Book Title: Mahavir Vani Lecture 13 Sanlinta Antar Tap ka Pravesh Dwar
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार तेरहवां प्रवचन 229 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म-सूत्र धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमंसन्ति, जस्स धम्मे सया मणो।। धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। 230 | Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप का अन्तिम सूत्र, अन्तिम अंग है-संलीनता। संलीनता सेतु है, बाह्य-तप और अंतर-तप के बीच। संलीनता के बिना कोई बाह्य-तप से अंतर-तप की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए संलीनता को बहुत ध्यानपूर्वक समझ लेना जरूरी है। संलीनता सीमांत है; वहीं से बाह्य-तप समाप्त होते और अंतर-तप शुरू होते हैं। संलीनता का अर्थ और संलीनता का प्रयोग बहुत अदभुत है। परम्परा जितना कहती है, वह तो इतना ही कहती है कि अपने शरीर के अंगों को व्यर्थ संचालित न करना संलीनता है। अकारण शरीर न हिले डुले, संयत हो, तो संलीनता है। इतनी ही बात नहीं, यह तो कुछ भी नहीं है। यह तो संलीनता का बाहर की रूपरेखा को भी स्पर्श करना नहीं है। संलीनता के गहरे अर्थ हैं। तीन हिस्सों में हम इसे समझें--पहला तो आपके शरीर में, आपके मन में, आपके प्राण में कोई भी हलन-चलन नहीं होती है, जब तक आपकी चेतना न कंपे। अंगुली भी हिलती है तो भीतर आत्मा में कंपन पैदा होता है। दिखाई तो अंगुली पड़ती है कि हिली, लेकिन कंपन भीतर से आता है; सूक्ष्म से आता है और स्थूल तक फैल जाता है। इतना ही सवाल नहीं है कि अंगुली न हिले क्योंकि यह हो सकता है अंगुली न हिले लेकिन भीतर कंपन हो। तो कोई अपने शरीर को संलीन करके बैठ जा सकता है, योगासन लगाकर बैठ जा सकता है, अभ्यास कर ले सकता है और शरीर पर कोई भी कंपन दिखाई न पड़े और भीतर तूफान चले, और ज्वालामुखी का लावा उबलता रहे और आग जले। ___ संलीनता वस्तुतः तो तब घटित होती है, जब भीतर सब इतना शांत हो जाता है कि भीतर से कोई तरंग नहीं आती जो शरीर पर कंपन बने, लहर बने। पर हमें शरीर से ही शुरू करना पड़ेगा क्योंकि हम शरीर पर ही खड़े हैं। तो संलीनता के अभ्यास में जिसे उतरना हो उसे पहले तो अपनी शरीर की गतिविधियों का निरीक्षण करना होता है। यह पहला हिस्सा है। क्या कभी आपने खयाल किया है कि जब आप क्रोध में होते हैं तो और ढंग से चलते हैं? जब आप क्रोध में होते हैं तब आपके चेहरे की रेखाएं और हो जाती हैं: आपकी आंख पर अलग रंग फैल जाते हैं: आपके दांतों में कोई गति हो जाती है। आपकी अंगलियां किसी भार से, शक्ति से भर जाती हैं। आपके समस्त स्नायु मंडल में परिवर्तन हो जाता है। जब आप उदास होते हैं तब आप और ढंग से चलते हैं, आपके पैर भारी हो गए होते हैं, उठाने का मन भी नहीं होता, कहीं जाने का भी मन नहीं होता। आपके प्राण पर जैसे पत्थर रख दिया हो, ऐसी आपकी सारी इंद्रियां पत्थर से दब जाती हैं। जब आप उदास होते हैं तब आपके चेहरे का रंग बदल जाता है, रेखा बदल जाती है। जब आप प्रेम में होते हैं तब, जब आप शांत होते हैं तब, तब सब फर्क पड़ते हैं। लेकिन आपने 231 . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 निरीक्षण न किया होगा। संलीनता का प्रयोग समझना हो तो जब आप क्रोध में हों तो भागें और दर्पण के सामने पहुंच जाएं। और देखें कि चेहरे में कैसी स्थिति है क्योंकि आपका क्रोध से भरा चेहरा दूसरों ने देखा है, आपने नहीं देखा। देखें कि आपका चेहरा कैसा है। जब आप उदास हों तब आईने के सामने पहुंच जाएं और देखें कि आंखें कैसी हैं। जब आप चल रहे हों उदास, तब खयाल करें कि पैर कैसे पड़ते हैं, शरीर झुका हुआ है, उठा हुआ है। हिटलर ने एक मनस्विद को फ्रांस पर हमला करने के पहले फ्रांस भेजा था और पूछा था कि जरा फ्रांस की सड़कों पर देखो कि यवक कैसे चलते हैं, उनकी रीढ सीधी है या झकी हई है? उस मनस्विद ने खबर दी कि फ्रांस में लोग झके-झके चलते हैं। हिटलर ने कहा-फिर उनको जीतने में कोई कठिनाई न पड़ेगी। हिटलर का सैनिक देखा है आपने? पूरा जर्मनी रीढ़ सीधी करके चल रहा है। जब कोई आशा से भरा होता है तो रीढ़ सीधी हो जाती है। जब कोई निराशा से भरा होता है तो रीढ़ झुक जाती है। बुढ़ापे में सिर्फ इसीलिए रीढ़ नहीं झुक जाती कि शरीर कमजोर हो जाता है। इससे भी ज्यादा इसलिए झुक जाती है कि जीवन निराशा से भर जाता है। मौत सामने दिखाई पड़ने लगती है, भविष्य नहीं रह जाता / महावीर जैसे व्यक्ति की रीढ़ बुढ़ापे में भी नहीं झुकेगी, क्योंकि मौत नहीं है असली सवाल, बुढ़ापे में; मोक्ष का द्वार है, परम आनन्द है। तो रीढ़ नहीं झुकेगी। ___ आप भी जब स्वस्थ चित्त, प्रसन्न चित्त होते हैं तो और ढंग से खड़े होते हैं। अगर मैं बोल रहा हूं और आपको उसमें कोई रस नहीं आ रहा है तो आप कुर्सी से टिक जाते हैं। अगर आपको कोई रस आ रहा है तो आपकी रीढ़ कुर्सी छोड़ देती है। आप सीधे हो जाते हैं। अगर कोई बहत संवेदनशील हिस्सा आ गया है फिल्म में देखते समय, कोई बहत थ्रिलिंग. के हो गया है तो आपकी रीढ़ सीधी ही नहीं होती, आगे झुक जाती है। श्वास रुक जाती है। आपके चित्त में पड़े हुए छोटे-छोटे परिवर्तनों की लहरें आपके शरीर की परिधि तक फैल जाती हैं। ज्योतिषी या हस्तरेखाविद, या मुखाकृति को पढ़नेवाले लोग नब्बे प्रतिशत तो आप पर ही निर्भर होते हैं। आप कैसे उठते, कैसे चलते, कैसे बैठते, आपके चेहरे पर क्या भाव है। आपको भी पता नहीं है, वह सब आपके बाबत बहुत-सी खबरें दे जाती हैं। आदमी एक किताब है, उसे पढ़ा जा सकता है। और जिसे साधना में उतरना हो उसे खुद अपनी किताब पढ़नी शुरू करनी पड़ती है। सबसे पहले तो पहचान लेना होगा कि मैं किस तरह का आदमी हैं। तो जब क्रोध में आप आईने के सामने खडे हो जाएं और देखें, कैसा है चेहरा, क्या है रंग, आंख पर कैसी रेखाएं फैल गयी हैं? जब शांत हों, मन प्रसन्न हो,तब भी आईने के सामने खड़े हो जाएं। तब आप अपनी बहत-सी तस्वीरें देखने में समर्थ हो जाएंगे और एक और मजेदर घटना घटेगी. वह संलीनता के प्रयोग का दूसरा हिस्सा है। जब आप आईने के सामने खड़े होकर अपने क्रोधित चित्त का अध्ययन कर रहे होंगे तब आप अचानक पाएंगे कि क्रोध खिसकता चला गया, शांत होता चला गया। क्योंकि जो क्रोध का अध्ययन करने में लग गया, उसका क्रोध से संबंध टूट जाता है, अध्ययन से संबंध जुड़ जाता है। उसकी चेतना का तादात्म्य, 'मैं क्रोध हूं' से टूट गया, मैं अध्ययन कर रहा हूं, इससे जुड़ गया। और जिससे हमारा संबंध टूट गया वह वृत्ति तत्काल क्षीण हो जाती है। तो आईने के सामने खड़े होकर एक और रहस्य आपको पता चलेगा कि अगर आप क्रोध का निरीक्षण करें तो क्रोध जिन्दा नहीं रह सकता। तत्काल विलीन हो जाता है। और भी एक मजेदार अनुभव होगा कि जब आप बहुत शांत हों और जीवन एक आनंद के फूल की तरह मालूम हो रहा हो किसी क्षण में, कभी सूरज निकला हो सुबह का और उसे