Book Title: Kuvalayamala Katha ke Adhar par Golladesh va Gollacharya ki Pahichan
Author(s): Yashwantlal Malliya
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा के आधार पर गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की पहिचान डा० यशवन्त मलैया कोलराडो स्टेट विश्वविद्यालय, फोर्ट कोजिस (यू० एस० १०) पिछले दो सौ वर्षों के अनुसन्धान से भारतीय इतिहास की बहुत सी समस्यायें सुलझी हैं। नालन्दा, श्रावस्ती, तक्षशिला आदि स्थानों को निश्चित रूप से पहिचान लिया गया है। फ़िरोज़शाह जिस स्तम्भ के लेख को पढ़ सकते वाला दूंढ नहीं सका, वह आज बिना किसी सन्देह के पढ़ा जा सकता है। कई समस्यायें ऐसी हैं जिनका व्यापक अध्ययन तो हुआ है, पर कोई निर्विवाद हल नहीं मिला है। उदाहरणार्थ कालिदास के समय का निश्चय, गौतमबुद्ध की निर्वाण तिथि, सिंधु-सरस्वती सभ्यता को लिपि की पहचान आदि । यहाँ पर एक ऐसी समस्या पर विचार किया गया है जिसका महत्त्व जैन सामाजिक व धार्मिक इतिहास के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास के लिए भी है। संयोग से इसका समाधान सन्तोषजनक रूप से हो सका है। अलग-अलग स्थानों पर, व अलग-अलग समय के जो सूत्र मिलते हैं. उनके अध्ययन से एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है जिसमें कोई विरोधाभास मालूम नहीं होता । कई प्राचीन ग्रन्थों में गोल्लादेश नाम के स्थान का उल्लेख आता है। आठवीं सदी में उद्योतनसरि द्वारा रचित कुवलयमालाकहा में अठारह देश-भाषाओं का उल्लेख है। इनमें से एक गोल्लादेश की भाषा भी है। ये नाम लक्ष्मणदेव रचित नेमिणाहचरिउ (समय अनिश्चित), पुष्पदन्त रचित नयकुमारचरिउ (दसवीं शती उत्तरार्ध), राजशेखर की काव्यमीमांसा (दसवीं शती पूर्वाध) व रामचन्द्र-गुणचन्द्र के नाट्यदर्पण (बारहवीं शती) में भी दिये हुए हैं। चूणिसूत्रों में भी इस स्थान का उल्लेख है । इस स्थान के उल्लेख बहुत कम पाये गये हैं। कुछ अपवादों को छाड़कर इसका शिलालेखों में भी उल्लेख नहीं है । ऐतिहासिक भूगोल की पुस्तकों में इसका उल्लेख नहीं किया गया है। इस लेख में इस स्थान की निश्चित पहिचान करने का प्रयास किया गया है। गोल्लादेश की स्थिति पर पहले उहापोह किया गया है। एक विद्वान के मत से यह गोदावरी नदी के आसपास का क्षेत्र है। यह मिलते-जुलते शब्द होने से अनुमान किया गया है। आगे के विवेचन से स्पष्ट है कि यह धारणा गलत है। शिलालेखों में गोल्लादेश के स्पष्ट उल्लेख केवल श्रवणबेलगोला में पाये गये है। इनके अंश आगे दिये गये है। इनमें गोल्लाचार्य नाम के मुनि का उल्लेख है । ये गोल्लादेश के राजा थे व किसी कारण से इन्होंने दीक्षा ले ली थी। मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ऐपिग्राफिका कर्णाटिका ! श्रवणबेलगोला ग्रन्थ में कहा गया है कि इन्हें पहिचानना सम्भव नहीं है। सन १९७२ में अनेकांत में प्रकाशित लेख 'गोलापूर्व जाति पर विचार' में यह सम्भावना व्यक्त की गई थी कि श्रवणबेल्गोला के लेखों में जिस गोल्लादेश का उल्लेख है, यह वही स्थान है जहाँ से गोलापूर्व, गोलालोर व गोलसिंधारे जैन जातियाँ निकली है । प्रस्तुत उहापोह से भी यह सम्भावना सही सिद्ध होती है । यहाँ निम्न प्रश्नों पर विचार किया गया है : १. कुवलयमालाकहा के अनुसार कहां-कहीं गोल्ला देश का होना असम्भव है ? जहाँ-जहाँ इसकी स्थिति असम्भव है, वहाँ छोड़कर अन्य क्षेत्रों में ही इसकी स्थिति पर विचार किया जाना चाहिये । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड २. श्रवणबेलगोला के लेखों में इस देश सम्बन्धी क्या जानकारी है ? ३. क्या प्राचीन काल में गोलापूर्व, गोलालारे व गोलसिंधारे जातियाँ एक ही प्रदेश की वासी थीं? यह स्थान कहाँ था ? ४. यह क्षेत्र गोल्लादेश कब से व किस कारण से कहलाया? इसके उल्लेख मिलना क्यों बन्द हो गये ? ५. गोल्लाचार्य कौन थे ? उनका समय क्या था ? कुवलयमालाकहा आदि पन्थों से गोल्लादेश को स्थिति का निर्धारण इन ग्रन्थों से पता चलता है कि ८-१२ वीं सदी के आसपास भारत के अधिकांश भाग में करीब १८ प्रमुख देश-भाषायें बोली जाती थीं। इनमें से सभी देशों को (गोल्लादेश के छोड़कर) सही पहिचान की जा सकती है । आधुनिक भारत का जो भाषाशास्त्रीय विभाजन किया जाता है, वह इन ग्रन्थों के विभाजन से काफो मिलता है । यह सम्भव है कि अलग-अलग भाषाओं व बोलियों की सीमाओं में तब से अब तक कुछ परिवर्तन हो गया हो क्योंकि जनसमदाय की अन्यत्र आस-पास जाकर बसने की प्रवृत्ति रही है। फिर भी, सुगमता के लिए यनिवर्सिटी आफ शिकागो द्वारा प्रकाशित 'ए हिस्टारिकल ऐटलस आफ साउथ एशिया में आधुनिक भाषाशास्त्रीय विभाजन के मानचित्र का प्रयोग किया जाता है। इन देशों की पहिचान इस तरह से की जा सकती है : १. आंध्र । यह स्पष्ट ही वर्तमान तेलुगू भाषा क्षेत्र अर्थात् आंध्र प्रदेश है । इसमें तैलंगाना भी शामिल है। २. कर्णाटक : कन्नड़ भाषो प्रदेश । कुछ उत्तरी भाग को छोड़कर वर्तमान समस्त कर्णाटक प्रदेश । ३. सिंधु । यह पाकिस्तान का सिंध प्रदेश है। मुलतानी हिन्दी-पंजाबी से मिलती है। अतः इसमें से मुल्तान निकाल देना चाहिए । कच्छी सिंधी से मिलती जुलती है । इसलिये कच्छ को सिंधु देश में मानना चाहिए । ४. गुर्जर : वर्तमान गुजरात । इसमें सौराष्ट्र शामिल है। वर्तमान राजस्थान का कुछ भाग भी इसमें माना जाना चाहिये । यह भाग प्राचीन काल में गुर्जर राष्ट्र का भाग माना जाता था क्योंकि यहाँ गुर्जर जाति का राज्य था। ५. महाराष्ट्र : मराठी भाषी। इसमें कोंकण भी माना जाना चाहिये। विदर्भ का काफी भाग गोंड आदि जातियों से बसा था, इसे प्राचीन महाराष्ट्र में नहीं माना जाना चाहिये । ६. ताजिक: वर्तमान सोवियत संघ व चोन-ताजिक भाषी प्रदेश । प्राचीन काल में यहां के यारकन्द व खोतान में पंजाब आदि से व्यापारिक सम्बन्ध थे। यहाँ अनेक प्राचीन ब्राह्मी व खरोष्ठी लेख पाये ग ७. टक्कु । पंजाबी भाषी । पाकिस्तानी व भारतीय पंजाब, जम्मू व सम्भवतः हरियाणा का कुछ भाग । मुलतान को भी इसी क्षेत्र में माना जाना चाहिए । ८. मालब : वर्तमान में इसे मध्यप्रदेश का मालवा हो माना जाता है। वास्तव में राजस्थान का कोटा के आसपास का कुछ दक्षिणी भाग भी प्राचीन मालब का भाग था । यहाँ प्राचोन काल में मालव जाति का राज्य था। ९. मरु । मारवाड़ी भाषी प्रदेश । राजस्थान से प्राचीन गुर्जर राष्ट्र, प्राचीन मालव व ब्रजभाषी क्षेत्र को निकाल कर जो शेष है, उसे ही मरु समझा जाना चाहिये। १०. मगष । बिहारी व भोजपुरी (पूर्वी उत्तर प्रदेश) भाषो प्रदेश । ११. कोशल : इस नाम के दो स्थान थे। एक तो वाराणसी के आसपास व दूसरा मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ के आसपास । दूसरा क्षेत्र दक्षिण-कोशल कहा जाता है। वर्तमान में दोनों क्षेत्रों की भाषायें पूर्वी-हिन्दी के अन्तर्गत आती है । अतः कोशल देशभाषा का क्षेत्र पूर्वी हिन्दो (अबधी, बघेली व छत्तीसगढ़ो) का ही माना जाना चाहिये । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा के आधार पर गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की पहिचान ४४९ १२. अन्तर्वेद : गंगा-यमुना के बीच के दोआब का अधिकतर भाग । १३. मध्यदेश : इसमें वर्तमान मध्यप्रदेश मानना भ्रम ही होगा। इसकी पश्चिमी सीमा सरस्वती नदी (जो सूख चुकी है) व पूर्वी सीमा प्रयाग मानी गई है । अन्तर्वेद को अलग मानने से इसकी दक्षिणी सीमा गंगा नदी तक मानना चाहिये । यह वही क्षेत्र है जहाँ आजकल खड़ी-बोली बोली जाती है। अत्यन्त प्राचीन काल में यह आर्यों के निवास क्षेत्र के मध्य में था, इसीलिये मध्यदेश कहलाया। १४. कोर : हिमालय के क्षेत्र में बसने वालों की (किरात जति की) भाषा । यह सम्भवतः वर्तमान नेपाली नहों, परन्तु प्राचीनतर नेवारी आदि हैं । इसे अनार्य (अर्थात् इंडो-यूरोपियन नहीं) माना गया है। इस सूची में दक्षिण की तमिल, मलयालम व पूर्व को बंगाली का उल्लेख नहीं है। लेखक के उतर-पश्चिम भाग में रहने के कारण उसे सम्भवतः इन दूरस्थ देशों की जानकारी नहीं रही होगी। कुवलयमालाकहा में खस. पारस (फरसी क्षेत्र) व बबंर (अज्ञात) का उल्लेख भी है । भारत में काफी बड़ा प्रदेश वनाच्छादित था, जहाँ गोंड आदि जातियों का निवास था। दक्षिणी मध्यप्रदेश, विदर्भ व उड़ीसा में आज भी बड़ी संख्या में इनका निवास है। यहाँ न तो महत्त्वपूर्ण स्थान थे, न अधिक आवागमन था । इसी कारण इस क्षेत्र को उपरोक्त देश-भाषाओं में शामिल नहीं किया गया। उपरोक्त क्षेत्रों के निकाल देने के बाद भारत में एक ही महत्त्वपूर्ण भूखण्ड बचता है। यह वह भाग है जहाँ ब्रज व बुन्देलखण्डी बोली जाती है। दोनों पश्चिमो हिन्दी के अन्तर्गत है व आपस में काफी समान हैं। अतः प्राचीन गोल्लादेश की स्थिति यही होना चाहिये । श्रवणबेल्गोला के लेख से निष्कर्ष श्रवणबेलगोला में कुछ बारहवीं शती के लेख है, इनमें किसी गोल्लाचायं का उल्लेख है। गोल्लादेश की स्थिति के निर्धारण में व गोल्लादेश के इतिहास के अध्ययन के लिये यह महत्त्वपूर्ण है। महानवमी मंडप में यादव-वंशी नारसिह (प्रथम) के मंत्री हुन्न द्वारा महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पण्डित के स्वर्गवास पर निषद्यानिर्माण किये जाने का उल्लेख है। शक् १०८५ (ई० ११६३) के इस लेख में देवकोति की गुरु-परम्परा का निर्देश है। गोल्लाचार्य के बारे में कहा गया है कि गोल्लाचार्य गोल्लदेश के राजा थे जिन्होंने किसी कारण से दीक्षा ले ली थी। यहां इनके गरु का नाम नहीं है । सिर्फ इतना कहा गया है कि ये अकलक की परम्परा में नन्दिगण के देशोगण में हुए थे। इनको शिष्य परम्परा (१) के अनुसार है(१) ११७३ ई० में शिष्यपरम्परा (२) १११५ में शिष्यपरम्परा गोल्लाचार्य गोल्लाचार्य अविद्धकर्ण पद्मनन्दि (कौमारदेव) त्रैकाल्ययोगी कुलभूषण अभयनन्दि कुलचन्द्रदेव सकलचन्द्र माघनन्दि मुनि (कोलापुरीय) मेषचन्द्र विध गण्डविमुक्तदेव देवकीति । एरडुकट्टे वसति के पश्चिम में एक मंडा के स्तम्भ में महाप्रधान दण्डनायक गंगराज द्वारा मेघचन्द्र विद्य के निधन पर शक १०३७ (ई० १११५) में निषद्या के निर्माण का उल्लेख है। इसमें भी