Book Title: Jain Dharm aur Samajik Samta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. देखें - प्रबन्धकोश, भद्रबाहु कथानक. १२. उद्धृत - (क) रतनलाल दोशी, आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१. (ख) भगवतीआराधना, भाग १, पृ० १९७. 83. Bradle, Ethical, Studies. १४. मुनि नथमल, नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० ३-४. १५. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, ५/२१. १६. उत्तराध्ययनसूत्र, २५/१९. १७. आचारांग, १/२/३/७५. १८. सागरमल जैन, सागर जैन-विद्या भारती, भाग १, पृ० १५३. १९. जटासिंहनन्दि, वरांगचरित, सर्ग २५, श्लोक ३३-४३. २०. आचारांगनियुक्ति, १९. २१. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० १५२. २२. जिनसेन, आदिपुराण, ११/१६६-१६७. २३. अन्तकृतदशांग, ३/१/३. २४. उपासकदशांग, १/४८. २५. वही, १/४८. २६. वही, १/४८. २७. ज्ञाताधर्मकथा, ८ (मल्लिअध्ययन), १६ (द्रौपदी अध्ययन). २८. अन्तकृद्दशांग, ५/१/२१. २९. स्थानांग, १०/७६० । विशेष विवेचन के लिये देखें धर्मव्याख्या, जवाहर लालजी म. और धर्म-दर्शन, शुक्लचन्द्रजी म. ३०. धर्मदर्शन, पृ० ८६. ३१. दशवैकालिकनियुक्ति, १५८. ३२. नन्दीसूत्र - पीठिका, ४-१७. जैन धर्म और सामाजिक समता (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष सन्दर्भ में) मानव समाज में स्त्री-पुरुष, सुन्दर-असुन्दर, बुद्धिमान्-मूर्ख, साधना के क्षेत्र हों, हम मानव समाज के किसी एक वर्ग विशेष को आर्य-अनार्य, कुलीन-अकुलीन, स्पर्श्य-अस्पर्शा, धनी-निर्धन आदि के जन्मना आधार पर उसका ठेकेदार नहीं मान सकते हैं । यह सत्य है कि भेद प्राचीनकाल से ही पाये जाते हैं । इनमें कुछ भेद तो नैसर्गिक हैं और नैसर्गिक योग्यताओं एवं कार्यों के आधार पर मानव समाज में सदैव कुछ मानव सृजित । ये मानव सृजित भेद ही सामाजिक विषमता के ही वर्गभेद या वर्णभेद बने रहेगें, फिर भी उनका आधार वर्ग या जाति कारण हैं । यह सत्य है कि सभी मनुष्य, सभी बातों में एक दूसरे से विशेष में जन्म न होकर व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक योग्यता के समान नहीं होते, उनमें रूप-सौन्दर्य, धन-सम्पदा, बौद्धिक-विकास, आधार पर अपनाये गये व्यवसाय या कार्य होंगे । व्यवसाय या कर्म कार्य-क्षमता, व्यावसायिक-योग्यता आदि की दृष्टि से विषमता या के सभी क्षेत्र सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होने चाहिए तरतमता होती है । किन्तु इन विषमताओं या तरतमताओं के आधार पर और किसी भी वर्ग विशेष में जन्मे व्यक्ति को भी किसी भी क्षेत्र विशेष अथवा मानव समाज के किसी व्यक्ति विशेष को वर्ग-विशेष में जन्म लेने में प्रवेश पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये - यही के आधार पर निम्न, पतित, दलित या अस्पर्श्य मान लेना उचित नहीं सामाजिक समता का आधार है । यह सत्य है कि मानव समाज में है। यह सत्य है कि मनुष्यों में विविध दृष्टियों से विभिन्नता या तरतमता सदैव ही कुछ शासक या अधिकारी और कुछ शासित या कर्मचारी पायी जाती है और वह सदैव बनी भी रहेगी, किन्तु इसे मानव समाज में होगें, किन्तु यह अधिकार भी मान्य नहीं हो सकता कि अधिकारी का वर्ग-भेद या वर्ण-भेद का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही अयोग्य पुत्र शासक और कर्मचारी या शासित का योग्य पुत्र शासित पिता के दो पुत्रों में ऐसी भिन्नता या तरतमता देखने में आती हैं। हम ही बना रहे । सामाजिक समता का तात्पर्य यह नहीं है कि मानव समाज यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति गरीब होता है, वही कालक्रम में धनवान् में कोई भिन्नता या तरतमता ही नहीं हो । उसका तात्पर्य है मानव या सम्पत्तिशाली हो जाता है । एक मूर्ख पिता का पुत्र भी बुद्धिमान् अथवा समाज के सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों तथा प्राज्ञ हो सकता है। एक पिता के दो पुत्रों में एक बुद्धिमान् तो दूसरा मूर्ख प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना कार्य अथवा एक सुन्दर तो दूसरा कुरूप हो सकता है । अत: इस प्रकार की क्षेत्र निर्धारित कर सके । इस सामाजिक समता के सन्दर्भ में जहाँ तक तरतमताओं के आधार पर मनुष्यों को सदैव के लिए मात्र जन्मना आधार जैन आचार्यों के चिन्तन का प्रश्न है, उन्होंने मानव में स्वाभाविक पर विभिन्न वर्गों में बाँट कर नहीं रखा जा सकता है। चाहे वह धनोपार्जन योग्यता जन्य अथवा पूर्व कर्म-संस्कार जन्य तरतमता को स्वीकारते हेतु चयनित विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्र हों, चाहे कला, विद्या अथवा हुए भी यह माना है कि चाहे विद्या का क्षेत्र हो, चाहे व्यवसाय या Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और सामाजिक समता ५४१ साधना का उसमें प्रवेश का द्वार सभी के लिए बिना भेद-भाव के खुला है। जिस प्रकार नट रंगशाला में कार्य स्थिति के अनुरूप विचित्र वेशभूषा रहना चाहिए । जैन धर्म स्पष्ट रूप से इस बात को मानता है कि किसी को धारण करता है उसी प्रकार यह जीव भी संसार रूपी रंगमंच पर कर्मों जाति या वर्ण-विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को प्राप्त होता है । तत्त्वत: आत्मा न ब्राह्मण होता। उसे जो हीन या श्रेष्ठ बनाता है, वह है उसका अपना पुरुषार्थ, है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र ही। वह तो अपने ही पूर्व कर्मों के उसकी अपनी साधना, सदाचार और कर्म । हम जैनों के इसी दृष्टिकोण वश में होकर संसार में विभिन्न रूपों में जन्म ग्रहण करता है । यदि शरीर को अग्रिम पृष्ठों में सप्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेगें। के आधार पर ही किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय कहा जाय, तो यह भी उचित जन्मना वर्ण-व्यवस्था : एक असमीचीन अवधारणा नहीं है । विज्ञ-जन देह को नहीं ज्ञान (योग्यता) को ही ब्रह्म कहते जैन आचार्य श्रुति के इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि हैं। अत: निकृष्ट कहा जाने वाला शूद्र भी ज्ञान या प्रज्ञा-क्षमता के आधार ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्यों की जंघा पर वेदाध्ययन करने का पात्र हो सकता है । विद्या, आचरण एवं सद्गुण से और शूद्र की पैरों से हुई है । चूँकि मुख श्रेष्ठ अंग है, अत: इन सबमें से रहित व्यक्ति जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण नहीं हो जाता, ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है। । ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से जन्म के आधार अपितु अपने ज्ञान, सद्गुण आदि से युक्त होकर ही ब्राह्मण होता है। पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसी वर्ण-व्यवस्था जैन चिन्तकों को व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कंठ, द्रोण, पराशर आदि अपने जन्म के आधार स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि सभी मनुष्य स्त्री-योनि से ही उत्पन्न पर नहीं, अपितु अपने सदाचरण एवं तपस्या से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त होते हैं । अत: सभी समान हैं । पुनः इन अंगों में से किसी को श्रेष्ठ हुए थे । अत: ब्राह्मणत्व आदि सदाचार और कर्तव्यशीलता पर एवं उत्तम और किसी को निकृष्ट या हीन मानकर वर्ण-व्यवस्था में आधारित है - जन्म पर नहीं । श्रेष्ठता एवं हीनता का विधान नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर के सभी अंग समान महत्त्व के हैं। इसी प्रकार शारीरिक वर्णों की भिन्नता सच्चा ब्राह्मण कौन ? के आधार पर किया गया ब्राह्मण आदि जातियों का वर्गीकरण भी जैनों जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता को मान्य नहीं है। और निम्नता का प्रतिमान माना है । उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें आचार्य जटासिंह नन्दि ने अपने वरांगचरित में इस बात का अध्ययन एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण विस्तार से विवेचन किया है कि शारीरिक विभिन्नताओं या वर्गों के कौन है, इसका विस्तार से विवेचन उपलब्ध है । विस्तार भय से उसकी आधार पर किया जाने वाला जाति सम्बन्धी वर्गीकरण मात्र पशु-पक्षी समग्र चर्चा में न जाकर केवल कुछ गाथाओं को प्रस्तुत कर ही विराम आदि के विषय में ही सत्य हो सकता है, मनुष्यों के सन्दर्भ में नहीं। लेगें। उसमें कहा गया है कि 'जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण वनस्पति एवं पशु-पक्षी आदि में जाति का विचार सम्भव है, किन्तु कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है और जो प्रियजनों के आने मनुष्य के विषय में यह विचार संभव नहीं है, क्योंकि सभी मनुष्य समान पर आसक्त नहीं होता और न उनके जाने पर शोक करता है, जो सदा हैं। मनुष्यों की एक ही जाति है । न तो सभी ब्राह्मण शुभ्र वर्ण के होते आर्य-वचन में रमण करता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं।' हैं, न सभी क्षत्रिय रक्त वर्ण के, न सभी वैश्य पीत वर्ण के और न सभी 'कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए, शुद्ध शुद्र कृष्ण वर्ण के होते हैं। अत: जन्म के आधार पर जाति व वर्ण का किये गए जात रूप सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग, द्वेष और भय निश्चय सम्भव नहीं है। __ से मुक्त है तथा जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और समाज में ऊँच-नीच का आधार किसी वर्ण विशेष या जाति रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है, शांत है, उसे ही ब्राह्मण विशेष में जन्म लेना नहीं माना जा सकता । न केवल जैन परम्परा, कहा जाता है।' अपितु हिन्दू परम्परा में भी अनेक उदाहरण है जहाँ निम्न वर्षों से उत्पन्न 'जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक प्रकार से जानकर व्यक्ति भी अपनी प्रतिभा और आचार के आधार पर श्रेष्ठ कहलाये। उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, जो क्रोध, हास्य, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए वंरागचरितमें जटासिंह लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता, जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या नन्दि कहते हैं कि 'जो ब्राह्मण स्वयं राजा की कृपा के आकांक्षी हैं और अधिक अदत्त नहीं लेता है, जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन उनके द्वारा अनुशासित होकर उनके अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में दीन ब्राह्मण नृपों (क्षत्रियों) से कैसे श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं । द्विज ब्रह्मा उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों के मुख से निर्गत हुए अत: श्रेष्ठ हैं -- यह वचन केवल अपने स्वार्थों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' की पूर्ति के लिए कहा गया है। ब्राह्मण प्रतिदिन राजाओं की स्तुति करते इसी प्रकार जो रसादि में लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से हैं और उनके लिए स्वस्ति पाठ एवं शान्ति पाठ करते हैं, लेकिन वह जीवन का निर्वाह करता है, जो गृह त्यागी है, जो अंकिचन है, सब भी धन की आशा से ही किया जाता है अत: ऐसे ब्राह्मण आप्तकाम पूर्वज्ञातिजनों एवं बन्धु-बान्धवों में आसक्त नहीं रहता है, उसे ही ब्राह्मण नहीं माने जा सकते हैं । फलत: इनका अपनी श्रेष्ठता का दावा मिथ्या कहते है । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ धम्मपद में भी कहा गया है कि 'जैसे कमल पत्र पर पानी होता है, जैसे आरे की नोंक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका हैउसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही सदाचार के आधार पर ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए, ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो सदाचार और सामाजिक समता की प्रतिष्ठापक थी न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा है। जैन परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्र, बौद्ध परम्परा के धम्मपद और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। सच्चा ब्राह्मण कौन है? इस विषय में 'कुमारपाल प्रबोध प्रबन्ध' में मनुस्मृति एवं महाभारत से कुछ श्लोक उद्धृत करके यह बताया गया है कि - 'शील सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है और सदाचार रहित ब्राह्मण भी शूद्र के समान हो जाता है। अतः सभी जातियों में चाण्डाल और सभी जातियों में ब्राह्मण होते हैं। हे अर्जुन ! जो ब्राह्मण कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा एवं राज्य की सेवा करते हैं वे वस्तुत: ब्राह्मण नहीं हैं। जो भी द्विज हिंसक, असत्यवादी, चौर्यकर्म में लिप्त, परदार सेवी हैं वे सभी पतित (शूद्र) हैं। इसके विपरीत ब्रह्मचर्य और तप से युक्त लौह व स्वर्ण में समान भाव रखने वाले, प्राणियों के प्रति दयावान् सभी जाति के व्यक्ति ब्राह्मण ही हैं जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ -- से ब्राह्मण हुए हैं। इसलिए ब्राह्मण होने में जाति विशेष में जन्म कारण नहीं हैं, अपितु तप या सदाचार ही कारण है। -- अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने का समंथन डॉ. राधाकृष्णन् और पाश्चात्य विचारक श्री गैरल्ड हर्ड ने भी किया है" । मानवीय स्वभाव में ज्ञानात्मकता या जिज्ञासा - वृत्ति, साहस या नेतृत्व - वृत्ति, संग्रहात्मकता और शासित होने की प्रवृत्ति या सेवा भावना पायी जाती है। सामान्यतः मनुष्यों में इन वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है। प्रत्येक मनुष्य में इनमें से किसी एक का प्राधान्य होता है। दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से समाज व्यवस्था में चार प्रमुख कार्य हैं। १. शिक्षण २. रक्षण ३. उपार्जन और ४ सेवा अतः यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति, अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्राधान्य हो, उसके अनुसार सामाजिक व्यवस्था में अपना कार्य चुने। जिसमें बुद्धि नैर्मल्य और जिज्ञासावृत्ति हो, वह शिक्षण का कार्य करे; जिसमें साहस और नेतृत्व वृत्ति हो वह रक्षण का कार्य करे; जिसमें विनियोग तथा संग्रह-वृत्ति हो वह उपार्जन का कार्य करे और जिसमें दैन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो वह सेवा कार्य करे। इस प्रकार जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वाभाविक वृत्तियों के आधार पर शिक्षण, रक्षण, उपार्जन और सेवा के सामाजिक कार्यों का विभाजन किया गया और इसी आधार पर क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये वर्ण बने । अतः वर्ण व्यवस्था जन्म पर नहीं, अपितु स्वभाव (गुण) एवं तदनुसार कर्म पर आधारित है । सच्चे ब्राह्मण के