देखकर मन प्रफुल्लित हुआ हो; या रात चांद-तारे देखे हों और उनकी छाया और उनकी शांति मन में प्रवेश कर गयी हो: या एक फल को खिलते देखा हो और उसके भीतर की बंद शांति आपके प्राणों तक बिखर गयी हो, तब आईने के सामने खड़े हो जाएं तब एक और नया अनभव होगा, और वह 232 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार अनुभव यह होगा कि जब कोई शांति का निरीक्षण करता है, तो क्रोध तो निरीक्षण करने से विलीन हो जाता है, शांति निरीक्षण करने री हो जाती है। क्रोध इसलिए विलीन हो जाता है कि आपका क्रोध से संबंध टूट जाता है। क्रोध से संबंधित होने के लिए बेचैन होना जरूरी है, परेशान होना जरूरी है, उद्विग्न होना जरूरी है। अध्ययन के लिये शांत होना जरूरी है। निरीक्षण के लिये, मौन होना जरूरी है। तटस्थ होना जरूरी है। तो संबंध टूट जाता है। __ शांति के आप जितने ही निरीक्षक बनते हैं उतने ही आपके और निरीक्षण के लिए जो शांति जरूरी है वह भी जुड़ जाती है। अध्ययन के लिए जो शांति जरूरी है वह भी जुड़ जाती है। तटस्थ होना जरूरी है, वह भी जुड़ जाता है। शान्ति और गहरी हो जाती है। सच तो यह है कि निरीक्षण करने से जो गहरा हो जाए, वही वास्तविक जीवन है। निरीक्षण करने से जो गिर जाए, वह धोखा था। या ऐसा कहें कि निरीक्षण करने से जो बचा रहे वही पुण्य है, और निरीक्षण करने से जो तत्काल विलीन हो जाए वही पाप है। संलीनता का पहला प्रयोग है, राइट आब्जर्वेशन, सम्यक निरीक्षण। आप बहुत हैरान होंगे कि आप कितनी तस्वीरें हैं एक साथ / महावीर ने पृथ्वी पर पहली दफा एक शब्द का प्रयोग किया है जो पश्चिम में अब पुनः पुनरुज्जीवित हो गया है। महावीर ने पहली दफा एक शब्द का प्रयोग किया है - बहुचित्तता -- पहली बार / आज पश्चिम में इस शब्द का बड़ा मूल्य है। उनको पता भी नहीं है कि महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले इसका प्रयोग किया था - पालिसाइकिक। पश्चिम में आज इस शब्द का बड़ा मूल्य है। क्योंकि जैसे ही पश्चिम मन को समझने गया, उसने कहा - मन मोनोसाइकिक नहीं है, एक मन नहीं हैं आदमी के भीतर - अनंत मन हैं; पालिसाइकिक है, बहुत मन हैं। महावीर ने ढाई हजार साल पहले कहा कि आदमी बहुचित्तवान है, एक चित्त नहीं है; जैसा हम सोचते हैं। हम निरंतर कहते हैं - मेरा मन। हमें कहना चाहिए - मेरे मन, माई माइंड नहीं, माई माइंड्स। ___ तो क्या आपके पास एक मन...एक ही मन हो तो जीवन और हो जाए, बहुत मन हैं। और ये मन भी ऐसे नहीं हैं कि सिर्फ बहुत हैं, ये विरोधी भी हैं। ये एक दूसरे के दुश्मन भी हैं। इसलिए आप सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ हो जाते हैं। आपको खुद ही समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है। जब आप प्रेम में होते हैं तब आप दूसरे ही आदमी होते हैं, और जब आप घृणा में होते हैं तो आप दूसरे ही आदमी होते हैं। इन दोनों के बीच कोई संगति नहीं होती, कोई संबंध नहीं होता। जिसने आपको घृणा में देखा है वह अगर आपको प्रेम में देखे तो भरोसा न कर पाएगा कि आप वही आदमी हैं। और ध्यान रहे कि सिर्फ घणा की वजह से नहीं, आपके चेहरे की सब रूप रेखा, आपके शरीर का ढंग, आपका आभामण्डल, आपका सब बदल गया होगा। तो पहला तो निरीक्षण करें, ठीक से पहचानें कि आपके पास कितने चित्त हैं। और प्रत्येक चित्त की आपके शरीर पर क्या प्रतिक्रिया है! आपका शरीर प्रत्येक चित्त दशा के साथ कैसा बदलता है! जब आप शान्त होते हैं तो शरीर को हिलाने का भी मन नहीं होता। श्वास भी जोर से नहीं चलती। खून की रफ्तार भी कम हो जाती है। हृदय की धड़कनें भी शांत हो जाती हैं। जब आप अशांत होते हैं तो अकारण शरीर में गति होती है। एक अशांत आदमी कुर्सी पर भी बैठा होगा तो पैर हिलाता होगा। कोई उससे पूछे कि क्या कर रहे हो? कुर्सी पर बैठकर चलने की कोशिश कर रहे हो? वह पैर हिला रहा है। आदमी थोड़ी देर बैठा रहे तो करवटें बदलता रहता है, क्या हो रहा है उसके भीतर? उसके भीतर चित्त इतना बेचैन है कि वह बेचैनी वह शरीर से रिलीज कर रहा है। अगर वह रिलीज न करे तो पागल हो जायेगा। वह रिलीज उसे करनी पड़ेगी। अगर वह शाम को घण्टेभर जाकर खेल के मैदान पर दौड़ लेता है, खेल लेता है, घण्टे भर घूम आता है तो ठीक, नहीं तो वह बैठे-बैठे, लेटे-लेटे अपने शरीर को गति देगा और वहां से शक्ति को मुक्त करेगा। लेकिन यह शक्ति व्यर्थ व्यय हो रही है। संलीनता शक्ति संग्रह है, शक्ति संचयन है। और हम कोई संलीनता में नहीं जीते तो 233 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 अपनी शक्ति को ऐसे ही लुटाए चले जाते हैं। ऐसे ही, व्यर्थ ही, जिसका कोई परिणाम नहीं होनेवाला है; जिससे कुछ उपलब्ध होने वाला नहीं है; जिससे कहीं पहुंचेंगे नहीं। कुर्सी पर बैठकर पैर हिलाते रहते हैं। कोई मंजिल इससे हल नहीं होती। उतनी शक्ति से कहीं पहुंचा जा सकता था, कुछ पाया जा सकता था। चौबीस घण्टे हम शक्ति को अपने अंगों से बाहर फेंक रहे हैं। लेकिन इसका अध्ययन करना पड़ेगा पहले, स्वयं को पहचानना पड़ेगा और आप बहुत हैरान होंगे, आपकी जिंदगी की किताब जब आपके सामने खुलनी शुरू होगी तो आप हैरान होंगे कि कोई रहस्यपूर्ण से रहस्यपूर्ण उपन्यास इतना रहस्यपूर्ण नहीं और अनूठे से अनूठी कथा इतनी स्टेंज, इतनी अजनबी नहीं, जितने आप हैं। और ऐसा ही नहीं है कि क्रोध और अक्रोध में आप अलग स्थिति पाएंगे। आप पाएंगे कि क्रोध के भी स्टेप्स हैं। क्रोध में भी बहुत रंग हैं। कभी आप एक ढंग से क्रोधित होते हैं, कभी दूसरे ढंग से क्रोधित होते हैं, कभी तीसरे ढंग से क्रोधित होते हैं। और तब तीनों ढंग के क्रोध में आपके शरीर की आकृति अलग-अलग होती है। और तब पर्त-पर्त अपने को आप देखेंगे तो चकित हो जाएंगे कि कितना आपके भीतर छिपा है। यह पहला प्रयोग है -निरीक्षण। इससे आप पहचान पाएंगे कि आपके भीतर क्या हो रहा है? आप जो शक्ति के पुंज हैं, उस शक्ति का आप क्या उपयोग कर रहे हैं? दूसरी बात - जैसे ही आप समर्थ हो जाएं कि आप क्रोध को देख पाएं वैसे ही आप आईने के सामने पाएंगे कि अपने-आप भी क्रोध शांत होगा, आप एक दूसरा प्रयोग जोड़ें, वह संलीनता का दूसरा प्रयोग है। जब चित्त क्रोध से भरा हो, तब आप आईने के सामने खड़े हो जाएं। निरीक्षण करने के बाद ही यह किया जा सकता है। लम्बे निरीक्षण के बाद ही यह हो सकेगा। आईने के सामने खड़े हो जाएं और अपने तरफ से शरीर के अंगों को वैसा करने की कोशिश करें जैसा शान्ति में होता है। आईने के सामने खड़े हो जाएं। आपको भली-भांति याद है कि शान्ति में चेहरा कैसा होता है। अब क्रोध की स्थिति है। चेहरा क्रोध की धारा में बह रहा है। आप आईने के सामने खड़े होकर उस चेहरे को याद करें जो शान्ति में होता है, और चेहरे को शांति की तरफ ले जाने लगता है। बहुत ही थोड़े दिनों में आप हैरान होंगे कि आप चेहरे को शांति की तरफ ले जाने में समर्थ हो गए हैं। सारी अभिनय की कला, सारी एक्टिंग इस