Book Title: Jinbhaktimay Vividh Gey Rachnao
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभक्तिमय विविध गेय-रचनाओ सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय (१) पञ्चजिनस्तोत्राणि श्री आदिनाथ-शान्तिनाथ-नेमिनाथ- पार्श्वनाथ तथा महावीरस्वामीएम पांच जिनेश्वरोनी स्तवना आ पांच स्तोत्रोमां अपभ्रंशभाषामां करी छे. अत्यन्त भाववाही तथा मधुर रचना छे. परंतु कर्तानो उल्लेख क्यांय नथी. कदाच-छेल्ला स्तोत्रमा आवता उत्तम / कल्लाण शब्दोथी कर्ताए पोतानुं नाम जणाव्यु होय. विद्वानो प्रकाश पाडे. प्रत्येक स्तोत्रमा ते ते भगवानना सम्यक्त्व पाम्या पछीना भवोनी गणना दर्शावी साथे ज तेमनां माता-पितानां नाम, पांच कल्याणकोनी तिथिओ. लाञ्छन- वर्ण-शरीरनी ऊंचाई-आयुष्य व. विगतोनी सुन्दर गूंथणी करी छे. प्रतिपरिचय : चाणस्माना ज्ञानभण्डारनी पोथीनी झेरोक्ष नकल परथी आ रचनाओ सम्पादित थई छे. कुल पत्रो ८ (आठ) छे. तेमां पहेलां श्रीसोमप्रभसूरि विरचित यमकमय जिनस्तुतिचतुर्विशतिका छे, त्यार बाद वस्तु छन्दोमय बीजी स्तुतिचतुर्विशतिका छे, अने छेल्ले आ पांच स्तोत्रो छे. लेखन शुद्धि सारी छे. अक्षरो पण सुन्दर तथा सुवाच्य छे. लेखनशैली जोतां प्रायः १७मा सैकामां लखाई होय तेवं अनुमान थाय छे. (२) अज्ञातकर्तृक-षड्भाषाबद्धश्रीचन्द्रप्रभस्तवः आ स्तवमां संस्कृत-प्राकृत-शौरसेनी-मागधी-पैशाचिकीचूलिकापैशाचिकी तथा अपभ्रंश एम संस्कृतमां तथा प्राकृतनी छ भाषामां एक / बे श्लोको द्वारा श्रीचन्द्रप्रभस्वामीनी स्तुति करवामां आवी छे. समसंस्कृतप्राकृतभाषामां बे श्लोकोथी स्तुति करी छेल्ले फरी संस्कृत श्लोकथी उपसंहार करवा द्वारा स्तवनी समाप्ति करी छे. कुल पद्यो १३ (तेर) छे. शैली अत्यन्त रोचक छे. छन्दोनी पसंदगी पण ते ते भाषाने अनुरूप ज करी छे. कर्तानो कोई उल्लेख नथी. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2005 21 प्रतिपरिचय : वढवाणना ज्ञानभण्डारनी प्रतिनी झेरोक्ष नकल परथी आ कृतिनुं सम्पादन कर्यु छे. कुल २ (बे) पत्रो छे. अक्षरो सुवाच्य तथा सुन्दर छे. लेखनमां थोडी अशुद्धिओ रही गई छे. १२ मा पद्यमां छेल्लो शब्द भुरुहकुंजर छे तेना स्थाने बीजो कोई शब्द होवो जोईए. लेखनदोषथी भूल रही गई जणाय छे. प्रतिनुं लेखन गोंडलनगरमां थयुं छे. (३) श्रीरामविजयजीकृत - विविधनामगुम्फित - श्रीजिनस्तवना __ आ स्तवनामां जिनेश्वरभगवन्तनां जुदां जुदां ५२ (बावन) नामोथी स्तुति करवामां आवी छे. भाषा हिन्दी छे. शैली मधुर तथा भाववाही छे. कुल ७ कडी छे. कर्तानो उल्लेख अन्तिम कडीमां रांम एवा शब्दथी को छे, तेना उपरथी पं. सुमतिविजयजी कविना शिष्य पं. श्रीरामविजयजी होय तेवू अनुमान थई शके. वढवाणना ज्ञानभण्डारनी प्रतिनी झेरोक्ष नकल परथी आ रचना सम्पादित