Book Title: Maha pundit Todarmal
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगाव विद्वता और प्रतिभा से प्रभावित होकर संपूर्ण भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में संचालित तत्वगोष्ठियों और आध्यात्मिक मण्डलियों में चचित गूढ़तम शंकायें समाधानार्थ जयपुर भेजी जाती थीं और जयपुर से पंडितजी द्वारा समाधान पाकर तत्व-जिज्ञासु समाज अपने को कृतार्थ मानता था । साधर्मी भाई ब्र. रायमल ने अपनी "जीवन-पत्रिका" में तत्कालीन जयपुर की धार्मिक स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है महापंडित तोवरमल डा० हुकमचन्द भारिल्ल डा. गौतम के शब्दों में"जैन हिन्दी गद्यकारों में "तहाँ निरन्तर हजारों पुरुष स्त्री देवलोक की सी टोडरमलजी का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने टीकाओं नांई चैत्याले आय महापुण्य उपारज, दीर्घकाल का और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में दोनों प्रकार से गद्य-निर्माण संच्या पाप ताका क्षय करे। सो पचास भाई पूजा का विराट उद्योग किया है। टोडरमलजी की रचनाओं करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचने वारे के सक्ष्मानुशीलन से पता चलता है कि वे आध्यात्म और पाईए, दस बीस संस्कृत बांचने वारे पाईए, सौ पचास जैन धर्म के ही वेत्ता न थे, अपितु व्याकरण, दर्शन, जनें चरचा करने वारे पाईए और नित्यान का सभा के साहित्य और सिद्धान्त के ज्ञाता थे। भाषा पर भी शास्त्र बांचने का व्याख्यान विर्ष पांच से सात से पुरुष इनका अच्छा अधिकार था।" तीन सै चारि से स्त्रीजन, सब मिली हजार बारा से पुरुष स्त्री शास्त्र का श्रवण करै बीस तीस वायां शास्त्राईसवी की अठारहवीं शती के अन्तिम दिनों में भ्यास कर, देश देश का प्रश्न इहाँ आवै तिनका राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर जैनियों की काशी समाधान होय उहां पहुंचे, इत्यादि अद्भुत महिमा चतुर्थबन रहा था । आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी की कालवत या नग्र विष जिनधर्म की प्रवति पाईए है।" 1 हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसंधान प्रकाशन, आचार्य नगर कानपुर, पृ० 188 । 2. पंडित टोडरमल, व्यक्तित्व और कृतृत्व, परिशिष्ट 1, प्रकाशक : पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4 बापूनगर, जयपुर। २६५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि सरस्वती माँ के वरद पुत्र का जीवन आध्यात्मिक साधनाओं से ओतप्रोत है, तथापि साहित्यिक व सामाजिक क्षेत्र में भी उनका प्रदेय कम नहीं है । आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी उन दार्शनिक साहित्यकारों एवं क्रान्तिकारियों में से हैं जिन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में आई हुई विकृतियों का सार्थक व समर्थ खण्डन ही नहीं किया. वरन् उन्हें जड़ से उखाड़ फेंका। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा ब्रज में दार्शनिक विषयों का विवेचक ऐसा गद्य प्रस्तुत किया जो उनके पूर्व विरल है। पंडितजी का समय ईस्वी का अठारहवीं सदी का मध्यकाल है । वह संक्रान्तिकालीन युग था । उस समय राजनीति में अस्थिरता सम्प्रदायों में तनाव साहित्य में श्रृंगार, धर्म के क्षेत्र में रूढ़िवाद, आर्थिक जीवन में विषमता एवं सामाजिक जीवन में आडंबर, ये सब अपनी चरम सीमा पर थे। उन सब से पडितजी को संघर्ष करना था जो उन्होंने डटकर किया और प्राणों की बाजी लगाकर किया । पंडित टोडरमलजी गम्भीर प्रकृति के आध्यात्मिक महापुरुष थे । वे स्वभाव से सरल, संसार से उदास, धुन के धनी, निराभिमानी, विवेकी अध्ययनशील, प्रतिमावान बाह्याडंबर विरोधी, दृढ श्रद्धावी क्रान्तिकारी सिद्धान्तों की कीमत पर कमी न झुकनेवाले