लक्षण बताते हुए कहा गया है--'जो व्यक्ति क्षमाशील आदि गुणों से युक्त हो, जिसने सभी दण्डों (परपीडन) का परित्याग कर दिया है, जो निरामिष भोजी है और किसी भी प्राणि की हिंसा नहीं करता -- यह किसी व्यक्ति के ब्राह्मण होने का प्रथम लक्षण है। इसी प्रकार जो कभी असत्य नहीं बोलता, मिथ्यावचनों से दूर रहता है यह ब्राह्मण का द्वितीय लक्षण है। पुनः जिसने परद्रव्य का त्याग कर दिया है तथा जो अदत्त को ग्रहण नहीं करता, यह उसके ब्राह्मण होने का तृतीय लक्षण है जो देव, असुर, मनुष्य तथा पशुओं के प्रति मैथुन का सेवन नहीं करता वह उसके ब्राह्मण होने का चतुर्थ लक्षण वह उसके ब्राह्मण होने का चतुर्थ लक्षण है जिसने कुटुम्ब का वास अर्थात् गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया हो, जो परिग्रह और आसक्ति से रहित है, यह ब्राह्मण होने का पंचम लक्षण है। जो इन पाँच लक्षणों से युक्त है वही ब्राह्मण है, द्विज है और महान् है, शेष तो शूद्रवत् हैं। केवट की पुत्री के गर्भ से उत्पन्न व्यास नामक महामुनि हुए हैं। इसी प्रकार हरिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रृंग ऋषि, शुनकी के गर्भ से शुक, माण्डूकी के गर्भ से मांडव्य तथा उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न वशिष्ठ महामुनि हुए न तो इन सभी ऋषियों की माता ब्राह्मणी 1 - 1 वास्तव में हिन्दू आचार दर्शन में भी वर्ण व्यवस्था जन्म पर नये संस्कार से ब्राह्मण हुए थे, अपितु ये सभी तप साधना या सदाचार नहीं वरन् कर्म पर ही आधारित है। गीता में श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं। कर्मणा वर्ण-व्यवस्था जैनों को भी स्वीकार्य 1 जैन परम्परा में वर्ण का आधार जन्म नहीं अपितु कर्म माना गया है। जैन विचारणा जन्मना जातिवाद की विरोधी है किन्तु कर्मणा वर्णव्यवस्था से उसका कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि -- 'मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय एवं से वैश्य एवं शूद्र होता है।' महापुराण में कहा गया कि जातिनाम कर्म के उदय से तो मनुष्य जाति एक ही है। फिर भी आजीविका भेद से वह चार प्रकार की कही गई है व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रों को धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का उपार्जन करने से वैश्य और निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहे जाते हैं। धनधान्य आदि सम्पत्ति एवं मकान मिल जाने पर गुरु की आज्ञा से, अलग से आजीविका अर्जन करने से वर्ण की प्राप्ति या वर्ण लाभ होता है (४० / १८९,१९०) । इसका तात्पर्य यही है कि वर्ण या जाति सम्बन्धी भेद जन्म पर नहीं, आजीविका या वृत्ति पर आधारित है । भारतीय वर्ण व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार रहा है कि वैयक्तिक योग्यता अर्थात् स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति के सामाजिक दायित्वों (कर्मों) का निर्धारण करती है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है । . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और सामाजिक समता 543 कि 'चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही इसी प्रकार आचार्य रविषेण भी पद्मचरित में लिखते हैं कि - किया गया है।९।' डॉ.राधाकृष्णन इसकी व्याख्या में लिखते हैं, यहाँ कोई भी जाति गर्हित नहीं है वस्तुत: गुण ही कल्याण कारक होते जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं / हम किस हैं / जाति से कोई व्यक्ति चाहे चाण्डाल कुल में ही उत्पन्न क्यों न हो, वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है अपितु स्वभाव और व्रत में स्थित होने पर ऐसे चाण्डाल को भी तीर्थंकरों ने ब्राह्मण ही कहा व्यवसाय द्वारा निर्धारित होती है१२ / ' युधिष्ठिर कहते हैं 'तत्त्वज्ञानियों की है१७ / अत: ब्राह्मण जन्म पर नहीं, कर्म/सदाचार पर आधारित है। दृष्टि में केवल आचरण (सदाचार) ही जाति का निर्धारक तत्त्व है। जैन मुनि चौथमल जी निर्ग्रन्थप्रवचनभाष्य में लिखते हैं कि ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से और न वेद के एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी व प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक अध्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है१३ / ' वर्ण में जन्म के कारण समाज में ऊँचा व आदरणीय समझा जाय व प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, अपितु लचीली दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी व सतोगुणी होने पर भी केवल जन्म के थी। वर्ण परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था क्योंकि कारण नीच व तिरस्कृत समझा जाय, यह व्यवस्था समाज घातक है आचरण या कर्म के चयन द्वारा परिवर्तित हो जाता था / उपनिषदों में और मनुष्य की गरिमा व विवेकशीलता पर प्रश्न चिह्न लगाती है। इतना वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है / सत्यकाम ही नहीं ऐसा मानने से न केवल समाज के बहुसंख्यक भाग का अपमान जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया होता है, प्रत्युत सदाचार व सद्गुण का भी अपमान होता है। इस था / मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का विधान है, उसमें लिखा है कि व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी, सदाचारी से ऊपर उठ जाता सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण है / अज्ञान-ज्ञान पर विजयी होता है तथा तमोगुण सतोगुण के सामने ब्राह्मण शूद्र हो जाता है / यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बन्ध में भी आदरास्पद बन जाता है / यह ऐसी स्थिति है जो गुण ग्राहक विवेकीजनों है / 15 आध्यात्मिक दृष्टि से कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, को सह्य नहीं हो सकती है१८ / वास्तविकता तो यह है कि किसी जाति क्योंकि आध्यात्मिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है / व्यक्ति विशेष में जन्म ग्रहण करने का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है व्यक्ति के नैतिक स्वभावानुकूल किसी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करते हुए सदाचरण और वासनाओं पर संयम का / जैन विचारणा यह तो स्वीकार आध्यात्मिक पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है / करती है कि लोक व्यवहार या आजीविका हेतु प्रत्येक व्यक्ति को रुचि व योग्यता के आधार पर किसी न किसी कार्य का चयन तो करना कोई भी कर्त्तव्य कर्म-हीन नहीं है होगा / यह भी ठीक है कि विभिन्न प्रकार के व्यवसायों या कार्यों के समाज व्यवस्था में अपने कर्तव्य के निर्वाह हेतु और आजीविका आधार पर सामाजिक वर्गीकरण भी होगा / इस व्यावसायिक या के उपार्जन हेतु व्यक्ति को कौन सा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए यह सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में होने वाले वर्गीकरण में न किसी को श्रेष्ठ, बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर करती है। यदि व्यक्ति न किसी को हीन कहा जा सकता है / जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्य अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक कर्त्तव्य प्राणीवर्ग की सेवा का कोई भी हीन कार्य नहीं हैं / यहाँ तक की मलको चुनता है, तो उसके इस चयन से जहाँ उसके जीवन की सफलता