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भगवान महावीर का समन्वयवाद और विश्व-कल्याण
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मानव जीवन का परम लक्ष्य है निर्वाण पाना । मनुष्य क्या करे कि उसे निर्वाण प्राप्त हो आत्म स्वरूप का ज्ञान हो ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान महावीर ने दिया “आत्मा पर अनुशासन । आत्मा पर विजय पाने वाला मनजीत ही विश्वजीत होता है समस्त दुःखों से मुक्त होता है । दुःखों से मुक्ति के लिए, जीवन में सार्थक शांति के लिए, आत्म प्रशस्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए तथा विश्व कल्याण, दूसरे शब्दों में 'स्व' और 'पर' के कल्याण के लिए समन्वय भाव आवश्यक है। भगवान महावीर समन्वय की जीती जागती मशाल थे। हर क्षेत्र में समन्वय चाहे वह विभिन्न धर्मों में हो, चाहे आचरण में हो, चाहे व्यवहार में हो चाहे विचार में। उन्होने आंतरिक और बाह्य, व्यक्तिगत और सामाजिक प्रत्येक कोण से समन्वय का समीकरण किया तथा प्रत्येक समस्या का सम्यक् समाधान प्रस्तुत कर मानवता को कल्याण और शांति की राह दिखाई ।
(डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय ) 成
अन्तर्जगत में समन्वय क्रांति का शंखनाद कर भगवान महावीर स्वयं कामनाओं से लड़े, विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसा को पराजित किया, असत्य को पराभूत किया तथा जात्यभिमान, कर्माभिमान, आडम्बर, विषमता, लोभ, मोह आदि को पीछे धकेल कर निर्वाण के भागी बने, भगवत्ता के महान् पद पर प्रतिष्ठित हुए ।
'आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना उनमें कूट कर भरी थी। हर प्राणी सुख चाहता है और इस हेतु वह प्रयत्न भी करता हैं, पर अधिकांश जन दुःखी ही देखे जाते हैं वे दुःखी क्यों है ? उन्हें सुख क्यों नहीं मिलता, क्या सुखी बनने के लिए दूसरों को दुःखी बनाना आवश्यक है ? यदि नहीं तो सभी को सुखी बनाकर कैसे सुख पाया जा सकता है यह, उनके मन की व्यथा थी तथा सर्व कल्याण और स्व कल्याण के मार्ग को ढूंढना उनके जीवन का लक्ष्य इस प्रक्रिया में उन्हें १२ वर्ष उगे और जो पाया वह दिव्य से दिव्य था, गहन से गहन था पर स्फटिक की तरह केवल ज्ञान और ज्ञान था। जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा। केवल ज्ञान के उस अलौकिक प्रकाश ने विश्व की हर समस्या का समाधान प्रस्तुत किया ।
महावीर के आविर्भाव के समय की तत्कालीन व्यवस्था में जन्मना जाति का सिद्धान्त व्याप्त था अतः समाज में विषमता का बोल बाला था । सांप्रदायिकता का आवरण धर्म पर छा रहा था । एक ओर हिंसा का बोलबाला था तो दूसरी ओर वैभव, विलास और व्यभिचार का तांडव नृत्य ऐसे में महावीर का समता का सिद्धान्त - कोई ऊँचा नहीं कोई नीचा नहीं सभी बराबर का प्रतिपादन अभूतपूर्व क्रान्ति लाया । प्राणीमात्र का कल्याण ही उनका लक्ष्य था और यही उनका धर्म । उन्होंने मानसिक स्वतंत्रता और साहसिक आवश्यकता का महत्त्व समझाया तथा प्रत्येक क्षेत्र
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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में समन्वयवाद के जरिये समस्त प्राणियों को सुख, शांति समृद्धि व संतोष का संदेश दिया ।
सर्वधर्मसमन्वय
