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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
समकालीन पाश्चात्य दर्शन में भाषा-विश्लेषण का दर्शन की गणितीय ज्ञान और परिभाषाओं के सन्दर्भ, सत्यता की कसौटी ज्ञान एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हुआ और आज वह एक सबसे की आन्तरिक संगति ही होती है। वे सभी ज्ञान जिनका ज्ञेय ज्ञान से प्रभावशाली दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में अपना अस्तित्त्व रखता है। भिन्न नहीं है, स्वतः प्रामाण्य हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान भी उत्पत्ति प्रस्तुत शोधनिबन्ध का उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि पाश्चात्य दर्शन और ज्ञप्ति दोनों ही दृष्टि से स्वत: ही प्रामाण्य है। जब हम यह मान की ये विधाएँ जैन दर्शन में सहस्त्राधिक वर्ष पूर्व किस रूप में चर्चित लेते हैं कि निश्चय दृष्टि से सर्वज्ञ अपने को ही जानता है, तो हमें रही हैं और उनकी समकालीन पाश्चात्य दर्शन से किस सीमा तक उसके ज्ञान के सन्दर्भ में उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों को स्वत: मानना निकटता है।
होगा क्योंकि ज्ञान कथञ्चित् रूप से ज्ञेय से अभिन्न भी होता है जैसे
स्व-संवेदन। ज्ञान की सत्यता का प्रश्न
वस्तुगत ज्ञान में भी सत्यता की कसौटी उत्पत्ति और ज्ञप्ति सामान्यतया ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का अर्थ ज्ञान की (निश्चिय) दोनों को स्वत: और परत: दोनों माना जा सकता है। जब ज्ञेय विषय के साथ समरूपता या संवादिता है। यद्यपि, ज्ञान की सत्यता कोई यह सन्देश कहे कि “आज अमुक प्रसूतिगृह में एक बन्ध्या ने पुत्र के सम्बन्ध में एक दूसरा दृष्टिकोण स्वयं ज्ञान का संगतिपूर्ण होना भी का प्रसव किया" तो हम इस ज्ञान के मिथ्यात्व के निर्णय के लिए है, क्योंकि जो ज्ञान आन्तरिक विरोध से युक्त है, वह भी असत्य माना किसी बाहरी कसौटी का आधार न लेकर इसकी आन्तरिक असंगति के गया है।जैन दर्शन में वस्तु स्वरूप को अपने यथार्थ रूप में, अर्थात् आधार पर ही इसके मिथ्यापन को जान लेते हैं। इसी प्रकार "त्रिभुज जैसा वह है उस रूप में जानना अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय (प्रमेय) से तीन भुजाओं से युक्त आकृति है"- इस ज्ञान की सत्यता इसकी अव्यभिचारी होना ही ज्ञान की प्रामाणिकता है। यहाँ यह प्रश्न भी आन्तरिक संगति पर ही निर्भर करती है। अत: ज्ञान के प्रामाण्य एवं महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान की इस प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय कैसे अप्रामाण्य की उत्पत्ति (कसौटी) और ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य होता है? क्या ज्ञान स्वयं ही अपनी सत्यता का बोध देता है या उसके का ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही ज्ञान के स्वरूप या प्रकृति के आधार पर लिए किसी अन्य ज्ञान (ज्ञानान्तर ज्ञान) की अपेक्षा होती है? अथवा स्वत: अथवा परत: और दोनों प्रकार से हो सकती है। ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए ज्ञान और ज्ञेय की संवादिता (अनुरूपता) सकल ज्ञान, पूर्ण ज्ञान और आत्मगत ज्ञान में ज्ञान की को देखना होता है? पाश्चात्य परम्परा में ज्ञान की सत्यता के प्रश्न को प्रामाण्यता का निश्चय स्वतः होगा, जबकि विकल ज्ञान, अपूर्ण लेकर तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं- (५) संवादिता सिद्धान्त; (२) (आंशिक) ज्ञान या नयज्ञान और वस्तुगत ज्ञान में वह निश्चय परत: संगति सिद्धान्त और (३) उपयोगितावादी (अर्थक्रियाकारी) सिद्धान्त। होगा। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के द्वारा होने वाले ज्ञान में उनके प्रामाण्य का भारतीय दर्शन में वह संवादिता का सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद के रूप बोध स्वत: होगा, जबकि व्यावहारिक प्रत्यक्ष और अनुमानादि में में और संगति-सिद्धान्त स्वत: प्रामाण्यवाद के रूप में स्वीकृत हैं। प्रामाण्य का बोध स्वत: और परत: दोनों प्रकार से सम्भव है। पुनः अर्थक्रियाकारी सिद्धान्त को परत: प्रामाण्यवाद की ही एक विशेष विधा सापेक्ष ज्ञान में सत्यता का निश्चय परत: और स्वत: दोनों प्रकार से और कहा जा सकता है। जैन दार्शनिकों ने इस सम्बध में किसी ऐकान्तिक निरपेक्ष ज्ञान में स्वतः होगा। इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान की सत्यता की दृष्टिकोण को न अपनाकर माना कि ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का उत्पत्ति और ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही स्वत: और सामान्य व्यक्ति के ज्ञान निश्चय स्वत: और परत: दोनों प्रकार से होता है। यद्यपि, जैन दार्शनिक की उत्पत्ति परत: और ज्ञप्ति स्वत: और परत: दोनों रूपों में हो सकती यह मानते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति का है। अत: वादिदेवसूरि का यह कथन सामान्य व्यक्ति के ज्ञान को लेकर आधार (कसौटी) ज्ञान स्वयं न होकर ज्ञेय है। प्रमाणनयतत्वालोक में ही है, सर्वज्ञ के ज्ञान के सम्बन्ध में नहीं हैं। सामान्य व्यक्तियों के ज्ञान वादिदेवसूरि ने कहा है कि “तदुभयमुत्पत्तौ परत एव" अर्थात् प्रामाण्य की सत्यता का मूल्याँकन पूर्व अनुभव दशा में स्वत: और पूर्व अनुभव
और अप्रामाण्य की उत्पत्ति तो परतः ही होती है। क्योंकि ज्ञान की में अभाव में परतः अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से होता है, यद्यपि पूर्व प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता का आधार ज्ञान न होकर ज्ञेय है और ज्ञेय अनुभव भी ज्ञान का ही रूप हैं अत: उसे भी अपेक्षा विशेष से परतः ज्ञान से भिन्न है। तथापि अभ्यास दशा में ज्ञान की सत्यता का निश्चय कहा जा सकता हैं जहाँ तक की ज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न है, स्वानुभव अर्थात् ज्ञप्ति तो स्वत: अर्थात् स्वयं ज्ञान के द्वारा ही हो जाती है, को छोड़कर वह परत: ही होती है, क्योंकि वह ज्ञेय अर्थात् “पर” पर जबकि अनभ्यास दशा में उसका निश्चय परत: अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से निर्भर है। अत: ज्ञान की सत्यता की उत्पत्ति या कसौटी को परत: ही होता है। यद्यपि, वादिदेवसूरि के द्वारा ज्ञान की सत्यता की कसौटी माना गया है। जहाँ तक कथन की सत्यता का प्रश्न है, वह ज्ञान की (उत्पत्ति) को एकान्तः परत: मान लेना समुचित प्रतीत नहीं होता है। सत्यता से भिन्न है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कथन की सत्यता का प्रश्न
सामर्थ्य की सीमितता को भी हमें ध्यान में रखना होगा। साथ ही हमें यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि मानव अपनी अनुभूतियों और यह भी ध्यान रखना होगा कि भाषा, तथ्य नहीं, तथ्य की संकेतक मात्र भावनाओं को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। भाषा शब्द है। उसकी इस सांकेतिकता के सन्दर्भ में ही उसकी सत्यता-असत्यता प्रतीकों और सार्थक ध्वनि संकेतों का एक सुव्यवस्थित रूप है। वस्तुतः का विचार किया जा सकता है। जो भाषा अपने कथ्य को जितना हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के अधिक स्पष्ट रूप से संकेतित कर सकती है वह उतनी ही अधिक सत्य लिए शब्द प्रतीक बना लिये है। इन्हीं शब्द प्रतीकों एवं ध्वनि संकेतों के निकट पहुँचती है। भाषा की सत्यता और असत्यता उसकी संकेत के माध्यम से हम अपने विचारों, अनुभूतियों और भावनाओं का शक्ति के साथ जुड़ी हुई है। शब्द-अर्थ (वस्तु या तथ्य) के संकेतक हैं सम्प्रेषण करते हैं।
