Book Title: Jain Sahitya ke Adya Puraskarta
Author(s): Jyoti Prasad Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य के आद्य पुरस्कर्ता डा० ज्योतिप्रसाद जैन जैन अनुश्रुति के अनुसार लेखन कला का आवि - sarर कर्मभूमि, या सभ्य युग, के उदयकाल में आदि पुरुष भगवान ऋषभदेव ने किया था। उनकी प्रथम शिष्या, जिसके निमित्त से उन्होंने इस क्रान्तिकारी कला का आविष्कार किया था, स्वयं उनकी सुपुत्री ब्राह्मी थी। यही कारण है कि भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हुई । सिन्धु घाटी की प्रार्गेतिहासिक सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त लेखांकित मुद्राएँ इस बात का असंदिग्ध प्रमाण हैं कि अब से छ:सात सहस्र वर्ष पूर्व भी भारतवासी लेखनकला से भलीभाँति परिचित थे और लोक व्यवहार में उसका पर्याप्त उपयोग करते थे । इसके पश्चात् एक ऐसा दीर्घकालीन अन्तराल पड़ा प्रतीत होता है जिसमें लेखनकला बहुत कुछ उपेक्षित रही तथाकथित वैदिक युग में लेखन का प्रचार बहुत विरल रहा प्रतीत होता है । तथापि ऋग्वेद विश्व पुस्तकालय का अधुनाज्ञात सर्वप्राचीन ग्रन्थ माना जाता है, और इसका रचनाकाल दो सहस्र वर्षं से लेकर एक सहस्र ईस्वी पूर्व के मध्य अनुमान किया जाता है। वेदों की 'ब्राह्मण' और 'आरण्यक' नामक प्रारंभिक व्याख्याओं में से कुछ एक, कई एक उपनिषद् मूल धर्मशास्त्र और संभवतया कुछ एक दार्शनिक सूत्र भी, 6ठी - 5वीं शती ईस्वी पूर्व तक र और लिखे जा चुके विश्वास किये जाते हैं । इन्द्र और पाणिनि के व्याकरण, सुश्रुत की संहिता (वैद्यक शास्त्र ), और कौटिल्य का मूल अर्थशास्त्र भी 5वीं और 3री शती ईस्वी पूर्व के मध्य लिखे जा चुके थे, ऐसा कहा जाता है । किन्तु, सिन्धुघाटी की उक्त मुद्राओं के अतिरिक्त प्रायः और कोई भारतीय शिलालेख या अभिलेख ऐसा अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है जिसका समय निश्चित रूप से छठी शती ई. पूर्व से पहिले का स्थिर किया जा सके । ब्राम्हणों, बौद्धों या जैनों के किसी भी ग्रन्थ की प्रायः एक भी ऐसी प्रति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है जिसे असंदिग्ध रूप से दो पुराना भी कहा हजार वर्ष जा सके। ऊपर जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है वे अवश्य ही मौर्य युग के अन्त ( लगभग 200 ई. पू.) के पूर्व की सहस्राब्दि में रचे जा चुके थे । किन्तु रचे जाने के साथ-ही-साथ वे लिपिबद्ध भी किये जा चुके थे, यह केवल अनुमान ही है, निश्चय के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता । अस्तु, यद्यपि इस बात में प्रायः सन्देह नहीं है कि संसार की प्राचीन सभ्य जातियों में भारतीय जाति ही लेखन कला का आविष्कार एवं प्रयोग करनेवाली २३७ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् सर्वप्रथम जाति थी, तथापि यह भी स्पष्ट है यायियों का साहित्यिक इतिहास अभी तक पर्याप्त कि महावीर और बुद्ध के समय तक लिखने का प्रच र अस्पप्ट एव विवादग्रस्त बना हुआ है। वह अधिकांशतः अत्यन्त विरल रहा था। कम-से-कम, जहाँ तक धर्म- अनुमानों, कल्पनाओं, धारणाओं और मनमानी मान्यशास्त्रों या धार्मिक साहित्य का सम्बन्ध है, भारत के ताओं पर आधारित है। आचार्य शंकर और मह कवि प्राचीन ऋषि मुनि और आचार्य अपनी स्मृति पर ही कालिदास जैसे पर्याप्त परवर्ती व्यक्तियों की तिथियों अधिक निर्भर रहते थे और लिखने के झंझट में पड़ना के सम्बन्ध में भी अभी तक एकमत नहीं हो पाया है। पसन्द नहीं करते थे। श्र ति, स्मति, आगम आदि शब्द विभिन्न विद्वानों के बीच इन विषयों में दो-चार वर्षों बहुत पीछे आकर घ.