'वत्थु सभावो धम्मो' – वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है । जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का उष्णता, शक्कर का स्वभाव मीठापन, नमक का स्वभाव खारापन है उसी तरह आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय हैं - सदाचार-मय है सचित्त एवं आनंदमय है। प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव में रमण करे तो यही धर्म है और यही आत्मा का स्वाभाविक और निजी गुण भी । दूसरे शब्दों में आत्मा की मूल प्रवृत्तियों के अनुरूप चलना ही धर्म है ।
(५८)
धम्मो मंगल मुक्किट, अहिंसा संजमो तयो,
देवा वित्तं नर्मसंति, जस्स धन्मे सया मणो ॥ 万英 Fa (दशयैकालिक सूत्र)
अर्थात् जो उत्कृष्ट मंगलमय है, वही धर्म है दूसरे शब्दों में जो प्राणीमात्र के लिए सुख शांतिकारी है, मंगलकारी है वही धर्म है । अहिंसा, संयम व तप की आराधना से ही मानव मात्र का मंगल होता है तथा आत्मा का कल्याण होता है। ऐसे धर्म को धारण करने वाले को देवता भी नमस्कार करते हैं।
उन्होंने किसी धर्म विशेष का गुण गान नहीं किया। उनका तो बस एक ही लक्ष्य था प्राणीमात्र को सुखी देखना । जिस धर्म में सभी प्राणियों का मंगल निहित है वही सच्चा धर्म है।
"जाव दियाई कल्लाणाई, सग्गे य मगुअलोगेय । आव हदि ताण सव्वाणि मोक्खं च वर धम्मो ।'
(भगवती सूत्र )
अर्थात् स्वर्ग और मृत्युलोक में जितने भी कल्याण हैं उन सबका प्रदाता धर्म ही है। मनुष्य का कल्याण धर्म पालन में है - हाँ धर्म की परख आवश्यक है हिंसक, रूढ़िवादी व कृत्रिमता पूर्ण धर्म कल्याण कारक नहीं हो सकता। सर्वोच्च और सच्चा धर्म वही है जो सब प्राणियों के लिए मंगलकारी है।
भगवान महावीर के सर्व धर्म समन्वयवादी विचारों ने न सिर्फ तत्कालीन समाज को सन्मार्ग दिया वरन् आज जब संप्रदायों के झगड़े, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि धर्मानुयायियों के झगड़े संगठनों के पंथों और विचारों के झगड़े न सिर्फ भारत को वरन् सम्पूर्ण विश्व
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खोकर निज सम्मान को जयन्तसेन जगे नहीं, उस
करता कार्य कठोर । का अनुभव जोर ।। wwwwjainelibrary.org
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________________ को अशान्ति और आतंक, संघर्ष और तनाव की ओर ले जा रहे विचार में समन्वित हो / हैं - महावीर के ये सर्व धर्म समन्वयवादी विचार सर्व मंगल ____आचरण में समन्वय - - मांगल्यम् सर्व कल्याण कारणम् है - प्रत्येक देश, समाज, जाति, मानव एवं प्राणीमात्र के लिए शांतिदीप की तरह है। मा 'आ' अर्थात् आचार - मर्यादा तथा 'चरण' अर्थात् 'चलना' / मर्यादा में चलना ही आचरण है | जैसा औरों का आचरण हम सामाजिक समन्वयवाद - अपने प्रति चाहते हैं वैसा ही आचरण हमें औरों के साथ करना समाज से विषमता का जहर मिटाने के लिए, शोषण के चाहिये / "मित्ती मे सव्वभूएसु, वैरं मझं न केणइ" - सभी से दावानल को समाप्त करने के लिये तथा विश्वबन्धुत्व व विश्वशांति मित्रता हो, किसी से बैर नहीं | यह उनके आचरण समन्वयवाद की प्रतिष्ठा के लिए भगवान महावीर ने सामाजिक व्यवहार का की मंजिल थी / इस मंजिल तक पहुँचने के लिए उन्होंने पंच सम्यक्करण किया - समता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया / अणुव्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-परिमाणसमता - अर्थात् सब के प्रति समान व्यवहार, समान भाव / अनादि व्रतः, दशधर्म - क्षमा, मार्दव, अर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, काल से मानव इस संसार में जन्म ले रहा है / कोई ऐसा जीव नहीं त्याग, अविंचन एवं ब्रह्मचर्य तथा 12 अनुप्रेक्षाएं - अनित्य, जो उसका माता-पिता, पति-पलि, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन आदि न __अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, रहा हो / फिर वह किससे मित्रता करे व किससे घृणा ? किसे लोक, बोधि दुर्लभ तथा धर्म - का प्रतिपादन किया / यह वह . ऊँचा माने और किसे नीचा ? उसका आवागमन दीर्घकालिक है। समन्वित आचार संहिता थी जो शांति, कल्याण और मुक्ति का अतः तात्कालिक दृष्टि से उसे नहीं सोचना चाहिये। शाश्वत मार्ग थी- है - और रहेगी। उनके समान व्यवहार का तात्पर्य यह भी था कि - 'जीओ और जीने दो' -- कोई दुःख नहीं चाहता अतः किसी 'सर्वभूतात्मभूतता - अर्थात् प्राणीमात्र को आत्मीय भाव से अंगीकार को दुःख मत दो - यह उनके आचरण समन्वयवाद का सर्वोत्कृष्ट करना / प्रत्येक व्यक्ति आत्मा से परमात्मा, जीव से शिव तथा नर उदाहरण है। से नारायण बनता है अतः प्रत्येक के साथ आत्मवत् व्यवहार करना 'उड्ढे अहे य तिरिय, जे केइ तस थावरा / ही, उनका सामाजिक समन्वयवाद था / साधु + साध्वी, श्रावक + श्राविका यह चतुर्विध संघ ही उनका, समाज था, जातिवाद का सव्वत्थं विरई विज्जा, संति निवाण माहियं / / दम्भ उनसे कोसों दूर था / उनके मत से कोई भी मनुष्य जन्म से अर्थात्, उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यगलोक में जितने भी ब्राह्मण, शूद्र या वैश्य नहीं होता वरन् - त्रस और स्थावर जीव हैं, उनके प्राणों का विनाश करने से दूर "कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओम रहना चाहिये / वैर से विरक्ति ही शांति है और यह शांति ही निर्वाण की ओर ले जाने वाली है। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा / " 'सब्बे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुःख पडिकूला, अप्पियवहा, अर्थात् मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है। पिय जीविणो, जीविउ कामा, सव्वेसि जीवियं पियं / ' आज जो समाजवादी विचारधारा पोषण पा रही है, वह अर्थात् सभी प्राणी को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुखसाता भगवान महावीर के समता सिद्धान्त पर ही आधारित है। चाहते हैं, दुःख को सर्वथा प्रतिकूल मानते हैं, अपने वध को अप्रिय मानते हैं तथा जीवन को अति प्रिय मानते हैं / अतः जब सामाजिक समन्वय तभी संभव है जब संसार का प्रत्येक किसी को भी मरना इष्ट नहीं तो दूसरों को मारने का क्या व्यक्ति अपने व्यक्तिगत क्षेत्र में - आचार में, व्यवहार में और अधिकार है? यही अहिंसा है / कहा गया है कि - 'यस्मिन् कर्मणि प्राणिना प्राणानां नाशं न क्रियते, तत् कर्म एव अहिंसा इति सिद्धहस्त लेखक तथा कथ्यते / ' किन्तु महावीर की अहिंसा तो इससे भी कहीं ऊपर बहुत अन्वेषणात्मक विधि से परिपक्व / / ऊपर थी / मन से, वचन से और कर्म से किसी की हिंसा न एक शोध प्रबंध का प्रकाशन | करना, ऐसा करने का विचार भी मन में न लाना तथा मन - कई पत्र पत्रिकाओं में विविध वचन - कर्म से किसी को भी मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा न विधाओं पर रचनाओं का पहुँचाना ही अहिंसा है। समावेश / कुशल वक्ता तथा शब्द भंडार की विशिष्टता। भगवान महावीर के अनुसार संपर्क : 47, सागरमल मार्ग, एक सच्चा अहिंसक वही है जो खाचरौद, (जि. उज्जैन, म. प्र.) बाहरी भेदों को पाटकर आन्तरिक समानता को देखे / शरीर, इन्द्रिय, डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय रूप, रंग, जाति, धन, धर्म आदि एम.