थई छे. कुल पत्रो २ (बे) छे. बीजा पत्रमा षड्भाषाबद्ध श्रीचन्द्रप्रभस्तव छे. अक्षरो सुन्दर छे. तेनुं लेखन गोंडलनगरमां थयुं छे, तेवू प्रान्ते लखेल पुष्पिकाथी जणाय छे. लेखनकाळ १८मो सैको होवानुं अनुमान थाय छे. (१) पञ्चजिनस्तोत्राणि __ श्री आदिनाथस्तोत्रम् जय जयपईव ! कुंतलकलाव-विलसंतबहलकज्जलसहाव ! । कलहूयकंति ! मरुदेवि-नाभि-निवतणय ! रिसहवसहंक ! सामि ! ||१|| धण-मिहुण-तियस-नरनाह-देव-निववयरजंघ-मिहुणे-स चेव । सोहम्म-विज्ज-अच्चुय-चक्कि-सव्वट्ठसिद्धि-अवयरी(रि)अ इत्थि ।।२।। आसाढबहुल चवीउ चउत्थि, कसिणट्ठमि जायउ मास चित्ति । इक्खागु भूमि नयरी विणीय, धणु पंचसय तिहि तणु पणीय ॥३॥ चित्तट्ठमि गिन्हइ सामि दिक्ख, चउ सहस समन्निय कसिण पक्खि । इग्यारसि बहुली फग्गुणस्स, संपज्जइ केवलनाण तस्स ॥४॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसन्धान ३३ माह वदि तेरसि उज्जल - नियजसि पुव्वलक्ख चुलसीय - जू (जु)य । जय पढमजिणेसर ! सू(सु) अभरहेसर !, करि पसाउ निम्मलचरी (रि) य ॥५॥ ॥ इति श्रीआदिनाथस्तोत्रम् ॥ श्रीशान्तिनाथस्तोत्रम् ॥ वीससेण- अइरादेविनंदण ! तणुहरण ! जय अपुव्वहरिणंक- अखंडियतणुकिरण ! । सिरिसिरिसेण - कुरुनर - सोहम्म- खयरनिवपाणय- सो अपराजी (जि) य - अच्चुयइंदभव ! ||१|| विज्जाहिव गेविज्ज-नरवइमेहरह सव्व अवयन्नउ गयउर संतियह भाद्रवए वदि- सातमि सामी चवण तुह जि- कसिण - तेरसि-निसि जायउ जम्भमहो ॥२॥ जिट्ठ - चउद्दसि - बहुलीय संजमसिरि वरीय पोस - सुदि - नउमि - दिणि केवलवरि वरीय । जि - कसिण - तेरसिनिसि कंचणकंतितणु मुक्खसुक्ख पहु पामीय छंडिय कम्मवण ॥३॥ चउसट्ठि सहस - अंतर चुलसीयलक्खयहय-गय- रहवर छन्नवइकोडि - पायक तह य । नवनिहि चऊदरयण छक्खंड - सभूमिवर धम्मचक्क सोलसमु पंचम चक्कर ||४|| चालीसधणुहदेहो, लक्खं वरिसाण जीवियं जस्स । सो संतिनाहदेवो, करेइ संघस्स सिवसंती ॥५॥ ॥ इति श्री शान्तिनाथस्तोत्रम् ॥ श्रीनेमिनाथ स्तोत्रम् ॥ पंचजन्त्रि - आउरिय-संख जिणि दिगह अज्ज वि जसु पय सेवइ लंछणमिसि जिणह 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2005 रायमई-मणवल्लह सोहगसुंदरह नेमि-चरीयनिज्जइ फलिणी-सामलह ॥१॥ आसि धणो तसु दइया धणवई, सुहमसुर चित्तगइविज्जाहर-रयणमइ, महिंदसुर । अपराजी(जि)य-प्री(प्रि)य-प्रीयमइ पायारणह संखनिवो तसु जसुमइ प्री(प्रि)य, अपराजी(जि)यह ।।२।। नवमभवे सोरियपुरि समुदविजय-घरणि सिवादेविराणी नंदण जायु कुल-तसुण । कत्ती किसिण दुवालसि अपराजी(जि)य-चवणु श्रावणसिय पहु पंचमि मंदरगिरि-ण्हवण ॥३॥ सी(सि)य-छट्ठि सावण सहससमन्निय-वयगहणं रेवइ गिरिवरि सामी रायमह-परिहरणं । दिण चउपन्न-अणंतर आसोऽमावसह केवलनाणी विहरइ तणु जसु दस धणुह ॥४॥ जीविय वरिस-सहस्सं आसाढे अट्ठमीय सियपक्खे । संपत्तं सिद्धिसुहं उज्जिते नमह नेमिजिणं ॥