अभ्यास पर निर्भर करती है। जन्मजात किसी को यह प्रतिभा होती है तो वह अभिनय में कुशल मालूम पड़ता है। लेकिन यह प्रतिभा विकसित की जा सकती है और यह इतनी विकसित की जा सकती है कि जिसका कोई हिसाब लगाना कठिन है। आईने के सामने खड़े होकर, क्रोध भीतर है और आप चेहरे पर शांति की धारा बहा रहे हैं। थोड़े ही दिनों में आप समर्थ हो जाएंगे। और तब आप एक और नया अनुभव कर पाएंगे। और वह यह होगा कि क्रोध मन में दौड़ता, शांति शरीर में दौड़ सकती है। और जब आप इन दोनों में समर्थ हो जाते हैं तो आप तीसरे हो जाते हैं -- न तो आप क्रोध रह जाते, न आप मन रह जाते और न आप शरीर रह जाते। क्योंकि मन क्रोध में है, वह क्रोध से जल रहा है। लेकिन शरीर पर आपने शांति की धारा बहा दी है, वह शांत आकृति से भर गया है। निश्चित ही आप दोनों से अलग और पृथक हो गए। न तो अब आप अपने को आइडेंटिफाई कर सकते हैं क्रोध से, और न शांति से। दोनों से तादात्म्य नहीं कर सकते। आप दोनों को देखनेवाले हो गए। और जिस दिन आप दो पैदा कर लेते हैं एक साथ, उस दिन आपको पहली दफा एक मुक्ति अनुभव होती है। आप दोनों के बाहर हो जाते हैं। एक के साथ तादात्म्य आसान है, दो के साथ तादात्म्य आसान नहीं है। एक के साथ जुड़ जाना आसान है, दो विपरीत चीजों के साथ एक साथ जुड़ जाना बहुत कठिन है, असम्भव है। हां, अलग-अलग समय में हो सकता है कि सुबह आप क्रोध के साथ जुड़ें, दोपहर आप शांति के साथ जड़ें; यह हो सकता है, अलग-अलग समय में। लेकिन साइमल्टेनियसली, युगपत आप 234 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार क्रोध और शांति के साथ जुड़ नहीं सकते। बड़ी मुश्किल होगी। कैसे जुड़ेंगे? जोड़ मुश्किल हो जाएगा। __ मुल्ला नसरुद्दीन मर रहा है। आखिरी क्षण उसके करीब हैं। वह अपने बेटे को बुलाकर सलाह देता है। वह कहता है-मैं जानता हूं कि मैं कितना ही कहूं कि तू धूम्रपान मत करना, लेकिन तू करेगा क्योंकि मेरे पिता ने भी मुझसे कहा था, लेकिन मैंने किया। इसलिए यह सलाह मैं तुझे नहीं दूंगा। मैं जानता हूं कि समझाना चाहता हूं तुझे, अनुभव से कहना चाहता हूं कि शराब मत छूना / लेकिन मेरे पिता ने भी मुझे समझाया था, लेकिन मैंने शराब पी। और मैं जानता हूं कि तू कितना ही कहे कि नहीं, नहीं पिऊंगा, तू पिएगा। मैं कितना ही कहूं कि स्त्रियों के पीछे मत दौड़ना, मत भागना, लेकिन यह नहीं हो सकता। मैं खुद ही भागता रहा हूं। लेकिन एक बात खयाल रखना, एक स्त्री के पीछे एक ही समय में भागना, दो स्त्रियों के पीछे एक साथ मत भागना। इतनी तू मेरी सलाह मानना। वन एट ए टाइम, एक स्त्री के पीछे एक ही समय में भागना। एक ही समय में दो स्त्रियों के पीछे मत भागना। लड़के ने पूछा-क्या यह सम्भव हो सकता है, एक ही समय में दो स्त्रियों के पीछे भागना? नसरुद्दीन ने कहा-सम्भव हो सकता है, मैं अनुभव से कहता हूं। लेकिन नरक निर्मित हो जाता है। ऐसे तो एक ही स्त्री नरक निर्मित करने में समर्थ है। इसको उल्टा करके पुरुष भी कहा जा सकता है, स्त्री को सलाह दी जा रही है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन दो, फिर तो नरक सुनिश्चित है। लेकिन उसके बेटे ने कहा-आप कहते हैं तो मेरा मन होता है कि दो के पीछे दौड़कर देख लूं। नसरुद्दीन ने कहा-यह भी मैं जानता हूं, यह भी तू सुनेगा नहीं क्योंकि मैंने भी नहीं सुना था। अच्छा है, दौड़। उसका बेटा पूछने लगा-आप अभी मना करते थे, अब कहते हैं दौड़! तो नसरुद्दीन ने कहा-दो स्त्रियों के पीछे एक ही समय में दौड़ने से जितनी आसानी से स्त्रियों से मुक्ति मिल जाती है, उतनी एक-एक के पीछे अलग-अलग दौड़ने से नहीं मिलती। ___ चित्त में भी अगर दो वृत्तियों के पीछे एक साथ आप दौड़ पैदा कर दें तो आप चित्त की वृत्ति से जितनी आसानी से मुक्त हो जाते हैं उतनी एक वृत्ति के साथ नहीं हो पाते। एक वृत्ति पूरा ही घेर लेती है। दो वृत्तियां कम्पीटीटिव हो जाती हैं आपस में। आप पर उनका जोर कम हो जाता है क्योंकि उनका आपस का संघर्ष गहन हो जाता है। क्रोध कहता है कि मैं पूरे पर हावी हो जाऊं, शान्ति कहती है-मैं पूरे पर हावी हो जाऊं, और आपने दोनों एक साथ पैदा कर दिए। वे दोनों आप पर हावी होने की कोशिश छोड़कर एक दूसरे से संघर्ष में रत हो जाते हैं। और जब क्रोध और शांति आपस में लड़ रहे हों, तब आपको दूर खड़े होकर देखना बहुत आसान हो जाता है। ___ संलीनता का दूसरा अभ्यास है, विपरीत वृत्ति को शरीर पर पैदा करना। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अभिनेता इसे रोज कर रहा है। जिस स्त्री से उसे प्रेम नहीं है, उसको भी वह प्रेम प्रगट कर रहा है। नसरुद्दीन देखने गया है एक दिन नाटक। उसकी पत्नी उसके पास है। नसरुद्दीन बहुत प्रभावित हुआ। पत्नी भी बहुत प्रभावित हुई है। वह जो नायक है उस नाटक में वह इतना प्रेम प्रकट कर रहा है अपनी प्रेयसी के लिए कि पत्नी ने नसरुद्दीन से कहा कि नसरुद्दीन, इतना प्रेम तुम मेरे प्रति कभी प्रगट नहीं करते। नसरुद्दीन ने कहा कि मैं भी हैरान हूं। और हैरान इसलिए हूं कि वह जो जिसके प्रति प्रेम प्रगट कर रहा है, वस्तुतः उसकी पत्नी है बीस साल से। इतना प्रेम प्रगट किसी और के लिए कर रहा होता तो भी ठीक था। वह उसकी पत्नी है बीस साल से। इसलिये चकित तो मैं भी हूं। ही इज ए रियल एक्टर, वास्तविक, प्रामाणिक अभिनेता है क्योंकि पत्नी के प्रति, बीस साल से जो उसकी पत्नी है, उसके प्रति वह इतना प्रेम प्रगट कर रहा है! गजब का एक्टर है। 235 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 हमारा चित्त...लेकिन अभ्यास से सम्भव है। शरीर कुछ और प्रगट करने लगता है, मन कुछ और। तब दो धाराएं टूट जाती हैं। और ध्यान रहे राजनीति का ही नियम नहीं है, डिवाइड एंड रूल, साधना का भी नियम है। विभाजित करो और मालिक हो जाओ। अगर आप शरीर और मन को विभाजित कर सकते हैं तो आप मालिक हो सकते हैं आसानी से। क्योंकि तब संघर्ष शरीर और मन के बीच खड़ा हो जाता है और आप अछूते अलग खड़े हो जाते हैं। इसलिए संलीनता का दूसरा अभ्यास है, मन में कुछ, शरीर में कुछ...'