Book Title: Lakshmani Tirth Itihas
Author(s): Jayantvijay
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लक्ष्मणी तीर्थ का इतिहास मुनिराज जयंतविजय..... । १५ प्राचीन लक्ष्मणी -- श्रीसंभवनाथजी १०॥ श्रीचन्द्रप्रभस्वामीजी १०. क्रम की सोलहवीं शताब्दी के जिस तीर्थ का हम यहाँ १३।। श्रीअनन्तनाथजी १३।। व वर्णन करने चले हैं वह लक्ष्मणी तीर्थ है। इस तीर्थ की प्राचीनता कम से कम २००० वर्षों से भी अधिक काल की १२. श्रीचौमुखजी सिद्ध होती है, जिसे हम आगे दिए गए प्रमाण-लेखों से जान १३. श्रीअभिनंदनस्वामी (खं.) ... ९॥ सकेंगे। १४. श्रीमहावीरस्वामीजी (खं.) ... जब मांडवगढ़ यवनों का समराङ्गण बना था उस वक्त चरमतीर्थाधिपति श्रीमहावीरस्वामीजी की ३२ इंच बड़ी इस बृहत्तीर्थ पर भी यवनों ने हमला किया और मंदिरादि तोड़े, प्रतिमा सर्वाङ्गसुन्दर श्वेतवर्ण-वाली है। उसके ऊपर लेख नहीं तब से ही इसके ध्वंस होने का कार्य प्रारंभ हो गया और क्रमशः है, परंतु उस पर रहे चिह्नों से ज्ञात होता है कि ये प्रतिमाजी विक्रमीय १९वीं शताब्दी में उसका केवल नाममात्र ही अस्तित्व महाराजा सम्राट् संप्रति के समय में प्रतिष्ठित हुई होंगी। रह गया और वह भी अपभ्रंश लखमणी होकर जहाँ पर भील श्रीअजितनाथ प्रभु की १५ इंच बड़ी प्रतिमा वेलू-रेती की भिलालों के २०-२५ टापरे ही दृष्टिपथ में आने लगे। बनी हुई दर्शनीय एवं प्राचीन प्रतीत होती है। एक समय एक भिलाला कृषिकार के खेत में से सर्वाङ्गसुंदर श्रीपद्मप्रभजी की प्रतिमा जो ३७ इंच बड़ी है, वह भी ११ जिन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई। कुछ दिनों के व्यतीत होने के श्वेतवर्णी परिपूर्णाग है, उस पर का लेख मंद पड़ जाने से 'सं. पश्चात् ११ प्रतिमाजी जहाँ से प्राप्त हुई थीं वहाँ से दो-तीन हाथ १०१३ वर्षे वैशाख सदि सप्तम्यां' केवल इतना ही पढ़ा जाता है। की दरी पर दो प्रतिमाएँ और निकलीं। एक प्रतिमा तो पहले से ही श्री मल्लीनाथजी एवं श्याम श्रीनमिनाथजी की २६-२६ इंच निकली हुई थी, जिन्हें भिलाले लोग अपने इष्टदेव मानकर तेल बडी प्रतिमाएँ भी उसी समय की प्रतिष्ठित हों ऐसा आभास होता सिन्दूर से पूजते थे। भूगर्भ से निर्गत इन १४ प्रतिमाओं के नाम व है। इस लेख में ये तीनों प्रतिमाएँ १ हजार वर्ष प्राचीन हैं। लेख इस प्रकार हैं -- श्रीआदिनाथजी की २७ इंच और ऋषभदेवस्वामी की क्रं. नाम ऊँचाई (इंच) १३-१३ इंच बादामी वर्ण की प्रतिमाएँ कम से कम ७०० वर्ष श्री पद्मप्रभस्वामी प्राचीन हैं एवं तीनों एक ही समय की प्रतीत होती हैं। श्री आदिनाथजी श्रीआदिनाथस्वामी की प्रतिमा पर लेख इस प्रकार है-- श्रीमहावीरस्वामीजी 'संवत् १३१० वर्षे माघसुदि ५ सोमदिने प्राग्वाटज्ञातीय - श्रीमल्लीनाथजी मंत्रीगोसल तस्य चि. मंत्री आ (ला) लिगदेव तस्य पुत्र गंगदेव तस्य श्रीनमिनाथजी पत्नी गांगदेवी, तस्याः पुत्र मंत्री पदम तस्य भार्या मांगल्या प्र.।' श्रीऋषभदेवजी शेष पाषाण-प्रतिमाओं के लेख बहुत ही अस्पष्ट हो गए हैं, श्रीअजितनाथजी परंतु उनकी बनावट से जान पड़ता है कि ये भी पर्याप्त प्राचीन श्रीऋषभदेवजी १३ हैं। उपरोक्त प्रतिमाएँ भूगर्भ से प्राप्त होने के बाद श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की एक छोटी सी धातुप्रतिमा चार अंगुल PrioritorioritoroorirbrowdrivardworirdGorirordar[१३९Hibnirodirdwordprodrowondirodroidditoriadridwodidi & AM - 3 ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण की निर्गत हुई, जिसके पृष्ठभाग पर लिखा है कि 'संवत् १३०३ आ.