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जैन पुरातत्व एवं कला
मधुसूदन नरहरि देशपान्डे
जब हम प्राचीन भारतीय स्थापत्य-शिल्प और चित्र- रहती है, लेकिन इस शैली के ऐसे परिवर्तन में आशय, कला के विकास का विहंगावलोकन करते हैं तब हमें एक प्रेरणा और प्राणतत्व की दृष्टि से मूलभूत परिवर्तन कमी विशिष्टता प्रतीत होती है कि इन कलाओं के विकास होता ही नहीं । अपितु परिवर्तन के स्वरूप में परिवर्धन, का एक अखण्ड और शक्तिशाली प्रवाह रहा है। जो संशोधन और संवर्धन होता है। इसीलिए मारतीय लोग ऐसा समझते हैं कि बौद्ध, हिन्दू और जैन धर्मा- कला के प्रांगण में आशय, प्रेरणा और प्राणधिष्ठित कला का पृथक-पृथक् प्रवाह रहा है; वास्तव में तत्व की दृष्टि से सर्वत्र एकरूपता ही दृष्टिगोचर होती उनको भारतीय संस्कृति का मर्म ही ज्ञात नहीं है, ऐसा है। ऐसे कला-प्रवाह में अलग-अलग स्रोत की कल्पना कहना पड़ेगा। भारतीय कला के विकास में धार्मिक करना, वैसा ही हास्यास्पद होगा, जैसा कि त्रिवेणी स्थलों को सौन्दर्य पूर्ण विकास करने की भावना, मूति- प्रवाह से गंगा, यमुना और सरस्वती के स्रोतों को पूजा और तदनुसंगिक धर्माचरण में प्रेरणादायक होती अलग करना। भारतीय संस्कृति के गर्भ से पैदा हुए है। राजा हो या धनिक दाता हो या सामान्य मानव आचार, विचार और संस्कारित हुए कलात्मक मानहो, हर एक ने अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप भारतीय बिन्दु, जब तत्कालीन कला माध्यम से अपना रूप संस्कृति के कला भण्डारों से अद्भुत एवं सुन्दर रत्न धारण करते हैं तब उनमें पृथकत्व देखना भारतीय निकाले हैं। और अपनी-अपनी निष्ठा और श्रद्धा के कला संस्कृति की महती परंपरा पर अन्याय करने के अनुरूप कलात्मक वस्तु या वास्तु का निर्माण किया समान है। है; उन सभी का मूल्यांकन और रसास्वादन भी भारतीय कला के आविष्कार के रूप में ही होना चाहिए। हर एक जैसा कि ईसा पूर्व तीन शताब्दि से मथुरा नगरी शैली में कम या अधिक वैशिष्ट्य जरूर होता है परन्तु बौद्ध, हिन्दू और जैन कला का मायका माना जाता भारतीय कला के पुष्पहार में धर्मनिष्ठ पृथकत्व की है। परन्तु वहाँ की कला “भारतीय कला" इसी नाम कल्पना करना सर्वथा अयोग्य और अनुचित है। वैसे से जानी पहचानी जाती है। वहाँ उक्त तीनों धर्म देखा जाय तो शैली भी कालानुरूप परिवर्तित होती प्रचलित थे। अपने-अपने धर्म के अनुयायी अहमहमिका
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की भावना से स्तूप, मूर्ति, भवन और प्रासाद निर्माण संस्कृत भाषा को त्याग करके उन्होंने अहिंसा और करने लगे। हर-एक के पीछे जो आशय और रचना त्यागमय नैतिक जीवनयुक्त तत्वज्ञान का उपदेश का ढंग था, उसके पीछे थोड़ी-सी भिन्न (अलग) प्रेरणा लोकभाषा में दिया। इतना ही नहीं उन्होंने मोक्ष का थी परंतु कलामूल्य और कला माध्यम की दृष्टि से उन द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिया। यज्ञ कांड सब में एक विलक्षण साम्य प्रतीत होता है। गुप्त प्रचुर ब्राह्मणी वर्चस्व और जातिनिष्ठ परंपरा से कालोत्तर बनाए हुए जैन और हिन्दू मन्दिर स्थापत्य जनता को निकालकर मुक्ति का एक प्रशस्त मार्ग और कला की दृष्टि से अलग नहीं हैं। विषय अलग दिखाया । उन्होंने ब्राह्मण की व्याख्या ही बदल हो सकते हैं लेकिन उनका कलात्मक रूप सम्पूर्ण डालीएकात्मक एवं भारतीय है। इस पार्श्वभूमि में भारतीय कला में जैनों का योगदान क्या रहा है ? इसका