५॥ ॥ इति नेमिनाथस्तोत्रम् || श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ सामि-सामलय-तणु-कंति-किरणावली, जयउ विलसंत-कल्लाण-घण-मंडली । जयउ धरणिंद- फणि-रयण-रय-विज्जला, भवियघ(ज?)ण-मोर नच्चंति हरिसुज्जला ॥१॥ नाह मर(रु)भूइ-भवि भमी(मि)य वणि गयवरो, देव-सहसार विज्जाहरज्झूअ(हरऽच्चुअ)-सुरो । विज्जनाहो य गोविज्ज कणयापहो चक्कवट्टी य पाणयविमाणच्चुउ(ओ) ॥२।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अनुसन्धान ३३ चित्त-चउत्थीइ कसिणाइ वाणारसीनयरि निव-आससेणस्स वामा सई । पोसदसमीइ कसिणाइ जम्मुत्सवो तास इग्यारसी गिण्हए संजमो ॥३॥ कसिण-चउत्थीइ चित्तस्स तुह केवलं सुद्ध-अट्ठमिहि श्रावणह पत्तो सिवं । नाह-तणुमाण नव-हत्थ फणिलंबणो वरिससउ आउ जिण नयण-आणंदणो ॥४॥ जिण विघन-विणासण-पाव-पणासण पास पसन्नउ होउ महो । पउमावइदेवी जसु पयसेवी मनवंछित-सुह देउ महो ||५|| ॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ श्रीमहावीरस्तोत्रम् ॥ जयउ सो सामी वीरजिणंदो, पिक्खिय लंछणि जासु मइंदो । संगमकामिणि-मणि-मणि-वासो, कामकरी किम करइ उल्हासो ।।१।। नयसार-सोहमि-मिरीय-सुबंभे, कोसी(सि)य-सुर-वसुमित्त-सुहम्मे । अग्गिजोई-ईसाण-ऽगिभूई, सिरिभारदह-महिंद-चउगई ॥२॥ थावर-सुर-वसुभूइ य सक्के, हरि-नारय-सीह-नारय-चक्के(को?) । सकीय नंदण-पाणय-चवीउ, देवाणंदा-ऊ(उ)अरि अवयरिउ ॥३॥ सी(सि)यछट्ठि-ऽसाढह वसीउ बियासी-दिणि आणेई हरिणेगमेसी । कुंडगामि सिद्धत्थह नरवइ-वालंभ-त्रिसला तसु कुक्खि आवइ ॥४॥ चैत्र-सी(सि)य-तेरसि जायु जम्म, मेरु-कंपावी(वि)य सुणीइ रम्म । छप्पियनंदण दईय जसोआ, नंदिवर्धन पहो जाणे भाया ॥५॥ बहुल-दसमि पहु मगसिरमासह, दिक्ख लेउ सही(हि)या उवसग-सहस । सिय-वइसाह-दसमिइं केवल, कत्ती(त्ति)यऽमावस सुद्ध-सी(सि)य-निम्मल ।।६।। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2005 25 इय जिणवीरह कणयसरीरह सत्तहत्थ-उच्चत्ततणु । जय गणहरगोयम ! जगि जस उत्तम फली(लि)य-सयल-कल्लाणवण ॥७॥ ॥ इति श्रीमहावीरस्तोत्रम् ॥ (२) अथ चन्द्रप्रभुस्तवाः] षड्भाषाबन्धाद्धः] लिख्यते ॥ नमो महसेननरेन्द्रतनु(नू)ज ! जगज्जनलोचनभृङ्गसरोज ! । स(शारद्भक्सोमसमद्युतिकाय ! दयामय ! तुभ्यमनन्तसुखाय ! ॥१॥ सुखीकृतसादरसेवकलक्ष ! विनिर्जितदुर्जयभावविपक्ष ! । सुरासुरवृन्दनमस्कृत ! नन्द महोदयकल्पमहीरुहकन्द ! ॥२॥ ॥ इति संस्कृतभाषा || [ छन्दः पज्झटिका ] जय नीरसीय(निरसिय)तिहुयणजंतुभंति ! जय मोहमहीरुहदलणदंति ! । जय कुंदकलीसमदंतपंति ! जय जय चंदपह ! चंदकंति ! ॥३॥ जय पणयपाणिगणकप्परुक्ख ! जय जगडियपयडकसायपक्ख ! । जय निम्मलकेवलनाणगेह ! जय जय जिणंद ! अपडिमदेह ! ॥४॥ ॥ इति प्राकृतभाषा ॥ विगद-दुहहेदु-मोहारिकेदूदयं दलिद-गुरु-दुरिद-मद-विहद-कुमुद ख(क्ख)यं । नाध ! तं नमदि जो सदद-नद-वच्छलं लहदि नी(नि)व्वुदिगदि(दि) सो ददं निम्मला(ल) ॥