आत्मानुभवी, लोकप्रिय प्रवचनकार, सिद्धान्त ग्रन्थों के सफल टीकाकार एवं परोपकारी महामानव थे । वे विनम्र श्रद्धानी विद्वान एवं सरल स्वभावी थे वे प्रामाणिक महापुरुष थे। तत्कालीन आध्यात्मिक । समाज में तत्वज्ञान संबंधी प्रकरणों में उनके कथन प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किए जाते थे। वे लोकप्रिय आध्या त्मिक प्रवक्ता थे। धार्मिक उत्सवों में जनता की अधिक 3. इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका । से-अधिक उपस्थिति के लिए उनके नाम का प्रयोग आकर्षण के रूप में किया जाता था। गृहस्थ होने पर भी उनकी वृत्ति साठा की प्रतीक थी। पंडितजी के पिता का नाम जोगीदासजी एवं माता का नाम रम्भादेवी था। वे जाति से खण्डेलवाल थे और गोत्र था गोदीका, जिसे भौंसा व बड़जात्या भी कहते हैं। उनके वंशज ढोलाका भी कहलाते थे। वे दिवादित थे पर उनकी व समुराल पक्षवालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके दो पुत्र थे- हरीचन्द्र और गुमानीराम गुमानीराम भी उनके समान उ कोटि के विद्वान और प्रभावक आध्यात्मिक प्रवक्ता थे । उनके पास बड़े-बड़े विद्वान भी तत्व का रहस्य समझने आते थे। पंडित देवीदास गोधा ने "सिद्धान्तसार संग्रह टीका प्रशस्ति" में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है । पंडित टोडरमलजी की मृत्यु के उपरान्त वे पंडितजी द्वारा संचालित धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार रहे। उनके -नाम से एक पंध भी चला जो 'गुमान पंथ' के नाम से जाना जाता है । पंडित टोडरमलजी की सामान्य शिक्षा जयपुर की एक आध्यात्मिक ( तेरापंथ शैली में हुई, जिसका वाद में उन्होंने सफल संचालन भी किया। उनके पूर्व वादा बंशीधर जी उक्त शैली के संचालक थे। पंडित टोडरमलजी गूढ तत्वों के तो स्वतंबुद्ध ज्ञाता थे। 'नब्बिसार' व "क्षपणासार" की संदृष्टियों आरम्भ करते हुए वे लिखते हैं "शास्त्रविलिरुया नाहीं और बताने वाला मिल्या नाहीं"। संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल ग्रंथों को वे कन्नड़ लिपि में पढ़-लिख सकते थे । कन्नड़ भाषा और लिपि का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होंने स्वयं किया । वे कन्नड़ २६६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा के प्रथों पर व्याख्यान करते थे एवं उन्हें कन्नड़ प्राणदण्ड ही नहीं दिया बल्कि गंदगी में गड़वा दिप लिपि में लिख भी लेते थे। ब्र. रायमल ने लिखा है- था। यह भी कहा जाता है कि उन्हें हाथी के पैर के र नीचे कुचलवा कर मारा गया था। "दक्षिण देश सं पांच सात और ग्रन्थ ताड़पत्रांविषे । कर्णाटी लिपि में लिख्या इहाँ पधारे हैं, ताक टोडरमलजी पंडित टोडरमलजी आध्यात्मिक साधक थे । उन्होंने बाँचे है । वाका यथार्थ व्याख्यान कर है, वा कर्णाटी जैन दर्शन और सिद्धान्तों का गहन अध्ययन ही नहीं लिपि में लिखते हैं। किया अपितु उसे तत्कालीन जनभाषा में लिखा भी है। उसमें उनका मुख्य उद्देश्य अपने दार्शनिक चिन्तन को . परम्परागत मान्यतानुसार उनकी आयु कुल 27 जन साधारण तक पहुंचाना था। पंडितजी ने प्राचीन वर्ष कही जाती रही, परन्तु उनकी साहित्यिक साधना, ' जैन ग्रथों की विस्तृत, गहन परन्तु सुबोध भाषा-टीकाएँ ज्ञान व प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए मेरा यह निश्चित लिखीं। इन भाषा-टीकाओं में कई विषयों पर बहुत मत है कि वे 47 वर्ष तक अवश्य जीवित रहे । इस ही मौलिक विचार मिलते जो उनके स्वतंत्र चिन्तन के सम्बन्ध में साधर्मी भाई ब्र. रायमल द्वारा लिखित चार्चा परिणाम थे। बाद में इन्हीं विचारों के आधार पर संग्रह ग्रन्थ की अलीगंज (एटा उ. प्र.) में प्राप्त हस्त उन्होंने कतिपय मौलिक ग्रन्थों की रचना भी की। लिखित प्रति के पृष्ठ 173 का निम्नलिखित