न हि मुडिए समणो, न ओंकारेणे बम्भणो ।
न मणी रणवासेण, कसचीरेण, न तावसो।। सामान्य परिचय इस संक्षिप्त लेख में दिया जा रहा है। परंतु इससे पहले जैन धर्म के उद्गम और विकास
समयाए समणो होई, बम्भचारेण बम्भणो :
नाणेण च मुणी होई, तवेण होइ तावसो॥ पर दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा।
(उत्तराध्ययनसूत्र) श्री वर्द्धमान महावीर स्वामी जैनों के चौबीसवें तीर्थकर माने जाते हैं। इस वर्ष हम उनके महानिर्वाण
___ अर्थात् मुडन करने से कोई श्रमण नहीं होता, की 25 वीं शताब्दी मना रहे हैं । उनसे पहले
ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, परंपरा के अनुसार 23 तीर्थकर हो चुके थे। उनमें
अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता और कुशवस्त्र से तेईसवें तीर्थ कर पार्श्वनाथ थे, जो महावीर स्वामी
पहनने से कोई तपस्वी नहीं होता। अपितु समभाव से के महानिर्वाण से 250 वर्ष पूर्व हो चुके थे। ऐसे
श्रमण; ब्रह्मचर्य पालन करने से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि विश्वसनीय प्रमाण मिलते हैं कि वे एक श्रेष्ठ ऐति
और तप से तपस्वी होता है। हासिक पुरुष थे। उन्होंने "चाउज्जाम धम्म” (चार व्रतों का धर्म) प्रतिपादित किया। उसी को "पंच भगवान महावीर लोकाभिमुख नेतृत्व से सामान्य सिख्खिओ" (पंच महाव्रतयुक्त) बनाकर महावीर जी ने जनों को तर्कप्रधान विचार करने में बडी सहायता पुनः प्रतिपादित किया ऐसा उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र मिली। इस प्रकार ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में लगाया में मिलता है। "चाउज्जमों या जो धम्मो, जो इमो गया नव विचार और नवधर्म का नन्हा-सा पौधा अब पच सिक्खिओ । देसिओ बद्धमाणेण पासेण य महामुनी" महावक्ष बन गया है और उसके पुष्पपरिमल से आसेतु यह चतुर्याम धर्म है, जिसका प्रतिपादन महामुनि हिमाचल पर्यन्त की भारत भूमि सुगन्धित हो गयी है। पार्श्वनाथ ने किया था और यह पंचशिखा युक्त धर्म है जिसका प्रतिपादन वर्द्धमान महावीर जी ने किया। प्राकृत (अर्ध-मागधी भाषा) में रचित आगम भगवान महावीरजी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी साहित्य, श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन साहित्य, कि उन्होंने इस धर्म का उपदेश लोक भाषा में किया, महाराष्ट्री अपभ्रंश में और संस्कृत भाषा के अन्तर्गत "सव्वाणुगामिणीए सक्कर मधुराए भाषाए" अर्थात् विविध टीका साहित्य पैतृक दैन के रूप में भारत की सबको सहजरूप से समझ में आनेवाली शर्करा के सब भाषाओं को प्राप्त हुआ है। इस साहित्य सम्पदा समान मधुर भाषा का सहारा लिया। उच्च वर्ग की का परीक्षण भारतीय संस्कृति के विकास के सभी
