Book Title: Mahavir aur Unke Dwara Sansthapit Naitik Mulya
Author(s): Ramjeerai
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0-00-0 10-0-0 ३२८ 10-0-0-00-00-0 भगवान् महावीर और उनके द्वारा संस्थापित नैतिक मूल्य Jain Edernational - डॉ० रामजीराय, आरा -0-0-0-0-0-0-0-0 जैन दर्शन के अध्येता की दृष्टि में भगवान् महावीर की मौलिक देन है - अनेकान्तवाद । इसलिए जहाँ कहीं भी प्रसंग आया है, इस विषय पर विशदता से प्रकाश डाला गया है । वैचारिक क्षेत्र में अनेकान्तवाद एक महत्वपूर्ण तत्व है, इसे हम किसी भी स्थिति में नकार नहीं सकते । किन्तु इस सार्वभौम तथ्य के अतिरिक्त भगवान् महावीर ने एक ऐसा भी तत्त्व दिया था, जो आचार क्षेत्र में गृहस्थ समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी है । सामान्यतः हर दर्शन प्रणेता अपने अनुयायियों के लिए आचार का निरूपण करता है । किन्तु गृहस्थ समाज के लिए अतिरिक्त रूप से नैतिकता का चिन्तन देने वाले भगवान् महावीर ही थे । वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में भगवान् महावीर का वह चिन्तन जन-जन को नया आलोक देने वाला है । मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव समाज में 'कुछ ऐसी वृत्तियाँ पनपने लगीं जो मनुष्य के आचार को खतरा पहुँचाने वाली थीं । इन वृत्तियों के मूल में व्यक्ति की स्वार्थ भावना अधिक काम करती है । इसलिए मनुष्य वैयक्तिक स्वार्थ का पोषण करने के लिए दूसरों को सताना. झूठे आरोप लगाना, झूठी साक्षी देना, व्यापार में अप्रामाणिक व्यवहार करना, संग्रह करना आदि-आदि प्रवृत्तियों में सक्रिय होने लगा । इस सक्रियता से नैतिक मानदण्ड टूट गये । फलतः वही व्यक्ति पूजा, प्रतिष्ठा पाने लगा जो इन कार्यों के द्वारा अर्थोपार्जन करके अपने समय की समस्त सुविधाओं का भोग करता था । भगवान् महावीर के युग में भी नैतिक मूल्य स्थिर नहीं थे । नैतिकता के मूल्य ही जब विस्थापित हो गये तब अमानवीय व्यवहारों पर रोक भी कैसे लगाई जा सकती थी ? मूल्य की स्थापना की कसम - कस के समय एक ऐसी आचार संहिता की अपेक्षा थी, जो नैतिकता की हिलती हुई नींव को स्थिर कर सके । भगवान् महावीर इस स्थिति से अनजान नहीं थे। क्योंकि उनके पास अव्याबाध ज्ञान था । उन्होंने मुनि धर्म ( पाँच महाव्रतों) की प्ररूपणा करके जीवन - विकास के उत्कृष्ट पथ का संदर्शन किया । किन्तु हर व्यक्ति में उस पर चलने की क्षमता नहीं होती, इसलिए उन्होंने अणुव्रतों की व्यवस्था की है । स्थानांगसूत्र में उन अणुव्रतों का नामोल्लेख करते हुए लिखा गया है- पंचाणुवत्ता पन्नत्ता, तं जहा - थूलातो पाणाइवायातो वेरमणं, थूलातो मुसावाया तो वेरमणं, थूलातो अदिन्नादानात वेरमणं, सदार संतोसे, इच्छा परिमाणे । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jaireshw Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह एक मानवीय दुर्बलता है कि मनुष्य व्रत स्वदार संतोष व्रत के पाँच अतिचार ज्ञातव्य हैंan स्वीकार करने के बाद भी स्खलित हो जाता है, १. इत्वरिक परिगृहीत गमन-अल्प समय के इसलिए भगवान् ने व्रतों के अतिचारों का विश्लेषण लिए क्रीत स्त्री के साथ भोग भोगना अथवा अपनी करके व्यक्ति को व्रतों के पालन की दिशा में और अल्पवय वाली स्त्री के साथ भोग करना । र अधिक जागरूक बना दिया। २ अपरिगृहीत गमन- अपनी अविवाहित स्त्री प्रथम अणुव्रत स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत (वाग्दत्ता)के साथ भोग भोगना अथवा वेश्या आदि स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए उस व्रत के पाँच के साथ भोग भोगना। अतिचार ज्ञातव्य हैं, किंतु आचरणीय नहीं हैं। जैसे- ३. अनंग क्रीड़ा-कामविषयक क्रीड़ा करना। . १. बन्ध-क्रोधवश, त्रस जीवों को गाढ़ बन्धन ४. पर-विवाहकरण-दूसरे के बच्चों का विवाह से बाँधना। कराना। २. वध-निर्दयता से किसी जीव को पीटना। ५. कामभोग तीवाभिलाषा-अपनी स्त्री के ३. छविच्छेद-कान, नाक आदि अंगोपांगों का साथ तीव्र अभिलाषा से भोग भोगना।। छेदन करना। ___ इच्छा परिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं४. अतिभार लादना-भारवाहक मनुष्य, पशु १. क्षेत्र-वास्तु आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना। आदि पर बहुत अधिक भार लादना । २. हिरण्य-सुवर्ण ५. भक्त-पान-विच्छेद-अपने आश्रित जीवों के ३. द्विपद-चतुष्पद , आहार-पानी का विच्छेद करना। ४. धन-धान्य स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के पाँच अतिचार ५. कृप्य ज्ञातव्य हैं ये पांचों ही अणुव्रत नैतिक आचार-संहिता के १. सहसा अभ्याख्यान-सहसा किसी के अन आधार स्तम्भ है। इनके आधार पर अपनी जीवन होने दोष को प्रकट करना।। पद्धति का निर्माण करना ही भ्रष्टाचार २. रहस्य अभ्याख्यान-किसी के मर्म का उद् की बढ़ती हुई समस्या का सही समाधान है। घाटन करना। ३. स्वादार-मन्त्र-भेद-अपनी स्त्री की गोपनीय प्रत्येक युग के सत्तारूढ़ व्यक्ति भ्रष्टाचार-उन्मूलन के लिए नए-नए विधानों का निर्माण करते हैं। 15 बात का प्रकाशन करना। किन्तु जब वे विधान स्वयं विधायकों द्वारा ही ४. मृषा उपदेश-मोहन, स्तम्भन, उच्चाटन आदि के लिए झूठे मन्त्र सिखाना। तोड़ दिए जाते हैं तब दूसरे व्यक्ति तो उनका ५. कूटलेखकरण-झूठा लेखपत्र लिखना। पालन करेंगे हो क्यों ? स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पाँच अति- एक बात यह भी है कि राज्य की दृष्टि में चार हैं ___ वही कर्म भ्रष्टाचार की कोटि में आता है, जिससे १. स्नेध-चोर की चुराई हुई वस्तु लेना। राजकीय स्थितियों में उलझन पैदा होती है। किंतु २. तस्कर प्रयोग-चोर की सहायता करना। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार कैसा भी क्यों न हो , ३. विरुद्ध राज्यातिक्रम-राज्य द्वारा निषिद्ध तथा किसी भी वर्ग और परिस्थिति में हो उसका व्यापार करना। प्रभाव व्यापक ही होता है। भ्रष्टाचार की जड़ों । ४. कूट तौल, कूट माप-कम तौल-माप करना। को उखाड़ने के लिए व्यक्ति में नैतिकता के प्रति ५. तत्प्रतिरूपक व्यवहार-अच्छी वस्तु दिखा- निष्ठा के भाव पनपाने होंगे, क्योंकि निष्ठा के कर खराब वस्तु देना, मिलावट करना । अभाव में वृत्तियों का संशोधन नहीं हो सकता और चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम Bimi myata ३२६ P60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOOG) e Por Private & Personal Use Only www.jaineniorary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X045 वृत्तियों की स्वस्थता बिना मानव समाज भी स्वस्थ आदि आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में श्रावक के नहीं हो