ए., पी.एच.डी. बाहरी भेदों को देखकर आन्तरिक और स्वरूप गत समानता को भुलाने श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (59) दो मुंह बातें मत करो, बहुत बड़ा यह पाप / जयन्तसेन निश्चल मति, करती जीवन साफ / /
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________________ TOTT 46 PIRTH वाला अहिंसक हो ही नहीं सकता / जो आंतरिक समानता को नहीं सत्य याने 'अस्ति' - जो है, उसको बताना पर वह हितकारी देखता वह अपने को ऊँचा व दूसरे को नीचा या दूसरे को ऊँचा हो तथा दूसरों को भी प्रिय हो / गीता में भी कहा गया है - तथा स्वयं को नीचा समझता है / यही अहम् या हीन भाव ही "अनुढेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्, विषमता पैदा करता है और जहाँ विषमता है या विषमता का भाव है वहाँ हिंसा को कोई रोक नहीं सकता। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्चते / " एर अहिंसा को साधने के लिए उन्होंने सम-भाव की साधना अर्थात् ऐसा वाक्य बोलना चाहिये जो दूसरों के चित्त में आवश्यक बताया / एकाग्रता के अभ्यास के द्वारा मन को वश में उद्वेग उत्पन्न न करें, जो सत्य, प्रिय व हितकर हो तथा जो वेद करके सिद्धांतगत स्वरूपगत मानस-स्तरीय समता को साधा जा शास्त्रों के अनुकूल हो / यही वाणी का तप है / यही बात भगवान सकता है / समता अर्थात् सम-भाव, न राग न द्वेष, न आकर्षण न विकर्षण, न इधर झुकावा न उधर | - यही तो समन्वय है और तहेव काणं काणोक्ति, पंडगं पंडगेति वा, जिस व्यक्ति या समाज का अन्तःकरण समता से स्नात हो जाता है वाहिय वा वि रोगीत्ति, तेणं चोरेत्ति नो' वए। उसके व्यवहार में विषमता नहीं होती। (दशवैकालिक सूत्र) इतना ही नहीं उन्होंने इस अहिंसा अणुव्रत के पालन में आने वाले अतिचारों जैसे - परिजनों व पशुओं के प्रति क्रूरता बरतना, अर्थात् काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी उनका वध - बन्धन करना, अतिभार लादना, चाबुक-बेंत आदि से तथा चोर को चोर न कहें / किसी को पीड़ा पहुँचाना हिंसा है पीटना, भूखे रखना, नाक-कान छेदना आदि अनेकों अतिचारों से इसीलिए भ. महावीर ने वाणी-संयम पर बल दिया / यथासंभव बचे रहने के लिए कहा / सत्य किसी के द्वारा अधिकृत नहीं, उसकी अभिव्यक्ति पर भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा विश्व कल्याण के सभी का अधिकार है / उन्होंने कहा कि - लिए अद्वितीय थाती है, सुख शांति की जननी है तथा शस्त्रास्त्रों "सच्चं जसस्तं मूलं, सच्चं विस्सास कारणं, की होड़ में लगे विश्व की रक्षा करने वाली अलौकिक शक्ति है। परमं सच्चं सग्ग-द्वारं, सच्चे सिद्दीइ सोपाणं // " व्यवहार में समन्वयवाद अर्थात् सत्य निश्चय ही यश प्राप्ति का मूल है, सत्य ही इस प्रकार आचरण के लिए अहिंसा को और अहिंसा के लिए विश्वास उत्पन्न कराने में कारण भूत तत्त्व