Book Title: Jambudwip aur Adhunik Bhaugolik Manyato ka Tulnatmak Vivechan
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हरीन्द्र भूषण जैन अनेकान्त शोध पीठ ( बाडवली-उज्जैन) जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक (१) जम्बूद्वीप - वैदिक मान्यता वैदिक लोगों को जम्बूद्वीप का ज्ञान नहीं था । उस समय की भौगोलिक सीमाएँ निम्न प्रकार थीं - पूर्व की ओर ब्रह्मपुत्र नदी तक गंगा का मैदान, उत्तर-पश्चिम की ओर हिन्दुकुश पर्वत, पश्चिम की ओर सिन्धु नदी, उत्तर की ओर हिमालय तथा दक्षिण की ओर विन्ध्यगिरि । वेद में पर्वत विशेष के नामों में "हिमवन्त" (हिमालय) का नाम आता है । तैत्तिरीय आरण्यक ( १1७) में " महामेरु " का स्पष्ट उल्लेख है जिसे कश्यप नामक अष्टम सूर्य कभी नहीं छोड़ता, प्रत्युत सदा उसकी परिक्रमा करता रहता है । इस उल्लेख से प्रो० बलदेव उपाध्याय' इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि महामेरु से अभिप्राय " उत्तरी ध्रुव " है । वेदों में समुद्र शब्द का उल्लेख है, किन्तु पाश्चात्य विद्वानों के मत में वैदिक लोग समुद्र से परिचित नहीं थे । भारतीय विद्वानों की दृष्टि में आर्य लोग न केवल से समुद्र अच्छी तरह परिचित अपितु समुद्र से उत्पन्न मुक्ता आदि पदार्थों का भी वे उपयोग करते थे। वे समुद्र में लम्बी-लम्बी मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २. वही, पृष्ठ ३६२ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास Jaeducation Internationa यात्राएँ भी करते थे तथा सौ दाढ़ों वाली लम्बी जहाज बना लेने की विद्या से भी परिचित थे | 2 ऐतरेय ब्राह्मण ( ८ / ३ ) में आर्य मण्डल को पांच भागों में विभक्त किया गया है जिसमें उत्तर हिमालय के उस पार उत्तर कुरु और उत्तरमद्र नामक जनपदों की स्थिति थी । ऐतरेय ब्राह्मण ( ८ / १४ ) के अनुसार कुछ कुरु लोग हिमालय के उत्तर की ओर भी रहते थे जिसे 'उत्तर कुरु' कहा गया हैं । 3 (२) जम्बूद्वीप-- रामायण एवं महाभारतकालीन मान्यता रामायणीय भूगोल -- वाल्मीकि रामायण के बाल, अयोध्या एवं उत्तर काण्डों में पर्याप्त भौगो लिक वर्णन उपलब्ध है, किन्तु किष्किन्धाकाण्ड के ४० वें सर्ग से ४३ वें सर्ग तक सुग्रोव द्वारा सीता की खोज में समस्त वानर - नेताओं को वानर-सेना के साथ सम्पूर्ण दिशाओं में भेजने के प्रसंग में तत्कालीन समस्त पृथ्वी का वर्णन उपलब्ध है । १. प्रो० वलदेव उपाध्याय, 'वैदिक साहित्य और संस्कृति', शारदा मन्दिर काशी, १९५५, दशम परिच्छेद, "वैदिक भूगोल तथा आर्य निवास", पृष्ठ ३५५ । ३. वही, पृष्ठ ३६४ । वाल्मीकि ऋषि जम्बूद्वीप, मेरु तथा हिमवान् पर्वत एवं उत्तरकुरु से सुपरिचित थे साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ or Private & Personal Use Only ३८३ Roge Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उत्तरेण परिक्रम्म जम्बूद्वीपं दिवाकरः। जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा में क्रमशः भागीरथी, सरयू देश्यों भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छमम् । आदि नदियाँ, ब्रह्ममाल, विदेह, मगध आदि देश -(रामा. ४/४०/५८/५६) तत्पश्चात् लवणसमुद्र, यवद्वीप (जावा), सुवर्णरूप्यक / 'तेषां मध्ये स्थितौ राजा मेरुसत्तमपर्वतः ।' द्वीप (बोनियो', शिशिर पर्वत, शोणनद, लोहित। -(रामा. /४२/३८) समुद्र, कूटशाल्मली, क्षीरोदसागर, ऋषभपर्वत, 'अन्वीक्ष्य परदाश्चैव हिमवन्तं विचिन्वय' सुदर्शन तडाग, जलौद-सागर, कनकप्रभ पर्वत, उदय - (रामा. ४-४३-१२) पर्वत तथा सौमनस पर्वत । इसके पश्चात् पूर्व दिशा 'उत्तराःकुरवस्तत्र कृतपुण्यपरिश्रमाः ।' अगम्य है । अन्त में देवलोक है। -(रामा. ४-४३-२८) । जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में क्रमशः विन्ध्यपर्वत / जैन परम्परा में उत्तरकुरु को भोगभूमि कहा नर्मदा, गोदावरी आदि नदियाँ, मेखल, उत्पल, गया है। रामायण के तिलक टीकाकार भी उत्तर- दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ, आन्ध्र, चोल, पाण्ड्य, केरल कुरु को भोगभूमि कहते हैं आदि देश, मलय पर्वत, ताम्रपर्णी नदी, महानदो, KG 'तत आरम्य उत्तरकुरुदेशस्य भोगभूमित्वकथनम्' महेन्द्र, पुष्पितक, सूर्यवान्, वैद्य त एवं कुमार नामक - (रामा० ४-४३-३८ पर तिलक टीका) पर्वत, भोगवती नगरी, ऋषभ पर्वत, तत्पश्चात् यम जैन साहित्य में भोगभूमि का जैसा वर्णन प्राप्त की राजधानी पितृलोक । होता है वैसा ही वर्णन उत्तरकुरु का रामायण के जम्बूद्वीप के पश्चिम में क्रमशः सौराष्ट्र, बाहबाईस श्लोकों (४-४३-३८ से ६०) में उपलब्ध है। लीक, चन्द्रचित्र (जनपद), पश्चिम समुद्र, सोमगिरि, उनमें से कुछ श्लोक इस