेर 7. ठाणं (स्थानांग ), अगुसुत्ताणि भाग 1, आचार्य तुलसी, जैनविश्वभारती, लाडनू 7/141 8. भगवई 9/222-229 ( अंगसुल्ताणि भाग 2 आचार्य तुलसी, जैनविश्वभारती ➖➖ लाडनू ) बहुरय पएस अव्वत्तसमुच्छादुगतिग अबद्धिया चेव । सत्तेए णिण्हगा खलु तित्थमि उ वद्धमाणस्स ।। बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ । अव्वल्लाऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ । । गंगाओ दोकिरिया छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती । थेराय गोट्ठमाहिल पुट्ठमबद्धं परुविंति ।। सावत्थी उसनपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंज दसपुर रहवीरपुरं च नगराइ ।। चोद्दस सोलस वासा चौदसवीसुत्तरा य दोणि सया । अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला ।। पंच सया चुलसीया छच्चेव सया णवोत्तरा होंति । पत्तीय दुवे उप्पण्णा णिव्वुए सेसा ।। -- सं. विजयजिनसेन आवश्यक नियुक्ति 778- 783 [ नियुक्तिसंग्रह सूरीश्वर हर्षपुष्यामृत, जैनग्रन्थमाला, लाखा बाखल, सौराष्ट, 19891 13 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 265 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार 11 10. वीरजिणे सिद्धिगदे चउसदगिसट्ठिवासपरिमाणे। कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णे एत्थ सकराओ।। 461 अहवा वीरे सिद्धे सहस्सणवकम्मि सगसयभहिए। पणसीदिम्मि यतीदे पणमासे सकणिओ जादो।। 9785 भास 51 चोदससहस्ससगसयतेणउदीवासकालविच्छेदे। वीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णे सगणिओ अहवा।। 14793 णिव्वाणे वीरजिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु। पणमासेसु गदेखें संजादो सगणिओ अहवा।। 605 मा 51 - -- तिलोयपण्णति, 4/1496-1499 भवणिदेसु पंचमासाठियपंचुत्तरछस्सदवासाणि हवंति। एसो वीरजिणिदणिव्वाणगददिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदियकालो। कुदो ? 605/5 एदम्हि काले सगणरिदकालम्मि पक्खित्ते वड्टमाणजिणणिव्वुदकालागमणादो। वुत्तं च -- पंच य मासा पंच य त्रासा छच्चेव होति वाससया। सगकालेण य सहिया थावेयव्वो तदो रासी।। अण्णे के वि आइरिया चोदससहस्स-सत्तसद-तिणउदिवासेसु जिणणिव्वाणदिणादो अइक्कतेसु सगणरिंदुप्पत्ति भणति14793 । वुत्तं च-- गुत्ति-पयत्य-भयाइं चोदसरयणाइ समइकंताई। परिणिव्वुदे जिणिदे तो रज्ज सगणरिंदस्स।। अण्णे के वि आइरिया एवं भणति। तं जहा -- सत्तसहस्स-णवसय-पंचाणउदिवरिसेसु पंचमासाहिएसु बढमाणजिणणिव्वुददिणादो अइक्कतेसु सगणरिंदरज्जुप्पत्ती जादो ति। एत्य गाहा -- सत्तसहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य। अइकंता वासाणं जइया तइया सगुप्पत्ती।। एदेसु तिसु एक्केण होदव्वं । ण तिण्णमुवदेसाण सच्चत्तं, अण्णोण्णविरोहादो। तदो जाणिय वत्तव्यं। -- धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड भाग 4, 1, पुस्तक 9, पृ. 132-133 12. समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नव वास सयाइं विइकताई दसमस्स वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ, वायणतरे पुण अयं वायणं तेरे पुण अयं ते णउए संवच्छरे काले गच्छइ इह दीसइ। -- कल्पसूत्र ( मणिकमुनि, अजमेर), 147, पृ. 145 13. पालगरण्णो सट्ठी पणपण्णसयं वियाणं णंदाणं । मरुयाणं अट्ठसयं तीसा पुण पुसमित्ताणं ।। -- तित्थोगाली पइन्नयं ( पइण्णयसुत्ताई), 621 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन 266 60 पालक + 155 नन्दवंश = 215 बीतने पर मौर्यवश का शासन प्रारम्भ हुआ। 14. एवं च श्री महावीर मुलेवर्षशते, पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ।। -- परिशिष्टपर्व, हेमचन्द्र, सर्ग, 8/339 (जैनधर्म प्रसारक संस्था भावनगर) 15. ज्ञातव्य है चन्द्रगुप्त मौर्य को वीरनिर्वाण सं. 215 में राज्यासीन मानकर ही वीरनिर्वाण ई.पू. 