शु. ४ ललित सा.' यह बिंब भी ७०० वर्ष प्राचीन है। - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - - इतिहास विक्रम संवत्सर १४२७ के मार्गशीर्ष मास में जयानंद नामा जैन मुनिराज अपने गुरुवर्य के साथ निमाड़ प्रदेश स्थित तीर्थक्षेत्रों की यात्रार्थ पधारे, उनकी स्मृति में उन्होंने दो छंदों में विभक्त प्राकृतमय 'नेमाड़ - प्रवास' गीतिका बनाई, उन छंदों से भी जाना जा सकता है कि उस समय नेमाड़ प्रदेश कितना समृद्ध था और लक्ष्मणी भी कितना वैभवशाली था । मांडव नगोवरी सगसया, पंच ताराउर वरा, विंस - इग सिंगारी - तारण, नंदुरी द्वादश परा । हत्थणी सग लखमणी उर, इक्क सय सुह जिणहरा, भेटिया अणुवजणवए, मुणि जयाणंद पवरा ।। १ ।। लक्खातिय सहस बिपणसय, पण सहस्स सग सया, सय इगविसं दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणय मया । गाम गामि भक्ति परायण, धम्माधम्म सुजागणगा, मुणि जयानंद निरक्खिया, सबल समणोवासगा ।। २ ।। मंडपांचल में ७०० जिनमंदिर एवं तीन लाख जैनों के घर, तारापुर में ५ मंदिर ५०० श्रावकों के घर, तारणपुर में २१ मंदिर ७०० जैनधर्मावलम्बियों के घर, नान्दूरी में १२ मंदिर २१०० श्रावकों के घर, हस्तिनीपत्तन में ७ मंदिर २००० श्रावकों के घर और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं २००० जैनधर्मानुयायियों के घर धन धान्य से सम्पन्न, धर्म का मर्म समझने वाले एवं भक्तिपरायण देखे, आत्मा में प्रसन्नता हुई। लक्ष्मणी, लक्ष्मणपुर, लक्ष्मणीपुर आदि इस तीर्थ के नाम हैं ऐसा यहाँ पर अस्तव्यस्त पड़े पत्थरों से जाना जाता है। लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि पूर्वलिखित पत्रों से विदित है कि यहाँ पर भिलाले के खेत में से १४ प्रतिमाएँ भूनिर्गत हुईं तथा आलिराजपुरनरेश ने उन प्रतिमाओं को तत्रस्थ श्री जैन श्वेताम्बर - संघ को अर्पित किया। श्रीसंघ का विचार था कि ये प्रतिमाजी आलिराजपुर लाई जाएँ, परंतु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बँधवा कर मूर्तियों को स्थापित करने का विचार किया गया जिससे उस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व प्रसिद्धि में आये। bimbram उस समय श्रीमदुपाध्यायजी श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज (वर्तमान आचार्यश्री) वहाँ विराज रहे थे। आपके सदुपदेश से नरेश ने लक्ष्मणी के लिए (मंदिर, कुआँ, बगीचा, खेत आदि के निमित्त) पूर्व - पश्चिम ५११ फीट, उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भूमि श्रीसंघ को अमूल्य भेंट दी और आजीवन मंदिर - खर्च के लिए ७१ रु. प्रतिवर्ष देते रहना स्वीकृत किया। महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ का उत्साह इस प्रकार के भावना त्रिवेणीसंगम से कुछ ही दिनों में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया। आलिराजपुर, कुक्षी, बाग, टाँडा आदि आसपास के गांवों के सद्गृहस्थों ने भी लक्ष्मी का सद्व्यय करके विशाल धर्मशाला, उपाश्रय, ऑफिस, कुआँ, बावडी आदि बनवाए एवं वहाँ की सुंदरता विशेष विकसित करने के लिए एक बगीचा भी बनाया गया, जिसमें गुलाब, मोगरा, चमेली, आम आदि के पेड़ लगाए गए। जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था, वह पुनः उद्धरित हो जनता में प्रसिद्ध हुआ । मिट्टी के टीलों को खुदवाने पर बहुत सी ऐतिहासिक चीजें प्राप्त हैं। प्राचीन समय के बर्तन आदि भी । बगीचे के निकटवर्ती खेत में ४-५ प्राचीन मंदिरों के पब्बासन प्राप्त हुए । प्रतिष्ठाकार्य वर्तमान आचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी ने जो उस समय उपाध्यायजी थे, वि.