मिक साहित्य के अङ्गक विशेषों या दो-चार दशकों के नहीं, वरन् शताब्दियों का, और के लिये रूढ़ हुए, प्रारम्भ में यह सब प्रायः पर्यायवाची कभी-कभी सहस्राब्दियों का मतभेद पाया जाता है। थे-जो परम्परा से स्मृति में सुरक्षित रहता आया है, इसके अतिरिक्त, उत्तरोत्तर सम्मिलित किये जाते रहे मौखिक द्वार से उपदेशा जाता रहा है और कानों से क्षेपकों, संवर्धनों, परिवर्धनों आदि के कारण ईस्वी जिसे सुनते चले आये हैं वही स्मृति, आगम या श्रुति सन् की प्रथम सहस्राब्दि में रचे गये ग्रन्थों के भी रूप धर्मशास्त्र था। महावीर और बुद्ध के पश्चात् भी वर्तमान में उपलब्ध संग्करण बहुत ही कम ऐसे हैं जो शताब्दियों पर्यन्त भारतवर्ष में धर्मोपदेश, मौलिक निश्चयपूर्वक मूल रचनाओं की यथावत प्रतिलिपि कहे शिक्षण-प्रशिक्षण, तथा व्यक्तिगत एवं राजनैतिक लोक- जा सके। व्यवहार भी मौखिक-शाब्दिक ही रहता रहा। लिखने या लिखित वस्तुओं का सहारा बहुत कम लिया जाता अतएव, जहाँ हम तीर्थकर पाश्र्व और महावीर था । यदि ऐसा न होता तो पाश्र्व, महावीर, वुद्ध आदि के सम्बन्ध में, महावीर की शिष्य परम्परा में होनेके उपदेश तुरन्त ही अथवा थोड़े समय उपरान्त ही वाले गुरओं के सम्बन्ध में जैन साहित्य प्रणयन के प्रालिपिबद्ध कर लिये जाते । यह कार्य उक्त धर्मोपदेष्टाओं रंभिक इतिहास के सम्बन्ध में प्राचीन जैनाचार्यों एवं के चार-पाँच सौ वर्ष पश्चात् ही आरम्भ हुआ। तीसरी- ग्रन्थ कारों और उनका कृतियों के सम्बन्ध में प्रायः दूसरी शती ई. पूर्व से भारतवर्ष में लिखने का प्रचार, निश्चयपूर्वक यह कह सकते हैं, कि अमुक व्यक्ति, रचना अनेक कारणों से, पर्याप्त द्रत वेग से बढ़ा । उसी के या घटना की तिथि यह है उसका पूर्वापर यह है, फलस्वरूप भारत के पुस्तक साहित्य का वास्तविक इत्यादि, और इसी प्रकार जहाँ हम यह भी प्रायः प्रणयन प्रारम्भ हुआ। जैनों ओर बोद्धों के पुस्तक निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि पालि त्रिपिटक सर्वप्रथम साहित्य निर्माण का इतिहास दूसरी पहल। शती इस्वी ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य के लगभग सिंहल देश पूर्व से आगे नहीं जाता, और ब्राम्हण परम्परा के में संकलित एवं लिपिबद्ध हए और भारत बौद्धों के विषय में भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता पुस्तक साहित्य का इतिहास कुषाण काल (2री शती कि वे इस सम्बन्ध में जैनों और बौद्धों से कुछ बहुत ई.) में महाकवि अश्वघोष और दार्शनिक नागार्जुन के आगे रहे हैं । अन्तर इतना ही है कि जैनी लोग अपने साथ प्रारम्भ हुआ, ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थकारों और साहित्यिक इतिहास के विषय में बहुत सावधान, ईमान- धामिक अथवा लौकिक ग्रन्थों के सम्बन्ध में वैसी कोई दार और यथार्थवक्ता रहे हैं, । बौद्धों का साहित्यिक बात निश्चयपूर्वक कहना नितान्त कठिन है। तथापि, इतिहास भी सिंहली, चीनी, तिब्बती, वर्मी आदि जिन विशेषज्ञ विद्वानों ने इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक भारतेतर साधनों के आधार पर बहुत कुछ ठीक ठीक पद्धति से विधिवत् अनुसंधान किया है, उनका यह निर्माण हो चुका है। किन्तु वैदिक परम्परा के अनु- प्रायः निश्चित मत है कि वर्तमान हिन्दु परम्परा के २३८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक साहित्य के इतिहास का वास्तविक