मूत्र की सफाई करने वाला कहीं अधिक श्रेष्ठ है / जैन परम्परा में धूमिल होती है वहीं समाज-व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त होती है। नन्दिषेणमुनि के सेवाभाव की गौरव गाथा लोक-विश्रुत है / जैन परम्परा आध्यात्मिक श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा में किसी व्यवसाय या कर्म को तभी हीन माना गया है, जब वह है या किन सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर व्यवसाय या कर्म हिंसक या क्रूरतापूर्ण कार्यों से युक्त हो / जैनाचार्यों निर्भर है कि वह उनका पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर ने जिन जातियों या व्यवसायों को हीन कहा है वे हैं -- शिकारी बधिक, रहा है। यदि एक शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता चिड़ीमार, मच्छीमार आदि / किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार से करता है तो वह अनैष्ठिक और अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा आजीविका हेतु चुना गया व्यवसाय न होकर उसका आध्यात्मिक आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ है / गीता भी स्पष्टतया यह स्वीकार करती विकास या सद्गुणों का विकास है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का साक्षात् तप (साधना) का ही महत्त्व दिखायी देता है जाति का कुछ भी सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उँचाइयों पर नहीं / चाण्डाल-पुत्र हरकेशी मुनि को देखो जिनकी प्रभावशाली ऋद्धि पहुँच सकता है / विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति है। मानवीय समता जैनधर्म का मुख्य आधार है / उसमें हरकेशीबल श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बन्ध जैसे चाण्डाल, अर्जुनमाली जैसे मालाकार, पूनिया जैसे धूनिया और तो उसके सदाचरण एवं आध्यात्मिक विकास से है / दिगम्बर जैन शकडाल पुत्र जैसे कुम्भकार का भी वही स्थान है, जो स्थान उसमें आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं-- सम्यक्-दर्शन इन्द्रभूति जैसे वेदपाठी ब्राह्मण पुत्र, दशार्णभद्र एवं श्रेणिक जैसे क्षत्रिय से युक्त चाण्डाल शरीर में उत्पन्न व्यक्ति भी तीर्थंकरों के द्वारा ब्राह्मण ही नरेश, धन्ना व शालिभद्र जैसे समृद्ध श्रेष्ठी रत्नों का है। कहा गया है। आत्मदर्शी साधक जैसे पुण्यवान् व्यक्ति को धर्म उपदेश Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ करता है, वैसे ही तुच्छ (विपन्न, दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता आयी। है२० / सन्मार्ग की साधना में सभी मानवों को समान अधिकार प्राप्त उपर्युक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों है। धनी-निर्धन, राजा-प्रजा और ब्राह्मण-शूद्र का भेद जैन धर्म को मान्य ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू परम्परा नहीं है। की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने जैनधर्म में वर्ण एवं जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक विकासक्रम लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक मूलत: जैनधर्म वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था के विरुद्ध सम्मान बनाये रखने के लिए हिन्दू वर्ण एवं जातिव्यवस्था को इस प्रकार खड़ा हुआ था किन्तु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें आत्मसात् कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएं प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा प्राय: समाप्त हो गया / जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा में जाति और वर्ण व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य विवरण सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में और शूद्र) की सृष्टि की / इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि प्राप्त होता है / उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी / ऋषभ जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र हैं / इनके दो भेद के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये - हैं -- कारू और अकारु / पुनः कारु के भी दो भेद हैं -- स्पृश्य और १.शासक (स्वामी) और २.शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और अस्पृश्य है / धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हुए --1. क्षत्रिय नगर के बाहर रहते है वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण १६/१८४(शासक), 2. वैश्य (कृषक एवं व्यवसायी) और 3. शूद्र (सेवक)। 186) / शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य एवं अस्पृश्य- ये भेद उसके पश्चात् श्रावक धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और सर्वप्रथम पुराणकार जिनसेन ने किये हैं२२ | उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया / इसप्रकार क्रमशः जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है / किन्तु हिन्दू चार वर्ण अस्तित्व में आये / इन चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय समाज व्यवस्था से प्रभावित बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्राय: मान्य तथा अन्तर्वर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से सोलहवर्ण बने, किया। षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की जिनमें सातवर्ण और नौ अन्तरवर्ण कहलाए / सात वर्ण में समवर्णीय चर्चा की हैं / 22 यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था, किन्तु बाद के दिगम्बर जैन के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी / श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (3/ और वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न ऐसे अनुलोम संयोग 202) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की मुनि से उत्पन्न तीनवर्ण / आचारांगचूर्णि (ईसा की ७वीं शती) में इसे स्पष्ट दीक्षा का निषेध था, किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जुंगित और व्याधादि कर्मजुंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर जो सन्तान होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही दिया | फिर भी यह सब जैन धर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही जाती है, यह पाँचवा वर्ण है / इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री था। से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठा वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से उत्पन्न जातीय अहंकार मिथ्या है सन्तान शुद्ध शूद्र या संकरशूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण है / पुनः जैनधर्म में जातीय मद और कुल मद को निन्दित माना गया अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्न नौ अन्तर-वर्ण है। भगवान महावीर के पूर्व-जीवनों की कथा में यह चर्चा आती है कि बने / ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ वर्ण मारीचि के भव में उन्होंने अपने कुल का अहंकार किया था, फलत: उन्हें उत्पन्न हुआ / क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण निम्न भिक्षुक कुल अर्थात् ब्राह्मणी माता के गर्भ में आना पड़ा है। हुआ / ब्राह्मण पुरुष और शूद्रा स्त्री से 'निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न आचारांग में वे स्वयं कहते हैं कि यह आत्मा अनेक बार उच्चगोत्र को हुआ / शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न और अनेक बार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है। इसलिए वस्तुत: न हुआ / क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ / शूद्र तो कोई हीन/नीच है, और न कोई अतिरिक्त/विशेष/उच्च है / साधक पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खत्ता) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न इस तथ्य को जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे / उक्त तथ्य को जान हुआ / वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वैदेह' नामक पन्द्रहवाँ लेने पर भला कौन गोत्रवादी होगा ? कौन उच्चगोत्र का अहंकार वर्ण उत्पन्न हुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से करेगा? और कौन किस गोत्र/जाति विशेष में आसक्त चित्त होगा२५ ? 