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स्रोतों पर प्रकाश डालता है, जैसे साहित्य, स्थापत्य, क्षेत्र में अत्यन्त महत्व का कार्य किया है, यह एक कला, तत्वज्ञान, सामाजिक जीवन, धर्माचरण और बड़ा विरोधाभास है। लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी है कि एक भारतीय भाषाओं का क्रमिक बिकास इत्यादि । इस धर्म तरफ श्रमणों ने अपने जीवन में असिधारा जैसे व्रती के विकास में चेदि कलिंग नपति खारवेल से कुषाण, जीवन का आदर्श सँभाला और साथ-ही-साथ साहित्य गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल, पांड्य, गंग, परमार, और कलाप्रेमी श्रावक-श्राविकाओं ने अपने स्वाभाविक चन्देल, यादव, होयसल, विजयनगर आदि अनेक कला प्रेम से इस धर्म के तत्वज्ञान के साथ-साथ सुसंगत राजवंश नपतियों और घनिक श्रेष्ठियों तथा श्रावक- कला साधना भी आरम्भ की। जैन धर्मावलम्बी धनिक श्राविकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है। इतना श्रेष्ठियों ने स्थापत्य कला में अग्रगण्य माने जाने वाले ही नहीं मुगल सम्राट अकबर के विचारों पर भी जैन जिन-देवालय बनाये और भारतीय स्थापत्य कला को मत का प्रभाव पड़ा था। महात्मा गांधीजी की विचार- समद्ध बनाया। भगवान महावीर जी की प्रमुख कार्यधारा पर भी जैन धर्म और आचार का गहरा प्रभाव भमि बिहार राज्य थी। उनका जन्म वैशाली के निकट दिखाई पड़ता है।
कुडलपुर ग्राम में हुआ था और केवल ज्ञान की प्राप्ति
के उपरांत महावीर जी ने मगध देश की राजधानी प्राचीन भारत में इस धर्म की नींव समण (श्रमण)
राजगह में अंगदेश की राजधानी चम्पा में, विदेह के नाम से संबंधित किये जानेवाले और एक स्थान से अन्तर्गत मिथिला में तथा श्रावस्ती में अपने वर्षावास दूसरे स्थान पर अखंड परिभ्रमण करनेवाले अत्यन्त । कठिन व्रतधारी साधुओं ने डाली थी। श्रमणों की एक बहुत प्राचीन परंपरा है। प्राचीन जैन और बौद्ध जैन कला का पहला आविष्कार बाङमय में ऐसे श्रमण समुदायों का उल्लेख मिलता है:
जैन मूर्तिकला का पहला आविष्कार यथार्थ रूप से
हमको बिहार में दिखाई देता है। पटना संग्रहालय में "संबहुला नानातिथ्थिया नाना दिठिठका,
रखी एक मस्तकहीन दिगम्बर तीर्थकर प्रतिमा, जो नाना रुचिका, नानादिठिनिस्सनिस्सिता," निस्सथानस्सिता," लोहानीपुर से प्राप्त हुई थी, मौर्य भूर्तिशिल्प की तरह
चमकदार पालिशयुक्त है । बिहार में बक्सर के निकट अर्थात् "बहुत बड़ी संख्या में अनेक गुरुओं को चौसा ग्राम में पाई गई एक शताब्दी ईसा पूर्व की, माननेवाले, विविध आचार-विचार, विविध योग, कषाणकालीन ऋषभ व पार्श्वनाथ की कांस्य प्रतिमाएँ प्रवृति के विविध रुचिवाले और विविध दार्शनिक
अत्यन्त प्राचीन मानी जाती हैं । विचारधारा में विश्वास करने वाले ऐसे विविध ये दोनों प्रतिमाएँ पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं। सम्प्रदाय वाले भारतसमाज की पार्श्वभूमि पर बुद्ध और महाबीर दीपस्तम्भ जैसे दिखाई देते हैं। उन्होंने कलिंग, सौराष्ट्र और महाराष्ट्र की प्राचीन दीर्घ और गहरा विचार मंथन करके अपनी स्वतन्त्र जैन गुफाएँ अनुभूति से नवीन धर्म की नींव डाली। बौद्ध धर्म को माध्यम मार्ग (मज्जिमा पटिपदा) के रूप में हम सब मौर्य वर्चस्व के पश्चातू कलिंग देश के चेदि जानते हैं। जैन मत में उग्र तपस्या अभिप्रेत है। नृपति खारवेल ने ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी में जैन परन्तु ऐसे कठोर तपस्या मार्गी पंथ ने भी कला के धर्मी श्रमणों के लिए कलात्मक गुफा-समूह उत्कीर्ण करके
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राणी गुम्फा का सुविख्यात दुमंजिला शैलगृह, उदयगिरि (ईसा पूर्व, २-री शताब्दी)