वे उसके हू-ब-हू (यथार्थ) प्रतिबिम्ब नहीं हैं। शब्द में मात्र यह सामर्थ्य यहाँ मूल प्रश्न यह है कि हमारी इस भाषायी अभिव्यक्ति को रही हुई है कि वे श्रोता के मनस् पर वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब उपस्थित हम किस सीमा तक सत्यता का अनुसांगिक मान सकते हैं। आधुनिक कर देते हैं। अत: शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब तथ्य का पाश्चात्य दर्शन में भाषा और उसकी सत्यता के प्रश्न को लेकर एक पूरा संवादी है, उससे अनुरूपता रखता है तो वह कथन सत्य माना जाता दार्शनिक सम्प्रदाय ही बन गया है। भाषा और सत्य का सम्बन्ध आज है। यद्यपि, यहाँ भी अनुरूपता वर्तमान मानस प्रतिबिम्ब और पूर्ववर्ती के युग का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न है किसी कथन की सत्यता या परवर्ती या परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब में ही होती है। जब किसी मानस या असत्यता को निर्धारित करने का आधार आज सत्यापनका सिद्धान्त प्रतिबिम्ब का सत्यापन परवर्ती मानस प्रतिबिम्ब अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान हैं। समकालीन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि जिन कथनों का से होता है तो उसे परत: प्रामाण्य कहा जाता है और जब उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है, वे ही कथन सत्य या असत्य हो सकते सत्यापन पूर्ववर्ती मानस प्रतिबिम्ब से होता है तो स्वतः प्रामाण्य कहा हैं। शेष कथनों का सत्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ए० जे० एयर ने जाता है; क्योंकि अनुरूपता या विपरीतता मानस प्रतिबिम्बों में ही हो अपनी पुस्तक में इस समस्या को उठाया है। इस सन्दर्भ में सबसे पहले सकती हैं। यद्यपि दोनों ही प्रकार के मानस प्रतिबिम्बों का आधार या हमें इस बात का विचार कर लेना होगा कि कथन के सत्यापन से हमारा उनकी उत्पत्ति ज्ञेय (प्रमेय) से होती है। यही कारण था कि वादिदेवसूरि क्या तात्पर्य है। कोई भी कथन जब इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या ने प्रामाण्य (सत्यता) और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति को परत: माना अपुष्ट किया जा सकता है, तब ही वह सत्यापनीय कहलाता है। जिन था। प्रामण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति को परत: करने का तात्पर्य यही कथनों को हम इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या खण्डित नहीं कर है- इन मानस प्रतिबिम्बों का उत्पादक तत्त्व इनसे भिन्न हैं। कुछ सकते, वे असत्यापनीय होते हैं। किन्तु, इन दोनों प्रकार के कथनों के विचारक यह भी मानते हैं कि कथन के सत्यापन या सत्यता के निश्चय बीच कुछ ऐसे भी कथन होते हैं जो न सत्यापनीय होते हैं और में शब्द द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब और तथ्य द्वारा उत्पन्न मानस असत्यापनीय। उदाहरण के लिए मंगल ग्रह में जीव के पाये जाने की प्रतिबिम्ब में तुलना होती है। यद्यपि एकांत वस्तुवादी दृष्टिकोण यह संभावना है। यद्यपि यह कथन वर्तमान में सत्यापनीय नहीं है, किन्तु मानेगा कि ज्ञान और कथन की सत्यता का निर्धारण मानस प्रतिबिम्ब यह संभव है कि इसे भविष्य में पुष्ट या खण्डित किया जा सकता है। की तथ्य या वस्तु से अनुरूपता के आधार पर होता है। यहाँ यह स्मरण अत: वर्तमान में यह न तो सत्यापनीय है और न तो असत्यापनीय। रखना होगा कि यह अनुरूपता भी वस्तुतः मानस प्रतिबिम्ब और वस्तु किन्तु, संभावना की दृष्टि से इसे सत्यापनीय माना जा सकता है। के बीच न होकर शब्द निर्मित मानस प्रतिबिम्ब और परवर्ती इन्द्रिय भगवती-आराधना में सत्य का एक रूप संभावना सत्य माना गया है। अनुभव के द्वारा उत्पन्न मानस प्रतिबिम्ब के बीच होती है, यह तुलना