प्रारम्भ शुग थे। इनका सनिश्चित समय 877-777 ई. पूर्व है। काल में ब्राह्मण पुनरुत्थान से ही किया जाना चाहिये। इनके द्वारा उपदेशित द्वादशांग श्रत का प्रचार वास्तव में इस परम्परा के वर्तमान में उपलब्ध महावीर और बुद्ध के समय तक बराबर बना हुआ था। पुस्तक साहित्य का अधिकांश, जिसमें वैदिक संहिताएँ अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' (अपने अन्तिम रूप में), निरुक्त, अधिकांश उपनिषदें, (599-527) व्रात्य क्षत्रियों की बज्जि जाति के वैशाली श्र तियाँ, स्मति या धर्मशास्त्र, दार्शनिक सूत्र, गणतन्त्र (गणराज्य संघ) के अर्गत कुण्डग्राम के वाल्मीकि की रामायण, सौति का महाभारत (जो लिच्छवियों के ज्ञातक वंशी राजपुत्र थे। तीस वर्ष मूलतः दश-सहस्री थी, अब जैसी शत-सहस्री नहीं), की अवस्था में इस बालब्रम्हचारी ने गृह का परित्याग तथा विष्णु पुराण आदि प्राचीनतम पुराणग्रन्थ, करके बारह वर्ष पर्यन्त कठिन आत्मसाधना की । फलशुग काल और गुप्त काल के मध्य, अर्थात 3-2री शती स्वरूप कैवल्य की प्राप्ति करके अर्हत तीर्थकर के ई. पू. से लेकर 4-5वीं शती ईस्वी के बीच ही रचे गये रूप में तीस वर्ष (557-527 ई पू.) पर्यन्त देश-विदेश हैं । लौकिक काव्य नाटकादि, क्लेसिकल संस्कृत साहित्य में विहार करते हए 'सर्व सत्वानं हित सुखाय' तीर्थंकरों तथा ज्योतिष, गणित, वैद्यक आदि वैज्ञानिक साहित्य के द्ववाद शांग में निहित सिद्धान्तों का निरन्तर प्रचार अधिकतर गुप्त काल एवं गुप्तोत्तर काल की देन हैं। किया। उनके प्रधान गणधर इन्द्र भूति गौतम ने पूर्ववर्ती इस ब्राम्हण पुनरुत्थान एवं पुस्तक साहित्य प्रवर्तन तीर्थंकरों के गणधरों की भांति ही, अपने गुरु तीर्थके प्रमुख आद्य पुरस्कर्ता महर्षि पतञ्जलि, कामन्दक, कर महावीर के उपदेशों का सार द्वादशाङग श्रत वाल्मीकि, सौति, यास्क, वात्स्यायन, कात्यायन, ईश्वर के रूप में संकलित किया अर्थात् उसे बारह अङ्गों और कृष्ण, आदि विद्वान थे। चौदह प्रकीर्णकों में विभाजित किया। प्रत्येक अंग __ में भी कई उपविभाग हैं, विशेषकर बारहवें दृष्टिप्रवाह अस्तु, क्या आश्चर्य है कि उस समय के पूर्व अंग के पाँच विभाग हैं:-जिनमें एक का नाम 'पूर्व' का भी प्रायः कोई उल्लेखनीय पुस्तक साहित्य विद्यमान है । पूर्वो की संख्या 14 है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग नहीं था। उनका धर्मशास्त्र या आगम जो द्ववादशाङग श्रुत कहलाता है, सर्वप्रथम अत्यन्त प्राचीन समय में श्रत को बहुधा ग्यारह अङ्क-चौदह पूर्व' भी कहते हैं । बारहवें अंग का ही एक अन्य भेद 'प्रथमानुयोग' है सभ्य युग के उदय काल में ही-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित किया गया था। उनके पश्चात जिस पर समस्त जैन पुराण साहित्य आधारित है । ये एक के बाद एक अठारह तीर्थकरों ने उसी सत्य का अंङग पूर्व विधिवत् 'वस्तुओं, अधिकारों' और 'प्राभृतों' प्रतिपादन किया। तदनन्तर, रामायण में वणित घटनाओं में विभाजित हैं। यही भाषाबद्ध मूल जिनागम या और राम-रावणादि के समय में 20वें तीर्थकर जैन धार्मिक साहित्य है। सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेशी जा मुनि सुवृतनाथ ने उसी उपदेश की प्रायः पूनरावत्ति की। गुणों से विशिष्ट तीर्थंकरों द्वारा उपदेशित और परम इतिहासकार इन घटनाओं का समय लगभग 2000 ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी गणधरों द्वारा गुथित एवं संकलित ई. पू. अनुमान करते हैं। 