राणी गुम्फा में उत्कीर्ण शिल्पपट्ट उदयगिरी (ईसा पूर्व, २-री शताब्दी)
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एक अप्रतिम कला आदर्श प्रस्तुत किया। ये गूफा समूह सौराष्ट्र में जूनागढ़ के निकट और भावनगर के भुवनेश्वर नगर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि पास तलाजा में जैन गुफा समुह क्षत्रपों के काल में नामक पहाड़ों में स्थित हैं। उदयगिरि पहाड़ पर हाथी उत्कीणित माना जाता है। उपरकोट की गुफा में स्थित नामक गुफा में खारवेल का एक सुप्रसिद्ध शिलालेख है, स्तम्भ शीर्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय है । जिसका प्रारम्भ ही “नमो अरिहंताणं नमो सबसिधान" अर्थात् अर्हत् और सिद्ध के नमस्कार से ही हुआ है। महाराष्ट्र में सहयाद्रि पर्वत माला पर ईसा पूर्व खारवेल की अग्रमहिषी ने स्वप्नपुरी के लेख में लिखा दूसरी शताब्दी से लेकर 6वीं और 7वीं शताब्दियों है-"अरहंत पसादाय कलिंगन समनानं लेणसिरि तक के शैल मन्दिर पाये जाते हैं । जिसमें अजन्ता, खारवेलस अगम महिसिन कारियाम'। उदयगिरि स्थित एलौरा कारला, भाजा, पितरखोरा, एलीफैन्टा आदि राणी गुम्फा और गणेश गुम्फा नाम से सुविख्यात दुमंजिले बौद्ध और हिंदू, गुफाएं सुविख्यात हैं। हाल ही में शिलागृहों में सुन्दर शिल्पपट उत्कीर्ण किये गये हैं। पूना के पास कारला और भाजा बौद्ध गुफाओं के पास इनका विषय पार्श्वनाथ के जीवन से सम्बद्ध प्रसंगों से पालेगाँव की एक गुफा में ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का होगा, ऐसा कई विद्वानों का मत है। ये सुन्दर शिलापट शिलालेख मिला है। “नमो अरहंताणं' से यह लेख शैली की दृष्टि से भाजा और भरहुत शिल्पकला के आरम्भ किया गया है । यह प्राचीन गुफा जैन साधुओं समान दिखाई देते हैं। खंडगिरि गुफा समूह में आठवीं के निवास के लिए सातवाहन राजाओं के वर्चस्व काल और नवमीं शताब्दी में उत्कीर्ण कई जिन-प्रतिमाएँ में बनाई गई होगी, ऐसी सम्भावना है। उपलब्ध हुई हैं।
पालेगांव (पूना) की गुफा में प्राप्त नवीन शिलालेख
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मथुरा नगरी और जैन कला
शिलापट्ट पर लोणशोधिका नाम की वैश्या की पुत्री मथुरा एक कलानगरी के रूप में प्राचीन भारत
वसु द्वारा अरहत देवकुल को दान देने का उल्लेख है । में अनेक शताब्दियों तक विख्यात रही है। कुषाण
इस पट्ट पर एक स्तूप व सोपानयुक्त तोरण और और गुप्तकाल में कलावंतों ने इस नगरी को देवालयों,
प्रदक्षिणापथ बहुत ही कलात्मक ढ़ग से चित्रित किया अर्हत आयतनों, स्तप और मतियों से सुशोभित किया। गया ह । कुषाणकाल
गया है। कुषाणकालीन पार्श्वनाथ की मूर्ति, जो मथुरा यहाँ की शिल्प शालाओं में बनाई हुई लाल रंग संग्रहालय में सुरक्षित है, एक उत्कृष्ट कुषाणकालीन की प्रस्तर मूर्तियाँ सारनाथ, बौधगया आदि शिल्पकला का नमूना मानी जाती है । महावीरजी की स्थानों पर भेजी जाती थीं । मथुरा में कंकाली जन्मकथा से संबन्धित हरिण-गमेशी की मूर्तियाँ भी टीला नामक एक प्राचीन स्थान है । ऐसा अनुमान