वस्तुत: कौन-सा कथन सत्य है, इसका निर्णय इसी बात पर . दो मानसिक प्रतिबिम्बों के बीच है, न कि तथ्य और कथन के बीच। निर्भर करता है कि उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है या नहीं है। तथ्य और कथन दो भिन्न स्थितियाँ हैं। उनमें कोई तुलना या सत्यापन वस्तुत: जिसे हम सत्यापन या मिथ्यापन कहते हैं, वह भी उस सम्भव नहीं है। शब्द वस्तु के समग्र प्रतिनिधि नहीं, संकेतक हैं और अभिकथन और उसमें वर्णित तथ्य की संवादिता या अनुरूपता पर उनकी यह संकेत सामर्थ्य भी वस्तुत: उनके भाषायी प्रयोग (Convenनिर्भर करता है, जिसे जैन परम्परा में परतः प्रामाण्य कहा जाता है। tion) पर निर्भर करती है। हम वस्तु को कोई नाम दे देते हैं और प्रयोग सामान्यतया यह माना जाता है कि कोई भी कथन कथित तथ्य का के द्वारा उस "नाम" में एक ऐसी सामर्थ्य विकसित हो जाती है कि उस संवादी (अनुरूप) होगा तो वह सत्य होगा और विसंवादी (विपरीत) “नाम'' में श्रवण या पठन से हमारे मानस में एक प्रतिबिम्ब खड़ा हो होगा तो वह असत्य होगा। यद्यपि, वह भी स्पष्ट है कि कोई भी कथन जाता है। यदि उस शब्द के द्वारा प्रत्युत्पन्न वह प्रतिबिम्ब हमारे परवर्ती किसी तथ्य की समग्र अभिव्यक्ति नहीं दे पाता है। जैन दार्शनिकों ने इन्द्रियानुभव से अनुरूपता रखता है, हम उस कथन को -"सत्य" स्पष्ट रूप से यह माना था कि प्रत्येक कथन वस्तु-तत्त्व के सम्बन्ध में कहते हैं। भाषा में अर्थ बोध की सामर्थ्य प्रयोगों के आधार पर विकसित हमें आंशिक जानकारी ही प्रस्तुत करता है। अत: प्रत्येक कथन वस्तु के होती है। वस्तुत: कोई शब्द या कथन अपने आप में न तो सत्य होता सन्दर्भ में आंशिक सत्य का ही प्रतिपादक होगा।यहाँ भाषा की अभिव्यक्ति, है और न असत्य This is a table- यह कथन अंग्रेजी भाषा के
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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
जानकार के लिए सत्य या असत्य हो सकता है, किन्तु हिन्दी भाषा के लिए न तो सत्य है और न असत्य कथन की सत्यता और असत्यता तभी सम्भव होती है, जबकि श्रोता को कोई अर्थ बोध (वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब) होता है, अतः पुनरुक्तियों और परिभाषाओं को छोड़कर कोई भी भाषायी कथन निरपेक्ष रूप से न तो सत्य होता है और न असत्य। किसी भी कथन की सत्यता या असत्यता किसी सन्दर्भ विशेष में ही सम्भव होती है।
जैन दर्शन में कथन की सत्यता का प्रश्न
जैन दार्शनिकों ने भाषा की सत्यता और असत्यता के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया है। प्रज्ञापनासूत्र (पनवन्ना) में सर्वप्रथम भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है। पर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय को पूर्णतः निर्वचन करने की सामर्थ्य है और अपर्याप्त भाषा वह है जिसमे अपने विषय का पूर्णतः निर्वचन, सामर्थ्य नहीं है। अंशतः, सापेक्ष एवं अपूर्ण कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है। तुलनात्मक दृष्टि से परिखात्य परम्परा की गणितीय भाषा टॉटोलाजी एवं परिभाषाएँ पर्याप्त या पूर्ण भाषा के समतुल्य मानी जा सकती है जबकि शेष भाषा व्यवहार अपर्याप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक है सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त भाषा की सत्य और असत्य ऐसी दो कोटियाँ स्थापित कीं। उनके अनुसार अपर्याप्त की दो कोटियाँ होती हैं- (१) सत्य-मृषा (मिश्र) और (२) असत्य अमृषा ।