21वें तीर्थकर नमिनाथ जिनागम या द्ववादशाङग श्र त में सम्पूर्ण मानवी आध्याथे और 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमि थे जो नारायण त्मिक ज्ञान का सार समन्बित है । गौतमादि गणधरों कृष्ण के ताउजात भाई थे और महाभारत काल (अनु- के पश्चात् वह आगम ज्ञान या जैन थ त साहित्य गुरुमानतः 15वीं शती ई. पूर्व) में विद्यमान थे। 23 वें शिष्य परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित हुआ और तीर्थकर पार्श्वनाथ वाराणसी के उरगवंशी राजकुमार लगभग सात शताब्दियों तक मोखिक प्रवाह की इस २३६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा को पूर्ण सक्षम ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी विग्रन्था- थे। दूसरी शाखा जो कालान्तर में श्वेताम्बर नाम से चार्यों ने सुरक्षित बनाये रखा। प्रसिद्ध हुई वह अपनी परम्परा में सुरक्षित अवशिष्ट श्रुतागम को ही मान्य करती थी। उसने भी उसकी मौखिक द्वार से गुरु-शिष्य परम्परा में श्र तज्ञान वाँचना एवं संकलन करने का प्रयास किया / अतएव का प्रवाह तो चलता रहा, किन्तु अनेक कारणों से, उसमें एक-एक करके आगमों की तीन बाँचनाएँ हुईंचौथी शती ईसा पूर्व के मध्य के उपरान्त उसके विस्तार दो मथुरा में और एक वल्लभी में / सौराष्ट्र के वल्लभी में द्र तवेग से ह्रास होने लगा, मतभेद और पाठभेद नगर में आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में, भी उत्पन्न होने लगे। अतएव दूसरी शती ईसापर्व के पाँचवी शती ईस्वी के मध्य के लगभग सम्पन्न तीसरी मध्य के लगभग कलिंग चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल वाचना में ही इस परम्परा में सुरक्षित आगमों का की प्रेरणा से मथुरा के जैन संघ के आचार्यों ने श्रत संकलन एवं लिपिबद्धीकरण हुआ। यह भी मूल द्वादसंरक्षण की भावना से सरस्वती अन्दोलन चलाया, शांग श्रुत का अत्यन्त अल्पांश ही था। तथापि, आगमों जिसका प्रधान उद्देश्य आगम साहित्य को पुस्तकारूढ़ के इस प्रकार पुस्तकारूढ़ होने से उन पर रचे जानेवाले करना तथा धार्मिक पुस्तक प्रणयन था / ज्ञान की नियुक्ति, चूणि, भाष्य, टीका आदि अत्यन्त विपुल व्याख्या अधिष्ठात्री पुस्तकधारिणी सरस्वती देवी को उक्त साहित्य के लिए द्वार उन्युक्त हो गया। विविध विषयक, आन्दोलन का प्रतीक बनाया गया। फलस्वरूप ईस्वी विभिन्न भाषाओं और शैलियों में अनगिनत स्वतन्त्र सन के प्रारम्भ के आसपास दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द, रचनाएँ भी रची जाने लगी, और उभय सम्प्रदाय के लोहार्य, शिवार्य आदि ने परम्परागत श्रुत के आधार मनीषी आचार्य जैन भारती के भडार को उत्तरोत्तर से पाहुड़ आदि ग्रन्थ रचे, और गुणधराचार्य एवं धरसेना समृद्ध से समृद्धतर करते गये। चार्य ने तथा उनके सुयोग्य शिष्यों आचार्य आर्यमंक्षु, नागहस्ति, पुष्पदन्त, भूतबलि आदि ने अवशिष्ट आगमों के अस्तु, जैन धार्मिक साहित्य के आद्य प्रस्तोता तो महत्वपुर्ण अंशों का उपसंहार करके उन्हें पुस्तकारूढ़ ऋषभादि-महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर भगवान हैं... किया। उमास्वाति, विमलसूरि, समन्तभद्र, यतिवृषभ उनके बाद गौतमादि गणधर भगवान और भद्रबाहु आदि अन्य कई आचार्यपुंगवों ने भी धार्मिक साहित्य के प्रभृति श्रुतकेवलि हैं, और अन्त में कुन्दकुन्दादि-देवद्धि विविध अंगों का आगमाधार से प्रणयन किया। पर्यन्त श्रुतधर आचार्य पुंगव हैं। इस काल में जैन संघ दो भागों में विभक्त हो चुका था। दिगम्बर आम्यना के मुनि स्वयं को मूलसंधी कहते 240