मिली हैं। गए तीन साल से कंकाली टीले पर पुन: लगाया जाता है कि इस टीले के स्थान पर ईसा पूर्व उत्खनन कार्य हो रहा है। इसके फलस्वरूप यहाँ एक द्वितीय शताब्दी में एक जैन बस्ती रही होगी। वर्तमान अतीव सुन्दर पक्की ईटों की बनी कूषाणकालीन शताब्दी के आरम्भ में यहाँ पर खदाई करने पर पुष्करिणी मिली है । इसमें एक खंडित प्रतिमा जो कुषाणकालीन आयागपट्ट मिला, जिस पर अष्टमंगल लेखांकित है, प्राप्त हुई है। एक विशेष उल्लेखनीय सहित मध्यवर्ती जिन प्रतिमा उत्कीर्ण है । दूसरे एक लेख की उपलब्धि, जो इस पूष्करिणी से हुई है, उसमें
आयागपट्र पर मंगल चिन्ह सहित मध्यवर्ती जिन प्रतिमा (मथुरा से प्राप्त) दूसरी शताब्दी
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मथुरा से प्राप्त दूसरा आयागपट्ट सोपानयुक्त तोरण और प्रदक्षिणापथ सहित
कुषाणकालीन स्तूप (मथुरा म्यूजियम) कनिष्क प्रथम के पंचम वर्ष में विशाखमित्रा द्वारा गुप्तकालीन जैन कला किये दान का उल्लेख, कदाचित इसी पुष्करिणी से सम्बन्धित है । दूसरी भी कई सुन्दर जैन प्रतिमायें स गुप्तकाल में हिन्दू मन्दिरों का प्राथमिक स्वरूप प्राप्त हुई हैं।
निश्चित होने लगा था। मध्यप्रदेश में सांची, देवगढ,
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नाचना कुथारा, तिगोवा आदि स्थलों पर हिन्दू मंदिरों अकोटा (प्राचीन अंकोटक) नामक स्थान गुजरात का निर्माण हो रहा था । देवगढ़ के पास अनेक जैन में बड़ौदा के निकट है । यहाँ 1949 में डा. यू. पी. देवालय और उनके अवशेष मौजूद हैं । उनका काल शाह के प्रयत्नों से एक अद्वितीय 68 जैन धातु मूर्तियों गुप्तकालोत्तर 8 या 9वीं शताब्दी का बताया का संग्रह प्रकाश में आया। यहाँ पर अंकोटक-वसति जाता है। यहाँ के अनेक शिल्पों पर गुप्तकाल का नाम का जैन मंदिर रहा होगा । इस संग्रह की कांस्य प्रभाव दिखाई देता है । देवगढ, ललितपूर, चंदेरी, मतियों पर गूप्तशिल्प कला का प्रभाव दिखाई देता चाँदपुर, आदि स्थलों पर सहस्त्रों की संख्या में जैन है। ऋषभनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमा और जीवन्त प्रतिमाओं का निर्माण किया गया और तत्कालीन स्वामी की प्रतिमा के ऊपर गुप्तकाल का सौन्दर्य यथार्थ मंदिरों में उनकी प्रतिष्ठापना की गई। इस प्रदेश रूप से दिखाई देता है। यहाँ 7, 8, 9, 10वीं शताब्दी में गुप्तकालीन जैन मंदिर मिलने की संभावना की कांस्य प्रतिमाएँ भी पाई गई हैं, जो बड़ौदा के है। विदिशा से दो जिन प्रतिमाओं पर रामगुप्त संग्रहालय में सुरक्षित हैं । यह मूर्ति संग्रह बड़ौदा का उल्लेख मिला है इसी उपलब्धि पर मेरा यह अनु- संग्रहालय का अलंकार माना जाता है। मान है कि गुप्तकाल में भी जैन देवालय मध्यप्रदेश में बने होंगे।
ऐलोरा स्थित जैन गुफा प्रांगण में एकाश्य मंदिर ( 9वीं,-10वीं शताब्दी)
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एलौरा को जैन गुफाएं
में लगभग 6वीं शताब्दी से एक अखंडित कला साधना
का स्त्रोत दिखाई देता है । जहाँ हिन्दु गुफाएँ समाप्त चालुक्य और राष्ट्रकूट आधिपत्य में भी महान होती हैं वहाँ से ही जैन गफा
होती हैं वहाँ से ही जैन गुफाओं का आरम्भ होता हैजैन-शैल-गृह कर्नाटक में बनाये गये हैं । सातवीं शताब्दी छोटा कैलास, जगन्नाथ सभा और इन्द्र सभा जैनों की प्रमुख में बदामी और ऐहोली में चालूक्यकालीन जैन गुफाएँ