सत्य भाषा- वे कथन, जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं। कथन और तथ्य की संवादिता या अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है। जैन दार्शनिकों ने पाश्चात्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा, वह उतना ही अधिक सत्य माना जायेगा। यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को उसकी वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों में सत्यता हो सकती है। जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो अपरोक्षानुभूति के विषय ही करते हैं। अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्तर हैं, जिनकी तथ्यात्मक संगति खोज पाना कठिन है। जैनदार्शनिकों ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है। स्थानांग, प्रश्नव्याकरण, प्रज्ञापना, मूलाधार और भगवती आराधना में सत्य के दस भेद बताये गये हैं- १. जनपद सत्य, २. सम्मत सत्य, ३ स्थापना सत्य, ४. नाम सत्य, ५. रूप सत्य, ६. प्रतीत्य सत्य, ७. व्यवहार सत्य, ८. भाव सत्य, ९. योग सत्य, १० उपमा सत्य । अकलंक ने सम्मत सत्य, भाव सत्य और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना सत्य, देश सत्य और काल सत्य का उल्लेख किया है। मूलाचार और भगवती आराधना में योग सत्य के स्थान पर सम्भावना सत्य का
१४३ उल्लेख हुआ है। सत्य के इन दस भेदों का विवेचन इस प्रकार है१. जनपद सत्य - जिस देश में जो भाषा या शब्द व्यवहार प्रचलित हो, उसी के द्वारा वस्तु तत्त्व का संकेत करना जनपद सत्य है। एक जनपद या देश में प्रयुक्त होने वाला वही शब्द दूसरे देश में असत्य हो जावेगा बाईजी शब्द मालवा में माता के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि उत्तर प्रदेश में वेश्या के लिए। अतः बाईजी से माता का अर्थबोध मालव के व्यक्ति के लिए सत्य होगा, किन्तु उत्तर प्रदेश के व्यक्ति के लिए असत्य ।
सम्मत सत्य वस्तु के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग करना सम्मत सत्य है, जैसे- राजा, नृप, भूपति आदि। यद्यपि ये व्युत्पत्ति की दृष्टि से अलग-अलग अर्थों के सूचक है। जनपद-सत्य एवं सम्मत- सत्यप्रयोग सिद्धान्त (Use Theory) से आधारित अर्थबोध से अर्थबोध से सूचक हैं।
३. स्थापना सत्य शतरंज के खेल में प्रयुक्त विभिन्न आकृतियों को राजा, वजीर आदि नामों से सम्बोधित करना स्थापना सत्य है यह संकेतीकरण का सूचक है।
४. नाम सत्य - गुण निरपेक्ष मात्र दिये गये नाम के आधार पर वस्तु का सम्बोधन करना यह नाम सत्य है। एक गरीब व्यक्ति भी नाम से "लक्ष्मीपति" कहा जा सकता है, उसे इस नाम से पुकारना सत्य है। यहाँ भी अर्थबोध संकेतीकरण के द्वारा ही होता है ।
५. रूप सत्य- वेश के आधार पर व्यक्ति को उस नाम से पुकारना रूप सत्य है, चाहे वस्तुतः वह वैसा न हो, जैसे- नाटक में राम का अभिनय करने वाले व्यक्ति को "राम" कहना या साधुवेशधारी को साधु कहना ।
६. प्रतीत्य सत्य - सापेक्षिक कथन अथवा प्रतीति को सत्य मानकर चलना प्रतीत्य सत्य है जैसे अनामिका बड़ी है, मोहन छोटा है आदि। इसी प्रकार आधुनिक खगोल विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी स्थिर है, यह कथन भी प्रतीत्य सत्य है, वस्तुतः सत्य नहीं।
७. व्यवहार- सत्य - व्यवहार में प्रचलित भाषायी प्रयोग व्यवहार सत्य कहे जाते हैं, यद्यपि वस्तुतः वे असत्य होते हैं-घड़ा भरता है, बनारस आ गया, यह सड़क बम्बई जाती है। वस्तुतः घड़ा नहीं पानी भरता है, बनारस नहीं आता, हम बनारस पहुँचते हैं। सड़क स्थिर है वह नहीं जाती है, उस पर चलने वाला जाता है।
८. भाव सत्य- वर्तमान पर्याय में किसी एक गुण की प्रमुखता के आधार पर वस्तु को वैसा कहना भाव सत्य है। जैसे- अंगूर मीठे हैं, यद्यपि उनमें खट्टापन भी रहा हुआ है।
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९. योग सत्य वस्तु के संयोग के आधार पर उसे उस नाम से पुकारना योग सत्य है; जैसे- दण्ड धारण करने वाले को दण्डी कहना या जिस घड़े में घी रखा जाता है उसे घी का घड़ा कहना।
१०. उपमा सत्य- यद्यपि चन्द्रमा और मुख दो भिन्न तथ्य हैं और उनमें समानता भी नहीं है, फिर भी उपमा में ऐसे प्रयोग होते हैं- जैसे चन्द्रमुखी, मृगनयनी आदि । भाषा में इन्हें सत्य माना जाता है।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