५॥ इति सू( शूरसेनीभाषा । असुल-सुल-विसल-नल-लाय-सेविदपदे नमिल-जयजंतु-तुदि दी(दि)न-शिवपुल-पदे । चलण-पू(पु)ल-निलद-संसालि-सलसीलुहे देहि मह शामि ! तुं शाल __ शासद-पदे ॥६॥ ॥ इति मागधि( धी)भाषा ॥ [ छन्दः त्रोटकः । तलिताखिल-तोस-तया-सतनं मद(त)नानल-नील-ममानगुणं । नालिनारुण-पात-तलं नमते जिन ! जो इध तं स शि(सि)वं लभते ॥७॥ ॥ इति पैसाचकी( पैशाचिकी )भाषा ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 अनुसन्धान ३३ [ छन्दः त्रोटकः । कलनालिकनातुल-तप्प-हलं लचनीकल-चालु-यसप्पसलं । ललनाचन-कीत-कुनं लुचिलं चिनलाचमहं समलामि चिलं ॥८॥ ॥ इति चौलिकापैशाचिकीभाषा ॥ [ छन्दः द्विपदी ] सासयसुक्खनिहाणं नाह ! न दिठो(ट्ठो) जेण तुह । पुण्यविहूणो जाण निप्प(प्फ)लजमु(म्मु) तिह नरपसुह ।।९।। निम्मल तुह मुहचंद्रु जे पहु ! पिक्खई(इ) पससिरई । ईय निरुवमआणंदु तिह मन सांमी विफू(प्फु)रई ॥१०॥ ॥ इत्यपभ्रंसि( शे) ॥ हारी(रि)हार-हरहास-कुंद-सुंदर देहभय (मय !) केवलकमलाकेलिनी(नि)लय ! मंजुलगुणगणमय ! । कमलारुणकरचरण ! भरधरणधवलबल ! सिद्धिरमणीसंगमवी(वि)लासलालस ! मलमवदल ॥११॥ भवदव-नवजलवाह ! विमलमंगल-कुलमंदिर ! वामकाम-कलकेलिहरण-हर ! वरगुणबंधुर ! | मंदिरगीर(मंदरगिरि)-गुरुसार ! सबलकर-भु(भू)रुहकुंजर ! देहि महोदयमेव देव ! मम भुरुहकुंजर(?) ॥१२॥ ॥ इति समसंस्कृतभाषा || [ छन्दः घत्ता ] इति जगदभिनन्दन ! जनहृदि नन्दन ! चन्द्रप्रभुजिनचन्द्रवर ! घट्()भाषाभिष्टुत ! मम मङ्गलयुत ! सिद्धिसुखानि वी(वि) भो ! वितर ॥१३॥ ॥ इति श्रीषड्भाषाबद्ध-चन्द्रप्रभस्तवमिदम् ॥ लि. श्रीगौडलनगरे ।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2005 27 (3) श्रीरामविजयजीकृत - विविधनामगुम्फित-श्रीजिनस्तवना अथ जिनस्तवना लिख्यते // मुंनिध्येय नमो, सुरगेय नमो, पतितपावन सुचिनांम नमो / चिंतितसकलमनोरथपूरण, कल्पतरुपरिणाम नमो मुं० // 1 // जिन मुंनी(नि)नाथ जिनेस्वर संकर, परमातम अरिहंत नमो / पारंगत परिमेष्ठि अधि(धी)स्वर, भयभंजण भगवंत नमो |मुं० // 2 // संभु स्वयंभु जगतप्रभु अभयद, वि(वी)तराग गुंणसिंधु नमो / बोधदायक त्रिहुंकाल के ग्यायक, असरण-सरण सुबंधु नमो |मुं० // 3|| केवलकमलाकंत महोदय, सिद्ध बुद्ध सर्वज्ञ नमो / ति(ती)र्थंकर ति(ती)थेस्वर ईश्वर, पुरुषोत्तम परमज्ञ नमो ||मुं० [|4|| आसअनंत अचिंतगुणाकर, निरमोहि-अविकार नमो / पूर्णानंद सयंबुद्ध साहिब, योगीसर जी(जि)तमार नमो ||मुं० ||5|| लोकालोकप्रकासक भासक, आनंदघन अविनास नमो। देवाधिदेव एक सरण तेरो, क्षायकभाव-विलास नमो मुं० // 6 // ईत्यादिक सुभनाम के धारक, करु प्रणिपति त्रिहुं काल नमो / रांम कहें तेरा सेवक उपर, करुणा दि(दी)नदयाल नमो |मुं० [7|| // इति श्रीजिनस्तुति //