प्रकार हैं पारिमाल, वज्रमहागिरि, चक्रवात तथा वराह 'नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्रस्थाकुलाः । (पर्वत) प्राग्ज्योतिषपुर, सर्व सौवर्ण, मेरु एवं अस्ता-13 दिव्यगन्धरसस्पर्शाः सर्वकामान स्रवन्ति च ।। चल (पर्वत) और अन्त में वरुण लोक। नानाकराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः । इसी प्रकार जम्बूद्वीप के उत्तर में क्रमशः हिमसर्वे सुकृतर्माणः सर्वे रतिपरायणाः । वात् (पर्वत) भरत, कुरु, भद्र, कम्बोज, यवन, शक सर्वे कामार्थसहिता वसन्ति सहयोषितः ।। (देश), काल, सुदर्शन, देवसखा, कैलास, क्रौंच, 69 तत्र नामुदितः कश्चिन्मात्र कश्चिदात्प्रियः । मैनाक (पर्वत), उत्तरकुरु देश तथा सोमगिरि और अहन्यहविवर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः ।। अंत में ब्रह्मलोक ।। -(रामा. ४-४३, ४३-५२) महाभारतीय भूगोल-महाभारत के भीष्म प्रो० एस० एम० अली, भूतपूर्व अध्यक्ष, भूगोल आदि, सभा, वन, अश्वमेघ एवं उद्योग पों में भारत विभाग, सागर विश्वविद्यालय, रामायणीय-जम्बू- का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध है । तदनुसार जम्बूद्वीप की स्थिति पृथ्वी के बीच में मानते हैं जो कि द्वीप और क्रौंच द्वीप मेरु के पूर्व में तथा शक द्वीप भूगोल की जैन परम्परा से पर्याप्त मेल खाती है। मेरु के उत्तर में है। रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में जम्बूद्वीप का महाभारतीय भूगोल में पृथ्वी के मध्य में मेरु । जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है- पर्वत है। इसकी उत्तर दिशा में पूर्व से पश्चिम तक १ श्री एस० एम० अली एफ० एन० आय० 'दि ज्याग्रफी आफ दि पुरान्स,' पीपुल्स पब्लीशिंग हाउस, नई दिल्ली, १६४३, पृष्ठ २१-२३ । (संक्षिप्त रूप-'जियो० आफ पुराणास)' । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास : 538 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Ellion International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फैले क्रमशः भद्रवर्ष, इलावर्ष तथा उत्तरकुरु हैं। (४) जम्बूद्वीप-जैन मान्यता तत्पश्चात् पुनः उत्तर की ओर क्रमशः नील पर्वत, समस्त जैन पुराण, तत्त्वार्थ सूत्र (तृतीय श्वेत वर्ष, श्वेत पर्वत, हिरण्यक वर्ष, शृंगवान् अध्याय), त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि में समस्त विश्व पर्वत हैं। पश्चात् ऐरावत वर्ष और भीर का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध होता है। लोक के समुद्र है। इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में पश्चिम से तीन विभाग किये गये हैं-अधोलोक, मध्यलोक पूर्व तक फैले हुए केतुमाल वर्ष एवं जम्बूद्वीप हैं। तथा ऊर्ध्वलोक । मेरु पर्वत के ऊपर ऊर्ध्वलोक, पश्चात् पुनः दक्षिण की ओर क्रमशः निषध पर्वत, नीचे अधोलोक एवं मेरु की जड़ से चोटी पर्यन्त हरिवर्ष, हेमकूट या कैलाश, हिमवतवर्ष, हिमा- मध्यलोक है। लय पर्वत, भारतवर्ष तथा लवण समुद्र है।' यह मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो लवण समुद्र वर्णन जैन भौगोलिक परम्परा के बहुत निकट है। से घिरा है । लवण समुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड (३) जम्बूद्वीप-पौराणिक मान्यता नामक महाद्वीप है। धातकीखण्ड द्वीप को कालोप्रायः समस्त हिन्दू पुराणों में पृथ्वी और उससे दधि समुद्र वेष्टित किये हुए है । अनन्तर पुष्करवर सम्बन्धित द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदी, क्षेत्र आदि का द्वीप, पुष्करवर समुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र वर्णन उपलब्ध होता है। पुराणों में पृथ्वी को सात हैं । पुष्करवरद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है द्वीप-समुद्रों वाला माना गया है। ये द्वीप और जिससे इस द्वीप के दो भाग हो गये हैं । अतः जम्बूसमुद्र क्रमशः एक-दूसरे को घेरते चले गये हैं। द्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और पुष्कराध द्वीप इन्हें इस बात से प्रायः सभी पुराण सहमत हैं कि मनुष्य क्षेत्र कहा गया है। जम्बूद्वीप पृथ्वी के मध्य में स्थित है और लवण जम्बूद्वीप का आकार थाली के समान गोल है। समुद्र उसे मेरे हुए है। अन्य द्वीप समुद्रों के नाम इसका विस्तार एक लाख योजन है। इसके बीच और स्थिति के बारे में सभी पूराण एकमत नहीं में एक लाख चालीस योजन ऊँचा मेरु पर्वत है। हैं । भागवत, गरुड़, वामन, ब्रह्म, मार्कण्डेय, लिंग, मनुष्य क्षेत्र के पश्चात् छह द्वीप-समुद्रों के नाम इस कूर्म, ब्रह्माण्ड, अग्नि, वायु, देवी तथा विष्णु पुराणों प्रकार हैं-वरुणवर द्वीप-वरुणवर समुद्र, के अनुसार सात द्वीप और समुद्र क्रमशः इस प्रकार क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र, घृतवरद्वीप-घृतवर समुद्र, इक्षुवरद्वीप-इक्षवर समुद्र, नन्दीश्वर-द्वीप१-जम्बूद्वीप तथा लवण समुद्र, नन्दीश्वर समुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवर समुद्र, २-प्लक्ष द्वीप तथा इक्षु सागर, इस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात ३-शाल्मली द्वीप तथा सुरा सागर, द्वीप समुद्र हैं। ४-कुशद्वीप तथा सपिषु सागर, __ जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सात क्षेत्र, छह कुला५.