को आईने के सामने खड़े होकर अभ्यास करें। आईने के सामने इसलिए कह रहा हूं कि आपको आसानी पड़ेगी। एक दफा आसानी हो जाए, फिर तो बिना आईने के भी आप अनुभव कर सकते हैं। जब आपको क्रोध आए-फिर धीरे-धीरे आईने को छोड़ दें-जब आपको क्रोध आए तब उसको अवसर बनाएं. मेक इट एन अपरचुनिटी। और जब क्रोध आए तब आनंद को प्रगट करें। और जब घणा आए तब प्रेम को प्रगट करें। और जब किसी का सिर तोड़ देने का मन हो, तब उसके गले में फूलमाला डाल दें। और देखें अपने भीतर, ये दो धाराएं विभाजित-मन को और शरीर को दो हिस्सों में जाने दें, और आप अचानक ट्रांसेंडेंस में, अतिक्रमण में प्रवेश कर जाएंगे, आप पार हो जाएंगे। न आप क्रोध रह जाएंगे, न आप क्षमा रह जाएंगे। न आप प्रेम रह जाएंगे, न आप घृणा रह जाएंगे। और जैसे ही कोई दोनों के पार होता है, संलीन हो जाता है। अब इस संलीन का अर्थ समझ लें-एक शब्द हम सुनते हैं, तल्लीन। यह संलीन शब्द बहुत कम प्रयोग में आता है। तल्लीनता हमने सुना है, संलीनता बहुत कम। और अगर भाषा कोश में जाएंगे तो एक ही अर्थ पाएंगे। नहीं एक ही अर्थ नहीं है। महावीर ने तल्लीनता का उपयोग नहीं किया है। तल्लीनता सदा दूसरे में लीन होना है और संलीनता अपने में लीन का अर्थ है जो किसी और में लीन है-चाहे भक्त भगवान में हो, वह तल्लीन है, संलीन नहीं। जैसा मीरा कृष्ण में-वह तल्लीन है। वह इतनी मिट गयी है कि शून्य हो गयी है, कृष्ण ही रह गए। पर कोई और, कोई दूसरा बिंदु, उस पर स्वयं को सब भांति समर्पित कर दें। वह एक मार्ग है, उस मार्ग की अपनी विधियां हैं। महावीर का वह मार्ग नहीं है। उस मार्ग से भी पहुंचा जाता है। उससे पहंचने का रास्ता अलग है। महावीर का वह रास्ता नहीं है। महावीर कहते हैं-तल्लीन तो बिलकुल मत होना, किसी में तल्लीन मत होना, इसलिए महावीर परमात्मा को भी हटा देते हैं, नहीं तो तल्लीन होने की सुविधा बनी रहेगी। महावीर कहते हैं-संलीन हो जाना, अपने में लीन हो जाना। अपने में इतना लीन हो जाना कि दूसरा बचे ही नहीं। तल्लीन का सूत्र है - दूसरे में इतना लीन हो जाना कि स्वयं बचो ही न / संलीन होने का सूत्र है-इतने अपने में लीन हो जाना कि दूसरा बचे ही न। दोनों से ही एक की उपलब्धि होती है। एक ही बच रहता है। तल्लीन वाला कहेगा-परमात्मा बच रहता है; संलीन वाला कहेगा-आत्मा बच रहती है। वह सिर्फ शब्दों के भेद हैं और विवाद सिर्फ शाब्दिक और व्यर्थ और पंडितों का है। जिन्हें अनुभूति है वे कहेंगे वह एक ही बच रहता है। लेकिन संलीन वाला उसे परमात्मा नाम नहीं दे सकता, क्योंकि दूसरे का उपाय नहीं है। तल्लीनता वाला उसे आत्मा नहीं कह सकता, क्योंकि स्वयं के बचने का कोई उपाय नहीं। लेकिन जो बच रहता है, उसे कोई नाम देना पड़ेगा, अन्यथा अभिव्यक्ति असम्भव है। इसलिए संलीन वाला कहता है-आत्मा बच रहती हैं; तल्लीन वाला कहता है-परमात्मा बच रहता है। जो बच रहता है, वह एक ही है। यह नामों का फर्क है और विधियों के कारण नामों का फर्क है। यह पहुंचने के मार्ग की वजह से नाम का फर्क है। संलीन का अर्थ है-अपने में लीन हो जाना। कोई अपने में है परा. जरा भी बाहर नहीं जाता है। कहीं कोई गति नहीं रही। क्योंकि गति तो दूसरे तक जाने के लिए होती है। अगति हो जाएगी। अपने तक आने के लिए किसी गति की कोई जरूरत नहीं है। 236 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार वहां तो हम हैं ही। क्रिया नहीं रही, अक्रिया हो गयी क्योंकि क्रिया तो किसी और के साथ कुछ करना हो तो करनी होती है। अपने ही साथ करने के लिए कोई क्रिया नहीं रह जाती। अक्रिया हो जाएगी, अगति हो जाएगी, अचलता आ जाएगी। और जब भीतर यह घटना घटती है तो शरीर पर भी यह भाव फैल जाता है, मन पर भी यह भाव फैल जाता है। यह अतिक्रमण जब होता है, मन और शरीर के पार जब स्वयं की प्रतीति होती है तो सब ठहर जाता है। सब ठहर जाता है-मन ठहर जाता है, शरीर ठहर जाता है। यह महावीर की प्रतिमा संलीनता की प्रतिमा है, सब ठहरा हुआ है। कुछ गति नहीं मालूम पड़ती। ___ अगर महावीर के हाथ को देखें तो ऐसा लगता है कि बिलकुल ठहरा हुआ है। इसलिए महावीर के हाथ में मसल्स नहीं बनाए गए किसी प्रतिमा में, क्योंकि मसल्स तो गति के प्रतीक होते हैं, क्रिया के प्रतीक होते हैं। तो महावीर की बाहें ऐसी हैं जैसे ण हैं। आपने खयाल नहीं किया होगा। किसी जैन तीर्थंकर की बाहों पर कोई मसल्स नहीं हैं। मसल्स तो क्रिया के सूचक हो जाते हैं। शरीर को जिस ढंग से बिठाया है, वह ऐसा है जैसे कि फूल अपने में बंद हो जाए, सब पंखुड़ियां बंद हो गयीं। फूल की सुगंध अब बाहर नहीं जाती, अपने भीतर रमती है। इसलिए महावीर का बहुत प्यारा शब्द है-आत्म-रमण-अपने में ही रमना। कहीं नहीं जाना, कहीं नहीं जाना। सब पंखड़ियां बंद हैं। तो अगर महावीर के चित्र को देखें, एक ल की तरह खयाल करें तो फौरन महावीर की प्रतिमा में दिखाई पड़ेगा कि सब पंखुड़ियां बंद हो गयी हैं। महावीर अपने भीतर, जैसे फूल के भीतर कोई भंवरा बंद हो गया हो। ऐसी महावीर की सारी चेतना संलीन हो गयी है अपने में। सब सुगंध भीतर। अब कहीं कोई बाहर नहीं जा रहा है। कुछ बाहर नहीं जा रहा है। बाहर और भीतर के बीच सब लेन-देन बंद हो गया है। कोई हस्तांतरण नहीं होता है। न कुछ बाहर से भीतर आता है, न कुछ भीतर से बाहर जाता है। जब शरीर इतनी थिरता में आ जाता है, मन इतनी थिरता में आ जाता है तो श्वास भी बाहर-भीतर नहीं होती, ठहर जाती है...! इस क्षण को महावीर कहते हैं-समाधि उत्पन्न होती है, इस संलीन क्षण में अंतर्यात्रा शुरू होती है। लेकिन संलीनता का अभ्यास करना पड़ेगा। हमारा अभ्यास है बाहर जाने का। भीतर जाने का हमारा कोई अभ्यास नहीं है। हम बाहर जाने में इतने ज्यादा कुशल हैं कि हमें पता ही नहीं चलता और हम बाहर चले जाते हैं। कुशलता का मतलब ही यही होता है कि पता न चले और काम हो जाए। हम इतने कुशल हैं बाहर जाने में। अब एक ड्राइवर है। अगर वह कुशल है तो वह गपशप करता रहेगा और गाड़ी चलाता रहेगा। कुशलता का मतलब ही यही है कि गाड़ी चलाने पर ध्यान भी न देना पड़े। अगर ध्यान देना पड़े तो वह अकुशल है। रेडियो सुनता रहेगा, गाड़ी चलाता रहेगा। मन में हजार बातें सोचता रहेगा, गाड़ी चलाता रहेगा। गाड़ी चलाना सचेतन क्रिया नहीं है। __कालिन विल्सन ने—एक पश्चिम के बहुत योग्य और विचारशील व्यक्ति ने कहा है कि हम उन्हीं चीजों में कुशल होते हैं...और जब कुशल हो जाते हैं तब...हमारे भीतर एक रोबोट, हमारे भीतर एक यंत्र-मानव है-सबके भीतर है। कुशलता का अर्थ है कि हमारी चेतना ने वह काम यंत्र-मानव को दे दिया, हमारे भीतर वह जो रोबोट है, वह करने लगता है; फिर हमें जरूरत नहीं रहती। तो ड्राइवर जब ठीक कुशल हो जाता है तो उसे कार चलानी नहीं पड़ती, उसके भीतर जो रोबोट, जो यंत्र-मानव है वह कार चलाने लगता है। वह तो कभी-कभी बीच में आता है, जब कोई खतरा आ जाता है और रोबोट कुछ नहीं कर पाता है। एक्सीडेंट का वक्त आया तो वह एकदम मौजूद हो जाता है। रोबोट से काम अपने हाथ में ले लेता है। वह जो भीतर यंत्रवत हमारा मन है उससे काम झटके से हाथ में लेना पड़ता है। जब एक्सीडेंट का मौका आ जाए, कोई गड्ढे में गिरने का वक्त आ जाए, अन्यथा वह रोबोट चलाए रखता है। मनोवैज्ञानिकों ने हजारों परीक्षण से तय किया है कि सभी ड्राइवर रात को अगर बहुत देर तक जागकर गाड़ी चलाते रहे हों, 237 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 तो नींद भी ले लेते हैं क्षण दो क्षण को, और गाड़ी चलाते रहते हैं। नींद भी ले लेते हैं। इसलिए रात को जो एक्सीडेंट होते हैं, कोई दो बजे और चार बजे के बीच होते हैं। ड्राइवर को पता भी नहीं चलता कि उसने झपकी ले ली। एक सेकेंड को वह डूब जाता है लेकिन उतनी देर को रोबोट काम को सम्भालता है। वह जो यंत्रवत हमारा चित्त है, वह काम को सम्भालता है। जितनी रोबोट के भीतर प्रवेश कर जाए कोई चीज, उतनी कुशल हो जाती है। और हम जन्मों-जन्मों से बाहर जाने के आदी हैं। वह हमारे यंत्र में समाविष्ट हो गयी है। बाहर जाना हमें ऐसा ही है जैसे पानी का नीचे बहना। उसके लिए हमें कुछ करना नहीं पड़ता। भीतर आना बड़ी यात्रा मालूम पड़ेगी। क्योंकि हमारे यंत्र मानव को कोई पता ही नहीं है कि भीतर कैसे आना है। हम इतने कुशल हैं बाहर जाने में कि हम बाहर ही खड़े हैं। हम भूल ही गए हैं कि भीतर आने की भी कोई बात हो सकती है। रोबोट की पर्ते हैं, इस यंत्र मानव की पर्ते हैं। ___ आबरी मैनन ने...