है, सत्य ही स्वर्ग का समता को साधना ही व्यक्तिगत आचरण का समन्वयवाद था / श्रेष्ठ द्वार है तथा सत्य ही मोक्ष प्राप्ति के लिए सुन्दर सीढ़ियों के व्यवहार में इस साधना के लिए 2 बातें अनिवार्य बताई समान है। (1) साधन शुद्धि का विवेक _जन्म से ही आत्मा की प्रवृत्ति सत्य की होती है - बच्चा झूठ (2) व्यक्तिगत जीवन में संयम का अभ्यास बोलना नहीं जानता-उसे झूठ बोलना सिखाया जाता है | ज्यों ज्यों उम्र और दायित्व बढ़ते हैं - कमजोरियाँ बढ़ती है वैसे-वैसे असत्य साध्य से साधन की महत्ता कम नहीं अतः पवित्र साध्य की की ओर उन्मुखता बढ़ती है पर असत्य भाषण भला कौन पसन्द साधना के लिए साधनों की पवित्रता भी नितान्त आवश्यक है / करता है ? कागज की फूलों की सच्चाई कहीं छुपती भी है ? महावीर की यही साधन शुचिता महात्मा गान्धी के मानस पर विद्यमान थी जिसके बूते पर - सत्याग्रह व अहिंसक आन्दोलन के जो कठिनाइयाँ सत्य भाषण में आती है वे हमारी आत्मा की जरिये ब्रिटिश जैसी साम्राज्यवादी कौम ने भी हिन्दुस्तान को बुराइयाँ है और सत्य भाषण से ही वे समाप्त भी होंगी / भ. आजादी दी। महावीर ने कहा कि यदि मनुष्य सदैव सत्य ही बोलने का संकल्प ले ले तो वह स्वयं भी सुखी रह सकता है तथा सबको भी सुखी व्यवहारिक जीवन में भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बना सकता है / वास्तव में यह छल प्रपंचवाला संसार यदि महावीर व्यक्तिगत जीवन में संयम का अभ्यास आवश्यक है ऐसा उनका के सत्य को अपनाले तो विश्वशांति और कल्याण की दिशा में अनुभूत प्रयोग एवं मत था / मन, वचन एवं काया से कर्म से उन्मुख हो सकता है। बुराइयों को रोकना ही अहिंसा है - धर्म है / वाणी पर संयम, प्रवत्ति पर संयम तथा शरीर पर संयम के द्वारा व्यक्तिगत जीवन परन्तु सत्य की दिशा में भी समन्वय की ओर कदम बढ़ाते में, सामाजिक जीवन में तथा आध्यात्मिक उपलब्धि, मक्तिमंजिल हुए उन्हान कहा, - की ओर आसानी से बढ़ा जा सकता है / "महुत दुक्खा उद्ववंति कंटया, वाणी पर संयम - अओमया ते वि त ओ सुउद्धरा / भगवान महावीर की अहिंसा सर्व जीव हिताय थी, एक वाया दुरुत्राणि दुरूद्धराणि, समन्वित आचार संहिता थी तथा विश्वमैत्री और विश्वशांति की वेराणु बन्धीणि महब्भयाणि / रूप रेखा थी वहीं धर्म निरपेक्षता इस अहिंसा का आधार थी तथा सत्यदर्शन इसका सम्बल / काँटा या कील चुभ जाने पर कुछ देर ही दुःख पहुँचाती है किन्तु श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (60) छुरा भोंकना पीठ में, कायर का है काम / जयन्तसेन पराक्रमी स्पष्ट बदत विश्राम // Jain Education Interational
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________________ कठोर वाणी की चोंट चिरकाल तक कष्ट पहुँचाते हुए बैर को अनेकानेक समस्याओं का समाधान स्वयमेव ही हो जायगा तथा उपजाकर विनाश की ओर ले जाती है - अतः वाणी पर सदैव एक आसान अर्थव्यवस्था का अवतरण होगा। संयम रखना चाहिये / यह उनका सापेक्षवाद एवं आचरण और तयाप्रवत्ति पर संयम का दसरा व्यवहारिक हिस्सा परिग्रह परिणाम व्यवहार के समन्वय वाद का उत्कृष्ट उदाहरण था / वे सत्याग्रही व्रत है / आज का मानव पार्थिव एषणाओं तथा भौतिक पिपासाओं होने की अपेक्षा सत्यग्रही होना आवश्यक और अच्छा समझते थे / की मृग मरीचिका के पीछे बेतहाशा दौड़ रहा है उसे