गुफाएँ हैं । इन जैन गुफाओं का काल 9 और 10वीं और राष्ट्रकूटकालीन एलौरा की गुफाएँ अपनी शताब्दी का माना जाता है और ये गुफाएँ जैनमत प्रेमी विशेषता रखती हैं। बदामी और ऐहोली गुफाओं में राष्ट्रकूट नृपति गोविन्द और अमोधवर्ष के शासनकाल पार्श्वनाथ और बाहुबली के शिल्पपट उत्कीर्ण हैं। में खोदी गई। इनमें पार्श्वनाथ और बाहुबली की मूर्ति एलोरा की गुफाओं में स्थापत्य, शिल्प और चित्रकारी का शिल्पपट बहुत ही प्रेक्षणीय है । पार्श्वनाथ पर का मनोहर त्रिवेणी संगम दृष्टिगोचर होता है। एलोरा कमठ का किया गया आक्रमण और धरणेन्द्र यक्ष द्वारा
किया गया संरक्षण बहुत ही आकर्षक है। इस शिल्पपट्ट को देखकर बुद्ध पर मार द्वारा किये आक्रमण की याद आ जाती है जिसको अजंता की चित्रकला और शिल्पकला पटों पर सून्दर ढंग से दिखाया गया है। यहाँ की यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ भी प्रेक्षणीय हैं। एलोरा की जैन गुफाओं के भित्ति चित्रों का भारतीय कला में प्रमुख स्थान माना जाता है। जैन गुफाओं की छतों और भित्तियों पर जो शेष चित्रपटल हैं, वे अजता और मध्ययुगी ताडपत्रीय और हस्तलिखित चित्रकला की श्रृखला की एक कड़ी मानी गई हैं। इन्ही भित्ति चित्रों में भारतीय चित्रकला का अखंड विकास समझ में आता है।
पश्चिम भारतीय जैन हस्तलिखित ग्रन्थ जिसमें कई चित्र अंकित हैं, गुजरात के पाटन वोर खंभात में
और राजस्थान के जैसलमेर के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थ के संरक्षण के लिए, जो लकड़ी के पटल ऊपर और नीचे रखे जाते थे, वे भी सुन्दर चित्रों से अलंकृत हैं। यह चित्र सम्पदा 12 वीं और 16 वीं शताब्दी के बीच की है। इन चित्र पटलों पर चित्र प्रदर्शनों में नाट्यपूर्ण गतिमानता के साथ-साथ चित्र अंकित किये गये हैं।
सुपार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा (बादामी की गुफा)
गुफा क्र. 4 (7वीं शताब्दी)
कर्नाटक में जैन कला वास्तु
कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार अति प्राचीन है। मौर्यकाल में उत्तरी भारत में जब भीषण अकाल पड़ा
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था, उससे बचने के लिए भद्रबाह मुनि के नेतृत्व में कई कर्नाटक ही नहीं अपितु समस्त भारतवर्ष का अत्यन्त श्रमण दक्षिण की ओर चले गये । भद्रबाहु मुनि ने अनूठा भव्य शिल्प जिसको कहा जा सकता है वह है श्रमण-वेल-गोल के निकट कर्नाटक राज्य में चन्द्रगिरी गोमेटेश्वर को श्रावण बेलगोल स्थित शैल प्रतिमा, यह नामक पर्वत पर तपस्या करते हुए देह त्याग किया। एकाश्य शिल्प राछमल्ल सत्यवाक गगराजा के काल में ऐहोली में मेगुती का जैन मंदिर 644 ई० में चालुक्य उसके मत्री चामण्डय राय ने बनवाया था। इस प्रचण्ड नरेश द्वितीय पुलकेशी के काल में बनाया गया है। मति का समय 983 ई. माना जाता है। कर्नाटक में
गोमदेश्वर (वाहुबलि) स्वामी की एकाश्य शैल प्रतिमा, श्रवण बेलगोला, (कर्नाटक),983 ईस्वी
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चालुक्य-आधिपत्य के उत्तर काल में अनेक जैन मन्दिरों गुजरात-एक महत्वपूर्ण जैन कला केन्द्र का निर्माण हुआ। लकगुडी, जिला धारवाड़ में बारहवीं शताब्दी का पार्श्वनाथ का मन्दिर है । इस मन्दिर
___ गुजरात में जैन धर्म का प्रभाव बहुत ही गहरा
और प्राचीन है। तलाजा और गिरनार का उल्लेख तो में तथा अन्य मन्दिरों में अनेक सुन्दर जिन प्रतिमाएँ हैं । बेलगाँव में कमल बस्ती नाम का एक जैन मन्दिर