एक भारतीय बाप और आंग्ल मां का बेटा है, आबरी नन। उसका पिता सारी जिंदगी इंग्लैंड में रहा। कोई बीस वर्ष की उम्र का था तब इंग्लैंड चला गया। वहीं शादी की, वहीं बच्चा पैदा हुआ। लेकिन आबरी मैनन ने लिखा है कि मेरी मां सदा मेरे पिता की एक आदत से परेशान रही-वह दिनभर अंग्रेजी बोलता था, लेकिन रात सपने में मलयालम-वह रात सपने में अपनी मातृभाषा ही बोलता था। साठ साल का हो गया है, तब भी। चालीस साल निरंतर होश में अंग्रेजी बोलने पर भी, रात सपना तो वह अपनी मातृभाषा में ही देखता था, जैसे कि स्वभावतः स्त्रियां परेशान होती हैं। क्योंकि वह पति सपने में भी क्या सोचता है, इसका भी पता लगाना चाहती हैं। तो आबरी मैनन ने लिखा है कि मेरी मां सदा चिंतित थी कि पता नहीं यह क्या सपने में बोलता है। कहीं किसी दूसरी स्त्री का नाम तो नहीं लेता मलयालम में? कहीं किसी दूसरी स्त्री में उत्सुकता तो नहीं दिखलाता? लेकिन इसका कोई उपाय नहीं था। सच यह है कि बचपन में जो भाषा हम सीख लेते हैं, फिर दूसरी भाषा उतनी गहरी रोबोट में कभी नहीं पहुंच पाती-कभी नहीं पहंच पाती। क्योंकि उसकी पहली पर्त बन जाती है। दूसरी भाषा अब कितनी ही गहरी जाए, उसकी पर्त दूसरी ही होगी, पहली नहीं हो सकती। उसका कोई उपाय नहीं है। इसलिए मनसविद कहते हैं कि हम सात साल में जो सीख लेते हैं, वह हमारी जिंदगीभर कोई पचहत्तर प्रतिशत हमारा पीछा करता है। उससे फिर छुटकारा नहीं है। वह हमारी पहली पर्त बन जाता है। इसलिए अगर सत्तर साल का बूढ़ा भी क्रोध में आ जाए तो वह सात साल के बच्चे जैसा व्यवहार करने लगता है क्योंकि रोबोट रिग्रेस कर जाता है। इसलिए क्रोध में आप बचकाना व्यवहार करते हैं। प्रेम में भी करते हैं, वह भी ध्यान रखना। जब कोई आदमी एक दूसरे के प्रति प्रेम से भर जाते हैं तो बहुत बचकाना व्यवहार करते हैं। उनकी बातचीत भी बचकानी हो जाती है। एक दूसरे के नाम भी बचकाने रखते हैं। प्रेमी एक दूसरे के नाम बचकाने रखते हैं। रिग्रेस हो गया। क्योंकि प्रेम का जो पहला अनुभव है वह सात साल में सीख लिया गया। अब उसकी पुनरुक्ति होगी। यह जो मैं कह रहा हूं कि हमारा बाहर जाने का व्यवहार इतना प्राचीन है-जन्मों-जन्मों का है कि हमें पता ही नहीं चलता कि हम बाहर जा रहे हैं, और हम बाहर चले जाते हैं। आप अकेले बैठे हैं, फौरन अखबार खींचकर उठा लेते हैं। आपको पता नहीं चलता, आपका रोबोट आपका यंत्र मानव कह रहा है-खाली कैसे बैठ सकते हैं, अखबार खींचो। उस अखबार को आप सात दफा पढ़ चुके हैं, सुबह से, फिर आठवीं दफे पढ़ रहे हैं, इसका बिना खयाल किए अब आप क्या पढ़ रहे हैं! वह रोबोट भीतर नहीं ले जाता, वह तत्काल बाहर ले जाता है। रेडियो खोलो, बातचीत करो, से संबंधित होना पता ही नहीं। तो इसका जरा ध्यान रखना पड़े, क्योंकि अति ध्यान रखें तो ही इसके बाहर हो सकेंगे। 238 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार और रोबोट ट्रेनिंग से चलता है, उसका प्रशिक्षण है। आपको पता नहीं कि आप अपने रोबोट से कितना काम ले सकते हैं। आपने अगर जैन मुनियों को अवधान करते देखा है तो आप समझते होंगे, यह बहुत बड़ी प्रतिभा की बात है सिर्फ रोबोट की ट्रेनिंग है। आप कर सकते हैं-छोटी-सी ट्रेनिंग। रोबोट से आप कितने ही काम ले सकते हैं, सिर्फ एक दफा उसे सिखा दें। हम केवल एक ट्रैक पर काम करते हैं। आप टेप रेकार्डर को जानते हैं। टेप रेकार्डर एक ट्रैक का भी हो सकता है, दो ट्रैक का भी हो सकता है, चार ट्रैक का भी हो सकता है। आपके पास चार ट्रैक का टेप रेकार्डर हो जो एक ही पट्टी पर चार ट्रैक पर रिकार्ड करता है, और आपको पता न हो, आप एक पर ही करते रहें, तो आप जिंदगीभर एक पर ही करते रहेंगे, बाकी तीन ट्रैक खाली पड़े रहेंगे। आपके मन के रोबोट के हजारों ट्रैक हैं। आप एक ही साथ हजारों ट्रैक पर काम कर सकते हैं। इसका थोड़ा प्रयोग आपको मैं खयाल दिला हूँ, तो आपको बहुत आसानी हो जाएगी। ___ थोड़े दिन एक छोटा-सा अभ्यास करके देखें। घड़ी रख लें अपने हाथ की खोल के सामने। उसका जो सेकेंड का कांटा है, उस पर ध्यान रखें। बाकी पूरी घड़ी को भूल जाएं, सिर्फ सेकेंड के कांटे को घूमते हुए देखें। वह एक मिनट में, या साठ सेकेंड में एक चक्कर पूरा करेगा। एक मिनट का अभ्यास करें, कोई तीन सप्ताह में अभ्यास आपका हो जाएगा कि आपको घड़ी के और कांटे खयाल में नहीं आएंगे, और आंकड़े खयाल में नहीं आएंगे, अंक खयाल में नहीं आएंगे। डायल धीरे-धीरे भूल जाएगा, सिर्फ वह सेकेंड का भागता हुआ कांटा आपको याद रह जाएगा। जिस दिन आपको ऐसा अनुभव हो कि अब मैं एक मिनट सेकेंड के कांटे पर ध्यान रख सकता हूं, आपने बड़ी कुशलता पायी जिसकी आपको कल्पना भी नहीं हो सकती। अब आप दूसरा प्रयोग शुरू करें। ध्यान सेकेंड के कांटे पर रखें और भीतर एक से लेकर साठ तक की गिनती बोलें-ध्यान कांटे पर रखें, और भीतर एक, दो, तीन, चार से साठ तक गिनती बोलें, साठ या जितना हो सके, एक मिनट में-सौ हो सके तो सौ। तीन सप्ताह में आप कुशल हो जाएंगे, दोनों काम एक साथ डबल ट्रैक पर शुरू हो जाएगा। ध्यान कांटे पर भी रहेगा और ध्यान संख्या पर भी रहेगा। अब आप तीसरा काम शुरू करें। ध्यान कांटे पर रखें, भीतर एक सौ तक गिनती बोलते रहें और कोई गीत की कड़ी गुनगुनाने लगे, भीतर / तीन सप्ताह में आप पाएंगे, तीन ट्रैक पर काम शुरू हो गया। ध्यान कांटे पर भी रहेगा, ध्यान आंकड़ों पर भी रहेगा, संख्या पर भी रहेगा, गीत की कड़ी पर भी रहेगा। अब आप जितने चाहें उतने ट्रैक पर धीरे-धीरे अभ्यास कर सकते हैं। आप सौ ट्रैक पर एक साथ अभ्यास कर सकते हैं। और सौ काम एक साथ चलते रहेंगे-पर्त-पर्त / यही अवधान है। इसका अभ्यास कर लेने पर आप मदारीगिरी कर सकते हैं। जैन साधु करते हैं, वह सिर्फ मदारीगिरी है। उसका कोई मूल्य नहीं है। लेकिन रोबोट को एक दफा आप सिखा दें तो रोबोट करने लगता है। और एक खतरा यह है कि रोबोट जब करने लगता है तो सिखाना जितना आसान है, उतना आसान भुलाना नहीं है। सिखाना बहुत आसान है, ध्यान रखना। स्मरण बहुत आसान है, विस्मरण बहुत कठिन है। लेकिन असम्भव नहीं है। वाश आउट किया जा सकता है, जैसा टेप पर किया जा सकता है। मिटाया जा सकता है। पर मिटाना बहत कठिन है। और उससे भी ज्यादा कठिन विपरीत का अभ्यास है। हमारे यंत्र-चित्त का अभ्यास है बाहर जाने के लिए। तो पहले तो यह बाहर जाने का अभ्यास मिटाना पड़ता है, और फिर भीतर जाने का अभ्यास पैदा करना पड़ता है। ___ तो इसके लिए और यह संलीनता में जाने के लिए आवश्यक होगा कि जब भी आपका यंत्र-मानव आपसे कहे-बाहर जाओ, आप अगर ध्यान रखेंगे तो आपको पता चलने लगेगा। कार में आप बैठे हैं. बिलकल सो ये हुए आदमी की तरह, अखबार उठा लेते 239 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 हैं और पढ़ना शुरू कर देते हैं। आपको खयाल नहीं, आपका यंत्र-मानव कहता है-कैसे अपने में संलीन बैठे हो? अखबार पढ़ो ! यह हाथ बिलकुल नींद में जाता है, अखबार उठाता है, ये आंखें नींद में पढ़ना शुरू कर देती हैं। यह मन नींद में ग्रहण करना शुरू कर देता है। कचरा आप डाल रहे हैं। न डालते तो कुछ हर्ज न था, फायदा हो सकता था। क्योंकि कचरे के डालने में भी शक्ति व्यय होगी। कचरे को सम्भालने में भी शक्ति व्यय होगी। कचरे को भरने में भी मन का रिक्त स्थान भरेगा और व्यर्थ भर जाएगा। यह वैसे ही है जैसे कोई आदमी सड़क पर कचरा उठाकर घर में ला रहा हो। वह कहे-कुछ तो करेंगे, बिना किए कैसे रह सकते हैं। पर घर में लाए गए कचरे को बाहर फेंक देने में बहुत कठिनाई नहीं है, मन में लाए गए कचरे को फिर बाहर फेंकने में बहुत कठिनाई है। इसलिए पहला ध्यान... तो पहला पहरा यही रखना पड़ेगा कि मन जब बाहर जाए तो आप सचेत हो जाएं, और होशपूर्वक बाहर जाएं। अगर अखबार पढना है तो जानकर कि मेरा यंत्र अखबार पढना चाहता है। मैं अखबार पढता हं. अब मैं अखबार पढंगा। अखबार पढ़ें होशपूर्वक। तब आप पाएंगे कि अखबार पढ़ने में कोई रस नहीं आ रहा है, क्योंकि रस सिर्फ बेहोशी में आ सकता है। यह बहुत मजा है कि व्यर्थ की चीज में रस सिर्फ बेहोशी में आता है, होश में नहीं आता। आप किसी भी व्यर्थ की चीज में होशपूर्वक रस नहीं ले सकते हैं। बेहोशी में ले सकते हैं। इसलिए जिन लोगों को रस लेने का पागलपन सवार हो जाता है वे नशा करने लगते हैं क्योंकि नशे में रस ज्यादा लिया जा सकता है। नहीं तो रस नहीं लिया जा सकता। होशपूर्वक, यंत्र-मानव को बाहर जाने की जो चेष्टा है उसे होशपूर्वक देखते रहें और होशपूर्वक ही काम करें। अगर यंत्र-मानव कहता है कि क्या अकेले बैठे हैं, चलें मित्र के घर; तो उससे कहें कि ठीक है, चलते हैं—होशपूर्वक चलते हैं। तेरी मांग है, हम देखते-देखते हुए चलते हैं। सम्भावना यह है कि आप बीच रास्ते से घर वापस लौट आएं। क्योंकि कहें कि क्या-क्योंकि बड़ा मजा यह है उस मित्र के पास रोज बैठकर बोर होते हैं और कुछ नहीं होता है। वह वही बातें फिर से कहता है कि मौसम कैसा है, कि स्वास्थ्य कैसा है! दो तीन मिनट में बातें चुक जाती हैं। फिर वह वे ही कहानियां सुनाता है जो बहुत बार सुना चुका। फिर वह वे ही घटनाएं बताता है जो बहुत बार बता चुका है, और आप सिर्फ बोर होते हैं। रोज यही खयाल लेकर लौटते हैं कि इस आदमी ने बुरी तरह उबा दिया। लेकिन कल रोबोट कहता है कि मित्र के घर चलो और आपको खयाल नहीं आता कि आप फिर बोर होने चले। अपनी बोर्डम खुद ही खोजते हैं। अगर आप होशपूर्वक जाएंगे तो रास्ते में आपको स्मरण आ जाएगा कि आप कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं, क्या मिलेगा? पैर शिथिल पड़ जाएंगे। सम्भावना यह है कि आप वापस लौट आएं। इस तरह आपके यंत्र-चित्त की बाहर जाने की प्रत्येक क्रिया पर जागरूक पहरा रखें। एक-एक क्रिया छूटने लगेगी। फिर जो बहुत नेसेसरी हैं, जीवन के लिए अनिवार्य हैं, उतनी ही क्रियाएं रह जाएंगी। गैर अनिवार्य क्रियाएं छूट जाएंगी और तब आप पाएंगे कि शरीर संलीन होने लगा। आप बैठेंगे ऐसे जैसे अपने में ठहरे हुए हैं। जैसे कोई झील शांत है, जिसमें लहर भी नहीं उठती। एक रिपेल भी नहीं जैसे आकाश खाली, एक बदली भी नहीं भटकती। जैसे कभी देखा हो तो आकाश में किसी चील को पंखों को रोककर उड़ते हुए–संलीन। पंख भी नहीं हिलता। चील सिर्फ अपने में ठहरी है, तिरती है, तैरती भी नहीं, तिरती है। जैसे देखा हो किसी बत्तख को कभी किसी झील में, पंख भी न मारते हुए-ठहरे हुए। ऐसा सब आपके शरीर में भी ठहर जाएगा, मन में भी। क्योंकि जैसे शरीर बाहर जाता है ऐसे ही मन भी बाहर जाता है। अगर शरीर बाहर नहीं जा सकता तो मन और ज्यादा बाहर जाता है। क्योंकि पूर्ति करनी पड़ती है। अगर आप मित्र से नहीं मिल सकते तो फिर आंख बंद करके मित्र से मिलने लगते हैं, दिवा-स्वप्न देखने लगते हैं कि मित्र मिल गया, बातचीत हो रही है। तो फिर धीरे-धीरे मन की भी बाहर जाने की आंतरिक कोशिशें हैं, उन पर 240 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार भी सजग हो जाएं। और जिस दिन शरीर और मन दोनों के प्रति सजगता होती है, वह जो रोबोट यंत्र है हमारे भीतर, वह बाहर जाने में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे रस खो देता है। तब भीतर जाया जा सकता है। और भीतर जाने में किस चीज में रस लेना पड़ेगा? भीतर जाने में उन चीजों में रस लेना पड़ेगा जिनमें संलीनता स्वाभाविक है। जैसे कि शांति का भाव है तो संलीनता स्वाभाविक है। जैसे सारे जगत के प्रति करुणा का भाव, उसमें संलीनता स्वाभाविक है। क्रोध बाहर ले जाता है, करुणा बाहर नहीं ले जाती। शत्रुता बाहर ले जाती है, मैत्री का भाव बाहर नहीं ले जाता। तो उन भावों में ठहरने से भीतर यात्रा शुरू होती है। पर संलीनता सिर्फ द्वार है। उन सारी बातों का विचार हम अंतर्तपकी छह प्रक्रियाओं में करेंगे। संलीनता छह के लिए द्वार है, पर संलीन हुए बिना उनमें कोई प्रवेश न हो सकेगा। ये सब इंटीग्रेटेड हैं, ये सब संयुक्त हैं। हमारा मन करता है कि इसको छोड़ दें और उसको कर लें। ऐसा नहीं हो सकेगा। ये बारह अंग आर्गनिक हैं। ये एक दूसरे से संयुक्त हैं। इनमें से एक भी छोड़ा तो दूसरा नहीं हो सकेगा। अब महावीर ने इसके पहले जो पांच अंग कहे वे सब अंग शक्ति संरक्षण के हैं, और छठवां अंग संलीनता का है। जब शक्ति बचेगी तभी तो भीतर जा सकेगी ! शक्ति बचेगी ही नहीं तो भीतर क्या जाएगा। हम करीब-करीब रिक्त और दिवालिए, बैंकरप्ट हैं। बाहर ही शक्ति गंवा देते हैं। भीतर जाने के लिए कोई शक्ति बचती ही नहीं। कछ बचता ही नहीं। ___ मुल्ला नसरुद्दीन मरा तो उसने अपनी वसीयत लिखी-उसने वसीयत लिखवायी, बड़ी भीड़-भाड़ इकट्ठी की, सारा गांव इकट्ठा हआ, फिर उसने गांव के पंचायत के प्रमुख से कहा-वसीयत लिखो। थोड़े लोग चकित थे। ऐसा कुछ ज्यादा उसके पास दिखाई नहीं पड़ता था जिसके लिए वह इतना शोरगुल मचाए है। उसने वसीयत लिखवायी तो उसने लिखवाया कि आधा तो मेरे मरने के बाद मेरी सम्पत्ति में से पत्नी को मिल जाए। फिर इतना हिस्सा मेरे लड़के को मिल जाए इतना हिस्सा मेरी लड़की को मिल जाए फिर इतना हिस्सा मेरे मित्र को मिल जाए, इतना हिस्सा मेरे नौकर को मिल जाए। वह सब उसने हिस्से लिखवा दिए। तो पंच प्रमुख बार-बार कहता था कि ठहरो, वह पूछना चाहता था कि है कितना तुम्हारे पास? और आखिर में उसने कहा कि सबको बांट देने के बाद जो बच जाए वह गांव की मस्जिद को दे दिया जाए। तो पंच-प्रमुख ने फिर पूछा कि मैं तुमसे बार-बार पूछ रहा हूं कि तुम्हारे पास है कितना? उसने कहा है तो मेरे पास कुछ भी नहीं, लेकिन नियमानसार वसीयत तो लिखानी चाहिए। नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि बिना वसीयत लिखाए मर गए ! है कुछ भी नहीं। उसमें से भी वह कह रहा है कि सबको बांटने के बाद जो बच जाए वह मस्जिद को दे दिया जाए। हम भी करीब-करीब दिवालिया मरते हैं। जहां तक अंतः संपत्ति का संबंध है, हम सब दिवालिया मरते हैं। नसरुद्दीन जैसे ही मरते हैं, वह व्यंग्य हम पर भी है। __ कुछ नहीं होता पास-कुछ भी नहीं होता। क्योंकि सब हमने व्यर्थ खोया होता है, और व्यर्थ भी ऐसा खोया होता है जैसे कि आपने बाथरूम का नल खुला छोड़ दिया हो और पानी बह रहा हो। इस तरह व्यर्थ होता है। आपके सब व्यक्तित्व के द्वार खुले हुए हैं बाहर की तरफ और शक्ति व्यर्थ खोती चली जाती है। डिस्सीपेट होती है। जो थोड़ी बहुत बचती है, उससे आप सिर्फ बेचैन होते हैं और उससे भी कुछ नहीं करते हैं, उसको बेचैनी में नष्ट करते हैं, परेशानी में नष्ट करते हैं। __तो महावीर ने पहले जो अंग कहे वे शक्ति संरक्षण के हैं। यह जो छठवां अंग कहा, यह संरक्षित शक्ति का अंतर-प्रवाह है। जैसे कोई नदी अपने मूल-उदगम की तरफ वापस लौटने लगे। मूल-स्रोत की तरफ शक्ति का आगमन शुरू हो। बाहर की तरफ 241 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 नहीं, कुछ पाने के लिए नहीं, वहां हम चलें जहां हम हैं। जहां से हम आए हैं वहां हम चलें। जहां से हमारे यह जीवन का फैलाव हुआ है, वहां हम चलें। टु बी रूट, जड़ों की तरफ चलें। उस जगह पहुंच जाएं जो हमारा अंतिम हिस्सा है। जिसके पीछे हम नहीं हैं-आखिरी और पीछे। क्योंकि वही हमारा राज है, रहस्य है, वही हम हैं। और उससे हम कितने ही बाहर जाएं, हम चांद-तारों तक पहुंच जाएं, तो भी उसे हम न पा सकेंगे। उसके लिए तो हमें भीतर ही जाना पड़ेगा। उसके लिए तो हमें संलीन ही होना पड़ेगा। शक्ति बचे, शक्ति भीतर लौटे—पर इस शक्ति को भीतर लौटने के लिए आपको तीन प्रयोग करने पडें-अपनी शरीर की गतिविधियों को देखना पड़े, शरीर की गतिविधियों और मन की गतिविधियों को तोड़ना पड़े, शरीर की गतिविधियों और मन की गतिविधियों के पार होना पड़े। और तब आप अचानक पाएंगे कि आप संलीन होने शुरू हो गए। अपने में डूबने लगे, अपने में डूबने लगे, अपने में उतरने लगे। अपने भीतर, और भीतर, और भीतर, और गहरे में जाने लगे। __ इसमें एक ही बात आखिरी आपसे कहूं जो भी अभ्यास करेगा कोई, उसके काम की है। क्योंकि जैसे ही संलीनता शुरू होगी, बड़ा भय पकड़ता है, बहुत भय पकड़ता है। ऐसा लगता है जैसे सफोकेट हो रहे हैं हम, जैसे कोई गर्दन दबा रहा है, या पानी में डूब रहे हैं। संलीन होने का जो भी प्रयोग करेगा वह बहुत भय से भर जाएगा। जैसे ही शक्ति भीतर जानी शुरू होगी, भय पकड़ेगा। क्योंकि यह अनुभव करीब-करीब वैसा ही होगा जैसा मृत्यु का होता है। मृत्यु में भी शक्ति संलीन होती है। और कुछ नहीं होता। शरीर को छोड़ती है, मन को छोड़ती है, भीतर चलती है, उदगम की तरफ, तब आप तड़फड़ाते हैं कि अब मैं मरा। क्योंकि आप अपने को समझते थे वही जो बाहर जा रहा था। आपने कभी उसको तो जाना नहीं जो भीतर जा सकता है। उससे आपका कोई संबंध नहीं, कोई पहचान नहीं। आप तो अपना एक चेहरा जानते थे बहिर्गामी, अंतर्गामी तो आपको कोई अनुभव न था। आप कहते हैं-मरा, क्योंकि वह सब बाहर जो जा रहा था, वह बाहर नहीं जा रहा, भीतर लौट रहा है। शरीर से शक्ति डूब रही है भीतर, बाहर नहीं जा रही है। मन अब बाहर नहीं जा रहा है, भीतर डूब रहा है। अब सब भीतर सिकुड़ रहा है, सब भीतर संकुचित हो रहा है, सब केन्द्र पर लौट रहा है। गंगा अपने को पहचानती थी सागर की तरफ बहती हुई। उसे कभी जाना भी न था कि गंगोत्री की तरफ बहना भी, मैं ही हूं। वह उसे पहचान नहीं है। वह उसका कोई रिकग्निशन नहीं है। तो मृत्यु में जो घबराहट पकड़ती है, वही घबराहट आपको संलीनता में पकड़ेगी-वही घबराहट। मृत्यु का ही अनुभव होगा यह / मर रहे हैं जैसे। मन होगा कि दौड़ो बाहर। कोई भी सहारा पकड़ो और बाहर निकल जाओ। अगर बाहर निकल आते हैं तो संलीन न हो पाएंगे। ___तो जब भय पकड़े, तब भय के भी साक्षी बने रहना, देखते रहना कि ठीक है। मृत्यु से भी यह अनुभव कठिन होगा क्योंकि मृत्यु तो परवशता में होती है। आप कुछ कर नहीं सकते, छूट रहे होते हैं सहारे। इसमें आप कुछ कर सकते हैं। आप जब चाहें, तब बाहर आ सकते हैं। यह तो इंटेंशनल है, यह तो आपका संकल्प है भीतर जाने का। मृत्यु में तो आपका संकल्प नहीं होता। मृत्यु में कोई चुनाव नहीं होता। आप मारे जा रहे होते हैं। आप मर नहीं रहे होते। यह स्वेच्छा से मृत्यु का वरण है। यह अपने ही हाथ से मरकर देखना है। यह एक बार भय को छोड़कर, भय के साक्षी होकर, जो हो रहा है, उसकी स्वीकृति को मानकर अगर आप डूब जाएं तो आप सदा के लिए मृत्यु के भय के पार हो जाएंगे। फिर मृत्यु भी आपको भयभीत नहीं करेगी। एक बार आपको अंतर्मुखी ऊर्जा की यात्रा भी, मैं ही हूं, ऐसा अनुभव हो जाए तो फिर मृत्यु का कोई भय नहीं है। फिर आप जानते हैं----मृत्यु है ही नहीं। फिर मृत्यु है ही नहीं। ___ मृत्यु सिर्फ अंतर्यात्रा के अपरिचय के कारण प्रतीत होती है। बहिर्यात्रा के साथ तादात्म्य, अंतर्यात्रा के साथ कोई संबंध नहीं, इसलिए मृत्यु प्रतीत होती है। यह संबंध संलीनता से निर्मित हो जाता है। कहें, आप स्वेच्छा से मरकर देख लेते हैं और पाते हैं कि 242 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार नहीं मरता। आप स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश कर जाते हैं और पाते हैं, मैं तो हूं। मृत्यु घटित हो जाती है, सब बाह्य छूट जाता है। मृत्यु में छूटेगा वह सब छूट जाता है। सब जगत मिट जाता है, शरीर भूल जाता है, मन भूल जाता है फिर भी चैतन्य का दीया भीतर जलता रहता है। __ संलीनता के इस प्रयोग को कोई ठीक से करे तो शरीर के बाहर एस्ट्रल प्रोजैक्शन या एस्ट्रल ट्रेवलिंग सरलता से हो जाती है। जब आपका शरीर भी मिट गया, मन भी मिट गया, सिर्फ आप ही रह गए, सिर्फ होना ही रह गया तब आप जरा-सा खयाल करें, शरीर के बाहर तो आप शरीर के बाहर हो जाएंगे। शरीर आपको सामने पड़ा हुआ दिखाई पड़ने लगेगा। कभी-कभी अपने आप घट जाता है, वह भी मैं आपसे कह दूं, क्योंकि जो प्रयोग करें उनको अपने आप भी कभी घट जाता है। आपके बिना खयाल, अचानक आप पाते हैं—आप शरीर के बाहर हो गए। तब बड़ी बेचैनी होगी। और लगता है डरकर अब वापस शरीर में लौट सकेंगे कि नहीं लौट सकेंगे। आप अपने पूरे शरीर को पड़ा हुआ देख पाते हैं। पहली दफा आप अपने शरीर को पूरा देख पाते हैं। आईने में तो प्रतिछवि दिखाई पड़ती है, आप पहली दफा अपने पुरे शरीर को देख पाते हैं बाहर। ' और एक बार जिसने बाहर से अपने शरीर को देख लिया, वह शरीर के भीतर होकर भी फिर कभी भीतर नहीं हो पाता है। वह फिर बाहर ही रह जाता है। फिर वह सदा बाहर ही होता है। फिर कोई उपाय ही नहीं है उसके भीतर होने का। भीतर हो जाए तो भी उसका बाहर होना बना रहता है। वह पृथक ही बना रहता है। फिर शरीर पर आए दुख उसके दुख नहीं हैं। फिर शरीर पर घटी हुई घटनाएं उस पर घटी घटनाएं नहीं हैं। फिर शरीर का जन्म उसका जन्म नहीं है, फिर शरीर की मृत्यु उसकी मृत्यु नहीं है। फिर शरीर का पूरा जगत उसका जगत नहीं है और हमारा सारा जगत शरीर का जगत है। इतिहास समाप्त हो गया उसके लिए, जीवन कथा समाप्त हो गई उसके लिए। अब तो एक शून्य में ठहराव है, और समस्त आनंद शन्य में ठहरने का परिणाम है। समस्त मुक्ति शून्य में उतर जाने की मुक्ति है... समस्त मोक्ष / लेकिन हम निरंतर बाहर भाग रहे हैं। यह हमारा बाहर भागना आक्रमण है। महावीर ने शब्द बहुत अच्छा प्रयोग किया है-प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण का अर्थ है-भीतर लौटना; आक्रमण का अर्थ है -बाहर जाना। प्रतिक्रमण का अर्थ है-कमिंग बैक टु द होम, घर वापस लौटना। इसलिए महावीर अहिंसा पर इतना आग्रह करते हैं क्योंकि आक्रमण न घटे चित्त का, तो प्रतिक्रमण नहीं हो पाएगा। संलीनता फलित नहीं होगी। ये सब सूत्र संयुक्त हैं। यह मैं कह रहा हूं इसलिए अलग-अलग कहने पड़ रहे हैं। जीवन में जब यह घटना में उतरने शुरू होते हैं तो ये सब संयुक्त हैं। अनाक्रमण-लेकिन हम सोचते हैं—जब हम किसी की छाती हैं तभी आक्रमण होता है। नहीं, जब हम दूसरे का विचार भी करते हैं तब भी आक्रमण हो जाता है। दूसरे का खयाल भी दूसरे पर आक्रमण है। दूसरे का मेरे चित्त में उपस्थित हो जाना भी आक्रमण है। आक्रमण का मतलब ही यह है कि मैं दूसरे की तरफ बहा। छुरे के साथ गया दूसरे की तरफ, कि आलिंगन के साथ गया दूसरे की तरफ; कि सदभाव से गया कि असदभाव से गया। दूसरे की तरफ जाती हुई चेतना आक्रामक है। मैं दूसरे की तरफ जा रहा हूं, यही आक्रमण है। हम सब जाना चाहते हैं। जाना इसलिए चाहते हैं कि हमारी अपने पर तो कोई मालकियत नहीं है। किसी दूसरे पर मालकियत हो जाए तो थोड़ा मालकियत का सुख मिले। थोड़ा सही, कोई दूसरा मालिक होता है। __मुल्ला नसरुद्दीन गया है एक मनोचिकित्सक के पास और उसने कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं-पत्नी से बहुत भयभीत हूं। डरता हूं, मेरे हाथ पैर कंपते हैं। मुंह में मेरा थूक सूख जाता है जैसे ही मैं उसे देखता हूं। मनोवैज्ञानिक ने कहा-यह कुछ ज्यादा चिंता की बात नहीं है। ज्यादा चिंता की बात तो इससे उल्टी बीमारी है। वह उल्टी बीमारी 243 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 1 बीमारी के लोग पत्नी को देखकर ही हमला करने को उत्सुक हो जाते हैं, सिर तोड़ने को उत्सुक हो जाते हैं, घसीटने को उत्सुक हो जाते हैं, मारने को उत्सुक हो जाते हैं, आक्रामक हो जाते हैं। वे ही असली साइकोपैथ हैं, साइकोपैथिक हैं। यह तो कुछ भी नहीं, यह तो ठीक है। इसमें कुछ घबराने की बात नहीं। यह तो अधिक लोगों के लिए यही है। मुल्ला बड़ा उत्सुक हो गया, कुर्सी से आगे झुक आया। उसने कहा कि डाक्टर, ऐनी चांस आफ माई कैचिंग दैट डिसीज़, साइकोपैथी? कोई मौका है कि मुझे वह बीमारी लग जाए? जिसको आप साइकोपैथी कह रहे हैं? मैं भी घर जाऊं और लट्ठ उठाकर सिर खोल दूं उसका? मन तो मेरा भी यही करता है। लेकिन उसके सामने जाकर मेरे सब मंसूबे गड़बड़ हो जाते हैं। और दिन की तो बात दूर, वर्षों से मैं एक दुःस्वप्न, एक नाइट मेयर देख रहा हूं। वह मैं आपसे कह देना चाहता हूं। कुछ इलाज है? मनोवैज्ञानिक ने कहा-कौन-सा दुःस्वप्न? तो उसने कहा-मैं रात निरंतर अपनी पत्नी को देखता हूं, और उसके पीछे खड़े एक बड़े राक्षस को देखता हूं। मनोवैज्ञानिक उत्सुक हुआ। उसने कहा-इंटरेस्टिंग। और जरा विस्तार से कहो। तो नसरुद्दीन ने कहा कि लाल आंखें, जिनसे लपटें निकल रही हैं, तीर बड़े-बड़े, लगता है कि छाती में भोंक दिए जाएंगे। हाथों में नाखून ऐसे हैं जैसे खंजर हों। बड़ी घबराहट पैदा होती है। मनोवैज्ञानिक ने कहा-घबराने वाला है, भयंकर है। नसरुद्दीन ने कहा-दिस इज नथिंग, वेट, टिल आई टैल यू अबाउट दी मान्सटर। जरा रुको, जब तक मैं राक्षस के संबंध में न बताऊं तब तक कुछ मत कहो। यह तो मेरी पत्नी है। उसके पीछे जो राक्षस खड़ा रहता है, अभी उसका तो मैंने वर्णन ही नहीं किया। उसने उसका भी वर्णन किया। उसके भयंकर दांत, लगता है कि चपेट डालेंगे, पीस डालेंगे। उसका विशालकाय शरीर, उसके सामने बिलकुल कीड़ा-मकोड़ा हो जाता हूं। और उसकी घिनौनी बात और उसके शरीर से झरती हुई घिनौनी चीजें और रस ऐसी घबराहट भर देते हैं कि दिनभर वह मेरा पीछा करता है। मनोवैज्ञानिक ने कहा-बहुत भयंकर, बहुत घबरानेवाला। नसरुद्दीन ने कहा कि वेट, टिल आई टैल यू दैट दि मान्सटर इज नो वन एल्स दैन मी। जरा रुको, वह राक्षस और कोई नहीं, और घबरानेवाली बात यह है कि जब मैं गौर से देखता हूं तो पाता हूं, मैं ही हूं। और यह दुःस्वप्न वर्षों से चल रहा है। जब तक चित्त आक्रामक है, तब तक दूसरे में भी राक्षस दिखाई पड़ेगा। और अगर गौर से देखेंगे तो आक्रामक चित्त अपने को भी राक्षस ही पाएगा। और हम सब आक्रामक हैं। हम सब दुःस्वप्न में जीते हैं। हमारी जिंदगी एक नाइट मेयर है, एक लंबी सड़ांध है, एक लंबा रक्तपात से भरा हुआ नाटक, एक लंबा नारकीय दृश्य / मुल्ला मरकर जब स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा तो स्वर्ग के पहरेदार ने पूछा-कहां से आ रहे हो? उसने कहा-मैं पृथ्वी से आ रहा हूं। उस द्वारपाल ने कहा-वैसे तो नियम यही था कि तुम्हें नरक भेजा जाए, लेकिन चूंकि तुम पृथ्वी से आ रहे हो, नरक तुम्हें काफी सुखद मालूम होगा। नरक तुम्हें काफी सुखद मालूम होगा इसलिए कुछ दिन स्वर्ग में रुक जाओ, फिर तुम्हें नरक भेजेंगे ताकि नरक तुम्हें दुखद मालूम हो सके। तो मुल्ला को कुछ दिनों के लिए स्वर्ग में रोक लिया गया। क्योंकि सब सुख-दुख रिलेटिव हैं। मुल्ला ने बहुत कहा कि मुझे सीधे जाने दो। उस द्वारपाल ने कहा-यह नहीं हो सकता, क्योंकि नर्क तो अभी तुम्हें स्वर्ग मालूम होगा। तुम पृथ्वी से आ रहे हो सीधे। अभी कुछ दिन स्वर्ग में रह लो। जरा सुख अनुभव हो जाए, फिर तुम्हें नरक में डालेंगे। तब तुम्हें सताया जा सकेगा। 244 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश-द्वार हम जिसे जिंदगी कह रहे हैं वह एक लंबी नरक यात्रा है। और वह नरक यात्रा का कारण कुल इतना है कि हमारा चित्त आक्रामक है। पर-केंद्रित चित्त आक्रामक होता है, स्व-केंद्रित चित्त अनाक्रमक हो जाता है, प्रतिक्रमण को उपलब्ध हो जाता है। यह प्रतिक्रमण की यात्रा ही संलीनता में डुबा देती है। आज बाह्य-तप पूरे हुए, कल से हम अंतर-तप को समझने की कोशिश करेंगे। रुकें पांच मिनट...! 245