527 में माना जा सकता है, किन्तु उसे वीरनिर्वाण 155 में राज्यासीन मानने पर वीरनिर्वाण ई.पू. 467 मानना होगा। 16. Jacobi, V. Harman -- Buddhas und Mahaviras Nirvana und die Politische Entwicklung Magadhas Zu Jerier Zeit, 557. 17. Charpentier Jarl -- Uttaradhyayanasutra, Introduction p. 13-16. 18. अनेकान्त, वर्ष 4 किरण 10, शास्त्री ए. शान्तिराज -- भगवान महावीर के निर्वाण सम्वत् की समालोचना 19. Indian Antiguary, Vol. XLVI, 1917, July 1917, Page 151-152, Swati Publications, Delhi, 1985. 20. The Journal of the Royal Asiatic Society, 1917, Vankteshvara, S.V. -- The Date of Vardhamana, p. 122-130. 21. मुख्तार जुगलकिशोर -- "जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश", श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता, ई.सन् 1956, पृ. 26-56 22. मुनि कल्याणविजय -- वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना प्रकाशक क,वि. शास्त्र समिति जालौर, वि.स. 1987 Eggermont, P.H.L. -- "The Year of Mahavira's Decease". 24. Smith, V.A. -- The Jaina Stupa and other Antiquities of Mathura, Indological Book House, Delhi, 1969, p.14. 25. Norman, K.R. -- Observations on the Dates of the Jina and the Buddh. अवतरो पिखो राजामच्यो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच --- "अयं, देव, निगण्ठो नाटपुत्तो सधी चेव गणी च गणाचरियो चे, जातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्तञ्च, चिरपब्बजितो, अद्भगतो, वयोअनुप्पत्तो। ___ -- दीघनिकाय, सामफलसुत्तं, 2/1/7 27. देखें -- मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकाल गणना, पृ. 4-5. 28. देखें -- मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण और जैनकाल गणना, पृ. 1 29. देखें -- दीघनिकाय, सामफलसुत्तं, 2/2/8 30. एवं मे सुतं । एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति वेधाज्ञा नाम सक्या तेसं अम्बवने पासादे। तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति। तस्स कालकिरियाय भिन्ना निगण्ठा देधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना 23. 26. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति "न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि अहं इमं धम्मविनयं आजानामि । किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो । सहितं मे, असहितं ते । पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छा-वचनीयं पुरे अवच | अधिचिण्णं ते विपरावत्तं । आरोपितो ते वादो । निग्गहितो त्वमसि । घर वादप्पमोक्खाय । निब्बेठेहि वा सचे पहोसी" ति । वधो येव खो मञ्ञे निगण्ठेसु नापुत्तियेसु वत्तति । ये पि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना ते पि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा यथा तं दुरखा धम्मविनये दुष्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्पवेदिते भिन्नथूपे अप्पटिसरणे । -- ( ब ) -- - दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं, 6/1/1 31. देखें. 32. देखें मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैनकाल गणना 33 (31). 267 भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार Majumdar, R.C. Ancient India, Published by Motilal Banarasidas, Banaras, 1952, p. 108 डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी प्राचीन भारत का इतिहास, मोतीलाल बनारसीदास, 1968, पृ. 