उल्लेख उनमें से सात तो टीकाग्रन्थ हैं और पांच मौलिक विशेष दृष्टव्य है -- रचनाएँ । उनकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा ____"बहरि बारा हजार त्रिलोकसारजी की टीका का। सकता है :बारा हजार मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ उनके शास्त्रों के (1) मौलिक रचनाएँ (2) व्याख्यात्मक रचनाएं। अनुस्वरि और आत्मानुशासनजी की टीका हजार तीन मौलिक रचनाएँ गद्य और पद्य दोनों रूपों में हैं। यां तीनां ग्रन्थों की टीका भी टोडरमलजी सैंतालीस. गद्य रचनाएँ चार शैलियों में मिलती हैं :बस की आयु पूर्ण करि परलोक विषं गमन की।" . (क) वर्णनात्मक शैली, (ख) पत्रात्मक शैली उनकी मृत्यु तिथि विक्रम संवत् 1823-24 के (ग) यन्त्र रचनात्मक (चार्ट) शैली, (घ) विवेचनात्मक लगभग निश्चित है, अत: उनका जन्म विक्रम सवत् शैली। 1776-77 में होना चाहिए। ___ वर्णनात्मक शैली में समीसरण आदि का सरल - पंडित वखतराम शाह के अनुसार कुछ मतांध भाषा में सीधा वर्णन है । पंडितजी के पास जिज्ञासु लोगों द्वारा लगाये गए शिवपिण्डी के उखाड़ने के आरोप लोग दूर-दूर से अपनी शंकाएँ भेजते थे, उसके समाधान के सदर्भ में राजा द्वारा सभी श्रावकों को कैद कर में वह जो कुछ लिखते थे, वह लेखन पत्रात्मक शैली के लिया गया था और तेरापंथियों के गुरु महान धर्मात्मा, अन्तर्गत आता है। इसमें तर्क और अनुभूति का सुन्दर महापुरुष पडित टोडरमलजी को मृत्यु दण्ड दिया गया समन्वय है । इन पत्रों में एक पत्र बहुत महत्वपूर्ण है। था । दुष्टों के मड़काने में आकर राजा ने उन्हें मात्र सोलह पृष्ठीय यह पत्र ‘रहस्यपूर्ण चिट्ठी' के नाम से 4. बुद्धि विलास : बखतराम साह, छन्दं 1303, 13041 5. (क) वीरवाणी : टोडरमल अंक पृ० 285, 286 । (ख) हिन्दी साहित्य. द्वितीय खण्ड, १० 500 । । २६७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध है । यंत्र रचनात्मक शैली में चार्टों द्वारा विषय को स्पष्ट किया है । अर्थ संदृष्टि अधिकार इसी प्रकार की रचना है। विवेचनात्मक शैली में सैद्धान्तिक विषयों को प्रश्नोत्तर पद्धति में विस्तृत विवेचन कर के युक्ति व उदाहरणों से स्पष्ट किया है। मोक्षमार्ग प्रकाशक इसी श्रेणी में आता है । 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। प्रारम्भ में इकहत्तर पृष्ठ की पीठिका है। आज नवीन शैली में सम्पादित ग्रन्थों की भूमिका का बड़ा महत्व माना जाता है। शैली के क्षेत्र में दो सौ बीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका की पीठिका आधुनिक भूमिका का आरंभिक रूप है. उसमें हलकापन कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इसके पढ़ने से ग्रंथ का पूरा हार्द खुल जाता है एवं इस ग्रन्थ के पढ़ने में आनेवाली पाठक की समस्त कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं । हिन्दी आत्मकथा साहित्य में जो महत्व पंडित टोडरमलजी की व्याख्यात्मक टीकाएँ दो महाकवि बनारसीदास के अर्द्ध कथानक को प्राप्त है, रूपों में पाई जाती हैं : aa महत्व हिन्दी भूमिका साहित्य में 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' की पीठिका का है । पद्यात्मक रचनाएँ दो रूपों में उपलब्ध हैं : (1 ) भक्ति परक, ( 2 ) प्रशस्ति परक । भक्तिपरक रचनाओं में गोम्मटसार पूजा एवं ग्रन्थों के आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण के रूप में प्राप्त फुटकर पद्यात्मक रचनाएं हैं । ग्रन्थों के अन्त में लिखी गई परिचयात्मक प्रशस्तियाँ प्रशस्तिपरक श्र ेणी में आती हैं । 1. संस्कृत ग्रन्थों की टीकाएँ । 