सं. १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को अष्टदिनावधि अष्टाह्निका महोत्सव के साथ बड़े ही हर्षोत्साह से शुभलग्नांश में नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा की । तीर्थाधिपति श्री पद्मप्रभस्वामीजी गादीनशीन किए गए और अन्य मूर्तियाँ भी यथास्थान विराजमान कर दी गईं। प्रतिष्ठा के दिन नरेश ने रु. २००१ भेंट किये और मंदिर की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। सचमुच सर प्रतापसिंह नरेश की प्रभुभक्ति एवं तीर्थ-प्रेम सराहनीय है। प्रतिष्ठा के समय मंदिर के मुख्यद्वार-गंभारा के दाहिनी ओर एक शिलालेख संगमरमर के प्रस्तर पर उत्कीर्ण करवाकर लगाया गया जो निम्न प्रकार है- mormónovambran proposa For Private Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -चतान्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ इतिहासश्रीलक्ष्मणीतीर्थप्रतिष्ठा-प्रशस्तिः वर्तमान लक्ष्मणी -- तीर्थाधिपश्रीपद्मप्रभस्वामिजिनेश्वरेभ्यो नमः। यह तो अनुभवसिद्ध बात है कि जहाँ जैसी हवा एवं जैसा श्रीविक्रमीयनिधिवसनन्देन्दुतमे वत्सरे कार्तिकाऽसिताऽमावस्यां खानपान व वातावरण होता है वहाँ रहनेवाले का स्वास्थ्य भी शनिवासरेऽतिप्राचीने श्रीलक्ष्मणीजैनमहातीर्थे बालकिरातस्य क्षेत्रतः वैसा ही रहता है। आज के वैद्य एवं डाक्टरों का भी अभिप्राय है श्रीपद्मप्रभजिनादितीर्थेश्वराणामनुपमप्रभावशालिन्योऽतिसुन्दरत कि जहाँ की हवा, पानी एवं वातावरण शद्ध होगा वहाँ पर रहनेवाले माश्चतुर्दशप्रतिमाः प्रादुरभवन् / तत्पूजार्थ प्रतिवर्षमेकसप्ततिरूप्यकसं- व्याक्त प्रफुल्लत रहग। प्रदानयुतं श्रीजिनालयधर्मशालाऽऽरामादिनिर्माणार्थ लक्ष्मणी यद्यपि पहाड़ी पर नहीं है तथापि वहाँ की हवा श्वेताम्बरजैनश्रीसंघस्याऽऽलिराजपुराधिपतिना राष्ट्रकूटवंशीयेन के.सी. पानी तथा इतने मधुर एवं सुहावने लगते हैं कि वहाँ से हटने का आई.ई. इत्युपाधिधारिणा सर् प्रतापसिंह बहादुर भूपतिना पूर्वपश्चिमे दिल ही नहीं होता। पानी इतना पाचनशक्तिवाला है कि वहाँ पर 511 दक्षिणोत्तरे 611 फुटपरिमितं भूमिसमर्पणं व्याधायि, रहनेवालों का स्वास्थ्य अत्यंत सुंदर रहता है। तीर्थरक्षार्थमेकं सुभट (पुलिस) नियोजितञ्च / इस समय तीर्थ की स्थिति बहुत अच्छी है। दर्शनार्थ आने तत्राऽलीराजपुरनिवासिना श्वेताम्बरजैनसंघेन धर्मशालाऽऽराम- के लिये दाहोद स्टेशन से मोटर द्वारा आलीराजपुर आना पड़ता कूपद्वयसमन्वितं पुरातनजिनालयस्यजीर्णोद्धारमकारयत् / प्रतिष्ठा है; वहाँ पर यात्रियों को हर एक प्रकार की सुविधा प्राप्त है। चास्य वेदनिधिनन्देन्दुतमे विक्रमादित्यवत्सरेमार्गशीर्षशुक्लदशम्यां बैलगाड़ी अथवा मोटर द्वारा आलीराजपुर से लक्ष्मणी जाना पड़ता चन्द्रवासरेऽतिबलवत्तरे शुभलग्ननवांशेऽष्टाह्निकमहोत्सवैः, है। वहाँ पर मुनीमजी रहते हैं। यात्रियों को रहने के लिये कमरे, सहाऽऽलीराजपुरजैनश्रीसंघेनैव सूरिशक्रचक्रतिलकायमानानां रसोई बनाने के लिये बर्तन और सोने-बैठने के लिये बिछौने श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छावतंसकानां विश्वपूज्यानामाबालब्रह्मचारिणां आदि की सुविधायें पीढ़ी की ओर से दी जाती है। प्रभुश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वराणामन्तेवासीनां व्याख्यानवाचस्पति लक्ष्मणीतीर्थ का उद्धार आचार्य श्रीमद्विजयतीन्द्रसूरीश्वरजी -महोपाध्यायविरुधारिणा श्रीमद्यतीन्द्रविजयमुनिपुङ्गवानों के संपर्ण प्रयत्नों से ही संपन्न हुआ और यह एक ऐतिहासिक करकमलेनाऽकारयत् / / चीज बन गई है। चढ़ती-पड़ती के क्रमानुसार लक्ष्मणी पुन: उद्धरित हुआ। - श्री राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ से साभार. इस तीर्थ के उद्धार का संपूर्ण श्रेय मदि किसी को है तो वह श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को है।