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और 1232 ई. में शुभ संगमरमर के मन्दिर बनवाये जो अपने विलक्षण सौन्दर्य से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। यहाँ का उत्कीर्ण कलाकौशल बहुत ही कोमल और बारीकी का है। ऐसा लगता है कि शुभ्र पाषाण को तराश कर निर्माण किया गया है । यह जनश्रुति प्रचलित है कि हथौड़ा और छैनियों से पत्थर को काटा नहीं गया अपितु छोटे औजारों द्वारा तराने से निकले हुए चूर्ण की माप के अनुसार कारीगरों को मजदूरी दी जाती थी । इसके मंडप की छत पर उत्फुल्ल कलाकृति का अकन और अप्सराओं का मूर्ति शिल्प देखकर ऐसा लगता है कि इतना कोमल और कलापूर्ण काम कैसे किया गया होगा। कलापूर्ण चातुर्य के चरमोत्कर्ष की अनुभूति इस मन्दिर के दृष्टिगोचर से होती है।
मध्यप्रदेश में खजुराहो के चन्देल राजाओं ने जो मन्दिर बनवाये हैं उनमें एक जैन मन्दिर समूह भी है । इसमें से पार्श्वनाथ मन्दिर चन्देल नृपति बंग की प्रेरणा से एक जैन श्रावक ने 955 ई. में बनवाया था। इसकी रचना खजुराहो के मन्दिर से थोड़ी अलग है परन्तु इसका वास्तु कौशल और शिल्प सौन्दर्य अत्यन्त मनोहारी है। भारतीय शिल्प कला का परमोत्कर्ष यहां के मूर्ति शिल्प में परिलक्षित होता है । राजस्थान में और कई जैन स्थापत्य के केन्द्र हैं । जिनमें से 3 या 4 का उल्लेख करना अनिवार्य है । 1439 ई. में राणकपुर का 26 मंडप और 420 स्तम्भ युक्त आदिनाथ का चतुमुख मन्दिर स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। गर्भगृह चर्तुमुखी है और प्रत्येक दिशा में प्रांगण युक्त चार मंदिर हैं, जिनकी रचना अत्यन्त कौशल पूर्ण है । प्राकार में 86 लघु देव कुलिकाएं है। इतना सब होते हुए भी प्रकाश योजना ऐसी है कि मन्दिर का प्रत्येक कोना प्रकाशित रहता है, जिससे उसके कलापूर्ण स्तम्भों और छतों की नक्काशी के काम को मन भर के देखा जा सके । चित्तौड़ किले पर स्थित चैत्यालय के सामने का 25
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मीटर ऊँचा मानस्तम्भ स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है, इस स्तम्भ पर आदिनाथ और अन्य तीर्थकरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। जोधपुर जिले में
अम्बिका (सरस्वती) की कलात्मक संगमरमर प्रतिमा ( पल्लूगांव - राजस्थान से प्राप्त )
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