-क्रौंच द्वीप तथा दधिसागर, चल और चौदह नदियाँ हैं। हिमवान्, महाहिम६-शक द्वीप तथा क्षीर सागर और वान्, निषध, नील, रुक्मो और शिखरी ये छह ७-पुष्कर द्वीप तथा स्वादु' सागर कुलाचल हैं। ये पूर्व से पश्चिम तक लम्बे हैं । ये १ श्री एस० एम० अली, "दि ज्याग्राफी आफ द पुरान्स' पृ० ३२ तथा पृ० ३२-३३ के मध्य में स्थित, चित्र म सं०२ 'दि वर्ल्ड आफ महाभारत-डायनामेटिक' । २ "जियो ऑफ पुरान्स" पृष्ठ-३८, अध्याय-द्वितीय-"पुराणिक कान्टीनेन्ट्स एण्ड औशन्स"। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 00-600 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 ३८५ Loucation International Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सात क्षेत्रों को विभाजित करते हैं उनके नाम (५) जम्बूद्वीप-प्राचीन एवं आधुनिक भौगोलिक ! हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन और ऐरावत । इन सातों क्षेत्रों में बहने वाली चौदह (क) सप्तद्वीप-विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण | नदियों के क्रमशः सात युगल हैं, जो इस प्रकार हैं- वायुपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण प्रभृति पुराणों में गंगा, सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, होन्त-हार- सप्तद्वीप और सप्तसागर वसुन्धरा का वर्णन आया कान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला है। वह वर्णन जैन हरिवंश पुराण और आदि-K रुप्यकुला तथा रक्ता-रक्तोदा। इन नदी युगलों में पर पुराण की अपेक्षा बहुत भिन्न है। महाभारत में से प्रत्येक युगल की पहली-पहली नदी पूर्व समुद्र तेरह द्वीपों का उल्लेख है। जैन मान्यतानुसार को जाती है और दूसरी-दूसरी नदी पश्चिम प्रतिपादित असंख्य द्वीप-समद्रों में जम्ब, क्रौंच समुद्र को। और पुष्कर द्वीप के नाम वैदिक पुराणों में सर्वत्र भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही हा आए हैं। छह बटे उन्नीस योजन है । विदेह पर्यन्त पर्वत और समुद्रों के वर्णन के विष्णु पुराण में जल के स्वाद क्षेत्रों का विस्तार भरतक्षेत्र के विस्तार से दूना- के आधार पर सात समुद्र बतलाए हैं । जैन परम्परा दना है। उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार में भी असंख्यात समुद्रों को जल के स्वाद के आधार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान हैं। पर सात ही वर्गों में विभक्त किया गया है। लवण, जम्बूद्वीप के अन्तर्गत देवकुरु और उत्तरकुरु सूरा, घत, दुग्ध, शुभोदक, इक्ष और मधुर जल । नामक दो भोगभूमियाँ हैं। उत्तरकुरु की स्थिति इन सात वर्गों में समस्त समुद्र विभक्त हैं। विष्ण सीतोदा नदी के तट पर है। यहाँ निवासियों की पुराण में 'दधि' का निर्देश है, जैन परम्परा में इसे इच्छाओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। इनके 'शुभोदक' कहते हैं। अतः जल के स्वाद की दृष्टिमा अतिरिक्त हैमवत, हरि, रम्यक तथा हैरण्यवत क्षेत्र में सात प्रकार का वर्गीकरण दोनों ही परम्पराओं भी भोगभूमियाँ हैं। शेष भरत, ऐरावत और में पाया जाता है। विदेह (देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर) कर्म- जिस प्रकार वैदिक पौराणिक मान्यता में भूमियाँ हैं। अन्तिम द्वीप पुष्करवर है, उसी प्रकार जैन मान्यता भरतक्षेत्र हिमवान् कुलाचल के दक्षिण में में भी मनुष्य लोक का सोपान वही पुष्करार्ध हैं। पर्व-पश्चिमी समुद्रों के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में तुलना करने से प्रतीत होता है कि मनुष्य लोक की सुकोशल, अवन्ती, पूण्ड, अश्मक, कुरु, काशी, सीमा मानकर ही वैदिक मान्यताओं में द्वीपों का कलिग, बंग, अंग, काश्मीर, वत्स, पांचाल, कथन किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में मालव, कच्छ, मगध, विदर्भ, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मान्य जम्बू, धातकी और पुष्करार्ध, इन ढाई द्वीपोंस कोंकण, आन्ध्र, कर्नाटक, कौशल, चोल, केरल, में वैदिक परम्परा में मान्य सप्तद्वीप समाविष्ट हो । शूरसेन, विदेह, गान्धार, काम्बोज, बाल्हीक, जाते हैं । यद्यपि क्रौंच द्वीप का नाम दोनों मान्यतरुष्क, शक, कैकय आदि देशों की रचना मानी जामसाज पाया है.7 शान निया गई है। की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री-"आदिपुराण में प्रतिपादित भारत", गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी,१६६८, पष्ठ ३६-६४: आदिपुराण में: प्रतिपादित भगोल प्रथम परिच्छेद तथा तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका, सम्पा दक पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९६५, तृतीय अध्याय, पृष्ठ २११-२२२ । । २ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत', पृष्ठ ३६-४० । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ३८६ 000 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E l international Cate&Personaruse Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध परम्परा में केवल चार द्वीप माने गए हैं। (ग) जम्बू (इण्डिया), कौंच (एशिया माइनर), समुद्र में एक गोलाकार सोने की थाली पर स्वर्ण- गोमेद (कोम डी टारटरी-Kome die Tartary), - मय सुमेरुगिरि स्थित हैं। सुमेरु के चारों ओर पुष्कर (तुर्किस्तान), शक (सीथिया), कुश (ईरान, । सात पर्वत और सात समुद्र हैं। इन सात स्वर्णमय अरेबिया तथा इथियोपिया), प्लक्ष (ग्रीस) तथा 0 पर्वतों के बाहर क्षीरसागर है और क्षीरसागर में शाल्मली (सरमेटिया Sarmatia)4 चार द्वीप अवस्थित हैं-कुरु, गोदान, विदेह और किन्तु प्रसिद्ध भारतीय भूगोलशास्त्री डा० जम्बू । इन द्वीपों के अतिरिक्त छोटे-छोटे और भी एस० एम० अली उपर्युक्त चारों मतों से सहमत HD दो हजार द्वीप हैं । नहीं हैं । पुराणों में प्राप्त तत्तत्प्रदेश की आवहना आधुनिक भौगोलिक मान्यता (climate) तथा वनस्पतियों (Vegetation) के पौराणिक सप्तद्वीपों की आधनिक भौगोलिक विशेष अध्ययन से सप्त द्वीपों की आधुनिक पहचान पहचान (Identification) तथा स्थिति के विषय में के विषय में वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचे वह इस दो प्रकार के मत पाए जाते हैं । प्रथम मत के अनुसार प्रकार हैसप्तद्वीप (जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, जम्बूद्वीप (भारत), शक द्वीप (मलाया, श्याम, शक तथा पुष्कर) क्रमशः आधुनिक वह महाद्वीप- इण्डो-चीन, तथा चीन का दक्षिण प्रदेश), कुश द्वीप एशिया, योरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया,उत्तरी अमे- (ईरान, ईराक), प्लक्ष द्वीप (भूमध्यसागर का रिका तथा दक्षिणी अमेरिका एवं एण्टार्कटिका पठार), पुष्करद्वीप (स्कैण्डिनेवियन प्रदेश, फिनलै (दक्षिणी ध्र व प्रदेश) का प्रतिनिधित्व करते हैं। युरोपियन रूस का उत्तरी प्रदेश तथा साइबेरिया) द्वितीय मत के अनुसार ये सप्तद्वीप पृथ्वी के शाल्मली द्वीप (अफ्रीका, ईस्ट-इंडीज, मेडागास्कर) आधुनिक विभिन्न प्रदेशों के पूर्वरूप हैं। इसमें भी तथा क्रौञ्च द्वीप (कृष्ण सागर का कछार)। तीन मत प्रधान हैं। (ख) मेरु पर्वत-जैन परम्परा में मेरु को (क) जम्बू (इण्डिया), प्लक्ष (अराकान तथा जम्बूद्वीप की नाभि कहा है-'तन्मध्ये मेरुर्नाभि तो 6 वर्मा), कुश (सुन्द आर्चीपिलागो), शाल्मली (मलाया योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः' (तत्त्वार्थ सूत्र प्रायद्वीप), कौंच (दक्षिणी इण्डिया), शक (कम्बोज) ३/९) अर्थात् मेरु, जम्बूद्वीप के बिल्कुल मध्य में तथा पुष्कर (उत्तरी चीन तथा मंगोलिया है। इसकी ऊंचाई १ लाख ४० योजन है । इसमें से (ख) जम्बू (इण्डिया), कुरु (ईरान), प्लक्ष एक हजार योजन जमीन में है, चालीस योजन की (एशिया माइनर), शाल्मली (मध्य योरोप), क्रौंच अन्त में चोटी है और शेष निन्यानवे हजार योजन (पश्चिम योरोप), शक (ब्रिटिश द्वीप समूह) तथा समतल से चूलिका तक है। प्रारम्भ में जमीन पर पुष्कर (आईसलैण्ड) मेरु पर्वत का व्यास दस हजार योजन है जो ऊपर १ एच० सी० रायचौधरी-“स्टडीज इन इण्डियन एण्टीक्वीटीज, ६६, १ष्ठ ५। २ कौल गिरिनी-'रिसर्चेज आन पेटोलेमीज' ज्याग्राफी आफ ईस्टर्न एशिया ( , पृष्ठ ७२५ । ३ एफ० विल्फोर्ड-'एशियाटिक रिसर्चेज' वाल्यू०८, पृष्ठ २६७-३४६ । ४ वी० वी० अय्यर--'द सेवन द्विपाज आफ द पुरान्स'-द क्वाटरली जनरल आफ दि मिथीकल सोसायटी (लन्दन), वाल्यूम-१५, नं० १, पृ० ६२, नं० २, पृ० ११६-१२७, नं० ३, पृ० २३८-४५, वा० ११) नं०४, पृ० २७३-८२ । ५ डा० एस० एम० अली, 'जिओ आफ पुरान्स', पृ० ३६-४६ (अध्याय २ पुरानिक कान्टीनेन्ट्स एण्ड ओशन्स)। ३८७ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास o साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ucation International Per Private & Personal