नहीं पता इस बोली का घाव किसी को न लगे यही वाणी का संयम है / उन्होंने अविश्रान्त दौड़ का लक्ष्यबिन्दु क्या है ? क्या मंजिल है ? - इस कहा, बेचैनी का एक मात्र कारण है - संग्रह वृत्ति - परिग्रह वृत्ति / 'अप्पणट्ठा, परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया / परिग्रह सिर्फ भौतिक वस्तुओं का ही नहीं होता - किसी भी पदार्थ हिंसमं न मूसं बूया, नो वि अन्नं वयावए / ' के प्रति ममत्व या आसक्ति रखना ही परिग्रह है / भगवान महावीर ने कहा कि, - मी (दशवैकालिक 6/11) कि "चित्तमंत चित्तवा परिगिज्झ किसामवि / अपने या दूसरों के लिए क्रोध या भय से पीड़ा पहुँचाने वाला सत्य और असत्य न बोले, न दूसरों से बुलवाएं / वाणी सत्यमय अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खाण मुच्चइ // हो, उसमें कष्ट व कटुता न हो - इसका ध्यान प्रत्येक व्यक्ति को अर्थात् जो सजीव और निर्जीव वस्तुओं का संग्रह करता है रखना चाहिये। और दूसरों से करवाता है या करने की सम्मति देता है वह दुःखों सत्य अणुव्रत के पालन के लिए अतिचारों को रखने की बात से मुक्त नहीं होता। उन्होंने कही जैसे - मिथ्या उपदेश, कूटलेख तैयार करना, न्यूनाधिक म यहाँ भी समन्वयवाद की ओर कदम बढ़ाते हुए उन्होंने नापतोल करना, व्यंग करना, निन्दा करना, वचन देकर' भूलजाना। सांसारिक जीवन में यथासंभव संयम का पथ प्रदर्शित किया / या पालन में ढिलाई करना आदि / उन्होंने कहा कि व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संग्रह न करे / परिग्रह परिणाम के द्वारा व्यक्ति तृष्णा और लोभ पर अंकुश लगाकर स्वयं को नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से ऊँचा उठा कपा संग्रह की प्रवृत्ति, तस्करी की प्रवृत्ति, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी सकता है तथा सुख और शांति का जीवन जी सकता है / भगवान और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति ने आज मानव को आतंकित कर रखा है महावीर ने सबके कल्याण हेतु व्यक्ति की दृष्टि से, समाज की दृष्टि तथा दैनिक जीवन को अशान्त एवं अनाचार पूर्ण बना दिया है। से तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अपरिग्रह को आवश्यक बताया / महावीर के आचार समन्वयवाद ने जहाँ सत्य और अहिंसा के द्वारा विश्व शांति और मैत्री का मार्ग प्रशस्त किया वहीं अस्तेय व शरीर पर संयम - अपरिग्रह अणुव्रत के द्वारा प्रवृत्ति पर संयम की राह दिखाई तथा / इन्द्रियों को वश में करके संयम और तप के द्वारा ही आत्मा व्यावहारिक जीवन को आसान बनाया / को निखारा जा सकता है / भगवान महावीर ने कहा कि - 'चित्तमंतम चित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। न व मंडिएण समणो, न ओकारेण बंभणो। दत्त सोहण मित्रं वि, उग्ग हंसि अजाइया। तक न मुनीवण्ण वासेण, कुस चीरेग ण तावसो / ' तं अप्पणा न गिण्हंति, नौ वि गिव्हावए पर, प्र अर्थात् सिर मुड़ा लेने से श्रमण ओम् कहने से ब्राह्मण, निर्जन अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणु जाणन्ति संजया / वन में रहने से मात्र से ही मुनि और कुश के वस्त्र पहनने से ही कोई तपस्वी नहीं होता वरन् - अर्थात्, कोई भी वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव, कम या ज्यादा - यहां तक कि दांत कुतरने की सलाई