वस्तुतः सत्य के इन दस रूपों का सम्बन्ध तथ्यगत सत्यता हों"- इस प्रकार आमंत्रण देनेवाले कथनों की भाषा आमन्त्रणी कही के स्थान पर भाषागत सत्यता से है। कथन-व्यवहार में इन्हें सत्य माना जाती है। ऐसे कथन सत्यसनीय नहीं होते। इसलिए ये सत्य या असत्य जाता है। यद्यपि कथन की सत्यता मूलत: तो उसकी तथ्य से संवादिता की कोटि से परे होते हैं। पर निर्भर करती है। अत: ये सभी केवल व्यावहारिक सत्यता के सूचक हैं, वास्तविक सत्यता के नहीं।
२. आज्ञापनीय जैन दार्शनिकों ने सत्य के साथ-साथ असत्य के स्वरूप पर “दरवाजा बन्द कर दो", "बिजली जला दो", आदि आज्ञाभी विचार किया है। असत्य का अर्थ है कथन का तथ्य से विसंवादी वाचक कथन भी.सत्य या असत्य की कोटि में नहीं आते। एजे० होना या विपरीत होना। प्रश्नव्याकरण में असत्य की काफी विस्तार से एयर प्रभृति आधुनिक तार्किकभाववादी विचारक भी आदेशात्मक भाषा चर्चा है, उनमें असत्य के ३० पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। यहाँ हम को सत्यापनीय नहीं मानते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने समग्र नैतिक उनमें से कुछ की चर्चा तक ही अपने को सीमित रखेंगे।
कथनों के भाषायी विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध किया है कि वे अलीक- जिसका अस्तित्व नहीं है, उसको अस्ति रूप विधि या निषेध रूप में आज्ञासूचक या भावनासूचक ही हैं, इसलिए वे कहना अलीक वचन है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय में न तो सत्य हैं और न तो असत्य। इसे असत्य कहा है।
अपलाप- सद् वस्तु को नास्ति रूप कहना अपलाप है। ३. याचनीय
विपरीत- वस्तु के स्वरूप का भिन्न प्रकार से प्रतिपादन 'यह दो' इस प्रकार की याचना करने वाली भाषा भी सत्य करना विपरीत कथन है।
और असत्य और असत्य की कोटि से परे होती है। एकान्त- ऐसा कथन, जो तथ्य के सम्बन्ध में अपने पक्ष का प्रतिपादन करने के साथ अन्य पक्षों या पहलुओं का अपलाप करता है, ४. प्रच्छनीय वह भी असत्य माना गया है। इसे दुर्नय या मिथ्यात्व कहा गया है।
यह रास्ता कहाँ जाता है? आप मुझे इस पद्य का अर्थ इनके अतिरिक्त हिंसाकारी वचन, कटुवचन, विश्वासघात, बतायें? इस प्रकार के कथनों की भाषा प्रच्छनीय कही जाती है। चूंकि दोषारोपण आदि भी असत्य के ही रूप हैं। प्रज्ञापना में क्रोध, लोभ यह भाषा भी किसी तथ्य का विधि-निषेध नहीं करती है, इसलिए आदि के कारण नि:सृत वचन को तथ्य से संवादी होने पर भी असत्य इसका सत्यापन सम्भव नहीं है। माना गया है।
५. प्रज्ञापनीय अर्थात् उपदेशात्मक भाषा सत्य-मृषा कथन
जैसे चोरी नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, वे कथन जिनका अर्थ उभय कोटिक हो सकता है, सत्य- आदि। चूँकि इस प्रकार के कथन भी तथ्यात्मक विवरण न हो करके मृषा कथन हैं। “अश्वत्थामा मारा गया" यह महाभारत का प्रसिद्ध कथन उपदेशात्मक होते हैं, इसलिए ये सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते। सत्य-मृषा भाषा का उदाहरण है। वक्ता और श्रोता इसके भिन्न-भिन्न आधुनिक भाषा विश्लेषणवादी दार्शनिक नैतिक प्रकथनों का अन्तिम अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। अत: जो कथन दोहरा अर्थ रखते हैं, वे मिन विश्लेषण प्रज्ञापनीय भाषा के रूप में ही करते हैं और इसलिए इसे भाषा के उदाहरण हैं।
सत्यापनीय नहीं मानते हैं, उनके अनुसार वे नैतिक प्रकथन जो बाह्य
रूप से तो तथ्यात्मक प्रतीत होते हैं, लेकिन, वस्तुत: तथ्यात्मक नहीं असत्य-अमृषा कथन