2. प्राकृत ग्रन्थों की टीकाएँ । संस्कृत ग्रन्थों की टीकाएँ आत्मानुशासन भाषा टीका और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय भाषा टीका है। प्राकृत ग्रन्थों में गौम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार और त्रिलोकसार हैं, जिनकी भाषा टीकाएँ उन्होंने लिखी हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड लब्धिसार और क्षपणसार की भाषा टीकाएँ पंडित टोडरमलजी ने अलग-अलग बनाई थीं, परन्तु उन चारों टीकाओं को परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर एक का अध्ययन दूसरे के अध्ययन में सहायक जानकर उन्होंने उक्त चारों टीकाओं को मिलाकर एक कर दिया तथा उसका नाम "सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका " रख दिया । मोक्षमार्ग प्रकाशक पंडित टोडरमलजी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का आधार कोई एक ग्रन्थ न होकर सम्पूर्ण जैन साहित्य है । यह सम्पूर्ण जैन साहित्य को अपने में समेट लेने का एक सार्थक प्रयत्न था, पर खेद है कि यह ग्रन्थराज पूर्ण न हो सका, अन्यथा यह कहने में संकोच न होता कि यदि सम्पूर्ण जैन बाङ्गमय कहीं एक जगह सरल, सुबोध और जनभाषा में देखना हो तो मोक्षमार्ग प्रकाशक को देख लीजिए । अपूर्ण होने पर भी यह अपनी अपूर्वता के लिए प्रसिद्ध है । यह एक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है जिसके कई संस्करण निकल चुके हैं एवं खड़ी बोली में 6. ( क ) बाबू ज्ञानचन्दजी जैन लाहौर, (वि० सं० 1954 ) । (ख) जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई (सन् 1911 ) । (ग) बाबू पन्नालालजी चौधरी, वाराणसी (वी० नि० सं० 2451 ) । (घ) अमन्त कीर्ति ग्रन्थमाला, बम्बई (वी० नि० सं० 2463 ) । २६८ (ड) सस्ती ग्रन्थमाला, दिल्ली (च) वही । (छ) वही । (ज) वही । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अनुवाद भी कई बार प्रकाशित हो चुके हैं। यह पर जिस विषय को उठाया गया है उसके सम्बन्ध में उर्दू में भी छप चुका है। मराठी और गुजराती में उठनेवाली प्रत्येक शंका का समाधान प्रस्तुत करने का इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। अभी तक सब सफल प्रयास किया गया है। प्रतिपादन शैली में मनोकुल मिलाकर इसकी 51200 प्रतियां छप चुकी हैं। वैज्ञानिकता एवं मौलिकता पाई जाती है। प्रथम शंका इसके अतिरिक्त भारतवर्ष के दिगम्बर जैन मन्दिरों के के समाधान में द्वितीय शंका की उत्थानिका निहित शास्त्र भण्डारों में इस ग्रन्थराज की हजारों हस्तलिखित रहती हैं । ग्रन्थ को पढ़ते समय पाठक के हृदय में जो प्रतियाँ पाई जाती हैं । समूचे समाज में यह स्वाध्याय प्रश्न उपस्थित होता है उसे हम अगली पंक्ति में लिखा और प्रवचन का लोकप्रिय ग्रन्थ है। आज भी पंडित पाते हैं। ग्रन्थ पढ़ते समय पाठक को आगे पढ़ने की टोडरमलजी दिगम्बर जैन समाज में सर्वाधिक पढ़े जाने- उत्सुकता बराबर बनी रहती है। वाले विद्वान हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक की मूल प्रति भी। उपलब्ध है। एवं उसके फोटोप्रिंट करा लिए गए हैं, वाक्य रचना संक्षिप्त और विषय प्रतिपादन शैली जो जयपुर", बम्बई, दिल्ली और सोनमढ़ में ताकिक एवं गम्भीर है। व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं सुरक्षित हैं। इस पर स्वतंत्र प्रवचनात्मक व्याख्याएँ है पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं भी मिलती हैं। रहा है। लेखक विषय का यथोचित विवेचन करता हुआ आगे बढ़ने के लिए सर्वत्र ही आतुर रहा है । जहाँ । यह ग्रन्थ विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखा गया कहीं भी विषय का विस्तार हुआ है वहाँ उत्तरोत्तर है। प्रश्नोत्तरों द्वारा विषय को बहुत गहराई से स्पष्ट नवीनता आती गई है। वह विषय विस्तार सांगोपांग किया गया है। इसका प्रतिपाद्य एक गम्भीर विषय है. विषय विवेचना की प्रेरणा से ही 7. (क) अ० भा० दिगम्बर जैन संघ, मथुरा (वी. नि० सं० 2005)। ... (ख) श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (वी० नि० सं० 2023)। (वि० सं.. 2026)। (वि० सं० 2030)। 8. दाताराम चेरिटेबिल ट्रस्ट, दरीबाकलां, दिल्ली (वि० सं० 2027) । 9. (क) श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (ख) महावीर ब्रहमचर्याश्रम, कारंजा।। . श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, दीवान भदीचन्दजी, घीवालों का रास्ता, जयपुर । 11. वही, जयपुर। 12. श्री दिगम्बर जैन सीमंधर जिनालय, जवेरी बाजार, बम्बई । श्री दिगम्बर जैन मुमुक्ष मण्डल, श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, धर्मपुरा, देहली। 14. श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी द्वारा किए गये प्रवचन, मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरण नाम से दो भागों में श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ से हिन्दी व गुजराती भाषा में कई बार प्रकाशित हो चुके हैं । 15. २६९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उन्होंने छुआ उसमें "क्यों" क' प्रश्नवाचक समाप्त भी थे / उनका यह चिन्तन समाज की तत्कालीन परिहो गया है / शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित स्थितियों और बढ़ते हुए आध्यात्मिक शिथिलाचार के विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है। सन्दर्भ में एकदम सटीक है। पडितजी का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने लोकभाषा काव्यशैली में 'रामचरित मानस' लिखसंस्कृत, प्राकृत में निबन्ध आध्यात्मिक तत्वज्ञान को कर महाकवि तुलसीदास ने जो काम किया, वही काम भाषा-गद्य के माध्यम से व्यक्त किया और तत्व विवेचन उनके दो सौ वर्ष बाद गद्य में जिन आध्यात्म को लेकर में एक नई दृष्टि दी। यह नवीनता उनकी क्रान्तिकारी पंडित टोडरमलजी ने किया। हाट में है। जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहनेवाले टीकाकार होते हुए भी पंडितजी ने गद्यशैली का निरन्तर आत्मसाधना व साहित्य-साधनारत इस महानिर्माण किया है। डॉ. गौतम ने उन्हें गद्य निर्माता मानव को जीवन की मध्यवय में ही साम्प्रदायिक स्वीकार किया है। उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त प्रश्नो- विद्वेश का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा। तरगयी तथा सुगम है / वे ऐसी शैली अपनाते हैं जो इनके व्यक्तित्व और कतत्व के सम्बन्ध में विशेष न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल / उनकी इस शैली का जानकारी के लिए लेखक के शोध प्रबन्ध "पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतत्व का अध्ययन करना चाहिये / सर्वोत्तम निर्वाह मोक्षमार्ग प्रकाशक में है / तत्कालीन स्थिति में गद्य को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम इनको भाषा का नमूना इस प्रकार है :-- बनाना बहुत सूझबूझ और श्रम का कार्य था। उनकी "तातें बहर कहा कहिए" जैसे रागादि मिटावने शैली में उनके चितक का चरित्र और तर्क का स्वभाव का श्रदधान होय सो ही सम्यग्दर्शन है। बहरि जैसे स्पष्ट झाकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए रागादि मिटवाने का जानना होय सोही सम्यज्ञान है। भी उनकी गद्यशैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी बहरि जैसे रागादि मिटे सोही सम्यकचारित्र है। ऐसा मौलिक विशेषता हैं। ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।18 उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पंडित टोडरमल के वल न टीकाकार थे बल्कि आध्यात्म के मौलिक विचारक 16. प्रकाशक : पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4, बापूनगर, जयपुर-41 17. मोक्षमार्ग प्रक.ठाक, पृष्ठ-313 / 670