के समान ही छोटी 'समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो क्यों न हो; उसे बिना उसके स्वामी से पूछे नहीं उठाना चाहिये, नाणेण उ मुनी होइ, तवेण होइ तावसो / ' यही नहीं वरन् न दूसरों से उठवाए और न ही उठाने वाले का अर्थात् समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान की अनमोदन ही करे / इस प्रवृत्ति को रोकना अत्यावश्यक है अन्यथाउपासना से मनि व तप से तपस्वी बनता है। यह बहुत कष्टकर होती है / क्योंकि बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है, दूसरे की वस्तु को पाने की चाह मात्र चोरी है / अनैतिकता और वासना के इस अणुव्रत के भी कई अतिचार बताये हैं जैसे - दसरों की वस्तदावानल में झुलसते संसार को आज का अभिलाषी होना, दूसरों को इसके लिए उकसाना, चोरी के भगवान महावीर का ब्रह्मचर्य व्रत साधन रूप उपकरण या औजार बनाना या बनवाना, चोरी का शीतलता प्रदान कर सकता है / माल खरीदना या बेचना, राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, उन्होंने कहा कि, “बंभचेर उत्तम वाजिब से ज्यादा मुनाफा कमाना, चोरी छिपे धन संग्रह का प्रयल तप-नियम-नाण-दंसण, करना आदि / यदि वर्तमान में इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लग जाय तो या अर्थात् ब्रह्मचर्य उत्तम तप, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (61) दोष किसी के क्यों ग्रहे, रख गुण ग्राहक भाव / जयन्तसेन गुणी बनो, निश्चल नित्य स्वभाव / /
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________________ नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय का मूल है - अतः पूरा बोध हो सकता है / इस प्रकार सब तत्त्वों में समन्वय की जो इसका पालन करते हैं देवता भी उनके आगे नतमस्तक हो / खोज करना, व भिन्नता में अभिन्नता का दिग्दर्शन करना ही जाते हैं। अनेकान्त है। यहाँ भी समन्वय की ओर उन्मुख होते हुए भी उन्होंने गृहस्थ हमा वर्तमान समाज में पारस्परिक झगड़ों का एक महत्त्वपूर्ण व के लिए स्व-दारा सन्तोष तथा अपनी पत्नी के प्रति ईमानदारी की मूल कारण यह भी रहा है कि दूसरों के सही दृष्टिकोण का भी बात कही / स्वदारासन्तोष जहाँ समाज के शील और शिष्टाचार अनादर करना / अनेकान्तवाद समस्त मतवादों के समन्वय का की रक्षा करता है वहीं सामाजिक सुव्यवस्था बनाए रखता है, मध्यम मार्ग है क्योंकि वह सत्य से परिचित है / अनेकान्तवाद मनुष्य को पशु होने से बचाता है साथ ही विषय भोगों के प्रति माननीय विचार धारा का एक वैज्ञानिक उन्मेष है जो आग्रह और अनासक्ति से स्वास्थ्य की भी रक्षा होती है। आतंक के इस वातावरण में भी तत्त्व को, सत्य को समझने की एक वास्तव में यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, शाश्वत है, जिनावदेशित सूक्ष्म दृष्टि देता है। अनेकान्त वाद जहाँ दार्शनिक तथ्यों को लेकर है। महावीर के व्यक्तित्व का सर्व प्रधान गुण ही उनका अनन्तवीर्य होने वाले वाद-विवादो और संघर्षों का अंत करने में समर्थ है वहीं होना तथा मन-वचन-कर्म से संयमित होना ही था / आचरण के आचरण और व्यवहार को भी सरल व सरस बनाने में कम सफल समन्वय का यह अनुपम उदाहरण है / विश्व कल्याण के लिए, नहीं ।