मैंने पहले ही किया है इसके बाद बल्लभी या बल्लभीहै। इस देवालय की छतों की कला सौन्दर्य बहुत ही
पुर एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा था। महावीर के निर्वाण प्रेषणीय है । कानरा जिले के भटकल गांव में और
के पश्चात् लगभग 980 वर्ष के उपरान्त यहाँ देवधिमंगलौर के पास मुडबिनद्री स्थलों पर जैन मंदिरों की
गणी क्षमा-श्रमण के नेतत्व में एक जैनमूनि सम्मेलन ऐसी विशिष्ट रचना है जिसे देखकर नेपाली स्थापत्य
हुआ था, जिसमें श्वेताम्बर जैन आगम का संकलन का आभास होता है। भटकल के मन्दिर के सामने एक
किया गया । श्वेताम्बर परम्परा इन आगम ग्रन्थों को ऊँचा स्तम्भ है जिन पर तीर्थ करों की चहमख प्रतिमाएँ।
प्रमाणभूत मानती है । बल्लभी में जैन बस्ती के अवशेष उत्कीर्ण हैं।
और कांस्य प्रतिमाएँ मिली हैं।
तामिल देश में जैन प्रभाव
गुजरात में चालुक्यों के अभिपत्य काल में कुमारतामिलनाडु राज्य के पदकोटाई जिले में कई
पाल राजा ने तारंगा में अजितनाथ का मंदिर प्राचीन जन गुफाऐं मिली हैं । इन गुफाओं में जैन
बनवाया, जो एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ है, यह जिला मुनियों के लिए पत्थरों पर तराशी हुई शय्याएँ मिलती
मेहसाना में सिद्धपुर के निकट है । सौराष्ट्र में गिरनार हैं और यहां पाये गये ब्राह्मणी लेख ईसा पूर्व पहली
पर्वत पर और शत्रुजय पहाड़ी पर अनेक जैन मंदिर शताब्दी के हैं। तामिलनाडु में और दूसरे जैन स्था त्य
स्थित हैं । ये दोनों स्थान महत्वपूर्ण जैन-तीर्थ माने कला के केन्द्र स्थान हैं किन्तु इनमें उल्लेखनीय हैं
जाते है। गिरनार में नेमिनाथ के भव्यमन्दिर का सित्तन्नवासल की जैन गुफा में अजन्ता शैली के 7 वीं
जीर्णोद्धार 1278 ई. में किया गया था। शत्रुजय शताब्दी के भित्ति चित्र सुरक्षित हैं। दूसरा महत्वपूर्ण
पर्वत पर; जिसको पालिताना भी कहते हैं, ग्यारह स्थल कांचीपुरम, जिसे जिन-कांची भी करते हैं। प्राकारों के बीच 500 जैन मन्दिर हैं । इनमें से 640 ई. में हयूएन त्संग ने लिखा है कि कांची में कुछ तो 11 वीं शताब्दी के हैं । परन्तु बहुत से मन्दिर जैनों की एक बड़ी बस्ती थी। कांचीपुरम की इस बस्ती 16 वीं शताब्दी के बाद के हैं । 1618 ई. में यहाँ को तिरुपति कुण्डम् भी कहते हैं। यहाँ चोल राजाओं एक 3
एक सुन्दर शिखर युक्त दो मंजिला मन्दिर अहमदाबाद के आधिपत्य काल में चन्द्रप्रभ-वर्धमान स्वामी और
के एक श्रेष्ठी ने बनवाया । इस मन्दिर के स्तम्भ त्रिकूट बस्ती नाम के जैन मन्दिरों का परिवर्धन किया ।
शीर्ष पर नर्तक और वादक वन्द उत्कीर्ण हैं । यहाँ गया। यहाँ संगीत मंडप नाम का एक भाग विजया
19 वीं शताब्दी में भी अहमदाबाद के एक नगर नगर राजाओं के आधिपत्य में चित्रांकित किया गया।
थेष्ठी ने एक मन्दिर बनवाया था जिसने पांच तीर्थों
का मानचित्र भी उत्कीर्ण कराया था। इस मंडप और मुखमंडल की छतों पर महावीर स्वामी के समवरण के प्रसंग चित्रित किए गये हैं इनके साथ अलाकिक आबू ही ऋषभदेव और नेमिनाथ आदि तीर्थकरों के जीवन राजस्थान के आबू पर्वत के अत्यन्त प्रसंग चित्रित किये गये हैं और हर एक प्रसंग के नीचे सरम्य स्थल पर चार प्रमुख देवालय हैं । उचित लेख भी है।
इनमें विमलशा और तेजपाल ने क्रमशः 1032 ई.