होते; जैसे- चोरी करना बुरा है, उसके अनुसार इस प्रकार के कथनों लोकप्रकाश के तृतीय सर्ग के योगाधिकार में बारह (१२) का अर्थ केवल इतना ही है कि तुम्हें चोरी नहीं करना चाहिए या चोरी प्रकार के कथनों को असत्य-अमृषा कहा गया है। वस्तुत: वे कथन के कार्य को हम पसन्द नहीं करते हैं। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि जिन्हें सत्य या असत्य को कोटि में नहीं रखा जा सकता, असत्य- जो बात आज के भाषा-विश्लेषक दार्शनिक प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे अमषा कहे जाते हैं। जो कथन किसी विधेय का विधान या निषेध नहीं सहस्राधिक वर्ष पूर्व जैन विचारक सूत्र रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। करते, उनका सत्यापन सम्भव नहीं होता है और जैन आचार्यों ने ऐसे आज्ञापनीय और प्रज्ञापनीय भाषा को असत्य-अमृषा कहकर उन्होंने कथनों को असत्य-अमृषा कहा है, जैसे आदेशात्मक कथन। निम्न १२ आधुनिक भाषा-विश्लेषण का द्वार उद्घाटित कर दिया था। प्रकार के कथनों को असत्य अमृषा-कहा गया है
६.प्रत्याख्यानीय १. आमन्त्रणी
किसी प्रार्थी की माँग को अस्वीकार करना प्रत्याख्यानीय "आप हमारे यहां पधारें", 'आप हमारे विवाहोत्सव में सम्मलित भाषा है। जैसे, तुम्हें यहाँ नौकरी नहीं मिलेगी अथवा तुम्हें भिक्षा
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नहीं दी जा सकती।
७. इच्छानुकूलिका
किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाषा है। तुम्हें यह कार्य करना ही चाहिए, इस प्रकार के कार्य को मैं पसन्द करता हूँ। मुझे झूठ बोलना पसन्द नहीं है। आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का एक रूप बताता है, और उसे सत्यापनीय नहीं मानता है।
जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
८. अनभिग्रहीत
ऐसा कथन जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान करता है और न असहमति, अनभिग्रहीत कहलाता है। जैसे, 'जो पसन्द हो, वह कार्य करो”, “जो तुम्हें सुखप्रद हो, वैसा करो" आदि। ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए इन्हें भी असत्य - अमृषा कहा गया है।
९. अभिग्रहीत
किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीत कथन है। जैसे- 'हाँ, तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए ऐसे कथन भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं।
१०. संदेहकारिणी
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जो कथन प्रचर्थक हो या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो, संदेहात्मक
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कहे जाते हैं। जैसे, सैन्धव अच्छा होता है यहाँ वक्ता का यह तात्पर्य स्पष्ट नहीं है कि सैन्धव से नमक अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा। अतः ऐसे कथनों को भी न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य ।
११. व्याकृता
व्याकृता से जैन विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं होता हैं हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना ऐसा हो सकता है। वे कथन, जो किसी तथ्य की परिभाषाएं हैं, इस कोटि में आते हैं। आधुनिक भाववादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो वे पुनरुक्तियाँ हैं जैन विचारकों ने इन्हें भी सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखा है, क्योंकि इनका कोई अपना विधेय नहीं होता है या ये कोई नवीन कथन नहीं करते हैं।
१२. अव्याकृता
वह भाषा जो स्पष्ट रूप से कोई विधि निषेध नहीं करती है, अव्याकृत भाषा है। यह भी स्पष्ट रूप से विधि-निषेध को अभिव्यक्त नहीं करती है। इसलिए यह भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आती है।
आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, याचनीय, पृच्छनीय और प्रशापनीय आदि कथनों को असत्य-अमृषा (असत्यापनीय) माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रकथनों को आज्ञापनीय मानकर उन्हें (असत्यापनीय) माना है जो जैन दर्शन की उपर्युक्त व्याख्या के साथ संगतिपूर्ण है।
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