'चाण्डाल' नामक सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्णों इसलिये विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोग संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में हों ओर न नीचगोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुःखी हों / यद्यपि जैनधर्म में Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और सामाजिक समता 545 उच्चगोत्र एवं निम्नगोत्र की चर्चा उपलब्ध है किन्तु गोत्र का सम्बन्ध पर सुन्दर महल व झोपड़ी पर समान रूप से बरसता है / जिस प्रकार परिवेश के अच्छे या बुरे होने से है / गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा बादल बिना भेद-भाव के सर्वत्र जल की वृष्टि करते हैं उसी प्रकार मुनि स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है / जैन कर्म सिद्धान्त के को भी ऊँच-नीच, धनी-निर्धन का विचार किये वगैर सर्वत्र सन्मार्ग का अनुसार देवगति में उच्च गोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीच उपदेश करना चाहिए२८ / यह बात भिन्न है कि उसमें से कौन कितना गोत्र का उदय होता है किन्तु देवयोनि में भी किल्विषिक देव नीच एवं ग्रहण करता है / जैन धर्म में जन्म के आधार पर किसी को निम्न या अस्पृश्यवत् होते हैं / इसके विपरीत अनेक निम्न गोत्र में उत्पन्न पशु उच्च नहीं कहा जा सकता हाँ वह इतना अवश्य मानता है कि अनैतिक जैसे-- गाय, घोड़ा, हाथी बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। आचरण करना अथवा क्रूर कर्म द्वारा अपनी आजीविका अर्जन करना वे अस्पृश्य नहीं माने जाते / अत: उच्चगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी हीन योग्य नहीं है, ऐसे व्यक्ति अवश्य हीन कर्मा कहे गये हैं किन्तु वे अपने और नीचगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी उच्च हो सकता है / अत: गोत्रवाद क्रूर एवं अनैतिक कर्मों का परित्याग करके श्रेष्ठ बन सकते हैं। की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ ज्ञातव्य है कि आज भी जैन धर्म में और जैन श्रमणों में विभिन्न नहीं जोड़ना चाहिए / भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र- जातियों के व्यक्ति प्रवेश पाते हैं / मात्र यही नहीं श्रमण जीवन को मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि 'जब आत्मा अंगीकार करने के साथ ही निम्न व्यक्ति भी सभी का उसी प्रकार अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्श कर चुका है, कर रहा है तब फिर आदरणीय बन जाता है, जिस प्रकार उच्चकुल या जाति का व्यक्ति / कौन ऊँचा है? कौन नीचा ? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार जैनसंघ में उनका स्थान समान होता है / यद्यपि मध्यकाल में हिन्दू है और अहंकार 'मद' है / मद नीचगोत्र के बन्धन का मुख्य कारण परम्परा के प्रभाव से विशेष रूप से दक्षिण भारत में जातिवाद का प्रभाव है। अत: इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें जैन समाज पर भी आया और मध्यकाल में मातंग आदि जाति-जुंगित तटस्थ रहता है, वही समत्वशील है, वही पण्डित है। (निम्नजाति) एवं मछुआरे, नट आदि कर्म जुंगित व्यक्तियों का श्रमण मथुरा से प्राप्त अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते हैं तो संस्था में प्रवेश अयोग्य माना गया। जैन आचार्यों ने इसका कोई हमें ज्ञात होता है कि न केवल प्राचीन आगमों से अपितु इन अभिलेखों आगमिक प्रमाण न देकर मात्र लोकापवाद का प्रमाण दिया, जो स्पष्ट से भी यही फलित होता है कि जैन धर्म ने सदैव ही सामाजिक समता रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जैन परम्परा को जातिवाद बृहद् हिन्दू पर बल दिया है और जैनधर्म में प्रवेश का द्वार सभी जातियों के व्यक्तियों प्रभाव के कारण लोकापवाद के भय से स्वीकारना पड़ा। के लिये समान रूप से खुला रहा है। मथुरा के जैन अभिलेख इस तथ्य इसी के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में विकसित जैन धर्म के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जैन मन्दिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की की दिगम्बर परम्परा में जो शूद्र की दीक्षा एवं मुक्ति के निषेध की प्रतिष्ठा में धनी-निर्धन, ब्राह्मण-शूद्र सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों के अवधारणा आई, वह सब ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव के कारण ही था। लोग समान रूप से भाग लेते थे। मथुरा के अभिलेखों में हम यह पाते यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि दक्षिण में जो निम्न जाति हैं कि लोहार, सुनार, गन्धी, केवट, लौहवणिक, नर्तक और यहाँ तक के लोग जैनधर्म का पालन करते थे, वे इस सबके बावजूद जैनधर्म से कि गणिकायें भी जिन मन्दिरों का निर्माण व जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा जुड़े रहे और वे आज भी पंचम वर्ण के नाम से जाने जाते हैं / यद्यपि करवाती थीं२६ / ज्ञातव्य है कि मथुरा के इन अभिलेखों में लगभग 60% बृहद हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण जैनों ने अपने प्राचीन मानवीय दानदाता उन जातियों से हैं, जिन्हें सामान्यतया निम्न माना जाता है। समता के सिद्धान्त का जो उल्लंघन किया, उसका परिणाम भी उन्हें स्थूलिभद्र की प्रेयसी कोशा वेश्या द्वारा जैनधर्म अंगीकार करने की कथा भुगतना पड़ा और जैनों की जनसंख्या सीमित हो गयी। तो लोक-विश्रुत है ही२७ / मथुरा के अभिलेखों में भी गणिका नादा द्वारा विगत वर्षों में सद्भाग्य से जैनों में विशेष रूप से श्वेताम्बर देव कुलिका की स्थापना भी इसी तथ्य को सूचित करती है कि एक परम्परा में यह समतावादी दृष्टि पुनः विकसित हुई है। कुछ जैन आचार्यों गणिका भी श्राविका के व्रतों को अंगीकार करके उतनी ही आदरणीय के इस दिशा में प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ ऐसी जातियाँ जो निम्न एवं बन जाती थी, जितनी कोई राज-महिषी / आवश्यकचूर्णि और तित्थोगाली क्रूरकर्मा समझी जाती थीं, न केवल जैन धर्म में दीक्षित हुईं अपितु प्रर्कीणक में वर्णित कोशा वेश्या का कथानक और मथुरा में नादा नामक उन्होंने अपने हिंसक व्यवसाय को त्याग कर सदाचारी जवीन को गणिका द्वारा स्थापित देव कुलिका, आयगपट्ट आदि इस तथ्य के स्पष्ट अपनाया है। विशेष रूप से खटिक और बलाई जातियाँ जैन धर्म से प्रमाण हैं / जैन धर्म यह भी मानता है कि कोई