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और 1232 ई. में शुभ संगमरमर के मन्दिर बनवाये जो अपने विलक्षण सौन्दर्य से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। यहाँ का उत्कीर्ण कलाकौशल बहुत ही कोमल और बारीकी का है। ऐसा लगता है कि शुभ्र पाषाण को तराश कर निर्माण किया गया है । यह जनश्रुति प्रचलित है कि हथौड़ा और छैनियों से पत्थर को काटा नहीं गया अपितु छोटे औजारों द्वारा तराने से निकले हुए चूर्ण की माप के अनुसार कारीगरों को मजदूरी दी जाती थी । इसके मंडप की छत पर उत्फुल्ल कलाकृति का अकन और अप्सराओं का मूर्ति शिल्प देखकर ऐसा लगता है कि इतना कोमल और कलापूर्ण काम कैसे किया गया होगा। कलापूर्ण चातुर्य के चरमोत्कर्ष की अनुभूति इस मन्दिर के दृष्टिगोचर से होती है।
मध्यप्रदेश में खजुराहो के चन्देल राजाओं ने जो मन्दिर बनवाये हैं उनमें एक जैन मन्दिर समूह भी है । इसमें से पार्श्वनाथ मन्दिर चन्देल नृपति बंग की प्रेरणा से एक जैन श्रावक ने 955 ई. में बनवाया था। इसकी रचना खजुराहो के मन्दिर से थोड़ी अलग है परन्तु इसका वास्तु कौशल और शिल्प सौन्दर्य अत्यन्त मनोहारी है। भारतीय शिल्प कला का परमोत्कर्ष यहां के मूर्ति शिल्प में परिलक्षित होता है । राजस्थान में और कई जैन स्थापत्य के केन्द्र हैं । जिनमें से 3 या 4 का उल्लेख करना अनिवार्य है । 1439 ई. में राणकपुर का 26 मंडप और 420 स्तम्भ युक्त आदिनाथ का चतुमुख मन्दिर स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। गर्भगृह चर्तुमुखी है और प्रत्येक दिशा में प्रांगण युक्त चार मंदिर हैं, जिनकी रचना अत्यन्त कौशल पूर्ण है । प्राकार में 86 लघु देव कुलिकाएं है। इतना सब होते हुए भी प्रकाश योजना ऐसी है कि मन्दिर का प्रत्येक कोना प्रकाशित रहता है, जिससे उसके कलापूर्ण स्तम्भों और छतों की नक्काशी के काम को मन भर के देखा जा सके । चित्तौड़ किले पर स्थित चैत्यालय के सामने का 25
मीटर ऊँचा मानस्तम्भ स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है, इस स्तम्भ पर आदिनाथ और अन्य तीर्थकरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। जोधपुर जिले में
अम्बिका (सरस्वती) की कलात्मक संगमरमर प्रतिमा ( पल्लूगांव - राजस्थान से प्राप्त )
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________________ ओसिया नाम के ग्राम में एक प्रेक्षणीय महावीर मन्दिर को अधिक प्रभावित करती हैं / मध्ययुगीन जैन धर्म है। इस मन्दिर के स्तम्भों की नक्काशी बहुत सुन्दर शिल्पकला का सर्वोत्कृष्ट नमूना मानने योग्य राजस्थान है यह मन्दिर गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज (770- के पल्लू ग्राम से प्राप्त सरस्वती की मूर्ति है जो दिल्ली 840) के समय का है परन्तु इसका सभा मंडल 10 के राष्ट्रीय संग्रहालय में संग्रहीत है। यह मूर्ति भारतीय वीं शताब्दी में सन् 926 का है। जैसलमेर में 15 वीं कला को प्रदान की गई अमोल भेंट है। यथायोग्य रूप, शताब्दी के जैन मन्दिर हैं। जब भारत वर्ष के उत्तरी भेद प्रमाण बद्धता और लावण्य का सुयोग्य मिश्रण प्रदेशों में मन्दिर स्थापत्य निर्माण समाप्त हो गया था इस मूर्ति में दिखाई देता है। तब यहाँ एक कलात्मक जैन मन्दिर समह का निर्माण हुआ। जैन कला सम्पदा का मैंने विहंगमावलोकन ही किया है इनके अतिरिक्त अनेक वस्तु और वास्तु हैं / गुफाओं और शैल मन्दिरों की निमिति में लगभग जिनका मैंने उल्लेख ही नहीं किया / इन चीजों का अंतिम प्रयोग ग्वालियर के दुर्ग के परिसर में हआ। अध्ययन विद्या प्रेमी विद्वानों को करना चाहिए / मेरी यहाँ की गुफा में उत्कीर्ण विशाल जिन प्रतिमाएं तोमर आशा है कि 2500 वां भगवान महावीर निर्वाण राजा डूंगर सिंह और कीति सिंह के जमाने में बनाई महोत्सव के निमित्त से इस सुन्दर विषय की अनेक गई / इन प्रतिमाओं के सौन्दर्य से उनकी भव्यता दर्शकों छटाऐं प्रकाश में आयगी। 167