Book Title: Lingprabhrut Shilprabhrut Baras Anupekkha aur Pravachansar Bhasha ke Katipay Muddo ka Abhyas
Author(s): Shobhna R Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणुपेक्खा और प्रवचनसार की भाषा के कतिपय मुद्दोंका तुलनात्मक अभ्यास डॉ. शोभना आर. शाह जैन शौरसेनी आगम साहित्य में लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत और बारसअणुपेक्खा ये तीनों कृतिया कुंदकुंदाचार्य की रची हुई अथवा संकलित की हुई मानी जाती है। ये कृतियाँ कुंदकुंदाचार्य की ही है या किसी अन्य आचार्यों की रचनाएँ है, क्योंकि कई बार कई कृतियाँ किसी प्रसिद्ध आचार्य के नाम पर चढा दी जाती है। क्या ये कृतियाँ भी उनके नाम पर तो नहीं चढाई गई इसके बारे में इनमें उपलब्ध भाषा स्वरूप के आधार से चर्चा की जा रही है। भाषा के स्वरूप के विषय में कतिपय मुद्दों की चर्चा यहाँ पर की जा रही है । इन ग्रंथो की भाषा की जो विशेषताएँ है उनका स्वयं कुंदकुंदाचार्य को बहु प्रसिद्ध कृति प्रवचनसार की भाषा के साथ तुलना की जाने से यह जानकारी प्राप्त होगी कि क्या सभी कृतियों में एक समान भाषा है या अमुक ग्रंथ में पुरानी भाषा है या अमुक में परवर्ती काल की भाषा है। किसी भी ग्रंथ की भाषा में प्रयुक्त कारक प्रत्यय, क्रियापद और कृदन्तों के प्रयोगों पर से यह निश्चय हो सकेगा की उपलब्धि की संख्या पर कहाँ तक सहायक हो सकता है, यही इस शोध-पत्र का विषय है । अब हम एक एक मुद्दे की चर्चा करते हैं पहले पहल वर्तमान काल के प्रयोग को लेते हैं (i) वर्तमानकाल तृ.पु.ए.व. के प्रत्यय -ति, -दि, -इ, -ते, -दे, -ए लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु, प्रवचनसार संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत -ति ० ० ० ० ० ० ० ० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 37 5 ० ० ० -दि २९ ७३% ५ ४२% ५० ७४% २१४ ९९% -इ ६ १५% ४ ३३% ११ १६% ० ० -ते ० ० ० ० ० ० ० ० -दे ३ ७% १ ८% ६ ९% २ १% -ए १ ५% २ १७% १ १% ० ० ३९ १२ ६ ८ २१६ वर्तमानकाल तृतिय पु.ए.व. का प्रत्यय '-ति', 'ते', लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत और बारसअणुपेक्खा में एक बार भी नहीं मिलता है, जबकि'दि', प्रत्यय लिंगप्राभृत में २९ बार, शीलप्राभृत में ५ बार और बारसअणु. में ५० बार और प्रवचनसार में २१४ बार मिलता है और '-दे' प्रत्यय लिंगप्राभृत में ३ बार, शीलप्राभृत में १ बार और बारसअणु. में ६ बार और प्रवचनसार में २ बार मिलता है । - 'इ' प्रत्यय लिंगप्राभृत में ६ बार, शीलप्राभृत में ४ बार और बारसअणु० में ११ बार मिलता है। प्रवचनसार में मिलता ही नहीं है । - 'ए' प्रत्यय लिंगप्राभृत में १ बार, शीलप्राभृत में २ बार, बारसअणु. में १ बार मिलता है, जबकि प्रवचनसार में एक भी बार नहीं मिलता है। इस तालिका से यह स्पष्ट है कि - दि, -दे, प्रत्यय पूर्वकाल का (प्राचीन) है और -इ -ए प्रत्यय परवर्ती काल के है । (ii) भू धातु के प्राकृत रूप लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. प्रवचनसार संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत -भव ० ० ० . ० ० ० ५ ८% -भो ० ० ० ० ० ० ० ० -हव ० ० २ २५% २१ ६२% ४१ ६८% -हो ४ १००% ६ ७५% १३ ३८% १३ २४% Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 अनुसंधान-२८ लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणुपेक्खा और प्रवचनसार में भृ धातु के लिए प्राकृत रूप 'भव', 'भो', 'हव', 'हो', का प्रयोग किया गया है। इनमें 'भो' का प्रयोग एक भी ग्रंथ में नहीं मिलता है और भव का प्रयोग सिर्फ प्रवचनसार में किया गया है । 'हव' लिंगप्राभृत में एक भी बार प्रयुक्त नहीं हुआ है, शीलप्राभृत में २ बार, बारसअणु. में २१ बार और प्रवचनसार में ४१ बार इसका प्रयोग मिलता है । 'हो' का लिंगप्राभृत में ४ बार, शीलप्राभृत में ६ बार, बारसअणु में १३ बार और प्रवनचसार में १३ बार किया गया है। 'भो', 'भव', रूप पूर्वकाल का है. इसमें 'भव' का प्रयोग सिर्फ प्रवचनसार में ही मिलता है इसलिए प्रवचनसार की भाषा तुलनात्मक दृष्टि से पूर्वकाल की है ऐसा प्रतीत होता है । (iii) नपुं. प्र.द्वि.ब.व. के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. प्रवचनसार -णि و له اسه कारक प्रत्ययों का विश्लेषण देखे तो लिंगघ्राभृत और शीलप्राभृत में - "णि' प्रत्यय मिलता ही नहीं है, जबकि शीलप्राभृत में '-ई' प्रत्यय १००% मिलता है। बारसअणु. में - "णि' प्रत्यय ६६% और '-ई' प्रत्यय ३४% मिलता है, और प्रवचनसार में '-णि' प्रत्यय १००% मिलता है और '-इं' प्रत्यय मिलता ही नहीं है ।। इससे स्पष्ट होता है कि प्रवचनसार में '-इं' प्रत्यय मिलता ही नहीं है जबकि शीलप्राभृत और बारसअणु. में मिलता है, इसलिए ये दो कृतियाँ परवर्ती काल की है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 39 प्रवचनसार ওও (iv) स.ए.व.के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. -ए २ -म्हि ० -म्मि ४ ८ ३५ उपरोक्त तालिका के अनुसार लिंगप्राभृत में - ए प्रत्यय ३३% और- म्मि प्रत्यय ६७% मिलता है । - "म्हि' प्रत्यय एक भी बार मिलता नहीं है । शीलप्रा. —-ए' प्रत्यय ८८% और- म्मि. प्रत्यय १२% मिलता है; '-म्हि' प्रत्यय एक बार भी नहीं मिलता है । बारसअणु. में - ए प्रत्यय ९५% '-म्मि' प्रत्यय ०% और 'म्हि' प्रत्यय ६% मिलता है । जबकि प्रवचनसार में '-ए' प्रत्यय ६०%, -म्मि प्रत्यय १३% और-म्हि प्रथ्यय २७% मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि- "म्हि' प्रत्यय जो पूर्वकालका है यह लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत में मिलता ही नहीं है और प्रवचनसार में मिलता है इसलिए कह सकते हैं कि प्रवचनसार की भाषा पूर्वकाल की है। (v) सामान्य भविष्यकाल के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. प्रवचनसार -हि,-ह . सामान्य भविष्यकाल के लिए '-स्स', '-इस्स' '-हि' और 'ह' विकरणों का प्रयोग किया जाता है । -स्स विकरणवाला रूप प्रवचनसार के सिवाय अन्य तीनो ग्रंथों में नहीं मिलता है, उदा. भविस्सदि- ११२, जीविस्सदि १४७ इत्यादि । शीलप्राभृत और बारसअणु. में -स्स विकरण के स्थान पर '-ह' विकरण मिलता है । शीलप्राभृत- होहदि ११, बारसअणु. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 अनुसंधान-२८ -सिज्झिहहि ९० ये दोनों कृतियाँ प्रवचनसार से बाद की है क्योंकि '-स्स' के बदले में '-ह' या-'हि' का प्रयोग परवर्ती काल का लक्षण है। (vi) सं.भू.कृदन्त के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. -त्ता ० -च्चा . प्रवचनसार -इय . -तु . -तूण १ -दूण ० -ऊण २ -ऊणं (संस्कृत जैसे रूप) यह तालिका देखने के बाद ऐसा मालूम होता है कि लिंगप्रा. और शीलप्रा. में -ऊण, -ऊणं का ही प्रयोग हुआ है. लिंगप्रा. में जैसे कि - काऊण १, १३ और शीलप्रा. में जैसे कि- णाऊण ३,७,८ वेदेऊण १६ 'ऊणं' प्रत्यय के उदाहरण-पणमिऊणं १, होऊणं १०, जबकि बारसअणु. में -ऊण का प्रयोग ५०% किया गया है, जैसे कि- काऊण ७७, गहिऊण ३३, चईऊण ३१, ७८, णमिऊण १, परिभाविऊण ८९, सेविऊण ३३, होऊण ७९. बारसअणु. में दूसरे प्रत्ययों का प्रयोग ५० % मिलता है जैसे कि - चत्ता ८१, किच्चा ७५, वज्जिय ६१, णिग्गहित्तु ७९, मोत्तूण ५४, ७३, ७४, हंतूण ३३. प्रवचनसार में -ऊण, -ऊणं प्रत्यय का प्रयोग एक भी बार नहीं मिलता है और अन्य प्राचीन प्रत्यय जैसे कि -त्ता, -च्चा, 'इय और -दूण २८% मिलते हैं । संस्कृत के समान रूप (ध्वनिपरिवर्तन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 के साथ) सिर्फ प्रवचनसार में ही मिलते है ये 72% मिलते है जो दूसरे ग्रंथो में नहीं मिलते है / जैसेकि-पडुच्च (प्रतीत्य) 50, 136, उवलब्भ (उपलभ्य) 88, पप्पा (प्राप्य) 65, 83, 169, 170, 175, अभिभूय (अभिभूय) 30, 117, आसेज्ज (आसाद्य) 5, 183, 243, आसिज्ज (आसाद्य) 202, आदाय (आदाय) 207, दिट्ठा (दृष्ट्वा ) 252, 261 इससे स्पष्ट होता है कि प्रवचनसार की भाषा पूर्वकाल की है / प्रवचनसार में -ऊण, -ऊणं प्रत्यय मिलता ही नहीं है जो महाराष्ट्री प्राकत के प्रत्यय है / इससे स्पष्ट है कि प्रवचनसार प्राचीन कृति है। शीलप्राभृत में सप्तमी ए.व.के.लिए 'आदेहि' (आत्मनि) 27, रूप मिलता है, जो अपभ्रंश का प्रयोग है। प्रवचनसार में अपभ्रंश के ऐसे कोई प्रयोग मिलते नहीं है। इसके सिवाय अपभ्रंश के और भी प्रयोग मिलते है। लिंगप्राभृत में प्रथमा विभक्ति एकवचन के य: के लिए 'जो' के बदले में 'जस' 21' ऐसा प्रयोग मिलता है / लिंगप्राभृत में विभक्तिरहित प्रयोग भी मिलते है / इर्यावह(इर्यापथम्) 15, तरुगण (तरुगणम्) 16 जो द्वितीया ए.व.का प्रयोग है / शीलप्राभृत में भी ऐसा प्रयोग प्रथमा ए.व.का मिलता है - दम (दम:) 19 जो विभक्ति रहित है। इसलिए लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणु. नामकी ये कृतिया न तो कुंदकुंदाचार्य की रचनाएँ है, न पहले थी और न तो उन्होंने उनका संकलन किया है। __इस अध्ययन से स्पष्ट है कि इन सब ग्रंथो की रचना कुंदकुंदाचार्य के बाद में की गई है / इन तीनों ग्रंथों और प्रवचनसार की भाषा में बहुत फर्क है और प्रवचनसार की भाषा पुरानी है जबकि अन्य तीनों ग्रंथों में परवर्ती काल के भाषिक रूपों के प्रयोग है जो प्रवचनसार में मिलते ही नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय जैनविद्या अध्ययन केन्द्र, गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद-३८००१४