139 34. तित्थोगाली पड़न्नयं, 78 [ पइण्णया सुत्ताई, महावीर विद्यालय, बम्बई 1 35. ज्ञातव्य है कि लगभग सभी श्वेताम्बर पट्टावलियाँ इसीकाल का उल्लेख करती हैं। देखें-- विविध गच्छीय पट्टावली संग्रह (प्रथम भाग ) मुनि जिनविजय सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, 1961 36. ज्ञातव्य है कि हिमवत स्थविरावली की मूलप्रति उसके गुजराती अनुवाद के पश्चात् उपलब्ध नहीं हो पा रही है। पं. हीरालाल हंसराज जामनगर का उसका गुजराती अनुवाद ही इसका एक मात्र आधार है। इसमें महावीर के निर्वाण के पश्चात् साठ वर्ष कुणिक और उदायी का राज्यकाल दिखाकर उसके पश्चात् नन्दों के 94 वर्ष दिखाकर वीरनिर्वाण 155 में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण दिखा गया है। देखें वीरनिर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना मुनि कल्याणविजय, पृ. 178 37. परिशिष्ट, हेमचन्द्र, 8/339 38. देखें - (अ) मुनि कल्याणविजय (अ) पट्टावली पराग संग्रह मुनि कल्याणविजयजी (ब) विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह प्रथम भाग सम्पादक -- जिनविजय, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीड़, भारतीय विद्याभवन, बम्बई 39. धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड, पुस्तक 40. —— —— -- -- पट्टावलीपरागसंग्रह, क. वि. शास्त्रसंग्रह समिति जालौर, 1966, पृ. 52 मुनिजी द्वारा किये गये अन्य परिवर्तनों के लिये देखें-पृ. 49-50 -- ( ब ) मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण, संवत् और जैन कालगणना, पृ. 137 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. सागरमल जैन 268 ज्ञातव्य है कि मुनिजी ने मौर्यकाल को 108 के स्थान पर 160 बनाने का जो प्रयत्न किया है, वह इतिहास सम्मत नहीं है। 41. ज्ञातव्य है कि मुनिजी द्वारा एक ओर सम्भूति विजय के स्वर्ष के काल को साठ वर्ष साठ वर्ष करना और दूसरी ओर मौर्यों के इतिहास सम्मत 108 वर्ष के काल को एक सौ साठ वर्ष करना केवल अपनी मान्यता की पुष्टि का प्रयास है। 42. तित्थोगाली पइन्नयं -- पइण्णा सुत्ताइं। -- सं. पुण्यविजयजी महावीर विद्याल, बम्बई, 793,794 43. डॉ. रामशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारत का इतिहास, मोतीलाल बनारसीदास, देहली, 1968, पृ. 1391 ज्ञातव्य है "इन्होंने सम्प्रतिकाल 216-207 ई.पू. माना है। 44 (अ) देखें -- जैनशिलालेख संग्रह, भाग 2, प्रकाशक मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, 1952, लेख क्रमांक 41, 54,55,56,59,63 / (ब) आर्यकृष्ण (कण्ह ) के लिये देखें -- V.A. Smith -- The Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, p.24 45. नन्दीसूत्र स्थविरावली, 27, 28,29 46. कल्पसूत्र स्थविरावली (अन्तिम गाथा भाग) गाथा 1 एवं 4 47. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन काल गणना, जालौर, यू. 122, आधार - युगंप्रधान पट्टावलिया। 48. देखें-- जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, सितम्बर 1952, लेख क्रमांक 54 49. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन काल गणना, जालौर, पृ. 121 एवं 131 50. देखें --- नन्दीसूत्र स्थविरावली, 27, 28 एवं 29 51. देखें -- जैन शिलालेखसंग्रह, भाग 2, लेखक्रमांक 41, 67 52. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन काल गणना, जालौर, पृ. 106, टिप्पणी 53. V. A. Smith, The Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, p.24 54. कल्पसूत्र स्थविरावली (अन्तिम गाथा भाग), गाथा 1 . 55. विशेषावश्यकभाष्य 56. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग 2, लेख क्रमांक 56, 59 57. मुनि जिनविजय, विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह, प्रथम भाग, सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, पृ. 17 58. कल्पसूत्र (सं. माणिकमुनि, अजमेर) 147 59. गुजरात नो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास ग्रन्थ 3, बी.जे. इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद-9, पृ. 40