दुष्कर्मा व दुराचारी व्यक्ति जुड़ी हैं / खटिकों (हिन्दू-कसाइयों ) के लगभग पाँच हजार परिवार भी अपने दुष्कर्म का परित्याग करके सदाचार पूर्ण नैतिक-जीवन व समीर मुनिजी की विशेष प्रेरणा से अपने हिंसक व्यवसाय और मदिरा व्यवसाय को अपना कर समाज में प्रतिष्ठित बन सकता है / जैन साधना का सेवन आदि व्यसनों का परित्याग करके जैन धर्म से जुड़े और ये का राजमार्ग तो उसका है जो उस पर चलता है, वर्ण, जाति या वर्ग परिवार आज न केवल समृद्ध व सम्पन्न है, अपितु जैन समाज में भी विशेष का उस पर एकाधिकार नहीं है / जैन धर्म साधना का उपदेश तो बराबरी का स्थान पा चुके हैं / इसी प्रकार बलाईयों (हरिजनों) का भी वर्षा ऋतु के जल के समान है, जो ऊँचे पर्वतों, नीचे खेत-खलिहानों एक बड़ा तबका मालवा में आचार्य नानालाल जी की प्रेरणा से मदिरा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सेवन, मांसाहार आदि त्यागकर जैनधर्म से जुड़ा और एक सदाचार पूर्ण बनाये रखने हेतु मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरकेशीबल, मैतार्य, जीवन व्यतीत करने को प्रेरित हुआ है, ये इस दिशा में अच्छी उपलब्धि मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के है / कुछ अन्य श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन आचार्यों एवं मुनियों ने भी उल्लेख हैं / बिहार प्रान्त में सराक जाति एवं परमार क्षत्रियों को जैन धर्म से पुनः ८.प्राचीन जैनागमों में मुनि के लिए उत्तम, मध्यम और निम्न जोड़ने के सफल प्रयत्न किये हैं। आज भी अनेक जैनमुनि सामान्यतया तीनों ही कुलों से भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश मिलता है / इससे यही निम्न कही जाने वाली जातियों से दीक्षित हैं और जैन संघ में समान रूप फलित होता है कि जैनधर्म में वर्ण या जाति का कोई भी महत्त्व नहीं से आदरणीय हैं / इससे यह प्रमाणित होता है कि जैनधर्म सदैव ही था। सामाजिक समता का समर्थक रहा है / ९.जैनधर्म यह स्वीकार करता है कि मनुष्यों में कुछ स्वभावगत जैनधर्म में वर्णव्यवस्था के सन्दर्भ में जो चिन्तन हुआ उसके भिन्नताएं सम्भव हैं, जिनके आधार पर उनके सामाजिक दायित्व एवं निष्कर्ष निम्न हैं - जीविकार्जन के साधन भिन्न होते हैं / फिर भी वह इस बात का समर्थक 1. सम्पूर्ण मानव जाति एक ही है क्योंकि उसमें जाति भेद है कि सभी मनुष्यों को अपने सामाजिक दायित्वों एवं आजीविका अर्जन करने वाला ऐसा कोई भी स्वाभावकि लक्षण नहीं पाया जाता है जैसा के साधनों को चयन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता और सामाजिक, नैतिक कि एक जाति के पशु से दूसरे जाति के पशु में अन्तर होता है। एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिये 2. प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। वर्ण एवं जातिव्यवस्था क्योंकि ये ही सामाजिक समता के मूल आधार हैं। स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक कर्तव्यों के कारण और आजीविका हेतु व्यवसाय को अपनाने के कारण उत्पन्न हुई / जैसे-जैसे सन्दर्भ आजीविका अर्जन के विविध स्रोत विकसित होते गये वैसे-वैसे मानव . ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः / समाज में विविध जातियां अस्तित्व में आती गई, किन्तु ये जातियाँ ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत् / / मौलिक नहीं है मात्र मानव सृजित हैं। -ऋग्वेद, 10/10/12, सं.दामोदर सातवलेकर, बालसाड, 3. जाति और वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर न होकर 1988 व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण एवं उसके द्वारा अपनाये गये व्यवसाय द्वारा 2. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ४,पृ. 1441 होता है अत: वर्ण और जाति व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु कर्मणा है। 3. चत्वार एकस्य पितुः सुताश्चेत्तेषां सुतानां खलु जातिरेका / 4. यदि जाति और वर्णव्यवस्था व्यवसाय अथवा सामाजिक एवं प्रजानां च पितैक एवं पित्रैकभावाद्य न जातिभेदः / / दायित्व पर स्थित है तो ऐसी स्थिति में सामाजिक कर्तव्य और व्यवसाय फलान्यथोदुम्बर वृक्षजातेर्यथाग्रमध्यान्त भवानि यानि / के परिवर्तन के आधार पर जाति एवं वर्ण में परिवर्तन सम्भव है। रूपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या / ५.कोई भी व्यक्ति किसी जाति या परिवार में उत्पन्न होने के न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः / कारण हीन या श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु वह अपने सत्कर्मों के आधार पर न चेह वैश्या हरितालतुल्या: शूद्रा न चाड्गार समानवर्णाः / श्रेष्ठ होता है। - वरांगचरित, सर्ग 25, श्लोक 3,4,7-- जटासिंहनन्दि, ६.जाति एवं कुल की श्रेष्ठता का अहंकार मिथ्या है / उसके संपा. ए. एन. उपाध्ये, बम्बई 1938 कारण सामाजिक समता एवं शान्ति भंग होती है। 4. ये निग्रहानुग्रहयोरशक्ता द्विजा वराका: परपोष्यजीवाः / ७.जैनधर्म के द्वार सभी वर्ण और जातियों के लिए समान रूप मायाविनो दीनतमा नृपेभ्यः कथं भवन्त्युत्तमजातयस्ते / / से खुले रहे हैं। प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों से यह संकेत मिलता है कि तेषां द्विजानां मुख निर्गतानि वचांस्यमोघान्यघनाशकानि / उसमें चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, इहापि कामान्स्वमनः प्रक्लृप्तान लभन्त इत्येव मृषावचस्तत् / / श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधन के सर्वोच्च लक्ष्य यथानटो रङ्गमुपेत्य चित्रं नृत्तानुरूपानुपयाति वेषान् / / निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे। सातवीं-आठवीं सदी जीवस्तथा संसृतिरङ्गमध्ये कर्मानुरूपानुपयाति भावान् / / में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य न ब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति न क्षत्रियो नापि च वैश्यशूद्रे / माना / श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, ततस्तु कर्मानुवशा हितात्मा संसार चक्रे परिवंभ्रमीति / / स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आपातकत्वाच्च शरीरदाहे देहं न हि ब्रह्म वदन्ति तज्ज्ञाः / आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगित जैसे-चाण्डाल आदि और कर्म ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्ट शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति / / जंगित जैसे -कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया / किन्तु विद्याक्रिया चारु गुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः / यह बृहत्तर हिन्दू 'परम्परा का प्रभाव ही था जो कि जैनधर्म के मूल ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्त तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति / / सिद्धान्त के विरुद्ध था, जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को - वही, सर्ग 25, श्लोक 33, 34, 40-43 . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और सामाजिक समता 547 . 