Use Only www.jaineriorary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम से घटता गया है । मेरु पर्वत के तीन काण्ड योजन है, जिसमें से १६ हजार योजन पृथ्वी के हैं। प्रत्येक काण्ड के अन्त में एक-एक कटनी है। नीचे और चौरासी हजार योजन पृथ्वी के ऊपर यह चार वनों से सुशोभित हैं-एक जमीन पर है। चोटी पर उसका घेरा बतीस हजार योजन इन तीन कटानियों पर । इनके क्रम से तथा मल में सोलह हजार योजन है. अतः इसका (५ नाम हैं-भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक। आकार ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पृथ्वी रूपी इन चारों वनों में, चारों दिशाओं में एक-एक वन कमल का 'कमलगट्टा' (Seedcup) हो। पद्ममें चार-चार इस हिसाब से सोलह चैत्यालय हैं। पुराण के अनुसार इसका आकार धतूरे के पुष्प पाण्डुकवन में चारों दिशाओं में चार पाण्डुक जैसा घण्टे के आकार (Bell shape) का है । वायुशिलाएँ हैं, जिन पर उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न पुराण के अनुसार चारों दिशाओं में फैली इसकी हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। इसका रंग शाखाओं के वर्ण पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पीला है। में क्रमशः श्वेत, पीत, कृष्ण और रक्त है । सीलोन ___ वेदों में मेरु नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यक के बुद्धिष्ट लोगों के अनुसार मेरु का घेरा सर्वत्र (१-७-१-३) में 'महामेरु' है किन्तु इसकी पहचान एक जैसा है । नेपाली परम्परा के अनुसार मेरु का के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। रामायण, आकार ढोल जैसा है । महाभारत, बौद्ध एवं जैन आगम साहित्य में इसके आधनिक भौगोलिक मान्यता परिमाण तथा स्थान के बारे में प्रायः एक जैसे ही मेरु की उपर्युक्त स्थिति को ध्यान में रखते व कथन उपलब्ध हैं। हए अब हमें उसके वर्तमान स्वरूप और स्थान के परशियन, ग्रीक, चायनीज, ज्यूज तथा अरबी विषय में विचार करना चाहिए। लोग भी अपने-अपने धर्मग्रन्थों में मेरु का वर्णन पन-अपन धमग्रन्थी में मेरु का वर्णन हिमालय तथा उसके पार के क्षेत्र (Himalकरते हैं । नाम एवं स्थान आदि के विषय में भेद ayan and Trans-Himalayan Zone) में पांच होते हुए भी केन्द्रीय विचारधारा वही है जैसा उन्नत प्रदेश हैं। पुराणों में प्राप्त मेरु के विवरण के हिन्दू-पुराणों में इसका वर्णन है। जोरोस्ट्रियन आधार पर, इन उन्नत प्रदेशों की तुलना मेरु से की धर्मग्रन्थ के अनुसार अल-बुर्ज (Al-Burj) नामक जा सकती है। ये प्रदेश है : पर्वत ने ही पृथ्वी के समस्त पर्वतों को जन्म दिया १. कराकोरम (Kara-Koram) पर्वत शृंख- ६ और इसी से विश्व को जल से आप्लावित करने लाओं से घिरा क्षेत्र, वाली नदियां निकलीं । यही अल-बुर्ज मेरु है। २. धौलगिरि (Dhaulgiri) पर्वत शृंखलाओं चाइनीज लोगों का विश्वास है कि सिग लिंग' से घिरा क्षेत्र, (Tsing-Ling) ही मेरु पर्वत है। इसी से विश्व के ३. एवरेस्ट (Everest) पर्वत श्रृंखलाओं से समस्त पर्वत और नदियां निकलीं।। घिरा क्षेत्र, ___ मेरु के परिमाण और आकार के विषय में ४. हिमालय आर्क्स (Himalayan Arcs) तथा विष्णुपुराण में उल्लेख है कि सभी द्वीपों के मध्य कुन-लुन (Kun-lun) पर्वत से घिरा हुआ तिब्बत 2 में जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के मध्य में स्वर्ण का पठार, तथा गिरि मेरु है। इसकी समस्त ऊंचाई एक लाख ५. हिन्दूकुश (Hindukush) कराकोरम, टीनd १ सर्वार्थसिद्धि' भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, तृतीय अध्याय, पृष्ठ २११-२२२ AL २ डा० एस० एम० अली-जिओ आफ पूरान्स अध्याय-३ (दि माउन्टेन सिस्टम आफ वि पूरान्स पृष्ठ-४७-४८ ३८८ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास -ee ( 8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOR650 Jain Elation International Gorisivate & Rersonal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान (Tien shan) तथा एलाइपार पर्वत श्रृंखला (Trans Ali system) की बर्फ से ढकी चोटियों से घिरा पामीर का उन्नत पठार । इन पांचों उन्नत प्रदेशों में से 'पामीर के पठार' से मेरु की तुलना करना और भी अधिक सही और युक्तयुक्त प्रतीत होता है । पामीर और मेरु में नाम का भी सादृश्य है । पा= मीर = मेरु । यदि पामीर के पठार से मेरु की तुलना सही है तो पुराणों में प्रतिपादित जम्बूद्वीप के पार्श्ववर्ती प्रधान पर्वतों की भी पहिचान की जा सकती है । पुराणों के अनुसार मेरु के उत्तर में तीन पर्वत हैं- नील, श्वेत (जैन परम्परा के अनुसार " रुक्मी") और श्रृंगवान् (जै० प० शिखरी) ये तीनों