सकता। बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं का विशद् भगवान् महावीर ने व्रतों की जो व्यवस्था दी, विश्लेषण किया है। आचार्य वसुनन्दि ने अपने उसमें वैयक्तिक हितों के साथ सामाजिक और ग्रन्थ वनन्दि श्रावकाचार में लिखा राजनैतिक हितों को भी ध्यान में रखा गया है। है-'लोहे के शस्त्र तलवार, कुदाल आदि प्रथम व्रत के अतिचारों में मानवतावाद की तथा दण्ड और पाश आदि को बेचने का त्याग स्पष्ट झलक है / एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति करना, झूठी तराजू और झूठे मापक पदार्थ नहीं निर्दयतापूर्ण व्यवहार करे यह मानवीय आचार रखना तथा क्रूर प्राणी बिल्ली, कुत्ते आदि का संहिता का उल्लंघन है / इसलिए मैत्री भावना का पालन नहीं करना अनर्थ दण्ड-त्याग नामक तीसरा विकास करके समग्र विश्व के साथ आत्मीयता का अणुव्रत है।' (वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक 216) अनुभव करना प्रथम व्रत का उद्देश्य है। शारीरिक श्रृंगार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प दूसरे व्रत के अतिचारों में सामूहिक जीवन की आदि का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग समरसता में बाधक तत्वों का दिग्दर्शन कराया निवृत्ति नामक द्वितीय शिक्षाव्रत कहा जाता है। गया है। तीसरे व्रत में राष्ट्रीयता की भावना के पर्व, अष्टमी, चतुर्दशी आदि को स्त्री-संग साथ व्यावसायिक क्षेत्र में पूर्ण प्रामाणिक रहने का त्याग तथा सदा के लिए अनंग-क्रीड़ा का त्याग र निर्देश दिया गया है। चौथे व्रत में कामुक वृत्तियों करने वाले को स्थूल ब्रह्मचारी कहा जाता है।' को शान्त करने के उपाय हैं और पाँचवें व्रत में इस प्रकार श्रावक धर्म की प्ररूपणा के माध्यम इच्छाओं सीमित करने का संकल्प लेने से अर्था- से एक सार्वजनिक आचार-संहिता देकर भगवान् भाव, मॅहगाई और भुखभरी को लेकर जनता में जो महावीर ने अनैतिकता की धधकती हुई ज्वाला में असन्तोष फैलता है, वह अपने आप शांत हो जाता। भस्म होते हुए संसार का बहुत बड़ा उपकार किया ___ अपने आपको भगवान् महावीर के अनुयायी है। भगवान् महावीर के इस चिंतन के आधार संहिता के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें तो वर्तमान आन्दोलन के रूप में एक नई आचार-संहिता का समस्याओं को एक स्थायी और सुन्दर समाधान निर्माण किया है। लगता है कि अब और तब की मिल सकता है। स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं था। इसीलिए ___भगवान् महावीर के इस सिद्धान्त का उत्तर- भगवान् महावीर का वह चिन्तन इस युग के जन-5) वर्ती आचार्यों ने भी प्रसार किया है। समन्तभद्र, मानस के लिए भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सोमदेव, वसुनन्दि, अमितगति, आशाधर, पूज्यपाद रहा है। 00 अहिंसा की विशिष्टता 00 यह भगवती अहिंसा प्राणियों के, भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों को आकाशगमन के समान हितकारिणी है, प्यासों के समान है, चौपायों के लिए आश्रम (आश्रय) के समान है, रोगियों के लिए औषधियों के समान है और भयानक जंगल के बीच निश्चिन्त होकर चलने में सार्थवाह के समान सहायक है। -भगवान महावीर (प्रश्नव्याकरण) चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ oooo 330 . 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