5. जे लोए बम्भणो वुत्तो, अग्गी वा महिओ जहा / न हन्ति सर्वभूतानि प्रथमं ब्रह्मलक्षणम् / / सया कुसलसंदिटुं, तं वयं बूम माहणं / सदा सर्वानृतं त्यक्तवा मिथ्यावादाद् विरच्यते / जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई / नानृतं च वदेद् वाक्यं द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम् / / रमइ अज्जवयणंमि, तं वयं बूम माहणं / / सदा सर्व परद्रव्यं बहिर्वा यदि वा गृहे / जायरूवं जहामढे, निद्धन्तमलपावगं / अदत्तं नैव गृहाति तृतीयं ब्रह्मलक्षणम् / / रागद्दोसभयाईयं, तं वयं बूम माहणं / / देवासुरमनुष्येषु तिर्यग्योनिगतेषु च। तवस्स्यिं किसं दन्तं अवचियमंससोणियं / न सेवते मैथुनं यश्चचतुर्थं ब्रह्मलक्षणम् / सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं / / त्यक्तवा कुटुम्बवासं तु निर्ममो निः परिग्रहः / तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे / युक्तश्चरति निः सङ्ग: पंचमं ब्रह्मलक्षणम् / / जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं // पंचलक्षणसंपूर्ण ईशो यो भवेद् द्विजः / कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया / महान्तं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर ! / / मुसं न वयई जो उ,तं वयं बूम माहणं / / कैवर्तीगर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः / चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं / तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् / / न गेण्हाइ अदत्तं जे,तं वयं बूम माहणं / / हरिणीगर्भसम्भूतो ऋषिशृंङ्गो महामुनिः / तप / / दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं / शुनकीगर्भसम्भूतः शुको नाम मुनिस्तथा / तप / / मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं / / मण्डूकीगर्भसम्भूतो माण्डव्यश्च महामुनिः / तप / जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा / उर्वशीगर्भसम्भूतो वशिष्ठस्तु महामुनिः / तप / / एवं अलितं कामेहिं तं वयं बूम माहणं / / न तेषां ब्राह्मणी माता संस्कारश्च न विद्यते / तप / / अलोलुयं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं / यद्वत्काष्ठमयो हस्ती यद्वच्चर्ममयो मृगः / असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं // ब्राह्मणस्तु कियाहीनत्रस्ते नामधारकाः / / जहित्ता पुव्वसंजोगं, नाइसंगे य बन्धवे / - कुमारपालचरित्रसंग्रह के अर्न्तगत कुमारपाल प्रबोध, पृ. जो न सज्जइ भोगेसुं, तं वयं बूम माहणं / / 606, श्लोक 119-136, संपादक - जिनविजयमुनि, प्रकाशक - -उत्तराध्ययनसूत्र, संपादक- साध्वी चंदना, 25/19-29 सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, विक्रम संवत् 6. वारिपोक्खरपत्ते व आरग्गेरिव सासपो / 2013 / यो न लिप्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं / / 8. कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ / यो दुक्खस्स पजानाति इधेव खयमत्तनो / वइस्से कम्मणाहोइ सुद्दो हवइ कम्मणा / / पन्नभारं विसञत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं / / -उत्तराध्ययन सूत्र, 25/33 गम्भीर पञ्बं मेधाविं मग्गामग्गस्स कोविदं / 9. मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा। उत्तमत्थं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं / / वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते // 38-45 -धम्मपद, ब्राह्मणवर्ग, 401-403, संपादक-भिक्षुधर्मरक्षित, ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् / / 1983 वणिजोऽर्थार्जनात्रयाय्यात शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।।३८-४६ / / 7. शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् / गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः / ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीन: शूद्रापत्यसमो भवेत् / / पृथक्कृतालयस्यास्यै वृत्तिर्वर्णाप्तिरिस्यते // 38-137 / / अत:- सर्वजातिषु चाण्डाला: सर्वजातिषु ब्राह्मणाः / सृष्टयन्तरमतो दूरं अपास्य नयतत्त्ववित् / ब्राह्मणेष्वपि चाण्डाला: चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः / / अनादिक्षत्रियैः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् / / 40-189 / / कृषि-वाणिज्य-गोरक्षां राजसेवामकिंचनाः / तीर्थकृद्भिरयं सृष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी। ये च विप्राः प्रकुर्वन्ति न ते कौन्तेय ! ब्राह्मणा: / / 3 / / तां संश्रितान्नृपानेव सृष्टिहेतून् प्रकाशयेत् / / 40-190 // हिंसकोऽनृतवादी च चौर्ययाभिरतश्च यः / -महापुराण, जिनसेन, 38/45-46, 137, 189,190 परदारोपसेवी च सर्वे ते पतिता द्विजाः / / १०.भगवद्गीता, डॉ.राधाकृष्णन, पृ. 353 ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः समानलोष्टकांचनाः / ११.चातुर्वयं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः / सर्वभूतदयावन्तो ब्राह्मणाः सर्वजातिषु / / -गीता, 4/13 क्षान्त्यादिकगुणैर्युक्तो व्यस्तदण्डो निरामिषः / 12. भगवद्गीता- राधाकृष्णन, पृ.१६३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १३.राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा / पुव्वभवजम्मणअहिसेयचक्कवट्टिरायाभिसेगाति, तत्थ जे रायअस्सिता ते ब्राह्मण्यं केन भवति प्रब्रह्येतत् सुनिश्चितम् // 3/3/107 // य खत्तिया जाया अणस्सिता गिहवइणो जाया, जया अग्गी उप्पण्णो ततो श्रुणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम् / य भगवऽस्सिता सिप्पिया वाणिगया जाया, तेहिं तेहिं सिप्पवाणिज्जेहिं कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः / / वित्तिं विसंतीती वइस्सा उप्पन्ना, भगवए पव्वइए भरहे अभिसित्ते सावगधम्मे -महाभारत, वनपर्व, 313/107,108 गीता प्रेस, गोरखपुर उप्पण्णे बंभणा जाया, अणस्सिता बंभणा जाया माहणत्ति, उज्जुगसभावा १४.देखें -- छान्दोग्योपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर) 4/4 धम्मपियां जं च किंचि हणंतं पिच्छंति तं निवारंति मा हण भो मा हण, १५.शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्ममणश्चैति शूद्रताम् / एवं ते जणेणं सुकम्मनिवत्तितसन्ना बंभणा (माहणा) जाया, जे पुण क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्चात्तथैव च / / अणस्सिया असिप्पिणो ते वयख (क) लासुइबहिकआ तेसु तेसु पओयणेसु - मनुस्मृति 10/65, सं. सत्यभूषण योगी, 1966 सोयमाणा हिंसाचोरियादिसु सज्जमाणा सोगद्रोहणसीला सुद्दा संवुत्ता, 16. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् / एवं तावं चत्तारिवि वण्णा ठाविता, सेसाओ संजोएणं तत्थ संजोए देवा देवं विदुर्भस्मगूढ़ाङ्गारान्तरौजसम् / / सोलसयं गाहा (20-8) एतेसिं चेव च उण्हं वण्णाणं पुव्वाणुपुवीए -रत्नकरण्डकश्रावकाचार, 28 अणंतरसंजोएणं अण्णे तिण्णि वण्णा भवंति, तत्थ 'पयती चउक्कयाणंतरे' 17. न जातिर्गर्हिता काचित् गुणा: कल्याणकारणम् / गाहा (21-8) पगती णाम बंभखत्तियवइससुद्दा चउरो वण्णा / इदाणिं व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः / / अंतरेण-बंभणेणं खत्तियाणीए जाओ सो उत्तमखत्तिओ वा सुद्धखत्तिओ -पद्मचरित, पर्व , 11/203 वा अहवा संकरखत्तिओ पंचमो वण्णो, जो पुण खत्तिएणं वइस्सीए १८.निर्गन्थप्रवचनभाष्य -- मुनि श्री चौथमल जी, पृ. 289 जाओ एसो उत्तमवइस्सो वा सुद्धवइस्सो वा संकरवइस्सो वा छट्ठो १९.सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोइ। वण्णो, जो वइस्सेण सुद्दीए जातो सो उत्तमसुद्दो वा (सुद्धसुद्दो) वा सोवागपुत्ते हरिएस साहू, जस्से इड्डि महाणुभागा / / संकरसुद्दो वा सत्तमो वण्णो / इदाणिं वण्णेणं वण्णेहिं वा अंतरितो उत्तराध्ययनसूत्र, 12/37 अणुलोमओ पडिलोमतो य अंतरा सत्त वण्णंतरया भवंति, जे अंतरिया 20. जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति / ते एगंतरिया दुअरिया भवंति / चत्तारि गाहाओ पढियव्वाओ जहा तुच्छस्स कत्थति तहा पुण्णस्स कत्थति / (22,23,24,25-8) तत्थ ताव बंभणेणं वइस्सीए जाओ अंबट्ठोत्ति -आचारांग-- सं. मधुकर मुंनि, 1/2/6/102 वुच्चइ एसो अट्ठमो वण्णो, खत्तिएणं सुंदीए जातो उग्गोत्ति वुच्चइ एसो 21 अ. एक्का मणुस्सजाई रज्जुप्पत्तीइ दो कया उसमे / नवमो वण्णो, बंभणेण सुद्दीए निसातोत्ति वुच्चइ, कित्तिपारासवोत्ति, तिण्णेव सिप्पवणिए सावगधम्मम्मि चत्तारि / / तिण्णि गया, दसमो वण्णो। इदाणिं पडिलोमा भण्णंति-सुद्देण वइस्सीए संजोगे सोलसगं सत्त य वण्णा उ नव य अंतरिणो जाओ अउगवुत्ति भण्णइ, एक्कारसमो वण्णो, वइस्सेणं खत्तियाणीए एए दोवि विगप्पा ठवणा बंभस्स णायव्वा / / जाओ मागहोत्ति भण्णइ, दुवालसमो, खत्तिएणं बंभणीए जाओ सओत्ति पगई चउक्कगाणंतरे य ते हंति सत्त वण्णा उ / भण्णति, तेरसो वण्णो सुद्देण खत्तियाणीए जाओ खत्तिओत्ति भण्णइ आणंतरेसु चरमो एण्णे खलु होइ णायव्वो / / चोद्दसमो, वइस्सेण बंभणीए जाओ वैदेहोत्ति भण्णति, पन्नरसमो वण्णो, अंबट्ठग्गनिसाया य अजोगवं मागहा य सूया य / सुद्देण बंभणीए जाओ चंडालेत्ति पवुच्चइ, सोलसमो वण्णो, एतवूतिरित्ताजेते खत्ता (य) विदेहाविय चंडाला नवमगा हुति / / बिजाते ते वुच्चंति - उग्गेण खत्तियाणिए सोवागेत्ति वुच्चइ, वैदेहेणं एगंतरिए इणमो अंबट्ठो चेव होइ उग्गो य / खत्तीए जाओ वेणवुत्ति वुच्चइ, निसाएणं अंबट्टीए जाओ बोक्कसोत्ति बिइयंतयरिअ निसाओ परासरं तं च पुण वेगे / / वुच्चइ, निसाएण सुद्दीए जातो सोवि बोक्कसो, सुद्देण निसादीए कुक्कुडओ, पडिलोमे सुद्दाई अजोगवं मागहो य सूओ अ / एवं सच्छंदमतिविगप्पितं / एगंतरिए खत्ता वेदेहा चेव नायव्वा / / २२.क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वं अनुभूय तदाभवन् / बितियंतरे नियमा चण्डालो सोऽवि होइ णायव्वो / वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविताः // अणुलोमे पडिलोमे एवं एए भवे भेया / तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः / उग्गेणं खत्ताए सोवागो वेणवो विदेहेणं / कारवो रजकाद्या: स्युस्ततोऽन्ये स्थुरकारवः / / अंबट्ठीए सुद्दीय बुक्कसो जो निसाएणं / / कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः / सूएण निसाईए कुक्करओ सोवि होइ णायव्वो। तत्रास्पृश्याः प्रजावास्या: स्पृश्याः स्यु कर्त्तकादयः / / एसो बीओ भेओ चउब्विहो होइ णायब्वो // -आदिपुराण, 16/184-186 -आचारांगनियुक्ति, 19-27 23. ततो णो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं-पंडए वीत्ते (चाहिये) २१ब. 'एगा मणुस्सजाई गाहा (19-8) एत्थ उसभसामिस्स कीवे? Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. यदाह--'३ बाले बुड्ठे नपुंसे य, जड्डे कीवे य वाहिए। तेणे रायावगारीय, उम्मत्ते य अंदसणे // 1 / / दासे दुढे (य) अणत्त जुंगिए इय / / ओबद्धए य भयए, सेहनिप्फेडिया इय // 2 // स्थानांगसूत्रम्, अभयदेवसूरिवृत्ति, (प्रकाशक-- सेठ माणेकलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, विक्रम संवत् 1994) सूत्र 3/ 202, वृत्ति पृ. 154 २५.से असइं उच्चागोए असंइ णीयागोए। णो हीणे णो अइरिते णो पीहए / / इतिसंखाय के गोतावादी, के माणावादी, कंसि वा एगे गिज्झे? तम्हापंडिते णो हरिसे णो कुज्झे -आचारांग,(सं.मधुकरमुनि), 1/2/3/75 २६.जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, संग्रहकर्ता-विजयमूर्ति, लेख क्रमांक 8,31,41,54,62,67,69, २७अ. आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणि, ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, भाग १,पृ. 554 ब. भक्तपरिज्ञा, 128 स.तित्थोगालिअ, 777 २८.आचारांग, सं. मधुकरमुनि, 1/2/6/102 जैन धर्म में नारी की भूमिका भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेक कालावधि ईसा की ५वीं शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने प्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है / उसने सदैव ही विषमतावादी और युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं / इसके वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, स्थापित करने का प्रयास किया है / जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न व्याख्याकारों के समकालीन एक अंग है अत: उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया समाज में खोजा जा सकता है, यद्यपि वे आगमिक व्याख्याकारों की और स्त्री के दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर उसे पुरुष के समकक्ष मनःप्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा सकते हैं / उदाहरण के रूप में ही माना गया है / फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्वनाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुष प्रधान परिवेश में ही हुआ है, से सम्बन्धित विस्तृत विवरण, जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहगामी ब्राह्मण परम्परा के हैं, वे या तो आगमों में अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सकी और उसमें भी विभिन्न कालों हैं, किन्तु हम यह नहीं मान सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की में नारी की स्थिति में परिवर्तन होते रहे। मनःप्रसूत कल्पना है। वस्तुत: वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या यहाँ हम आगमों और व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों अनुश्रुति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं / अतः आगमों और की दृष्टि में नारी की क्या स्थिति रही है इसका मूल्यांकन करेंगे, किन्तु आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो की प्रकृति को समझ नहीं कह सकते कि वे केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ लेना आवश्यक है / जैन आगम साहित्य एक काल की रचना नहीं है। हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं / वह ईसा पूर्व पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक अर्थात् अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित और किया जा सकता है - परिवर्तित होता रहा है अत: उसके समग्र सन्दर्भ एक ही काल के नहीं 1. पूर्व युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक / हैं / पुनः उनमें भी जो कथा भाग है, वह मूलत: अनुश्रुतिपरक और 2. आगम युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्ध रखता है / अत: उनमें अपने काल से पाँचवीं शताब्दी तक / भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थित हैं जो अनुश्रुति से प्राप्त हुए हैं। उनमें 3. प्राकृत आगमिक व्याख्या युग - ईसा की पाँचवी शताब्दी से कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है आठवीं शताब्दी तक / और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता है / जहाँ तक आगमिक 4. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य व्याख्या साहित्य का सम्बन्ध है, वह मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत युग - आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक / एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाओं पर आधारित है अत: इसकी इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों