________________ कठोर वाणी की चोंट चिरकाल तक कष्ट पहुँचाते हुए बैर को अनेकानेक समस्याओं का समाधान स्वयमेव ही हो जायगा तथा उपजाकर विनाश की ओर ले जाती है - अतः वाणी पर सदैव एक आसान अर्थव्यवस्था का अवतरण होगा। संयम रखना चाहिये / यह उनका सापेक्षवाद एवं आचरण और तयाप्रवत्ति पर संयम का दसरा व्यवहारिक हिस्सा परिग्रह परिणाम व्यवहार के समन्वय वाद का उत्कृष्ट उदाहरण था / वे सत्याग्रही व्रत है / आज का मानव पार्थिव एषणाओं तथा भौतिक पिपासाओं होने की अपेक्षा सत्यग्रही होना आवश्यक और अच्छा समझते थे / की मृग मरीचिका के पीछे बेतहाशा दौड़ रहा है उसे नहीं पता इस बोली का घाव किसी को न लगे यही वाणी का संयम है / उन्होंने अविश्रान्त दौड़ का लक्ष्यबिन्दु क्या है ? क्या मंजिल है ? - इस कहा, बेचैनी का एक मात्र कारण है - संग्रह वृत्ति - परिग्रह वृत्ति / 'अप्पणट्ठा, परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया / परिग्रह सिर्फ भौतिक वस्तुओं का ही नहीं होता - किसी भी पदार्थ हिंसमं न मूसं बूया, नो वि अन्नं वयावए / ' के प्रति ममत्व या आसक्ति रखना ही परिग्रह है / भगवान महावीर ने कहा कि, - मी (दशवैकालिक 6/11) कि "चित्तमंत चित्तवा परिगिज्झ किसामवि / अपने या दूसरों के लिए क्रोध या भय से पीड़ा पहुँचाने वाला सत्य और असत्य न बोले, न दूसरों से बुलवाएं / वाणी सत्यमय अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खाण मुच्चइ // हो, उसमें कष्ट व कटुता न हो - इसका ध्यान प्रत्येक व्यक्ति को अर्थात् जो सजीव और निर्जीव वस्तुओं का संग्रह करता है रखना चाहिये। और दूसरों से करवाता है या करने की सम्मति देता है वह दुःखों सत्य अणुव्रत के पालन के लिए अतिचारों को रखने की बात से मुक्त नहीं होता। उन्होंने कही जैसे - मिथ्या उपदेश, कूटलेख तैयार करना, न्यूनाधिक म यहाँ भी समन्वयवाद की ओर कदम बढ़ाते हुए उन्होंने नापतोल करना, व्यंग करना, निन्दा करना, वचन देकर' भूलजाना। सांसारिक जीवन में यथासंभव संयम का पथ प्रदर्शित किया / या पालन में ढिलाई करना आदि / उन्होंने कहा कि व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संग्रह न करे / परिग्रह परिणाम के द्वारा व्यक्ति तृष्णा और लोभ पर अंकुश लगाकर स्वयं को नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से ऊँचा उठा कपा संग्रह की प्रवृत्ति, तस्करी की प्रवृत्ति, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी सकता है तथा सुख और शांति का जीवन जी सकता है / भगवान और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति ने आज मानव को आतंकित कर रखा है महावीर ने सबके कल्याण हेतु व्यक्ति की दृष्टि से, समाज की दृष्टि तथा दैनिक जीवन को अशान्त एवं अनाचार पूर्ण बना दिया है। से तथा आध्यात्मिक दृष्टि से अपरिग्रह को आवश्यक बताया / महावीर के आचार समन्वयवाद ने जहाँ सत्य और अहिंसा के द्वारा विश्व शांति और मैत्री का मार्ग प्रशस्त किया वहीं अस्तेय व शरीर पर संयम - अपरिग्रह अणुव्रत के द्वारा प्रवृत्ति पर संयम की राह दिखाई तथा / इन्द्रियों को वश में करके संयम और तप के द्वारा ही आत्मा व्यावहारिक जीवन को आसान बनाया / को निखारा जा सकता है / भगवान महावीर ने कहा कि - 'चित्तमंतम चित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। न व मंडिएण समणो, न ओकारेण बंभणो। दत्त सोहण मित्रं वि, उग्ग हंसि अजाइया। तक न मुनीवण्ण वासेण, कुस चीरेग ण तावसो / ' तं अप्पणा न गिण्हंति, नौ वि गिव्हावए पर, प्र अर्थात् सिर मुड़ा लेने से श्रमण ओम् कहने से ब्राह्मण, निर्जन अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणु जाणन्ति संजया / वन में रहने से मात्र से ही मुनि और कुश के वस्त्र पहनने से ही कोई तपस्वी नहीं होता वरन् - अर्थात्, कोई भी वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव, कम या ज्यादा - यहां तक कि दांत कुतरने की सलाई के समान ही छोटी 'समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो क्यों न हो; उसे बिना उसके स्वामी से पूछे नहीं उठाना चाहिये, नाणेण उ मुनी होइ, तवेण होइ तावसो / ' यही नहीं वरन् न दूसरों से उठवाए और न ही उठाने वाले का अर्थात् समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान की अनमोदन ही करे / इस प्रवृत्ति को रोकना अत्यावश्यक है अन्यथाउपासना से मनि व तप से तपस्वी बनता है। यह बहुत कष्टकर होती है / क्योंकि बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है, दूसरे की वस्तु को पाने की चाह मात्र चोरी है / अनैतिकता और वासना के इस अणुव्रत के भी कई अतिचार बताये हैं जैसे - दसरों की वस्तदावानल में झुलसते संसार को आज का अभिलाषी होना, दूसरों को इसके लिए उकसाना, चोरी के भगवान महावीर का ब्रह्मचर्य व्रत साधन रूप उपकरण या औजार बनाना या बनवाना, चोरी का शीतलता प्रदान कर सकता है / माल खरीदना या बेचना, राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, उन्होंने कहा कि, “बंभचेर उत्तम वाजिब से ज्यादा मुनाफा कमाना, चोरी छिपे धन संग्रह का प्रयल तप-नियम-नाण-दंसण, करना आदि / यदि वर्तमान में इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लग जाय तो या अर्थात् ब्रह्मचर्य उत्तम तप, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (61) दोष किसी के क्यों ग्रहे, रख गुण ग्राहक भाव / जयन्तसेन गुणी बनो, निश्चल नित्य स्वभाव / / www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only