गोल्लाचायं के गोल्लादेश के शासक होने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड का उल्लेख है। यहां महत्त्व की बात यह है कि उन्हें किसी 'नूलचन्दिल' राजवंश का कहा गया है। गोल्लाचार्य के गरु का उल्लेख नहीं है, पर उन्हें महेन्द्रकीति के शिष्य वीरणंदी की परम्परा में बताया गया है। यहां गोल्लाचार्य की शिष्य परम्परा उपरोक्त (२) के अनुसार दी गई है । सतिगन्धावरण वसति के मंडप में शक् १०६८ (ई० ११४६) के लेख में उपरोक्त मेधचन्द्र विद्य की परम्परा में हुए प्रभाचन्द्र का उल्लेख है। इस लेख में वे प्रथम ४१ पद्य नहीं हैं जो एरडुकट्टे वसति के लेख में हैं । इनमें गोल्लाचायं सम्बन्धी श्लोक भी है। कर्णाटक में ही एक अन्य स्थान में एक भग्न स्तम्भ पर बारहवीं सदी का एक लेख है। इसमें गोल्लाचार्य, उनके शिष्य गुणचन्द्र व उनके शिष्य इन्द्रनन्दि, नन्दिमुनि व कन्ति का उल्लेख है। लेख या उसका शब्दशः अनुवाद उपलब्ध नहीं हो सका है। फलतः यहाँ पर इतना जान लेना पर्याप्त है कि गोल्लाचार्य गोल्लादेश के थे व नत्लचंदिल वंश के थे। चंदिल स्पष्ट ही चंदेल का रूपान्तर है। इसी प्रकार से खण्डेलवाल को खडिल्लवाल कहा गया है । नूल नन्नुक का रूपान्तर जान पड़ता है, ये चंदेल राजवंश के स्थापक माने गये हैं। अतः गोल्ल या गोल्लादेश चंदेलों के राज्य में होना चाहिये । गोल्लापूर्व गोलालारे व गोलसिंघारे जातियों का मूल स्थान इन जैन जातियों के बारे में ऐसा माना जाता रहा है कि इनका प्राचीन काल में कुछ सम्बन्ध था। आगे के अध्ययन से स्पष्ट है, यह धारणा सही मालूम होती है। इसके इतिहास के अध्ययन से गोल्लादेश के निर्धारण में भी मदद मिलती है। किसी भी जाति के प्राचीन निवासस्थान को जानने के लिये निम्न विन्दुओं का अध्ययन उपयोगी है : १. जाति के नाम का विश्लेषण : जातियों के अध्ययन से यह मालूम होता है कि लगभग सभी जातियों का नाम स्थानों के नाम पर आधारित है। उदाहरणार्थ, अग्रवाल अगरोहा (अग्रोतक) के, श्रीमाल (ब्राह्मण व बनिया) श्रीमाल के, श्रीवास्तव (कायस्थ आदि) श्रावस्ती के, जुझौतिया ब्राह्मण जुझौत (जैजाकभुक्ति) के वासी रहे हैं । इस कारण एक ही स्थान से निकली कई वर्ग की जातियों का नाम एक ही है। उदाहरण के लिये : कनौजिया (कान्यकुब्ज) : ब्राह्मण, अहीर, बहना, भड़भूजा, भाट, दहायत, दर्जी, धोबी, हलवाई, लुहार, माली, नाई, पटवा, सुनार व तेली। जैसवाल (जैस, जिला रायबरेली): बनिया, बरई (पनवाड़ी), कुरमी, कलार, चमार व खटोक । श्रीवास्तव (श्रावस्ती) : कायस्थ, भड़भूजा, दर्जी, तेली । खंडेलवाल (खंडेला) : ब्राह्मण, बनिया। बघेल (बघेलखंड) : भिलाल, गोंड, लोधी, माली, पंवार । २. बोली: जब एक जाति के लोग अन्यत्र जाकर बस जाते है, तब कई पीढ़ियों तक अपने पूर्वजों की भाषा का प्रयोग करते रहते हैं। ३. विस्थापन की दिशा: बहुत से परिवारों में सौ या दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के स्थान की स्मृति बनी रहती है। एक ही जाति के अनेक परिवारों के इतिहास से यह मालूम हो सकता है कि यह किस दिशा से आकर बसी है। ४. वर्तमान में निवास : किसी जाति के दूर-दूर तक फैल जाने पर भी अक्सर उसके केन्द्रीय स्थान में उसका निवास बना रहता है। उदाहरणार्थ, हरियाणा के आसपास आज भी अग्रवाल काफ़ी संख्या में हैं। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमालाकहा के आधार पर गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की पहिचान ४५१ ५. प्राचीन शिलालेख : शिलालेख किसी जाति के प्राचीन निवास स्थान के सबसे महत्वपूर्ण सूचक हैं।' ६. गोत्रों के नाम : अनेक जातियों के कई गोत्रों के नाम स्थान सूचक हैं । गोत्रों के नाम से सैकड़ों वर्ष पूर्व के निवास स्थान को पहिचान की जा सकती है। तीनों जातियों में गोलापूर्वो की संख्या सबसे अधिक है (लगभग २४०००)। इन पर काफी जानकारी भी उपलब्ध है । इस जाति का संक्षिप्त इतिहास आगे दिया गया है। गोलालारों की वर्तमान जनसंख्या करीब १२,००० है । सन १९१५ में इनकी सबसे अधिक संख्या ललितपुर में (४००) थी। इससे कम जनसंख्या (२७०) भिंड में थी । इनका प्राचीन निवास भिंड के आसपास था, ऐसा माना गया है । इनके शिलालेख ग्यारहवी शती के उत्तरार्ध से मिलते हैं जिनमें गोलाराडे नाम प्रयोग किया गया है। ये गोल्लाराष्ट्र के निवासी होने के कारण ही गोलाराडे कहलाये । इसी प्रकार से महाराष्ट्र के निवासी मराठे, सौराष्ट्र के निवासी सोरठे व काराष्ट्र के निवासी कर्हाडे कहलाये । अहार के लेखों में एक गगंराट जाति का उल्लेख है । ये सम्भवतः गंगराड (जि० झालावाड़) से निकले गंगराडे या गंगेरवाल हैं। गोलसिंघारे लगभग १४०० की जनसंख्या की एक लघुसंख्य जाति है । इसके प्राचीन उल्लेख १७वीं शताब्दी से पूर्व देखने में नहीं आये। लेखों में इन्हें गोलश्रृंगार कहा गया है। सन् १९१२ में इनकी सबसे अधिक जनसंख्या (२९८) इटावा में थी। इनका प्राचीन स्थान भी भिंड के आसपास कहा जाता है। गोलापूवं जाति का बारहवीं सदी के आसपास का निवास स्थान निश्चित रूप से पहिचाना जा सकता है क्योंकि १. इनमें बुंदेलखंडी ही बोलने की परम्परा है । २. कई गोलापूर्व परिवारों के पूर्वज टीकमगढ़, छतरपुर, सागर आदि जिलों से अन्यत्र पिछले १००-२.. वर्षों में जाकर बसे हैं। ३. सन् १९४० की गोलापूर्व डायरेक्टरी के अनुसार इनको काफ़ो जनसंख्या टोकमगढ़ जिले में खरगापुर, बल्देवगढ़ व ककरवाहा के आसपास, छतरपुर जिले में गुलगंज, मलहरा व दरगुओं के आसपास, ललितपुर जिले सोजना, मंडावरा व गिरार के आसपास व सागर जिले में सेरापुर, शाहगढ़ व बरायठा के आसरास बपता है। यह उल्लेखनीय है कि ये सब स्थान धसान नदी के दोनों ओर १५-२० मील के अन्दर-अन्दर ही है। ४. इन स्थानों में गोलापूर्व अन्वय के प्राचीनतम शिलालेख हैं । लेखों में कई बार गोल्लापूर्व शब्द प्रयुक्त हुआ है । कुछ लेखों की सूचनाएं निम्न है : (अ) पपौरा (जि० टीकमगढ़) (१) सं० १२०२ का टुड़ा के पुत्र गोपाल, उसको पत्नो माहिणी व पुत्र सांठु का लेख । (२) सं० १२०२ का गल्ले व उसके पुत्र अकलन का लेख । (३) छतरपुर (१) सं० १२०५ का अरास्त, उसकी पत्नी लहुकण व पुत्र सांतन व आल्हण का लेख । (२) संभवतः इसी समय का कक्का के पुत्र वोसल आदि का लेख । छतरपुर में कुछ लेख पढ़े नहीं जा सके हैं। (स) अहार (१) सं० १२०३ का तावदे, पत्नी जसमती व पुत्र लंपावन का लेख । (२) सं० १२१३ का जाल्ह, पत्नी मलका व पुत्र पोहावन का लेख । (३) सं० १२१३ का जाल्ह पानी मलहा व पुत्र सौदेव, राजजस व वछल का लेख । (४) सं० १२३१ का देवनन्द, पुत्र अमर व पत्नो प्रविणी का लेख । (५) १२३७ के ३ लेख । । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ पं० जगम्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ (ब) नावई (ललितपुर) (१) सं० १२०३ का नन्दे व अच्छे का मानस्तम्भों पर लेख । (घ) ललितपुर (१) सं० १२४३ का राल, पत्नी चम्पा, उनके पुत्र योल्हे, उसकी पत्नी वादिणी व उनके पुत्र रामचंद्र, विजयचंद्र, उदयचंद्र व हाललचंद्र का लेख । (र) बहोरीबंद (१) सं० १०१० या १०७० का चेदि के कलचुरि गयाकर्ण के राज्यकाल का, गोलापूर्व अन्वय के श्रीसर्वधर के पुत्र महाभोज का लेख । इस लेख का संवत् ठीक से नहीं पढ़ा गया है। गयाकर्ण का समय का ई० ११२३ से ई० ११५३ तक माना गया है | अतः १०७० शक संवत् ही होना चाहिये । [ खण्ड बहोरीबंद का लेख संभवतः किसी प्रवासी परिवार का है जो व्यापार के लिये निकटस्थ कलचुरि राज्य में बस गया होगा । (ल) महोबा १. सं० १२१९ का भस्म का आदिनाथ प्रतिमा पर लेख । २. सं० १२४३ का रालु पत्नी चंपा, उनके पुत्र पोल्हे, उसकी पत्नी वांछिहणी व उनके पुत्र रामचंद्र क विजयचंद्र के लेख का अभिनंदन प्रतिमा पर लेख । यह वही परिवार है जिसका ललितपुर की प्रतिमा में उल्लेख है । ३. सं० १२४३ की मुनिसुव्रत प्रतिमा पर लेख । यह पूरा पढ़ा नहीं गया है । यहाँ पर सं० ८२१, ८२२ (संभवत: दोनों कलचुरि सं ० हैं), ११४४ व १२०९ की मूर्तियों के निर्माता की जाति का उल्लेख नहीं है । महोबा चंदेलों की राजधानी रही थी । संभवतः इस कारण से यहाँ अन्यत्र से गोलापूर्वं आकर बसे हों । ऊपर घसान नदी के आस-पास जिस क्षेत्र का उल्लेख है, उसमें गोलापूर्वी के बारहवीं शताब्दी से अब तक के सभी सदियों के लेख हैं । कई अन्य लेख या तो अब तक पढ़े नहीं गये हैं या उनके निर्माणकर्ता की जाति का उल्लेख नहीं है। गोत्र ब्रिटिश राज्य के पूर्व का सं० १८२५ (ई० १७६८) में खटोरा ( खटौला, छतरपुर) निवासी नवलसाह चंदेरिया ने वर्धमान पुराण की रचना की थी । केवल यही एक ग्रंथ है जिसमें गोलापूर्व जाति के बारे में विशेष जानकारी दी गई है। इसमें गोलापूर्व जाति के ५८ गोत्र गिनाये गये हैं । इस ग्रंथ के विभिन्न पाठांतरों व अन्य गोत्रावलियों को मिलाने से करीब ७६ गोत्रों के नाम मिलते हैं । इनमें से अब केवल ३३ गोत्र शेष हैं । ७६ में से अधिकतर स्थानों के नाम पर आधारित हैं । इनमें से कुछ इस प्रकार पहचाने जा सकते है । चंदेरिया - चंदेरी ( टीकमगढ़, बल्देवगढ़ के पास ) पपौरया - पपौरा (टोकमगढ़, बल्देवगढ़ के पास ) मिलसैयां - भेलसी ( टीकमगढ, बल्देवगढ़ के पास ) सोरवा - सोरई (ललितपुर, मडावरा के पास ) दरगैयां - दरगुवां (जि० छतरपुर, हीरापुर के पास ) कनकपुरिया - कन्नपुर ( टीकमगढ़, बल्देवगढ़ के पास ) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] कुवलयमालाकहा के आधार पर गोल्लादेश व गोल्लाचार्य की पहिचान ४५३ हीरापुरिया-हीरापुर (सागर) मशगैयां-मझगुवां (जि० छतरपुर, बक्स्वाहा के पास) धमोनिया-धामोनी ( सागर )। उपरोक्त ९ में से केवल चंदेरिया व मिलसैयाँ ही शेष है अन्य गोत्र नष्ट हो चुके हैं । ये सभी स्थान धसान नदी के दोनों ओर १५-२० मील के अंतर्गत ही है। ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि ११-१२वीं से १८-१९वीं सदी तक गोलापूर्व जाति का मुख्य निवास घसान नदी के दोनों ओर, अक्षांश २५ से २४° तक, था। कई लेखकों का अनुमान था कि गोलापूर्वो का मूल स्थान ओरठा राज्य (वर्तमान टीकमगढ़ जिला) था। पर यह मत भ्रमजनक हो सकता है। ओरछा के अधिकतर भाग में (विशेषकर ओरछा के चारों ओर ४० मोल तक) गोलापूर्वो का निवास नहीं था। ललितपुर, सागर व छतरपुर जिले के कुछ भागों में गोलापूर्वो का प्राचीनकाल से निवास स्पष्ट सिद्ध होता है । ११-१२वीं सदी से पूर्व गोलापूर्वो का निवास कहाँ था? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। नवलसाह चंदेरिया ने वर्षमान पुराण में ८४ वैश्य जातियों की नामावली के बाद लिखा है। तिन में गोलापूर्व को उतपति कहीं बखान । संबोधे श्री आदिजिन, इक्ष्वाक वंश परवान ।। गोयलगढ़ के वासी तेस, आए श्री जिन आदि जिनेश । चरणकमल प्रणमैं धर शीस, अरु अस्तुति कीनी जगदीश ।। तब प्रभु कृपावंत अतिभये, श्रावक व्रत तिनहू को दये। क्रियाचरण की दीनी सीख, आदर सहित गही निज ठीक ।। पूर्वहि थापी नैत नु एह, अरु गोयलगढ़ थान कहेह । तातें गोलापूरब नाम, भाष्यो श्रीजिनवर अभिराम ॥ अधिकतर विद्वानों ने गोयलगढ़ को ग्वालियर माना है। परमानन्द शास्त्री ने इसे गोलाकोट माना है । लेकिन ई० १७६८ के इस कथन को क्या महत्व दिया जा सकता है ? ग्वालियर के आस-पास दूर-दूर तक गोलापूर्व जाति के निवास का कोई चिन्ह नहीं पाया गया है। ऊपर कहा जा चुका है कि गोलालोर व गोलसिंधारे जातियों का प्राचीन निवास भिंड के आस-पास मालूम होता है । एटा (उ० प्र०) के सं० १३३५ (१२७८ ई०) के एक लेख में मूलसंघ के गोललतक अन्वय के कुछ व्यक्तियों द्वारा तीन मूर्तियों की स्थापना का उल्लेख है। इस जाति के बारे में कोई अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है । गोलापूर्व नाम की तीन अन्य अजैन जातियाँ हैं। इनमें गोलापूर्व दर्जी व गोलापूर्व कलार जातियों के बारे में भी कोई सूचना नहीं है । परंतु गोलापूर्व नाम की एक ब्राह्मण जाति के बारे में कुछ जानकारी प्राप्य है। गोलापूर्व ब्राह्मणों की जनसंख्या संभवतः एक से छह लाख के बीच होगी । इनका प्रमुख काम पौरोहित्य आदि नहीं, बल्कि खेती, जमींदारी आदि है । इनका निवास आगरा जिले के आस-पास है । आचार व्यवहार आदि से इन्हें सनाढ्य ब्राह्मणों से संबंधित माना गया है । ग्वालियर राज्य के उत्तरी भाग में (अंबाह के आस-पास) इनके कुछ गाँव थे। ___ कई लेखकों ने इस बात की संभावना व्यक्त की है कि हो सकता है कि गोलापूर्व जैन व गोलापूर्व ब्राह्मण जातियां प्राचीनकाल में एक ही रही हों। परंतु विशेष अध्ययन से यह संभावित नहीं लगता। पर इस बात की पूरी संभावना है कि ये कभी एक ही स्थान की वासी रही होंगी। अगर गोलालारे, गोलसिंघारे, गोलापूर्व ब्राह्मण जातियां एक ही क्षेत्र के (आगरा, भिंड, इटावा आदि) निवासी थी, तो गोलापूर्व जैन भी कभी उसी क्षेत्र के वासी होने चाहिये । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड यहाँ दो प्रश्नों पर विचार महत्वपूर्ण है। क्या नवलसाह चंदेरिया का ऐतिहासिक ज्ञान विश्वास के योग्य है ? यदि है, तो गोयलगढ़ स्थान कौन सा है ? पं० मोहनलाल काव्यतीथं (गोलापूर्व डायरेक्टरी के संपादक) ने नवलसाह के लेखन को विश्वसनीय नहीं माना था / परंतु ध्यान से परीक्षा करने पर नवलसाह के कथन अक्सर प्रामाणिक निकलते हैं। नवलसाह ने अपने से छह पीढ़ी पहले के पूर्वज भेलसी निवासी भीषमसाह द्वारा सं० 1691 (अर्थात् 174 वर्ष पूर्व) गजरथ चलवाकर सिंघई पद पाने का उल्लेख किया है / यह स्पष्ट ही सही है क्योंकि भीखमसाह चंदेरिया द्वारा निर्मित सं० 1691 का मंदिर भेलसी में आज भी है / नवलसाह ने चंदेरिया बैंक (गोत्र) के चार खेरों (ग्रामों) का उल्लेख किया है। यह जानकारी तब की है जब चंदेरिया कुल के लोग केवल चार ग्रामों में बसते थे। नवलसाह के पूर्वज बड़खेरे के निवासी थे। इतना ही नहीं, नवलसाह ने अपने प्राचीन काल के पूर्वज गोल्हनसाह (गोल्हण साह) के बारे में भी लिखा है जो चन्देरी के निवासी थे। शिलालेखों से पता चलता है कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में इस प्रकार के नाम काफ़ी लोकप्रिय थे। नवल साह को गोल्हन साह से भीषम साह तक भी कुछ जानकारी उपलब्ध थी, परन्तु "तितने जो सब वर्णन करो, बाढ़ ग्रंथ पार नहीं थरो" / नवलसाह ने गोयलगढ़ का उल्लेख किसी श्रुत परम्परा के आधार पर किया था, यह मानना पड़ेगा। गोयलगढ़ ग्वालियर ही मालूम होता है। गोयलगढ़ तो पद्य के लिए प्रयुक्त गोयलगढ़ का रूपान्तर है / यहाँ पर ग्वालियर के इतिहास व ग्वालियर शब्द की उत्पत्ति पर विचार आवश्यक है। ग्वालियर नाम किसी ग्वालिय ऋषि के नाम पर पड़ा कहा जाता है / पर यह आधुनिक कल्पना ही है। प्राचीन लेखों में इसे गोपाद्रि, गोपाचल आदि कहा गया है। इसका अर्थ है कि पर्वत का सम्बन्ध गोप जाति से या किसी गोप व्यक्ति से माना जाता था। गोप शब्द के कई रूपान्तर हैं-उत्तर भारत में ग्वाल, ग्वला, गावली, गावरी आदि / दक्षिण भारत में अनेक चरवाहा जातियाँ है-ये ये सब गोल्ला कहलाती हैं। ग्वालियर शब्द में प्रथम भाग ग्वाल अर्थात् गोप ही है / दूसरा भाग सम्भव है गढ़ का अपभ्रंश हो। यद्यपि यह प्रवृत्ति सन्देहरहित नहीं है / ग्वालियर के किले के प्राचीनतम लेख हण (शक) तोरमाण व उसके पत्र मिहिरकुल के है। तोरमाण पंजाब के शाकल स्थान का राजा था , स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद उसने मध्य भारत पर अधिकार कर लिया था। कुवलयमालाकहा के अनुसार तोरमाण हरिगुप्त नाम के जैन आचार्य का अनुयायी था। इसके एरण (जि. सागर) के पास ई० 495 का लेख व सिक्के मिले हैं। 535 के आसपास कौस्मस इंदिकोप्लूस्तस (अर्थात् भारत मार्गदर्शक) नाम के प्रोक (यवन) लेखक ने अरब, फारस. भारत आदि देशों की यात्रा का विवरण किया है। इसने गोल्लास् नाम के किसो शक्तिशाली राजा का उल्लेख किया है। ग्रीक भाषा में नामों के बाद स् लगता है (जैसे संस्कृत में विसर्ग लगता है), इस कारण से नाम गोल्ला होना चाहिए। इतिहासकारों का अनुमान है कि यह मिहिरकुल है जिसे ई० 533 के लेख के अनुसार यशोधर्मा ने परास्त किया था। मिहिरकुल को मिहिरगुल भी लिखा गया है, गोल्लागुल का ही रूप है, ऐसा अनुमान किया गया है / परन्तु यह भी सम्भव लगता है कि गोल्लादेश (ग्वालियर के आसपास) का अधिपति होने के कारण वह गोल्लास् कहलाया। यदि नवलसाह का कथन माना जाए, तो गोल्लापूर्व जाति ग्यारहवीं-बारहवीं सदी से कई सौ वर्ष पहले ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र से जाकर बसी थी यह मानने से एक अन्य समस्या का समाधान हो जाता है। गोलालारे, गोलसिंघारे व गोलापूर्व ब्राह्मण जातियां ग्वालियर के आसपास ही (भिंड, आगरा, इटावा आदि जिलों में) बसती हैं / गोलापूर्व जैन जाति का भी प्राचीनतम निवास यही होना चाहिये / दसवीं-ग्यारहवीं सदी के पूर्व मूतिलेखों का प्रचलन बहुत ही कम था। इसके पहिले के अधिकतर शिलालेख राजाओं के मिलते हैं, सामान्यजनों के नहीं। इसी कारण से ग्वालियर के आसपास गोलापूर्व जाति के लेख नहीं हैं।