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कदाचित् सर्वप्रथम जाति थी, तथापि यह भी स्पष्ट है यायियों का साहित्यिक इतिहास अभी तक पर्याप्त कि महावीर और बुद्ध के समय तक लिखने का प्रच र अस्पप्ट एव विवादग्रस्त बना हुआ है। वह अधिकांशतः अत्यन्त विरल रहा था। कम-से-कम, जहाँ तक धर्म- अनुमानों, कल्पनाओं, धारणाओं और मनमानी मान्यशास्त्रों या धार्मिक साहित्य का सम्बन्ध है, भारत के ताओं पर आधारित है। आचार्य शंकर और मह कवि प्राचीन ऋषि मुनि और आचार्य अपनी स्मृति पर ही कालिदास जैसे पर्याप्त परवर्ती व्यक्तियों की तिथियों अधिक निर्भर रहते थे और लिखने के झंझट में पड़ना के सम्बन्ध में भी अभी तक एकमत नहीं हो पाया है। पसन्द नहीं करते थे। श्र ति, स्मति, आगम आदि शब्द विभिन्न विद्वानों के बीच इन विषयों में दो-चार वर्षों बहुत पीछे आकर घ.मिक साहित्य के अङ्गक विशेषों या दो-चार दशकों के नहीं, वरन् शताब्दियों का, और के लिये रूढ़ हुए, प्रारम्भ में यह सब प्रायः पर्यायवाची कभी-कभी सहस्राब्दियों का मतभेद पाया जाता है। थे-जो परम्परा से स्मृति में सुरक्षित रहता आया है, इसके अतिरिक्त, उत्तरोत्तर सम्मिलित किये जाते रहे मौखिक द्वार से उपदेशा जाता रहा है और कानों से क्षेपकों, संवर्धनों, परिवर्धनों आदि के कारण ईस्वी जिसे सुनते चले आये हैं वही स्मृति, आगम या श्रुति सन् की प्रथम सहस्राब्दि में रचे गये ग्रन्थों के भी रूप धर्मशास्त्र था। महावीर और बुद्ध के पश्चात् भी वर्तमान में उपलब्ध संग्करण बहुत ही कम ऐसे हैं जो शताब्दियों पर्यन्त भारतवर्ष में धर्मोपदेश, मौलिक निश्चयपूर्वक मूल रचनाओं की यथावत प्रतिलिपि कहे शिक्षण-प्रशिक्षण, तथा व्यक्तिगत एवं राजनैतिक लोक- जा सके। व्यवहार भी मौखिक-शाब्दिक ही रहता रहा। लिखने या लिखित वस्तुओं का सहारा बहुत कम लिया जाता अतएव, जहाँ हम तीर्थकर पाश्र्व और महावीर था । यदि ऐसा न होता तो पाश्र्व, महावीर, वुद्ध आदि के सम्बन्ध में, महावीर की शिष्य परम्परा में होनेके उपदेश तुरन्त ही अथवा थोड़े समय उपरान्त ही वाले गुरओं के सम्बन्ध में जैन साहित्य प्रणयन के प्रालिपिबद्ध कर लिये जाते । यह कार्य उक्त धर्मोपदेष्टाओं रंभिक इतिहास के सम्बन्ध में प्राचीन जैनाचार्यों एवं के चार-पाँच सौ वर्ष पश्चात् ही आरम्भ हुआ। तीसरी- ग्रन्थ कारों और उनका कृतियों के सम्बन्ध में प्रायः दूसरी शती ई. पूर्व से भारतवर्ष में लिखने का प्रचार, निश्चयपूर्वक यह कह सकते हैं, कि अमुक व्यक्ति, रचना अनेक कारणों से, पर्याप्त द्रत वेग से बढ़ा । उसी के या घटना की तिथि यह है उसका पूर्वापर यह है, फलस्वरूप भारत के पुस्तक साहित्य का वास्तविक इत्यादि, और इसी प्रकार जहाँ हम यह भी प्रायः प्रणयन प्रारम्भ हुआ। जैनों ओर बोद्धों के पुस्तक निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि पालि त्रिपिटक सर्वप्रथम साहित्य निर्माण का इतिहास दूसरी पहल। शती इस्वी ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य के लगभग सिंहल देश पूर्व से आगे नहीं जाता, और ब्राम्हण परम्परा के में संकलित एवं लिपिबद्ध हए और भारत बौद्धों के विषय में भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता पुस्तक साहित्य का इतिहास कुषाण काल (2री शती कि वे इस सम्बन्ध में जैनों और बौद्धों से कुछ बहुत ई.) में महाकवि अश्वघोष और दार्शनिक नागार्जुन के आगे रहे हैं । अन्तर इतना ही है कि जैनी लोग अपने साथ प्रारम्भ हुआ, ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थकारों और साहित्यिक इतिहास के विषय में बहुत सावधान, ईमान- धामिक अथवा लौकिक ग्रन्थों के सम्बन्ध में वैसी कोई दार और यथार्थवक्ता रहे हैं, । बौद्धों का साहित्यिक बात निश्चयपूर्वक कहना नितान्त कठिन है। तथापि, इतिहास भी सिंहली, चीनी, तिब्बती, वर्मी आदि जिन विशेषज्ञ विद्वानों ने इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक भारतेतर साधनों के आधार पर बहुत कुछ ठीक ठीक पद्धति से विधिवत् अनुसंधान किया है, उनका यह निर्माण हो चुका है। किन्तु वैदिक परम्परा के अनु- प्रायः निश्चित मत है कि वर्तमान हिन्दु परम्परा के
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