णि नैतिकता के निखार के लिए यह अमृत तुल्य है। वर्तमान समय में विश्व की बहुत सारी समस्याओं का विचार के द्वारा समन्वयवाद समाधान महावीर के समन्वयवाद से - अनेकान्तवाद से हो सकता है - कि कौन किस अपेक्षा से बातकर रहा है - यह सम्यक् ज्ञान भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम व तप के द्वारा जहां सम्यक् समाधाम बन सकता है / इतिहास साक्षी है, एकान्तवाद ने आचरण को, अपरिग्रह के द्वारा व्यवहार को समन्वित किया वहीं हिंसा को प्रश्रय दिया है अशांति को - आतंक को प्रश्रय दिया है चिन्तन व दर्शन के क्षेत्र में समन्वय की प्रतिष्ठा के लिए अनेकान्त वहीं अनेकान्त ने शान्ति को, कल्याण को तथा अहिंसा को जन्म का दीप जलाया / दिया है / आग्रह, पक्षपात और एकान्त द्रष्टिकोणों के आधार पर अनेकान्त का अर्थ है - अनेक अन्त - वस्तुका सर्वतोन्मुखी सामूहिक जीवन कभी शान्त नहीं हो सकता, सुखी नहीं हो विचार / जगत का प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणात्मक है / जल, मनुष्य सकता। की प्यास बुझाता है पर हैजे के रोगी के लिये विषतल्य है; दूध आज जो - प्रत्येक परिवार में, समाज में, धर्मों में, संस्थानों स्वास्थ्य के लिए अमृत है पर अतिसार रोगी के लिए मृत्यु का में राष्ट्र व अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्रों में - संघर्ष है, मनोमालिन्य है, कटुता कारण | राम दशरथ के पुत्र थे, लव कुश के पिता व सीता के व तनावपूर्ण व्यवहार है - वे सारे असहिष्णुता-प्रसूत है | उनकी पति / अर्थात् एक में अनेक आभास | यह बोध ही धर्म व दर्शन एकही कमी है - समन्वय का अभाव / भगवान महावीर का का उद्देश्य है / और यही महावीर का अनेकान्तवाद | मिट्टी का समन्वयवाद वह कांक्रीट है जो समस्त टुकड़ों को जोड़ सकता है, एक कण अनन्त स्वभावों का मिश्रण है / मिट्टी से ही तीखी, वह शीतल जल है तो अशांति के दावानल को शांत कर सकता है, कड़वी, मीठी अनेक प्रकार की वस्तुएं उत्पन्न होती हैं - वास्तव में वह सेतुबन्ध है जो अनेकानेक किनारों को-तटों को जोड़ सकता है, मिट्टी तो एक ही है पर बीज अपने स्वभावानुकूल अभीष्ट तत्त्वों समीकरण का वह सूत्र है जो विश्वकी समस्त समस्याओं का को खींच लेते हैं / ऐसी स्थिति में मिट्टी के कणों को कडुआ, मीठा समाधान कर विश्व को शांति और कल्याण के प्रवास की दिशा या तीखा कहना अज्ञानता है / तात्पर्य यह कि प्रत्येक वस्तु के प्रदान कर सकता है। अनेक स्वभाव होते हैं अतः सभी स्वभावों कोजानकर ही वस्तु का मधुकर-मौक्तिक हमारे अपने जीवन में दर्पण का बड़ा महत्त्व है / दर्पण में हम अपनी मुखछवि देखते हैं। चेहरे पर यदि कोई गन्दगी हो, तो दर्पण में वह दिखायी देती है | दर्पण में देख कर हम अपने मुँह को साफ रख सकते हैं | अरिहंत परमात्मारुपी दर्पण हमारे सामने है / इस आईने में हमारा सम्पूर्ण जीवन प्रतिबिम्बित हो सकता है। इस आईने में देखकर हमारे जीवन की मलिनता हमें दूर कर लेनी चाहिये / पर हम इस आईन में देखते ही नहीं हैं / आत्म-निरीक्षण करने की हमें आदत नहीं है | आईना हमारे सामने है, पर हम आईने में देखते नहीं हैं। इसमें आईने का क्या दोष है ? आईने का कोई दोष नहीं, दोष हमारा स्वयं का है। हम देखकर भी अन्धे बनते हैं। -जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (62) जन्म मरण का चक्र यह, चलता जग में जान / जयन्तसेन प्रेम सुधा, अमर करे नित प्राण ||