पर्वत, रम्यक, हिरण्मय ( जै० प० हैरण्यवत्) तथा कुरु ( जै० प० ऐरावत् ) क्ष ेत्रों के सीमान्त पर्वत हैं । इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में भी तीन पर्वत हैं - निषध, हेमकूट (जै० प० महाहिमवान् ) तथा हिमवान् (ये तीनों पर्वत) हिमवर्ष (जै. म. हरि ) किम्पुरुष ( जै० प० हेमवत) और भारतवर्ष (जै० प० भरत) क्षेत्रों सीमान्त पर्वत हैं । ये छहों पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र तक फैले हैं । जैन परम्परा के अनुसार भी मेरु के उत्तर में तीन वर्षधर पर्वत है-नील, रुक्मी और शिखरी । दोनों (जैन - वैदिक) परम्पराओं में केवल नील पर्वतमाला का ही नाम सादृश्य नहीं है, अपितु रुक्मी (श्वेत) और शिखरी (श्रृंगवान्) पर्वतमाला का भी नाम सादृश्य है । इन पर्वतों की आधुनिक भौगोलिक तुलना हम विभिन्न पर्वतमालाओं से कर चुके हैं । इन पर्वतमालाओं तथा उत्तरी समुद्र (आर्क इन सभी पर्वतों की तुलना वर्तमान भूगोल से टिक ओशन) अर्थात् लवण समुद्र के बीच क्रमशः इस प्रकार की जा सकती है : १. श्रृंगवान् ( शिखरी) की कराताउ - किरगीज वर्तमान पर्वत श्रृंखला (Kara Tau Kirghis Ket - man Chain) है। २. श्वेत ( रुक्मी) की नूरा ताउ - तुर्किस्तान अतबासी पर्वत श्रृंखला (Nura Tau - Turkistan Atbasi Chain) से, ५. हेमकूट ( महाहिमवान् ) की लद्दाख - कैलाशट्रान्स हिमालयन पर्वत श्रृंखला (Laddakh-Kailash-Trans-Himalayan chain) से, तथा ६. हिमवान् की हिमालय पर्वत श्रृंखला ( Great Himalayan Range ) से 11 (ग) जम्बूद्वीप - जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, पुराणों में मेरु (पामीर) के उत्तर में क्रमशः तीन पर्वतमालाएँ हैं जो पूर्व-पश्चिम लम्बी हैनील, जो कि मेरु के सबसे निकट और सबसे लम्बी पर्वत माला है, श्वेत, जो कि नील से कुछ छोटी और उससे उत्तर की ओर आगे है, तथा अन्तिम श्रृंगवान्, जो कि सबसे छोटी तथा श्वेत से उत्तर की ओर आगे है । ain Education International नील और श्वेत ( रुक्मी) के बीच रम्यक या रमणक (जैन परम्परा में रम्यक) वर्ष, श्वेत और शृंगवान् (जै० प० में शिखरी) के बीच हिरण्मय या हिरण्यक ( जै० प० में हैरण्यमान् ) तथा श्रृंगवान (जैन पर० में ऐरावत) नाम के वर्ष क्षेत्र है । 2 जम्बूद्वीप का उत्तरी क्षेत्र ३. नील का जरफशान ट्रान्स आलाइ - टीनशान पर्वत श्रृंखला से, (Zarafshan - Trans Alei Tien - shn Chain)। सबसे पहले हम रम्यक क्षेत्र को लेते हैं । जैन परम्परा में भी इसका नाम रम्यक वर्ष क्षेत्र है । इसके दक्षिण में नील तथा उत्तर में श्वेत पर्वत है । हमारी पहचान के अनुसार नील, नूर ताउ — तुर्किस्तान ४. निषध की हिन्दुकुश तथा कुनलुन पर्वत पर्वत मालाएँ है और श्वेत, जरफसान - हिसार श्रृंखला से । पर्वत मालाएँ हैं । १ डा० एस० एम० अली 'जिओ० आफ पुरान्स" पृ० ५० से ५८ तक । २ डा० एस० एम० अली - "जिओ० आफ पुरान्स" अध्याय- ५, 'रीजन्स आफ जम्बूद्वीप- नार्दन रीजन्स पृष्ठ ७३ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ३८६ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह प्रसिद्ध है कि एशिया के भू-भाग में अति अर्थ है-हिरण्यवती का अर्थ है-जहाँ सुवर्ण प्राप्त प्राचीनकाल में दो राज्यों की स्थापना हुई थी- हो, सुवर्णकूला अर्थ है-जिसके तट पर सुवर्ण हो आक्सस नदी (oxus River) के कछार में बैक्ट्रिया और जरफशान का अर्थ है-सुवर्ण को फैलाने ro (Bactria)तथा जरफसान नदी और कशका दरिया वाली (Scatterer of Gold) । (River Jarafshan and Kaska Daria) के कछार में तृतीय क्षेत्र, जो कि शृंगवान् पर्वत के उत्तर सोगदियाना (Sogdiana) राज्य आज से २५०० में है, उत्तरकुरु है। जैन परम्परा में इसे ऐरावत श्रा या २००० वर्ष पूर्व ये दोनों राज्य अत्यन्त घने रूप पर्वत कहा गया है। यह प्रदेश आधुनिक इटिश ५ से वसे थे । यहाँ के निवासी उत्कृष्ट खेती करते थे। (Irtish) दी औब (The Ob) इशीम (Ishim) in यहाँ नहरें थीं। व्यापार और हस्तकला कौशल में तथा टोबोल (Tobol) नदियों का कछार प्रदेश है। भी ये राज्य प्रवीण थे। दूसरे शब्दों में आधुनिक भौगोलिक वर्गीकरण के 4 __ ऐसा कहा जाता है कि "समरकन्द" की अनुसार यह क्षेत्र साइबेरिया का पश्चिमी प्रदेश है। स्थापना ३००० ई० पू० हई थी। अतः "सोग- इस प्रकार जम्बूद्वीप का यह उत्तरी क्षेत्र एक भी दियाना" को हम मानव संस्थिति का सबसे बहुत लम्बे प्रदेश को घेरता है जो कि उराल पर्वत प्राचीन संस्थान कह सकते हैं। "सोगदियाना" का और कैस्पियन सागर से लेकर येनीसाइ नदी नील और श्वेत पर्वतमालाओं से तथा पडौसी (Yenisai River U.S.S.R.) तक तथा तुर्किस्तान । राज्य, बैक्ट्रिया (केतुमाल) जिसका आगे वर्णन टीन शान पर्वतमाला से लेकर आर्कटिक समुद्रतट करगे, से विशेष सम्बन्धों पर विचार करने पर दम तक जाता है। इस निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि पौराणिक "रम्यक जम्बूद्वीप का पश्चिमी क्षेत्र-केतुमाल वर्ष प्राचीनकाल का "सोगदियाना" राज्य है। । मेरु (पामीर्स) का पश्चिम प्रदेश केतुमाल है। बुखारा का एक जिला प्रदेश, जिसका एक नाम - जैन भूगोल के अनुसार यह विदेह का पश्चिम भाग "रोमेतन" (Rometan) है, सम्भवतः "रम्यक" का है। इसके दक्षिण में निषध और उत्तर में नील ही अपभ्रंश है। पर्वत है। निषध पर्वत को आधनिक भगोल के अन-19 सार हिन्दूकुश तथा कुनलुन पर्वतमाला (Hinduदूसरा क्षेत्र जो कि श्वेत और शृंगवान् पर्वत- Kush Kunlun) माना गया है। यह केतुमाल प्रदेश मालाओं के मध्य स्थित है, हिरण्यवत् है । हिरण्य- चक्षनदी (Oxus River) तथा आमू दरिया का र वत् का अर्थ है सुवर्णमाला प्रदेश । जैन परम्परा में कछार है। इसके पश्चिम में कैस्पियन सागर इसे "हैरण्यवत्" कहा गया है। इस क्षेत्र में बहने (Caspian Sea) है जिसमें आल्पस नदी अकार | वाली नदी का पौराणिक नाम है "हिरण्यवती"। मिलती है। उसके उत्तर-पश्चिम में तुरान का र आधुनिक जरफशान नदी इसी प्रदेश में बहती है। रेगिस्तान है। इस प्रदेश को हिन्दू पुराण में इलास जैन परम्परा के अनुसार इस नदी का नाम सुवर्ण- वर्त कहा गया है। इस प्रदेश में सीतोदा नदी कूला है । यह एक महत्वपूर्ण बात है कि हिरण्यवती, बहती है। इसी प्रदेश में बैक्ट्रिया राज्य था सुवर्णकूला और जरफशान तीनों के लगभग एक ही जिसे हम पहले कह चुके हैं। १. डा० एस० एम० अली-जिओ० आफ पूरान्स पृष्ठ ८३.८७ (अध्याय पंचम रीजन्स आफ जम्बूद्वीप, नार्दन रीजन्स-रमणक, हिरण्यमय एण्ड उत्तरकुरु) २. वही पृष्ठ ८८-६८ (अध्याय ६, रीजन्स आफ जम्बूद्वीप केतुमाल) पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 27568 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain station International Sorivate & Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जम्बूद्वीप का पूर्वी क्षेत्र-भद्रवर्ष (घ) जम्बूद्वीप और भारतवर्ष : पौराणिक मा मेरु के पूर्व का यह प्रदेश भद्रवर्ष के नाम से इतिहास-विष्णुपुराण (२-१) के अनुसार स्वयंभ ) हिन्दू पुराणों में कहा गया है। जैन भूगोल के अनु- मनु के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद । प्रिय. A सार यह विदेह का पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में व्रत ने समस्त पृथ्वी के सात भाग (सप्तद्वीप) ट्र नील (Tien Shan Range) तथा दक्षिण में निषध करके उन्हें अपने सात पुत्रों में बाँट दिया-. . (Hindu Kush-Kunlun) पर्वतमाला है। इसके अग्नीध्र को जम्बूद्वीप, मौधातिथि को प्लक्ष, पश्चिम में देवकट और पूर्व में पूर्व समुद्र है। अमुष्यत् को शाल्मली, ज्योतिष्मत् को कुश, का आधुनिक भूगोल के अनुसार यह प्रदेश तरीम पुलिमत् को क्रौंच, मध्व को शक और शबल को ke तथा ह्वांगहो (Tarim and Hwang-Ho) नदियों पुष्कर द्वीप। कछार है। दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण सिक्यिांग जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र के नौ पुत्र थे । (Sikiang) तथा उत्तर-चीन प्रदेश इसमें समाविष्ट उन्होंने जम्बू देश के नौ भाग करके उन्हें अपने नौ है। यहाँ सीता नदी बहती है । संक्षेप में हम कह पुत्रों में बाँट दिया-हिमवन् का दक्षिण भाग हिम सकते हैं कि इस भद्रवर्ष (पूर्व विदेह) प्रदेश के (भारतवर्ष) नाभि को दिया। इसी प्रकार हेमकूट का अन्तर्गत उत्तरी चीन, दक्षिणी चीन तथा त्सिग सिम्पुरुष को, निषध हरिवर्ष को, मेरु के मध्य वाला लिंग (Tsing Ling) पर्वत का दक्षिणी भाग आता भाग इलावृष को, इस प्रदेश और नील पर्वत के है। यहाँ के निवासी पीत वर्ण के हैं। मध्य वाला भाग राय को, इसके उत्तर वाला श्वेत ___आधुनिक भूगोल के अनुसार इस नदी का नाम प्रदेश हिरण्यवत को, शृंगवान् पर्वत से घिरा श्वेत किजिल सू (Kizil-Su) है ।। का उत्तर प्रदेश कुरु को, मेरु के पूर्व का प्रदेश जम्बूद्वीप का दक्षिणी क्षेत्र भद्र को तथा गन्धमादव एवं मेरु के पश्चिम का जम्बूद्वीप के दक्षिण प्रदेश का वर्णन मेरु के प्रदेश केतुमाल को दिया। प्रसंग में दिया जा चुका है। तदनुसार मेरु नाभि के सौ पुत्र थे उनमें ज्येष्ठ भरत थे। (पामीर) के दक्षिण में निषध, हेमकूट (जैन पर- नाभि ने अपने प्रदेश “हिम" अर्थात् भारतवर्ष को 10) म्परा में महाहिमवान्) तथा हिमवान् पर्वत है और नौ भागों में विभक्त करके अपने को पुत्रों बाँट || इन पर्वतों से विभाजित क्षेत्र के नाम हैं, क्रमशः दिया। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार भारतवर्ष के ये 12 हिमवर्ष (जैन परम्परा में हरि) किम्पुरुष (जैन नौ भाग इस प्रकार है-इन्द्रद्वीप, ताम्रपर्ण, परम्परा में हैमवत) और भारतवर्ष (जैन परम्परा मतिमान्, नाव द्वीप, सौम्य, गन्धर्व,वरुण तथा कुमामें भरत)। रिका या ब्यारी। यह सभी प्रदेश मेरु (पामीर्स) से लेकर हिन्द जैन परम्परा के अनुसार नाभि और मरुदेवी महासागर तक का समझना चाहिए। भारत के के पुत्र, ऋषभ, प्रथम युगपुरुष थे। उन्होंने विश्व || दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम में जो क्रमशः हिन्द महा- को असि, मसि, कृषि, कला, वाणिज्य और शिल्प सागर एवं प्रशान्त तथा अरब सागर हैं वहीं लवण रूप संस्कृति प्रदान की। उनके एक सौ एक पुत्र समुद्र है। थे। इनमें भरत और बाहुबली प्रधान थे । संसार (2 MR.MRITAT/ R १. डा. एस. एम. अली, "जिओ० आफ पुरान्स" पृ० ६६-१०८, अध्याय-७, रीजन्स ऑफ जम्बूद्वीप भाद्रवर्ष । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थORG ducation Internationen Sor Private & Personal Use Only www.janwaerary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C से विरत होकर दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व ऋषभ ने वैदिक आर्यों ने पंजाब प्रदेश को 'सप्तसिंधव' मा सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य अपने समस्त पुत्रों को बांट नाम दिया / बोधायन और मनु के समय में आर्यों I दिया / बाहुबली को पोतनपुर का राज्य मिला। ने इस क्षेत्र को 'आर्यावर्त' नाम दिया। डैरिभरत चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम से यह यस (Darius) तथा हेरोडोट्स (Herodous) ने भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। सिन्धु घाटी तथा गंगा के ऊपरी प्रदेश को 'इण्ड' इस पौराणिक आख्यान से तीन बातें स्पष्टतः या 'इण्डू' (हिन्दू) नाम दिया। कात्यायन और प्रतीत होती हैं मेगास्थनीज ने सुदूर दक्षिण में पांड्य राज्य तक फैले (अ) किसी एक मूल स्रोत से विश्व की मानव सम्पूर्ण देश का वर्णन किया है। रामायण तथा जाति का प्रारम्भ हुआ। यह बात आधुनिक विज्ञान महाभारत भी पाण्ड्य राज तथा बंगाल की खाड़ी की उस मोनोजेनिस्ट थ्योरी (Monogenist theory) तक फैले भारतवर्ष का वर्णन करते हैं। .. के अनुसार सही है जो मानती है कि मनुष्य जाति ___अशोक के समय में भारत की सीमा उत्तरके विभिन्न प्रकार प्राणिशास्त्र की दृष्टि से एक ही , वर्ग के हैं। 9' पश्चिम में हिन्दकुश तक और दक्षिण-पूर्व में सुमात्रा(ब) किसी एक ही केन्द्रीय मूल स्रोत से निक . जावा तक पहुँच गई थी। कनिंघम ने उस समस्त प्रदेश को विशाल भारत (Greater India) नाम लकर सात मानव समूहों ने सात विभिन्न भागों दिया और भारतवर्ष के नवद्वीपों से उसकी समाको व्याप्त कर स्वतन्त्र रूप से पृथक्-पृथक् मानव नता स्थापित की। सभ्यता का विकास किया / यह सिद्धान्त भी आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संभव है जिसमें कहा इस प्रकार आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं के गया है कि विश्व की प्राथमिक जातियों ने पृथ्वी अनुसार जम्बूद्वीप का विस्तार उत्तर में साइबेरिया के विभिन्न वातावरणों वाले सात प्रदेशों को व्याप्त प्रदेश (आर्कटिक ओशन) दक्षिण में हिन्द महासाकर तत्तत्प्रदेशों के वातावरण के प्रभाव में अपनी गर और उसके द्वीपसमूह, पूर्व में चीन-जापान शारीरिक विशिष्ट-आकृतियों का विकास किया। (प्रशान्त महासागर) तथा पश्चिम में कैस्पियन (स) पश्चात् पृथ्वी के इन सात भागों में से सागर तक समझना चाहिये। एक भाग में (पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप में) नौ अन्त में हम प्रसिद्ध भूगोलशास्त्रवेत्ता, सागर / मानव समूहों में जो नौ प्रदेशों को व्याप्त किया विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष उनमें भारतवर्ष भी एक है / / प्रो० एस० एम० अली के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट (ङ) भारतवर्ष-भारतवर्ष से प्रायः इण्डिया करना, कर्त्तव्य समझते हैं जिनके खोजपूर्ण ग्रन्थ, उपमहाद्वीप जाना जाता है। किन्तु प्राचीन विदेशी 'दि ज्याग्राफी आफ द पुरान्स' से हमें इस निबन्ध साहित्य में इस इण्डिया उपमहाद्वीप के लिए कोई के लेखन में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। एक नाम नहीं है। 1. डा० एस. एम. अली, 'जिओ० आफ पुरान्स' पृष्ठ-६-१० (: 2. डा० एस. एम. अली, 'जिओ आफ पुरान्स' पृष्ठ-१२६ अध्याय अष्टम, 'भारतवर्ष-फिजिकल'। 362 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ FOUNCIATIC Jain E l International REATMore www.jainelione late & Personar Use